साहित्य सृजन से राष्ट्र अर्चन

साहित्य सृजन से राष्ट्र अर्चन



राष्ट्र का अर्चन करना चाहते हो


सर्वप्रथम साहित्य का सृजन करें।


साहित्य सृजन की जब बात हो


संस्कार का प्रथम निरूपम करें।


सभ्यता का संरक्षण उसमें रहे


नैतिकता का वहाँ आधार हो,


चरित्र की प्रधानता की बात करें


साहित्य सृजन से राष्ट्र अर्चन करें।


प्रकृति के प्रति सम्मान लिखें


पंच तत्व ज्ञान की बात करें,


दीन दरिद्र के उत्थान का ध्यान हो,


साहित्य में प्रकृति की बात करें।


राष्ट्र प्रथम, धर्म की प्रधानता हो


धर्म की अवधारणा, समानता हो,


साहित्य में जो भी रचें, ससाहित्य हो


राष्ट्र अर्चन की साहित्य में धारणा करें।


वेद संग , विज्ञान की बातें भी कहें


शौर्य की गाथायें, इतिहास भी रचे,


सरहद की हिफाजत, प्रथम लक्ष्य हो


जयचन्दों के खात्मे की बात भी करें।


करता नहीं हो प्यार निज राष्ट्र से जो


देशद्रोही गद्दार है व्यवहार से वो,


रहकर यहाँ जो बात करता पाक की


उसके समापन की बात, साहित्य में करें।


साहित्य जो राष्ट्र हित रच रहे


वेदों का ज्ञान इसमें भर रहे,


लक्ष्य जिनका, सच का आचरण


साहित्य सृजन से राष्ट्र अर्चन कर रहे।


 


कहाँ है किनारा


अभिषेक राज शर्मा



बिरयानी मुफ्त में बंट रही है,


कही शराब कट रही है,


शायरी अदांज बिक जाते है


लोकतंत्र का मजाक उड़ाते


कई दिख जाते है,


जो अंदेशा लेकर मन में


वो सच में बहुत बड़ा है


लोकतंत्र का स्तम्भ


ना जाने कहाँ खड़ा है,


गरीब जनता की बेबसी


बिक रहे है।


बस झूठ और बेईमानी


अब दिख रहे है,


लोकतंत्र का नारा देकर


लोकतंत्र को मारा है


देखना अब चाहेगे


इस दलदल का


कहाँ किनारा है।


 


ये जीवन ढ़लता जाता है।


सुषमा दुबे



ये जीवन ढलता जाता है


कुछ भूली बिसरी यादें हैं, कुछ टूटे फूटे वादे हैं


हमको सिखलाता जाता है, ये जीवन ढ़लता जाता है।


प्यारा-प्यारा एक बचपन था, एक जिम्मेदार जवानी है


कुछ उम्मीदों के सब्जबाग, कुछ सपनों की वीरानी है


गिर-गिर कर रोज सम्हलना है, फिर जुड़ना और बिखरना है


पल-पल बिखराता जाता है, ये जीवन ढुलता जाता है...


कुछ अहसासों के मंजर हैं, कुछ तकलीफों के खंजर हैं।


कभी अहसान परायों के, कभी अपनों में ही अंतर है


कहीं भर देता झोली पूरी, कहीं रह जाती ख्वाहिशें अधूरी


चंद्रकला सा घटता-बढ़ता जाता है, ये जीवन ढ़लता जाता है...


मेरे अहसास न जाने कोई, मन की थाह जा जाने कोई,


बिखरन में भी प्रेम कहीं, कहीं प्रेम में उलझन है कोई


कहीं महफिलों के दौर सुहाने, कहीं मौत भी रोये विराने में


वक़्त गुजरता जाता है, ये जीवन ढ़लता जाता है...


बरसातों से हैरान है कोई, अश्क भी सूखे किसी नैनो के


जिससे जुड़े दिल के तार, वहीं न समझे मन की थाह


कहीं सुगंध को तरस गए, कहीं दे देता केसर कस्तूरी


तड़पन में भी मुस्काता जाता है, ये जीवन ढ़लता जाता है...