शौर्य और संस्कृति के प्रतिमान हैं : भारतीय दुर्ग

शुक्रनीति के अनुसार राज्य के सात अंग माने गये हैं जिनमें दुर्ग भी एक हैं। दुर्ग से न केवल राजा की सुरक्षा होती थी अपितु प्रजाजनों एवं कोष की भी रक्षा होती थी। यही कारण है कि दुर्ग निर्माण की कहानी भी उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव सभ्यता। दुर्ग, किला, गढ़ और कोट मात्र ईंट-पत्थरों से बने विशाल राजप्रसाद अथवा स्थापत्य के ही आश्चर्य नहीं हैं अपितु वे एक सुस्थिर विशाल राज्य की शक्ति, रणचातुर्य और समर-स्थापत्य के प्रतीक प्रतिमान भी रहे। हैं। पौराणिक काल से ही शक्ति प्रदर्शन के लिए पुरों का निर्माण होता रहा है।



आज के विकसित वैज्ञानिक उपादानों के काल में भले ही दुर्गों का महत्त्व कम हो गया हो, किन्तु एक समय था जब वे शासक की शक्ति के पर्याय माने जाते थे। जिस शासक का दुर्ग जितना सुदृढ़ होता था वह शत्रुओं से उतना ही अधिक सुरक्षित माना जाता थामनुस्मृति में दुर्ग के इसी महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए कहा गया है कि दुर्ग में बैठा नृपति उसी तरह अपने शत्रुओं से सुरक्षित है जैसे घर में बंधा हिरण एक व्याघ्र से। शुक्रनीति के अनुसार राज्य के सात शुक्रनीति के अनुसार राज्य के सात अंग माने गये हैं जिनमें दुर्ग भी एक है। दुर्ग से न केवल राजा की सुरक्षा होती थी, अपितु प्रजाजनों एवं कोष की भी रक्षा होती थीयही कारण है कि दुर्ग निर्माण की कहानी भी उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव सभ्यता। दुर्ग, किला, गढ़ और कोट मात्र ईंट-पत्थरों से बने विशाल राजप्रसाद अथवा स्थापत्य के ही आश्चर्य नहीं हैं अपितु वे एक सुस्थिर विशाल राज्य की शक्ति, रणचातुर्य और समर-स्थापत्य के प्रतीक प्रतिमान भी रहे हैं। यही कारण है कि पौराणिक काल से ही शक्ति प्रदर्शन के लिए पुरों का निर्माण होता रहा है।


किसी भी प्रदेश की प्राकृतिक एवं भौगोलिक स्थिति उपलब्ध सामग्री और शत्रु आक्रमणों से जूझने की परिवेशगत स्थिति को ध्यान में रखकर दुर्ग स्थापत्य को कई श्रेणियों में विभक्त किया गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि राजा धन्वदुर्ग, महीदुर्ग, जलदुर्ग व गिरिदुर्ग का आश्रय कर नगर में निवास करें। उल्लेखनीय है कि धन्वदुर्ग कम से कम बीस कोस तक पानी से रहित रेतीली भूमि युक्त स्थान पर होता है। जबकि महीदुर्ग ईट-पत्थर आदि से निर्मित होता है। जलदुर्ग चारों ओर के अगाध जल से भरा हुआ होता है और वृक्षदुर्ग कम से कम चार कोस तक सघन बड़े वृक्षों, कंटीली झाड़ियों, लताओं और नदी नालों से घिरा होता है। इसी प्रकार गिरि दुर्ग अत्यधिक कठिनाई से चढ़ने योग्य तथा अधिक संकीर्ण मार्ग होने के कारण दुर्गम्य नदियों, झरनों और पहाड़ों से युक्त होता है।


शुक्रनीति में दुर्गों को नौ श्रेणियों में शुक्रनीति में दुर्गों को नौ श्रेणियों विभक्त किया गया है। ये श्रेणियां हैं - एरणदुर्ग, पारिखदुर्ग, वनदुर्ग, धन्वदुर्ग, जलदुर्ग, गिरिदुर्ग, सैन्यदुर्ग, पारिधदुर्ग तथा सहायदुर्ग। जिस दुर्ग का मार्ग कांटो और पत्थरों से परिपूर्ण होने के कारण दुर्गम हो वह एरण दुर्ग और जिसके चारों तरफ बहुत बड़ी खाई हो वह पारिखदुर्ग कहलाता है। जिस दुर्ग के चारों तरफ ईट-पत्थर तथा मिट्टी से बनी बड़ी-बड़ी दीवारों का परकोटा हो वह पारिध दुर्ग की श्रेणी में आता है जबकि जिसके चारों तरफ बड़े-बड़े कांटेदार वृक्ष हों उसे वन दुर्ग और चारों तरफ रेतीली भूमि से घिरे दुर्ग को धन्वदुर्ग कहते हैं। इसी प्रकार चारों तरफ अथाह जलराशि से घिरे दुर्ग को जल दुर्ग और पहाड़ी पर बने किले को गिरि दुर्ग कहते हैं। जबकि रणबांकुरों की व्यूह रचना से युक्त दुर्ग को सैन्यदुर्ग और शूरवीरों के अनुकूल रहने वाले लोगों से युक्त दुर्ग को सहायदुर्ग कहते हैं।


चाणक्यकृत अर्थशास्त्र में दुर्ग के चार भेद बताये गये है - औदक, पार्वत, धान्वन और वनदुर्ग। इन दुगों में से नदी दुर्ग और पर्वत दुर्ग आपत्ति के समय में जनपद की रक्षा के स्थान होते हैंजबकि धान्वनदुर्ग तथा वन दुर्ग आटिविकों की रक्षा के लिए उपयुक्त होते हैंचाणक्य ने दुर्ग की दीवार, दरवाजे, चारों तरफ खाई, दुर्ग में महल आदि के स्थापत्य एवं रक्षात्मक उपायों का विस्तार से विवेचन किया है।


दुर्गों को राज्य शक्ति और सामरिक व्यवस्था ने जन्म दिया है। भारत में विभिन्न पर्वत श्रृंखला पर जहां-जहां राज्य व्यवस्था कायम हुई है, वहां-वहां इनकी चौटियों पर दुर्ग बनते गये। पर्वत घाटी की किंचित ऊंचाईयों को सामरिक दृष्टि से सुरक्षित मानकर दुर्गों का निर्माण कराया गया और फिर राज्य के सामर्थ्य अनुसार इनके स्थापत्य और विस्तार का गुणात्मक विकास होता गया। ये दुर्ग सामरिक महत्व के भण्डार गृह और शासन व राज्य के शीर्ष प्रशासकों के आवास भी बन गये जिससे इनमें स्थापत्य की बारीकियां जुड़ती गयीं। इन दुर्गों के अन्दर और नीचे ही फिर नगर बस गये जो आज नगरीय सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक हैं।


इन दुर्गों में ना केवल भारत देश का एक लम्बा इतिहास छिपा है अपितु मातृभूमि और अपनी आन-बान की रक्षा करने वाले शूरवीरों की शौर्य गाथायें भी छिपी हुई हैं। अनेक बलिदान गाथाओं के प्रेरक प्रसंग और राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक कथाएँ इन दुर्गों के इतिहास से जुड़ी हुई हैंजो आज भी जन-मन को रोमांचित करती है ।


काल के थपेड़ो ने आज इन दुर्गों को जर्जर अवस्था में ला दिया है। राज्य की शक्ति के प्रतीक आज ये दुर्ग धीरे-धीरे खण्डहर होते जा रहे हैं लेकिन इनमें छिपा इतिहास और इनका स्थापत्य तथा इनके प्रकार पर्यटकों को उनकी जिज्ञासाओं के लिए अपनी ओर आकर्षित करता है। वर्षों तक राज्य शक्ति और राज्य व्यवस्था को संरक्षण देने वाले ये दुर्ग आज अपने अस्तित्व के संरक्षण का मोहताज है। वर्षों से उपेक्षित ये दुर्ग अब केवल पर्यटकों के कौतूहल के विषय मात्र रह गये हैं। राजसम्राटों एवं साम्राज्ञियों के दर्प से दैदिप्यमान इन राजप्रसादों को काल की कालिमा ने घेर लिया हैइनका वैभव अब खण्ड-खण्ड होकर खण्डहरों में परिवर्तित हो गया है।


परन्तु अब कुछ वर्षों से समय चक्र बदला है और भारत के इतिहास तथा सभ्यता की विरासत के प्रतीक इन दुर्गों को हैरीटेज होटल्स और सांस्कृतिक पर्यटन केन्द्र के रूप में बदला जाने लगा है। पुरातन में नूतन का समावेश हुआ है। इतिहास में नयी सज्जा की बनावट हो रही है। इससे न केवल इनका संरक्षण ही संभव होगा अपितु ये अब बड़ी आय और रोजगार के स्त्रोत भी बन सकेंगे।


ये दुर्ग न केवल सामरिक स्थापत्य के जीवन्त दस्तावेज हैं अपितु शौर्य और बलिदान की विरासत भी हैं, जिनमें हमारे हजारों वर्षों की सभ्यता और संस्कृति संरक्षण लिखी हुई है। अतः हम सबका दायित्व हैकि हम इनका संरक्षण कर न केवल इनके मूल स्वरूप को अक्षुण्य रखें अपितु जन- मानस में भी इस सांस्कृतिक सम्पदा के संरक्षण एवं इन्हें जानने की चेतना उत्पन्न करें।


जब मानव, सभ्यता के सोपान से चढ़ता हुआ गुफा से बाहर निकल कर मैदान में आया और घर-नगर बसने के साथ जब राज्य शक्ति का उदय हुआ तो अस्तित्व का संकट और भी गहरा गया। इसी अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करना शुरू हुआ, युद्ध होने लगे और सुरक्षा के लिए दुर्गों के निर्माण की परम्परा ने जन्म लिया। इसी परम्परा में भारत में जब दुर्ग निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तो अनेक राज्य भी इसमें पीछे नहीं रहे और यहां अनेक स्थानों पर सुदृढ़ दुर्गों की नींव रखी गई।


शौर्य और पराक्रम के भारत देश में अनेक युद्ध लड़े गये। रणोन्मत रणबांकुरों ने केसरिया बाना पहनकर अनेकों बार दुश्मन को परास्त कर अपना लोहा मनवायायदि हम दुर्गों की संख्या की दृष्टि से विचार करें तो देश की तत्कालीन हर रियासत, ठिकाणे और जागीरों में हैसियत के अनुसार दुर्गों का निर्माण किया गया।


“दी कोर' का यह अंक इस बार भारत के इन्हीं दुर्गों की गौरवशाली परम्परा पर केन्द्रित किया गया है जहां से हमारे पूर्वजों की शौर्यमयी गाथायें और हमारी गौरवशाली संस्कृति के प्रतिमान जुड़े हैं।


(लेखक 'दी कोर के कार्यकारी सम्पादक एवं इतिहासकार हैं और 'महाराणा कुम्भा इतिहास अलंकरण' से सम्मानित भी हैं।)1