वर्तमान और भविष्य : चुनार-दुर्ग

चुनार-दुर्ग के निर्माण सम्बन्धी कोई ठोस ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। संभवतः मूल दुर्ग क निर्माण प्राचीन काल में हुआ है और समय-समय पर इसके शासकोने अपनी आवश्यकता के अनुसार दुर्ग में निर्माण कार्य करवाया। चुनार-दुर्ग के वर्तमान ढांचे को शेरशाह सूर की देन माना जाता है। यही कारण नहीं मिलता है। बाबर ने अपनी आत्मकथा में इस दुर्ग का वर्णन किया। हुमायूँ और शेरशाह का चुनार-दुर्ग में संघर्षइतिहास-प्रसिद्ध है। अबुल फज्लने आईने अकबरी में चुनार-दुर्ग का वर्णन किया है।


वर्तमान उत्तर प्रदेश में स्थित दुर्गों में चुनार-दुर्ग का विशेष महत्व है। यह वर्तमान मिर्जापुर जनपद में स्थित हैऔर जनपद मुख्यालय से लगभग 32 कि.मी. पूर्व की ओर गंगातट पर (257 उत्तरी अक्षांस एवं 80°55' पूर्वी देशान्तर) स्थित है। सुप्रसिद्ध वाराणसी नगर से यह दुर्ग लगभग 42 कि.मी. दूर है। इसी दुर्ग से गंगा नदी पूर्वाभिमुख से उत्तराभिमुख होती है। चुनार-दुर्ग विंध्य पहाड़ी पर 4*1.5 वर्ग कि.मी. में फैला है। इसकी लम्बाई 800 मीटर, चौड़ाई 300 मीटर तथा ऊँचाई 80 से लेकर 175 मीटर तक है। दुर्ग के परकोटे की दीवार 2 मीटर चौड़ी है। दुर्ग में प्रवेश के लिये दो द्वार बने हुये है जिन्हें पूर्वी तथा पश्चिमी द्वार कहा जाता है किन्तु मुख्य द्वार पूर्वी द्वार ही है। इसी द्वार से प्रवेश करने पर सिंह द्वार मिलता है और इसे पार करने के उपरान्त दर्शक भीतर पहुँच जाते हैं।


दीनानाथ दुबे का विचार है कि चुनार है कि चुनार का दुर्ग यद्यपि मूलतः नादेय दुर्ग है किन्तु इसमें गिरि, वन, वारि आदि दुर्गों की विशेषतायें एवं लक्षण का सम्मिलित स्वरूप हैइस दुर्ग को दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्पर्श करती हुई गंगा नदी बहती है और पूरब की ओर स्थानीय जरगो नदी बहती है। ये नदियाँ दुर्ग को दोनों और से घेरे हुए हैं। यही कारण है कि इस दुर्ग को परिखा की आवश्यकता नहीं पड़ी। इन नदियों के बीच ही विंध्य की एक ऊँची एवं कटि श्रृंखला पर दुर्ग का निर्माण कराया गया है।



लोक एवं कथा साहित्य में चुनार-दुर्ग चरणाद्रिगढ़, सुनसुमानगढ़, नैनागढ़, चांडालगढ़, पत्थरगढ़, चन्देलगढ़ के नाम से भी जाना जाता है। प्रत्येक नाम के पीछे एक कहानी भी प्रचलित है। प्रसिद्ध साहित्यकार देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास 'चन्द्रकांता', 'चन्द्रकांता संतति' एवं 'भूतनाथ' में वर्णित चुनारगढ़ एवं नौगढ़ के किस्से काफी चर्चित हैं। जनश्रुतियाँ, तिलस्मी कथा एवं दुर्ग में अवस्थित भवनों और उनके नामकरण से यह चर्चित है कि इस दुर्ग का निर्माण उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने कराया था। अवन्ति नरेश भर्तृहरि की समाधि इसी दुर्ग में पश्चिम द्वार के समीप सोनवा मंडप के पास स्थित है। कुछ लोगों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण बंगाल के पाल शासकों ने कराया था।


चुनार-दुर्ग के निर्माण सम्बन्धी कोई ठोस ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। संभवतः मूल दुर्ग क निर्माण प्राचीन काल में हुआ है और समय-समय पर इसके शासकों ने अपनी आवश्यकता के अनुसार दुर्ग में निर्माण कार्य करवाया। चुनार-दुर्ग के वर्तमान ढांचे को शेरशाह सूर की देन माना जाता है। यही कारण है कि सोलहवीं शताब्दी के पूर्व इस दुर्ग का कोई उल्लेख ऐतिहासिक ग्रंथों में नहीं मिलता है। बाबर ने अपनी आत्मकथा में इस दुर्ग का वर्णन किया। हुमायूँ और शेरशाह का चुनार-दुर्ग में संघर्ष इतिहास-प्रसिद्ध है। अबुल फज्ल ने 'आईने अकबरी' में चुनार-दुर्ग का वर्णन किया है।


अंग्रेजों के शासनकाल में भी इस दुर्ग में कुछ परिवर्तन किये गये। दुर्ग में स्थित एक भवन का नाम ही हेस्टिंग्स हाऊस है। इसी हेस्टिंग्स हाऊस के पास एक धूप घड़ी है जिसे अंग्रेज गवर्नर जैम्स एनवर द्वारा लगवाया था। कालान्तर में अंग्रेजों ने इस दुर्ग का उपयोग बन्दीगृह के रूप में किया। दुर्ग का कुछ भाग अंग्रेजों ने अपने ऐशोआराम के लिये भी किया।



चुनार-दुर्ग के पूर्वीद्वार पर मिर्जापुर के तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर डब्ल्यू बी. काटन द्वारा 26 अप्रैल 1924 को इस दुर्ग के शासकों से सम्बन्धित एक सफेद संगमरमर का शिलालेख लगवाया। इसे पुरातत्व विभाग ने भी मान्यता दे रखी है। दर्शक दुर्ग में प्रवेश करते ही इस शिलालेख को देखकर इस दुर्ग के शासकों का इतिहास जान पाते हैं, जो निम्न है : 1. उज्जैन के विक्रमादित्य-56 ईसवी पूर्व 2. पृथ्वीराज राय पिथौरा-1141-91 3. शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी-1194 4. स्वामी राजा-1333 5. मोहम्मद शाह जौनपुर-1445 6. सिंकदर द्वितीय (लोदी)-1512 7. बाबर-1529 8. शेरशाह सूरी-1530 9. हुमायूँ-1536 10. शेरशाह सूरी-1536 11. इस्लाम शाह-1545-52 12. अकबर-1575 13. मिर्जामुकीम (मंसूर खान सफदरजंग) : 1750 (अवध के नवाब) 14. अंग्रेज-1765 15. शुजाउद्दौला (नवाब अवध)-1765 16. अंग्रेज-1772 17. वारेन हेस्टिंग्स-1781


मैं विद्वत समाज का ध्यान इस शिलालेख की त्रुटियों की और आकर्षित करना चाहता हूँ। यद्यपि इस शिलालेख में चुनार-दुर्ग के अनेक शासकों के नाम नहीं है तथापि इस शिलालेख की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक त्रुटि यह है कि इसमें पृथ्वीराज चौहान को इस दुर्ग का शासक बताया गया है। समकालीन गाहड़वाल शासकों के अधीन था। अभिलेखीय स्रोतों से प्रमाणित होता है कि गोविंद चन्द्र गाहड़वाल (1114-1154 ई.) और उसके उत्तराधिकारियों का इस क्षेत्र पर आधिपत्य था। निश्चित रूप से मुहम्मद गोरी द्वारा चन्दवार युद्ध (1194 ई.) में जयचन्द्र को पराजित करने के उपरान्त ही गहड़वालों से यह दुर्ग अधिकृत किया गया था। फारसी ग्रंथों में भी जयचन्द को कन्नौज तथा बनारस का राजा लिखा गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पृथ्वीराज चौहान इस दुर्ग का कभी शासक नहीं था। इस ऐतिहासिक त्रुटि को संशोधित किया जाना चाहिए अन्यथा इतिहास के शोधार्थियों एवं पर्यटकों को पृथ्वीराज चौहान की काल्पनिक महानता के बारे में भले ही आभास हो किन्तु यह इतिहास का दुरूपयोग ही कहा जायेगा।


अन्त में विद्वत् समाज का ध्यान एक अन्य बिन्दु की और भी आकर्षित कराना चाहता हूँ कि चुनार-दुर्ग के पश्चिमी द्वार पर अंकित मानचित्र में 76 दर्शनीय स्थलों को दर्शाया गया है। जिसमें से अनेक ऐतिहासिक स्थल भी है। किन्तु इनमें से अनेक स्थल पर प्रान्तीय सशस्त्र रक्षक दल (पी.ए.सी.) का आधिपत्य है और उन्हें विभिन्न प्रकार के उपयोग में लाया जा रहा है। इनमें से अनेक स्थल शोधार्थियों और पर्यटकों के लिये प्रतिबन्धित है।