आचार-संस्कार अतिथि देवो भव

आतिथ्य-सत्कार की परम्परा भारतीय धर्म का मूलाधार मानी गयी है। वेद वाक्यों में वर्णित है-अतिथि देवो भव। हमारी संस्कृति की यह परम्परा मानवीय गुणों की परिचायक भी है। भारतीय संस्कृति एवं संस्कार में अतिथि सेवा को महत्त्वपूर्ण माना है। यह अतिथि से अभिप्राय है। वह अव्यक्त मूर्ति जो समाज का एक प्रतिनिधि है तैत्तिरीय उपनिषद में आतिथ्य-सत्कार को व्रत की उपमा दी गयी है। भारतीय संस्कृति एवं संस्कार के अतिरिक्त विश्व में कही भी ऐसी उदात्त भावना और सभ्यता परिलक्षित नही होती ।



महाभारत में महात्मा विदुर अतिथिरूप में सज्जन के आतिथ्य की व्याख्या-धीर पुरुष को जब कोई सज्जन घर पधारें तो आसन देकर उसकी कुशलता पूछ कर यथा भोजन कराना चाहिए। वेदव्यास जी ने अतिथि-यज्ञ की व्याख्या में कहा, अतिथि को प्रेम भरी दृष्टि से देखें और मधुर वाणी प्रदान करें। यथा स्थिति भोजन, आचार-व्यवहार का पालन कर जब वह प्रस्थान करें तब कुछ पग उसके साथ जाएँ।


मनुस्मृति में कहा गया है, जो बिना तिथि के अनाहूत हो उसे अतिथि की संज्ञा प्रदान की है। हमारे शास्त्रों में अतिथि सेवा के कई दृष्टांत मिलते है। ब्रह्यपुराण का एक प्रसंग है कि गोदावरी के कपोततीर्थ से जुड़ा है। जिसमें एक कपोत ने स्वेच्छा से अपने प्राण देकर व्याध की क्षुधा शांत की। महर्षि दधीचि का आतिथ्य सत्कार अतुलनीय है। इन्द्र को व्रज निर्माण के लिए अपनी अस्थियों का दान कर दिया। अतिथिसत्कार से यश, आयु तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है।


शास्त्रों में वर्णित है-अतिथि संस्कार में राजा रन्तिदेव का उद्धरण श्रेष्ठ माना गया है। रन्तिदेव के द्वारा स्वयं भूखे रहकर अतिथि-सत्कार के संस्कार का निर्वाह ऐसा आदर्श है जो भारतीय संस्कृति के साथ सदियों से जुड़ा हैउनचासवें दिन अतिथि स्वरूप में आये भद्र पुरुषों को भोजन कराने के पश्चात रन्तिदेव का परिवार भूखा रह गया। केवल जल ग्रहण से संतोष करने वाले रन्तिदेव के पास चाण्डाल रूप में आये श्रीहरि को जल डे देने के पश्चात आहार के लिए कुछ भी नही था। महाभारत के वनपर्व में वर्णित हैकि अग्निदेव को जितना संतोष हविष्य का हवन करने तथा पुष्प, चन्दन चढाने से नही होता, उतना किसी अतिथि को भोजन कराने से होता है। उल्लेखित मिलता है की अतिथि की सेवा, भोजन, आवास हेतु प्रयत्न करने वालों को कभी यमद्वार नही देखना पड़ता हैमयार्दा पुरुषोत्तम ने अतिथि के रूप में आये विभीषण को गले लगाया।


सन्त तिरुवल्लूर कहते है कि जो मानव अतिथि का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करता है, उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करता है। इसीलिए शास्त्र में यथा दृश्मातृदेवो भव ए पितृदेवो भव एआचार्यदेवो भव एअतिथिदेवो भव द्यश् प्रमाणिकरण प्रेषित रचना पौराणिक एवं शास्त्र कथाओं पर आधारित है।