आचरण और बोलचाल के संस्कार

कई बार सहज ही प्रश्न खडा हो जाता है कि संस्कार शब्द का अर्थ क्या होता है, तथा इसकी क्या आवश्यकता पड़ती है? संस्कार शब्द की व्याख्या थोड़ी सी गढ़ है। इस शब्द का अर्थ भी बहुत व्यापक है और इसके पहलू भी अनेक होते हैं, इसलिए इसे किसी संक्षिप्त व्याख्या द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकताफिर भी समाज तथा व्यक्ति के गुणों को उच्च से उच्चतर बनाने की परिपाटी को, साधारण अर्थों में, संस्कार कहा जा सकता है। संस्कार, व्यक्ति तथा समाज के उन्नयन से सीधा संबंध रखते हैं। एक तो ये समाज को एकरूपी, लक्ष्यपरक, जीवंत तथा गतिशील बनाए रखते हैं, तो दूसरी तरफ ये व्यक्ति को मानवीय गुणों से परिपूर्ण, उत्तम आचरण वाला तथा सभ्य बनाने का प्रयास करते हैं। संगठित तथा कुठारहित समाज के निर्माण में संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कार, व्यक्ति तथा समाज के भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नयन में भी बहुत सहयोगी होते हैं। संस्कार और संस्कृति विहीन व्यक्ति पशु के समान माना जाता है। सुस्कृत और व्यवहारकुशल व्यक्ति, सभ्य समाज की इकाई होता है। संस्कारों की महत्ता को देखते हुए दुनियाँ भर के आध्यात्मिक महापुरुषों ने अनेक नैतिक तथा धार्मिक नियमों का निर्माण कर लोगों को उसका पालन करने के लिए प्रेरित किया। भारत की सनातन परंपरा में भी व्यक्ति तथा समाज के अनुशीलन के लिए हजारों की संख्या में नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक विधि-विधानों, परंपराओं तथा नियमों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन भारत के धार्मिक ग्रंथों में 16 से लेकर 40 संस्कारों का वर्णन मिलता है। ये व्यक्ति के जन्मपूर्व से लेकर मृत्यु तक के विभिन्न प्रमुख पड़ावों पर किए जाने वाले अनुष्ठानों पर प्रकाश डालते हैं। इनमें भी 16 संस्कारों को मुख्य माना जाता है और इन्ही का अधिक जिक्र सुनने को मिलता है। इस अंक में इन पर बहुत से लेख हैं। परन्तु इनके अलावा भी कई बातें आवश्यक मानी जाती हैं, जो संस्कार के दायरे में ही आती हैं, प्रस्तुत लेख को इन्हीं पर केन्द्रित किया गया है।



युक्ति-युक्त सद्व्यवहार की सार्वजनिक जीवन में बड़ी महत्ता होती है। बिना लक्ष्य निर्धारित किए तथा बगैर सोचे-समझे किया गया लोक व्यवहार दुखदाई तथा विपरीत परिणाम देने वाला होता है। बुद्धिमान व्यक्ति से मर्यादित, सुसंस्कृत, सभ्य तथा जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। व्यक्ति के जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब उसे सामान्य से हटकर तथा अधिक जिम्मेदारी भरा व्यवहार करना होता है। यथा- परिवार के साथ व्यवहार। परिचितों के साथ व्यवहार। अपरिचितों के साथ व्यवहार। खुशी के अवसर पर। विपरीत परिस्थितियों में। दुख के अवसर पर। शोक के अवसर पर। सार्वजनिक स्थलों पर व्यवहार। सरकारी कार्यालयों में व्यवहार। किसी के सहयोग मांगने पर। किसी के द्वारा अनैतिक दबाव डालने या धमकाने पर। उत्तरकर्ता होने की दशा में प्रश्नकर्ता होने की दशा में। परिचितों के साथ। यात्राओं के समय। अंधविश्वास, पाखंड, सामाजिक कुरीतियों तथा आडंबरों के चक्कर में न पड़ना तथा इनका यथासंभव विरोध करना। संस्कार व्यक्ति को विवेकशील बनाते हैं, जिससे व्यक्ति को यह स्पष्ट रहता है कि किस अवसर पर खुद को कैसे पेश करना है, जिससे लक्ष्य भी हासिल हो जाए और कोई नकारात्मक बात या पक्ष भी सामने न आए। उठने-बैठने, खाने-पीने, बातचीतव्यवहार, शिष्टाचार, आचरण, बड़े-छोटे, मित्रों के साथ व्यवहार कुशलता, परिजनों की देखभाल तथा वृद्धों की सेवा, सभ्य शारीरिक हाव-भाव, कपड़े ओढ़ने-पहनने का ढंग तथा देशकाल के अनुकूल आदतें भी संस्कारों के दायरे में ही आते हैं। 


इसलिए उपरोक्त पस्थितियों में सफलता हासिल करने के लिए मननशील लोगों ने अनेक नियमों की रचना की है। इन नियमों को हर नई पीढ़ी में पहुँचाना आवश्यक होता है। यह कार्य नैतिक शिक्षा के माध्यम से किया जाता है। ये अच्छी आदतों के विकास में सहयोगी होती है। नैतिक शिक्षा नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाने का ही दूसरा रूप मानी जा सकती है। दुर्भाग्य से आधुनिक परिवेश में नैतिक शिक्षा से पोषित संस्कारों का तेजी से विलोप हो रहा है। खासकर वर्तमान पीढ़ी में संस्कार एवं सामाजिक मूल्यों में भारी कमी देखने को मिल रही हैं। संस्कारों की कमी से कुछ घटनाएं तो बहुत ज्यादा देखने-सुनने को मिल रही हैं जैसे- नशीले पदार्थों का सेवन, बातचीत में फूहड़, अश्लील तथा अभद्र भाषा का प्रयोग, बुरी संगत में बैठना, माता-पिता की सेवा न करना खासकर वृद्धावस्था में, वृद्धावस्था में परिजनों को अपने साथ रखने से बचने की प्रवृति, संपत्ति हड़पने के लिए बेईमान हो जाना, जरुरतमंदों की सहायता न करना, लाचार-अपंगों का उपहास करना, कमजोरों पर जोर आजमाइश करना या उनसे बिना वजह झगडना, बिना मेहनत किए धनवान होने का प्रयास करना, लाटरी एवं चमत्कारों पर विश्वास करना, अभद्र भेष-भूषा पहनना, प्राकर्तिक धूप और जलवायु से दूर होना, प्रोसेस्ड भोज्य पदार्थो का अत्यधिक सेवन, प्रकृति विरूद्ध जीवन-शैली, धन तथा सम्मान वृद्धि के लिए झूठ-कपट का सहारा लेना या शेखी बघारना, किसी के सुख या दुख की घड़ी में विपरीत तथा नकारात्मक टिप्पणी करना, परपीड़ा सुख का आदि होना, पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो अथवा बेवजह किसी के धन, आयु, स्वास्थ या सम्मान को कम करने का प्रयास करना, उम्र के विपरीत आचरण करना, बोल-चाल की तहजीब न होना आदि। संस्कारों की कमी सेस्वार्थ, व्यक्तिवाद, लड़ाई-झगड़े, फसाद, मुकदमें, हत्याएं, परिजनों के बीच दूरियाँ और इन जैसे अवांछित क्रियाकलापों की संख्या बढ़ जाती है, तथा सामाजिक एकता में गिरावट देखने को मिलती है।


संस्कारवान होना थोड़ा कठिन काम है, इसलिए प्रायः लोग संस्कारवान दिखने का ढोंग करते हैं। इंसान की अच्छी वेशभूषा तथा बाहरी स्वरूप का बड़ा प्रभाव माना जाता है। कई देशों में कहावत है, कि व्यक्ति की पहचान उसके जूतों की कीमत से लगाई जा सकती है। ऐसी बातों से प्ररित हो लोग चमक-धमक से रहने का प्रयास करते हैं, और संस्कार पर बड़ी- बड़ी बातें करते हैं। परन्तु किसी की वास्तविक पहचान उसकी विचार शैली, आदतों तथा अच्छे संस्कारों से ही पता चल सकती है। नैतिक शिक्षा तथा सभ्य आचरण, जब तक व्यक्ति की आदत में शामिल न हो जाएं तब तक वह व्यक्ति संस्कारवान कहलाने के योग्य नहीं माना जाता। इस संबंध में एक अरब देश की कहानी गौरतलब है।


आचरण के संस्कार 


आचरण के संस्कार एक व्यक्ति बादशाह के दरबार में नौकरी करने की इच्छा से पहुँचा। बादशाह ने उससे उसकी काबलियत पूछीव्यक्ति ने कहा, मै 'सियासी हूँ। (बुद्धि का प्रयोग कर समस्या दूर करने वाले को अरबी में सियासी कहते हैं।) उसकी बात सुनकर बादशाह ने उसे अपने घोड़ों के अस्तबल का मुखिया बना दिया।


कुछ दिनों के बाद बादशाह ने अपने सबसे महंगे और प्रिय घोड़े की नस्ल के बारे में उसकी राय जाननी चाही। उसने कहा, कि यह घोड़ा दिखता भले ही बढ़िया हो पर अच्छी नस्ल का नहीं हैं'बादशाह को ताज्जुब हुआ। जिससे घोड़ा खरीदा गया था उसको बुलाकर इस बारे में पूछा गया। उसने बताया, घोड़ा नस्ली हैं, लेकिन इसकी पैदायश पर इसकी मां मर गई थी, ये एक गाय का दूध पी कर उसके साथ पला है। बादशाह ने अपने घोड़ों के प्रभारी को बुलाया और पूछा तुमको कैसे पता चला कि घोड़ा नस्ली नहीं हैं?' उसने कहा 'ये घोड़ा सर नीचे करके घास खाता है, जबकि नस्ली घोड़ा घास मुँह में लेकर सर उठा लेता हैं।' बादशाह उसकी बारीक नजर और विश्लेषण से बहुत प्रभावित हुआ, और ईनाम में अनाज, घी, भुने दुबे, और आला परिंदों का गोश्त भिजवाया। साथ ही साथ पद बढ़ाते हुए अपनी बेगम के महल का सुरक्षा प्रभारी बना दिया।


कुछ समय बाद, बादशाह ने उस सियासी से अपनी बेगम के बारे में राय मांगी, तो उसने कहा, 'तौर-तरीके तो रानी जैसे हैं लेकिन आपकी बेगम किसी राजा के खानदान की नहीं है। यह सुन बादशाह सन्न रह गया। सच्चाई जानने के लिए बादशाह ने अपनी सास को बुलाया, मामला पता लगने पर सास ने कहा 'हकीकत ये हैं, कि आपके पिता जी ने मेरे पति से, हमारी एक बेटी के जन्म के समय ही उसे अपनी पुत्रवधु बनाने की कसम ले ली थी, परन्तु वह बालिका 6 माह बाद ही मर गई। हमें आपकी बादशाहत से करीबी ताल्लुकात बनाने का लालच सूझा, और हमने एक अनाथ बच्ची को अपनी बेटी बना लिया।' बादशाह ने उस सियासी से पूछा 'बेगम की सच्चाई का आभास तुम्हें कैसे हुआ?' उसने कहा, 'नौकरो के प्रति आपकी बेगम का व्यवहार जाहिलों से भी बदतर हैं। एक खानदानी इंसान का दूसरों से व्यवहार करने की एक तरीका एक संस्कृति होती हैं, जो बेगम में बिल्कुल नहीं है।' बादशाह उसकी बुद्धिमानी से पुनः खुश हुआ और बतौर ईनाम बहुत सा अनाज तथा भेड़-बकरियां उसे दी। साथ ही अपने दरबार मे उच्च पद दे दिया। कुछ समय बाद बादशाह को सियासी से, अपने बारे में जानने की इच्छा हुई। सियासी ने बादशाह से कहा मेरी राय जानकर कहीं आप जान तो न ले लेगें? इस पर बादशाह ने सियासी को अभयदान दे दिया। सियासी ने कहा, 'न तो आप शाहजादे हो और न ही आपका सोच बादशाहों वाली है।' यह सुनकर बादशाह को बहुत गुस्सा आया, मगर कोई नुकसान न करने का वचन दे चुका थासच्चाई को जानने के लिए बादशाह ने अपनी माँ से पूछा, तो उसने बताया कि 'सियासी की बात सच है, हमारी कोई औलाद नहीं थी तो एक चरवाहे से तुम्हे लेकर हमने पाला है।' बादशाह सियासी की समझ पर बहुत हैरान हुआ और उसे बुलाकर पूछा कि तुमने इस बात का अनुमान कैसे लगाया? सियासी ने कहा 'बादशाह जब किसी को इनाम दिया करते हैं, तो हीरे-मोती, तथा जवाहरात की शक्ल में देते हैं। लेकिन आप भेड़, बकरियां और खाने-पीने की चीजें दिया करते हैं। ये लक्षण शहजादे के नहीं, किसी चरवाहे के बेटे के ही हो सकते हैं। उस सियासी व्यक्ति कहा कि इंसान की धनदौलत, सुख, समृद्धि, रुतबा, ऐश्वर्य, बाहुबल केवल बाहरी मुल्लम्मा होता हैं। इंसान की असलियत, उसके उसके व्यवहार, और उसकी नियत से ही तय होती हैं । जो इंसान आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से बहुत शक्तिशाली होने पर भी छोटी-छोटी चीजों के लिए नियत खराब कर लेता हैं, इंसाफ और सच की कदर नहीं करता, अपने पर उपकार और विश्वास करने वालों के साथ दगाबाजी कर देता हैं, या अपने तुच्छ फायदे और स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरे इंसान को बड़ा नुकसान पहुंचाने की लिए तैयार हो जाता हैं, तो समझ लीजिए, कि उसके चरित्र की कोई कीमत नही है, वह केवल पीतल पर चढ़े, सोने के मुलम्मा जैसा हैं।


बोलचाल के संस्कार 


सैकड़ों संस्कारों में बोलचाल का संस्कार अत्यधिक महत्वपूर्ण पाया गया है। चमत्कारों दैवीय शक्तियों तथा प्रबल बाहुबल के बाद सबसे अधिक प्रभावशाली शक्ति वाणी की मानी गई है। अपवाद को छोड़ दिया जाए तो जीवन में सफलता के लिए बातचीत करने के ढंग का सम्यक् होना अनिवार्य होता हैभारतीय समाज में लड़ाई-झगड़े, मारपीट जैसे लगभग 30 प्रतिशत मुकदमों और अपराधों के पीछे घमण्ड, गाली-गलौज तथा कटाक्ष भरी बातचीत होती है। सच बात को भी इस प्रकार नहीं बोलना चाहिए कि वह किसी के मन को ठेस पहुंचाए। अंधे का पुत्र भी अंधा'। पाँच शब्दों के इस छोटे से वाक्य ने महाभारत करवा दी थी। अनेक लोग बातचीत में बिना मतलब गालियाँ ढूंस देते। हैं। जिससे अन्य सुनने वालों के अवचेतन मन में कुंठा और बदले की भावना जागृत हो जाती है। घर से दूर होने पर आपके बोलने का ढंग ही आपका सबसे बड़ा सहयोगी-शुभचिंतक होता है। शब्दों की शक्ति तलवार की शक्ति से बड़ी बताई गई। है। मात्र सममोहक बातचीत से ही विश्व में अनेक लोग महान व्यक्तित्व बन गए। इंसान पाँच साल की उम्र में ही बोलना सीख जाता है, परंतु अधिकांश लोग जिंदगी भर यह नहीं जान पाते कि कौन सा शब्द, किस भाव से, किस समय, बोला जाए। अनावश्यक कटु वचन तथा अभद्र भाषा बोलने से, अपने भी पराए हो जाते हैं, तथा मधुर और सम्मानदायक भाषा बोलने से अपरिचित भी घनिष्ट और विश्वस्त सहयोगी बन जाते हैं। दुर्घटना में हुआ घाव भर जाता है, परंतु शब्दों के बाण से हुआ घाव ताउम्र कभी नहीं भरता।


शब्द संभाल कर बोलिए,


शब्द के हाथ ना पाँव,


एक शब्द है औषधि,


एक शब्द है घाव।


बोलचाल के लिए लखनवी तहजीब बहुत प्रसिद्ध रही है, यहाँ के एक शायर ने लिखा है कि -


सख्ती नहीं पसंद है, खुदा को बयान में, हड्डी नहीं बनाई, इसीलिए जुबान में। इसी प्रकार एक शायर ने कहा है -


बाअदब, बानसीब। बेअदब, बेनसीब। वाणी की महत्ता पर कबीरदास जी ने कहा है कि


वाणी ऐसी बोलिए मन का आपा खोय, औरों को शीतल करे आपहु शीतल होय।


अरे, ऐ, अबे, क्यों रे, क्यों बे, सुन बे, सुन रे, तू, तेरा, तूने, तुझे, रे, इधर आ, भाग ले जैसे शब्द भारतीय समाज में खूब प्रचलित हैं। सभ्य संसार में ये सम्बोधन किसी छोटी-मोटी गाली से कम नही माने जाते। घमंड के वशीभूत होकर बातचीत करना भी अत्यधिक नुकसानदायक होता है। उच्च कोटि की वातार्ताप शैली में सही शब्दों के साथ-साथ उच्चारण का ढंग और भाव भी सकारात्मक होना चाहिए। इंसान की बोलचाल और अच्छा आचरण ही उसका बड़प्पन तय करता है। इसी सम्बंध में एक लोक कथा भी सुनने को मिलती है


एक बार सूरदास जी किसी निर्जन रास्ते पर बैठे थे। तभी उधर से एक व्यक्ति आया और उसने सूरदास जी से पूछा कि क्यों रे अंधे, क्या कोई आदमी यहाँ से भागते हुए गुजरा है? सूरदास जी ने कहा कि हाँ, एक घुड़सवार व्यक्ति बहुत तेजी से उधर गया है। यह सुन कर पूछने वाला भी उस दिशा में चला गया। कुछ समय बाद कुछ घुड़सवार लोग वहाँ पहुंचे और उन्होंने सूरदास जी से कहा ऐ सूरदास, क्या कोई व्यक्ति इस रास्ते से भागता हुआ गया है? सूरदास जी ने कहा जी, सेनापति जी अभी कुछ समय पहले एक व्यक्ति भागता हुआ यहाँ से गुजरा था। उसके थोड़ी देर बाद एक सैनिक भी उसका पीछा करते हुए यहां गुजरा है। यह बात सुनकर वे लोग भी उस तरफ चले गए। कुछ समय बाद सूरदास जी के पास वहाँ के राजा पहुँचे। उन्होंने कहा कि सूरदास जी, क्या कोई व्यक्ति इस रास्ते से भागते हुए गया है? सूरदास जी ने उत्तर दिया कि, जी श्रीमान महाराज, पहले एक व्यक्ति यहाँ से दौड़ता हुआ गया। उसे ढूंढता हुआ एक सैनिक मेरे पास आया था और मुझसे जानकारी लेने के बाद वह भी उधर चला गया। उसके बाद आपके सेनापति किसी को ढूंढते हुए मेरे पास आए, और मुझसे जानकारी लेने के बाद वह भी इस तरफ चले गए हैं और उसके बाद अब स्वयं महाराज आप आए हैं। राजा साहब ने सूरदास जी से पूछा कि आपको यह कैसे पता लगा कि कौन सैनिक था, कौन सेनापति? और आपने यह कैसे जाना कि मैं कोई राजा हूँ। क्या आप देख भी सकते हैं, मै तो आपको नेत्रहीन समझ रहा था। सूरदास जी ने कहा कि वास्तव में मुझे कुछ भी नही दिखाई देता। आपका सैनिक जब मेरे पास आया था तो उसने मुझे तिरष्कार भाव से क्यों रे अंधे' कहकर सम्बोधित किया था, जब आपके सेनापति आए तो उन्होंने मुझे अधिकार भाव से 'ऐ सूरदास कहकर सम्बोधित किया था। उसके बाद आप आए और आपने मुझे सम्मान भाव से 'सूरदास जी' कहकर सम्बोधित किया। बोलने वाले व्यक्ति के स्तर का पता उसके शब्द भाषा तथा भावों से चल जाता है। जो लोग महान तथा उच्च स्तर के होते हैं, वे निर्धन से निर्धन तथा कमजोर से कमजोर व्यक्ति में भी ईश्वर का अंश देखते हैं और उसी के अनुसार बातचीत-व्यवहार करते हैं। जिसका स्वयं कोई सम्मान या स्तर नहीं होता, वह दूसरों के साथ भी निम्न स्तर की वाणी से बातचीत करता है। इन्हीं बातों के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि आप श्रीमान महाराज है।


आधुनिकता के मौजूदा दौर में समाज के अधिकांश लोगों ने संस्कारों का कठोरता से पालन करना छोड़ दिया है, जिससे अनेक विकृतियाँ देखने को मिल रही हैं। संस्कारों के उद्देश्यों की तार्किकता धूमिल होने के कारण भी इसमें कमी आई है। इसलिए आज समय की आवश्यकता हैकि संस्कारों की समयानुकूलता को देशकाल तथा तार्किकता के आलोक में विश्लेषक कर इनकी धार तेज की जाए। आजादी से पूर्व स्वामी रामतीर्थ द्वारा लिखी गई पुस्तक 'जीने की कला' इस प्रकार के संस्कारों का बहुत ही सरल तथा प्रभावशाली वर्णन करती है। यह इस विषय पर बहुत ही उत्कृष्ट पुस्तक है, इसमें विस्तार से बताया गया है कि विभिन्न अवसरों पर संस्कारवान तरीके से कैसे पेश आया जाए। संस्कार प्रिय व्यक्तियों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।