आयुर्वेद का संक्षिप्त दर्शन आयुर्वेद (स्वास्थ्य का ग्रन्थ)

आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेदः अर्थात जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते है।इस शास्त्र के आचार्य अश्विनी कुमार माने जाते हैं। जिन्होंने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का शिर जोड़ दिया था। अश्विनी कुमारों से यह विद्या इन्द्र ने ली थी। इन्द्र ने धनवन्तरि को बतायी। काशी के राजा दिवोदास धनवन्तरि के अवतार माने जाते है। सुश्रुत ने उनसे आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भरद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते है।



ईश्वर ने सभी प्राणियों के कल्याण के लिए प्रकृति का निर्माण किया। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा था 'प्रकृति पुरुषं चैव विद्ववनादी उभावपि'' अर्थात “प्रकृति और पुरुष दोनों को टू अनादि जान।'' प्रकृति वनस्पतियों आती हैंऔर इन वनस्पतियों से बना आयुर्वेद अर्थात आयुर्वेद प्राकृतिक चिकित्सा का एक मुख्य अंग है।


इसी लिए आयुर्वेद (आयु-वेद) आयु को बढ़ाने वाली प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली है। आयुर्वेद का उपवेद भी कहा जाता है। आयुर्वेद में विज्ञान कला एवं दर्शन का अभूतपूर्व मिश्रण है। आयुर्वेद के विषय में कहा गया है


हिताहितं सुखं दुखमायुस्तस्य हिताहितम्।


मानं च तच्च यत्रोक्तया यर्वेदः स उच्चते।।


चरक सहिता 1/40


अर्थात ''जिस ग्रन्थ में हित आयु सुख आयु एवं दुख आयु का वर्णन है। उसे आयुर्वेद कहते है।''


किसी ने लिखा है कि आयुर्वेदयति वोधयति इति आयुर्वेदः अर्थात जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते है।


इस शास्त्र के आचार्य अश्विनी कुमार माने जाते हैं। जिन्होंने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का शिर जोड़ दिया थाअश्विनी कुमारों से यह विद्या इन्द्र ने ली थी। इन्द्र ने धनवन्तरि को बतायी। काशी के राजा दिवोदास धनवन्तरि के अवतार माने जाते है। सुश्रुत ने उनसे आयुर्वेद पढ़ाअत्रि और भरद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते है।


आयुर्वेद को आगे बढ़ाने वाले आचार्य, आयुवेर्दाचार्य मुख रूप से अश्विनी कुमार धनवन्तरि दिवोदास, नकुल सहदेव, चर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावालि, अगस्त, अत्रि और (इनके छः शिष्य अग्निवेश, भेड़, जात कर्ण पराशर, सीरपाणि, हरीत) सुश्रुत और चरक माने जाते है। आगे चलकर समय बदला, युग बदला एवं आयुर्वेद धीरे लुप्त होने लगा। आजकल आयुर्वेद का पुर्नउत्थान होना शुरू हुआ है।


आयुर्वेद का उद्देश्यः आयुर्वेद के मुख्य दो उद्देश्य बताए गए है।


1. स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षाः । इसमें अपने शरीर, एवं प्रकृति के अनुकूल ऋतु अनुसार, समय अनुसार सुधानुसार उचित अनुपात में आहार लेना। अपनी दिनचर्या सही रखना, नियम समय से शौच, स्नान, शयन, जागरण व्यायाम करना। अपने शरीर, मन, बुद्धि की शुद्धि करना। सात्विक, पाचक, शाकाहारी भोजन करना आदि नियमों से सभी के स्वास्थ्य की रक्षा करना ही आयुर्वेद का उद्देश्य है।


2. रोगी के रोग को दूर करके उन्हें स्वस्थ करनाः आयुर्वेद रोगी कारणों को जानकर रोगी की अवस्था ऋतु रोग की व्यापकता देखकर दवा दी जाती है एवं आयुर्वेद में परहेज की बहुत आवश्यकता होती है। आयुर्वेद रोग को जड़ से ठीक करके शरीर को यथावत करता है।


आयुर्वेद में (वात, कफ, पित्त) त्रिदोष निवारणः आयुर्वेद में वात, कफ, पित्त का त्रिदोष सिद्धान्त होता है। जब तक इन त्रिदोषों में उचित अनुपात रहता है तो व्यक्ति स्वस्थ रहता है। अनुपात बिगड़ने से व्यक्ति रोग को प्राप्त होता है।


1. वातः वात में सूखा सर्दी, प्रकाश का प्रभाव मुख्य विशेषता होती है। इसमें गढ़िया वात, पेर फूलना भी विशेषता है। प्राण वात, समान वात, उवास वात, अपान वात, व्यान वात आदि वात के प्रकार आते है।


2. पित्तः पित्त का स्वभाव गर्म होता है। यह पेट, आनाशय, स्पलीन, हृदय, आँखों में त्वचा पाया जाता है। यह पाँच प्रकार का होता हैसाधक, भ्राजक, रंजक, लोचक, तथा पाचक।


3. कफः यह पानी तत्व है। इसमें सर्दी, कोमलता, सुस्ती, सेहम, तथा पोषक तत्वो की विशेषता है। यह भी पाँच प्रकार के होते है। क्लेदन कफ, अलम्बन कफ, श्लेष्मन रसन, तथा स्नेहन कफ।


आयुर्वेद के आठ अंग


आयुर्वेद में आठ अंग होते है1. काया चिकित्सा, 2. ब्लड मास मत्र्य (शिष्यु चिकित्सा), 3. सुल्य तन्त्र (सर्जरी), 4. सलाक्य तन्त्र (कान, आँख, नाक मुख चिकित्सा), 5. भूत विद्या (भूत प्रेत से जुड़ी बाते), 6. अगद तन्त्र (बिष विज्ञान), 7. रसायन (विटामिन, ताकत), 8. बाजीकरण तन्त्र (वीर्य, यौन सुख चिकित्सा)


आयुर्वेद में पंचकर्म चिकित्सा


आयुर्वेद में शरीर का कायाकल्प करने के लिए पंच कर्म चिकित्सा की जाती है। इससे व्यक्ति रोग मुक्त होता है।


1. वमन (उल्टी करना), 2. विरेचन (अस्थमा सोरायसिस, मधुमेह, से जुड़े क्लीनीकल परीक्षण), 3. वस्ती (अनीमा देकर पेट की आतें साफ करना), 4, नास्य (नाक के द्वारा दवा डालना), 5. अनुवासन वस्ती


आयुर्वेद की श्रेष्ठता


आयुर्वेद शरीर विज्ञान पर आधारित हजारों ऋषियों मुनियों की मेहनत, लगन, तथा अनुभव की अनूठी धरोहर है। यह तन, मन, बुद्धि की चिकित्सा है। इसमें कैमीकलों का प्रयोग नहीं किया जाता है अतः इसमें साइड इफेक्टस नहीं होते है। यह चिकित्सा बीमारियों को जड़ से उखाड़ फेकती है। इस चिकित्सा में थोड़ा समय जरूर लगता है। आज के युग में जहाँ बीमारियों की भरमार हो गयी है आयुर्वेद चिकित्सा की अत्यन्त आवश्यकता बन गयी है।


आयुर्वेद चिकित्सा का वर्गीकरण


आयुर्वेद चिकित्सा का वर्गीकरण दो भागों में किया जा सकता है।


1. शोधन चिकित्साः शोधन चिकित्सा में शरीर में व्याप्त दूषित तत्वों को शरीर से बाहर निकालते हैइस प्रक्रिया को अपनाने के लिए वमन, विरेचन, बस्ति तथा नस्य क्रियाओं को प्रयोग करते है।


2. शमन चिकित्साः इस चिकित्सा में शरीर के दोषों। रोगों को दूर किया जाता है तथा शरीर को स्वस्थ करके सामान्य अवस्था में लाते हैं। जैसे कि दीपन, पाचन, उपवास आदि।


यह दोनों चिकित्सा रोगी की शारीरिक, मानसिक शान्ति के लिए उपयोग की जाती है। रोगी का कारण, पहिले का उपचार तथा क्या टैस्ट कराए यह बहुत महत्त्व रखता है। दूसरा औषधि का अच्छा ज्ञान औषधि देने का तरीका चिकित्सा के लिए आवश्यक होता है तभी रोगी को स्वस्थ कर सकते है।


आयुर्वेद चिकित्सा के लाभः आज के युग में जहाँ एलोपैथी दवाइयो के दुष्प्रभाव से लोग ऊब चुके है ऐसी अवस्था में आयुर्वेद को अपनाना लोगों के लिए आवश्यक हो गया है क्योकिः


1. आयुर्वेद चिकित्सा से रोगी की शारीरिक मानसिक दशा में सुधार होता है।


2. आयुर्वेद दवाओं में साइड इफैक्ट नहीं है।


3. जीर्ण रोगों में आयुर्वेद अत्यन्त लाभकारी तथा प्रभावकारी है।


4. यह रोगों को जड़ से ठीक करता है।


5. यह रोगों को रोकने में कामयाब है।


6. खान-पान, रहन-सहन एवं परहेज के सरल परिवर्तन से रोगों को दूर करता है मरीज को स्वस्थ बनाता है ।


7. आयुर्वेद स्वस्थ लोगों के लिए भी लाभदायक है। आयुर्वेद मानव के लिए ईश्वर प्रदत्त वरदान है। अतः आयुर्वेद अपनाएँ एवं स्वस्थ रहे।


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।


सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद भाग्वेत।