भारत ‘नर’ को ‘नारायण' बनाने की क्षमता से परिपूर्ण है, क्योंकि यहाँ 'संस्कार' नामक धर्मानुष्ठान उपलब्ध हैं

संस्कार जीवन को कंचन बनाते हैं, अतः सभी संस्कारों को यथा समय करना ही चाहिए। संस्कार ही है वो जल की एक फुहारी बँद सम जो मानव को महाअर्णव तक पहुँचाते हैं। भारत 'नर' को 'नारायण' बनाने की क्षमता से परिपूर्ण है, क्योंकि यहाँ 'संस्कार' नामक धर्मानुष्ठान उपलब्ध हैं। कोई अस्त्र-शस्त्र बना कर भले ही गर्व का अनुभव करे पर भारत तो ब्रह्लव होने की क्षमता प्रदान कराता है। सम्पूर्ण जगत ब्रह्म से ही तो है। महाभारतकाल के उपरान्त की संस्कृति और इतिहास की विकृति का मार्जन व शोधन पिछले काल खण्ड में हुआ है, पिछले काल खण्ड में हुआ है, उसका द्रुतगामीकरण पिछली शताब्दी में हुआ है। संस्कृति और इतिहास के पुरोधाओं को कितना स्थान व सम्मान मिला है, यह गुह्य नहीं है। ज्ञान का सम्मान तब है, जब पूर्व ज्ञान में नवीन ज्ञान कड़ीबद्ध हो। अपना ज्ञान विस्मरण करा जा सकता है? 



पढ़ लिख कर किसी विषय को समझना और सीखना आता है, गौरवशाली अतीत को सहेजना हैया उसको नकारना, तितर-बितर करना, कुतर्क करना, आना चाहिए? हमारी 'सांस्कृतिक सम्पदा संरक्षण की अधिकारिणी है या वह इतिहास संरक्षण का अधिकारी है। जिसमें भारत को नतमस्तक आक्रताओं द्वारा पद दलित किया गया। वह इतिहास व संस्कृति हम अपनी पीढ़ियों को सौपते रहेंगे? हमारे इतिहास और संस्कृति का उज्जवल पक्ष पाठ्यक्रम में होना चाहिए या कुछ भी कूड़ा-कचरा, यह विचारणीय है या कि नहीं? संस्कार मानव जीव के अदृश्य से दृश्य और अदृश्य होने के उपरान्त भी संचालित किये जाते हैं। क्या यह कोरा ढकोसला है या प्रज्ञा चक्षु ऋषियों का शोध निष्कर्ष? हिन्दुस्तान या इंडिया में साक्षरता भले ही बढ़ रही है, पर भारत तिमिराच्छादित होता जा रहा है। ऋषि चेतना 'ब्राह्मणवाद' है या 'पौंगा पन्थी' है, यह निष्कर्ष आज के साक्षर तर्कज्ञ निकाल देते हैं। वैदिक ज्ञान और शोध की परम्परा के लिए धन का अभाव है; आयातित ज्ञान में ही कल्याण निहित है? महाभारतकाल के उपरान्त की संस्कृति और इतिहास की विकृति का मार्जन व शोधन पिछले काल खण्ड में हुआ है, उसका द्रुतगामीकरण पिछली शताब्दी में हुआ है। संस्कृति और इतिहास के पुरोधाओं को कितना स्थान व सम्मान मिला है, यह गुह्य नहीं है। ज्ञान का सम्मान तब है, जब पूर्व ज्ञान में नवीन ज्ञान कड़ीबद्ध हो। अपना ज्ञान विस्मरण करा जा सकता है? तभी तो गीता कहती है''स्वधर्मम् निधनम् श्रेय'' यहाँ धर्म को जीवन के विविध पक्षों में देखने की आवश्यकता है 'रसैव जीवन' है तो 'धमुँव' 'यशैव' भी तो जीवन ही है। भोजन यज्ञ में यदि प्रतिकूलता हो जाय तो परिणाम तत्काल दिखाई देता है। संस्कार धर्म यज्ञ ही तो है, यज्ञ के समान कोई दाता भी नहीं, तो यज्ञ के समान कोई रिपु भी नहीं, जब यज्ञ अविधि और अकुशलता से हो। प्रजापति यज्ञ से ही सृष्टि करते हैं और सन्तति को यज्ञ करने का ही आदेश देते हैं। संस्कार से ही याज्ञिक हुआ जा सकता है, यज्ञ से ही कल्याण होता है, जीवन के सम्पूर्ण यज्ञों को कुशलतापूर्वक सम्पादित करनाचाहिए। किसी भी यज्ञ की अज्ञानता घातक होती है। सद संस्कार जीवन को कंचन बनाते हैं, अतः सभी संस्कारों को यथा समय करना ही चाहिएसंस्कार ही है वो जल की एक फुहारी बँद सम जो मानव को महाअर्णव तक पहुँचाते हैं। भारत 'नर' को 'नारायण' बनाने की क्षमता से परिपूर्ण है, क्योंकि यहाँ 'संस्कार' नामक धर्मानुष्ठान उपलब्ध हैं। कोई अस्त्र-शस्त्र बना कर भले ही गर्व का अनुभव करे पर भारत तो तो ब्रह्मैव होने की क्षमता प्रदान कराता है। सम्पूर्ण जगत ब्रह्म से ही तो है।


मैंने अपने लेख के आरम्भ में कहा कि भारत तिमिराच्छादित होता जा रहा है। यह सच है क्योंकि हम अपना ज्ञान भूल रहे हैं। संस्कार दोष परिमार्जन गुणाधन औश्र हीनांगपूर्ति के लिए हैं। जब यही कार्य नहीं होगा तब अन्य जीवों और मनुष्यों (भारतीयों) कि क्रियाओं में अन्तर क्याहोगा? गर्भाधन पंसवन सीमोनतोन्नयन होगा? गर्भाधन पुंसवन सीमोनतोन्नयन जातकर्म संस्कार तो लुप्त हो चुके हैं। तो जहाँ प्रथम ग्रासे मच्छिका निपातम् हो वहाँ शुभ शुभ की आशा? गर्भिणी की मनोभाव भूमि किस वातावरण में रमण कर रही हैयह कहने की आवश्यकता नहीं। गर्भस्थ भ्रूण पुत्र के रूप में विकसित हो इसके लिए ही तो पुंसवन संस्कार किया जाता था। सीमन्तोन्नयन संस्कार गर्भिणी के प्रसन्नता गर्भस्थ शिशु दीर्घ आयु की कामना के साथ परिवारीजनों के शुभाशीष से सम्पन्न होता था।


जातकर्म संस्कार का उद्देश्य गर्भावस्था के आहारशुद्धि के लिए किया जाता था तथा यह भी दृष्टिकोण था कि जन्म के बाद शिशु के दिये जाने वाला आहार स्तनपान कर, वह सवर्ण की भाँति कान्तिवान, प्रस्तर की भाँति कठोर व लोहे की भाँति धारदार बने। आज संस्कारों का आरम्भ नामकरण संस्कार के साथ होता है। जो वैभव प्रदर्शन का रूप ले चुका है। भारतीय दृष्टिकोण और परम्परा लुप्त हो गयी है। नाम निरर्थक शब्द ध्वनियों का समूह होता जा रहा है, नाम का महत्व और महत्वा आज के बुद्धिविलासियों के लिए कुछ भी नहीं है। शायरों के उपनामों की भांति कवियों के भी हो गये हैं। उपनाम रखने की परम्परा भारतीय नहीं है।


निष्क्रमण संस्कार का तो मायने ही बदल गया है। बालक को घर से बाहर ले जाना तथा पंचमहाभूतों का पूजन आदि किया जाना अपना स्वरूप खो चुका है। अब बालक का निष्क्रमण नहीं गृह प्रवेश संस्कार होता हैक्योंकि उसका जन्म ही अस्पताल आदि में होता है ।


अन्नप्राशन संस्कार हविष्यान्न से उचित समय पर नहीं होता। बाजारी खाद्य पदार्थ शिशु को पहले ही दे दिये जाते हैं। कर्णवेध और चूड़ाकरण से बालक की प्राकृतिक सुन्दरता समाप्त होती है। कान में छेद हो जाता, चोटी से बेचुट्टों में वह अलग दिखाई देता हैचोटी को ऐन्टीना कहा जाता है मजाक बनाया जाता है।


भूम्युपवेशन संस्कार तब होता था जब बालक अपने आप बैठना सीख जाता थाइस संस्कार को भगवान वराह और पृथ्वी के मन्दिर में किया जाता था। इस संस्कार से बालक के भविष्य का अनुमान किया जाता था कि वह क्या बन सकता है? उसकी आजीविका का माध्यम क्या होगा? उसी प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता था।


संस्कारों को सम्पन्न करने के लिए समय के साथ स्थान का भी विशेष महत्व है- गभार्धान, पुंसवन, सीमोन्तोन्नयन, जातकर्म, अन्नप्राशन्न आदि संस्कार गृह में ही सम्पन्न होते थे। वहीं निष्क्रमण, कणवेध और चूड़ाकरण आदि किसी देव स्थान, नदी तट, गौशाला में सम्पन्न किये जाते थे। उपनयन गुरू गृह (पाठशाला), विवाह मण्डप में तथा अन्तिम संस्कार श्मशान में होता था।


संस्कार के सन्दर्भ में एक और बात है, यह सत्संग से प्राप्त होते हैं। सत्संग के लिए सज्जनों या धर्मनिष्ठों का सामीप्य होना आवश्यक है। भारत में तीर्थ स्थान धर्म और संस्कृति के प्रधान केन्द्र रहे हैं। तीर्थों में निवास करने वाला जनमानस अधिक शास्त्रनिष्ठ माना जाता है। तीर्थ स्थान पर संस्कारों का सम्पन्न करने का प्रधान स्थान है। आज लोग अपने विवाह संस्कार को सम्पन्न करने के लिए बड़े-बड़े होटल रिसोर्ट में जाते हैं। जबकि लोग जीवन कहता है


अरे छोरा चलि ले चलि सोरों घाट रे


अरे छोरा चलि ले चलि गंगा घाट रे


वहाँ पे डारें दोनों भाँवरे जी को भुला दिया गया।