संस्कारों के प्रतिपादक तत्व अथवा विधायक अङ्ग

संस्कारों को सम्पन्न करने-कराने का मूल स्वरूप कैसा रहा होगा? किस प्रकार वह सम्पूर्ण विधि सम्पन्न होती होगी- यह प्रारम्भिक रूप जानने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि सूत्रों और स्मृतियों में संस्कार पूरे विधि विधान के साथ उपस्थित है। उन वर्णित विधियों को देख समझ कर यह निश्चय करना कठिन नहीं है कि प्रत्येक संस्कार को करते समय कुछ तत्व आवश्यक थे। वर्तमान समय में एक दो को छोड़कर बाकी सारे संस्कार लुप्तप्राय हैं किन्तु जो भी संस्कार सम्पन्न हो रहे हैं उनमें विधायक तत्त्व सभी वे ही है जो आज से दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ करते थे। संक्षेपतः ये तत्त्व/ अंग इस प्रकार है



अग्नि-प्रत्येक संस्कार में अग्नि सबसे अधिक आवश्यक और स्थायी तत्त्व है। अग्नि की साक्षी में ही हर संस्कार सम्पन्न होता है। किसी भी संस्कार के प्रारम्भ में ही अग्नि प्रज्वलित कर दी जाती है। ऋग्वेद के समय से ही अग्नि को गृहपति/गृहदेवता का स्थान मिला, जो देवताओं और मनुष्यों के मध्य की कड़ी है। मनुष्य जिस देवता के निमित्त विसामग्री को अग्नि में डालता है, अग्नि उस हवि को धूम्र रूप में सम्बद्ध देवता तक पहुँचा देती है। अग्नि अपनी तीव्र ज्वालाओं से वातावरण को शुद्ध करके व्यक्ति को अमंगल, रोग और संकट से बचाती है। यह कारण है कि प्रत्येक संस्कार में अग्नि प्रदीप्त करके उसकी स्तुति की जाती है।


स्तुति एवं प्रार्थना-हर संस्कार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ईशस्तुति एवं प्रार्थना। घर परिवार की रक्षा के लिए, सम्पन्नता और सुख के लिए तथा अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की जाती है। पवित्र गायत्री मन्त्र भी सूर्याराधन की प्रार्थना ही तो है। प्रत्येक संस्कार के समय भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रार्थनाएँ की जाती हैं। पुंसवन संस्कार में पुरुष और उपनयन संस्कार में उत्तम बुद्धि, पवित्र आचरण और ब्रह्मचर्य पालन करने की प्रार्थनाएँ है। विवाह संस्कार की तो हर विधि में भिन्न-भिन्न प्रार्थनाएँ है। सप्तपदी के सात वचन, ध्रुवदर्शन, लाजाहोम सभी में विभिन्न प्रार्थनाएँ ही की गई है। देवों की प्रार्थना करने का विशिष्ट कारण भी था। जनसामान्य में यह विश्वास बद्धमूल था कि जीवन के हर अवसर, हर समय और हर पूजा/संस्कार का कोई न कोई अधिष्ठाता देव है। उस समय या उस पूजा/संस्कार के अवसर पर उस अधिष्ठाता देव का आवाहन अवश्य होना चाहिए। देवता के आवाहन में उसकी प्रार्थना स्वतः ही सम्मिलित होती है। ऐसी प्रार्थना अनिष्ट का निवारण भी करती है और उस विशिष्ट देवता का आशीर्वाद भी प्राप्त कराती है। अतः स्तुति और प्रार्थना संस्कार का विधायक अंग है


आशीर्वाद- प्रत्येक संस्कार में परिवार के वृद्धजनों, गुरुजनों, ब्राह्मणों आदि से नम्रतापूर्वक आशीर्वाद अवश्य लिया जाता है। प्रार्थना में स्वहित निहित होता है किन्तु आशीर्वाद में दूसरों के कल्याण का भाव होता है। प्रार्थना में अपनी कोई विशिष्ट इच्छा की पूर्ति की याचना होती है किन्तु आशीर्वाद तो निष्कपट हृदय से निकली पर हित की कामना है। यह अवान्तर तथ्य है कि पिता द्वारा पुत्र को, पति के द्वारा पत्नी को दिए गए आशीर्वाद से स्वहित भी सम्पन्न होता है। फिर भी यह सत्य है कि आशीर्वाद के शब्द व्यक्ति के जीवन में शुभ का आवाहन अवश्य करते हैं। 


यज्ञ- यज्ञ में देवताओं के लिए अभीष्ट हवि डाल कर अग्नि के द्वारा देवों तक उस उपहार को पहुँचा दिया जाता है। होम/यज्ञ प्रत्येक संस्कार का अभिन्न अंग है। यह यज्ञ संस्कार के प्रारम्भ में अथवा पूरे संस्कार के समय में किया जा सकता है। सामान्य जीवन में प्रतिदिन हम देखते हैं कि किसी भी व्यक्ति को उपहार देने से वह प्रसन्न हो जाता है और हमारा इच्छित कार्य करने को तत्पर हो जाता है। यज्ञ में भी जब विशिष्ट देवों को हवि सामग्री की आहुति देते हैं, तो यही अभिप्राय निहित होता है कि वे देव प्रसन्न हो और हमारे संकट दूर करके हमें इच्छित वस्तु प्रदान करें। यह इच्छा धन, सम्पत्ति, स्वास्थ, दीर्घायु, यश, सन्तति आदि किसी से भी सम्बद्ध हो सकती है। व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर अन्त्येष्टि संस्कार तक में होम करके मृतात्मा के उपकार की कामना देवों से की जाती है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सिद्ध हो चुका है। कि वातावरण की दुर्गन्ध और रोगाणुओं को यज्ञ धूम नष्ट कर देता है जिससे स्वतः ही आरोग्य एवं स्वास्थ्यवर्धन होता है। यज्ञ में किए जाने वाले मन्त्रोच्चारण से परिवेश भी पवित्र और आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हो जाता है। संस्कार में यज्ञ/होम की इस अनिवार्यता के कारण अनेक गृह्यसूत्रों में होम का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। अभिषेक अथवा अभिषिञ्चन- अभिषेक का सामान्य अर्थ है-शिर से स्नान करना अथवा मस्तक पर जल छिड़कना। मानव तो क्या प्राणिमात्र के जीवन में जल कितना अनिवार्य है- यह बताने की आवश्यकता नहीं है। स्नान से स्फूर्ति आती है, शरीर का मल दूर होता है, तथा पाप नष्ट होकर पवित्रता का अनुभव होता है। शरीर के छोटे-मोटे चर्मगत रोग भी शुद्ध और शीतल अथवा गर्म जल से स्नान करने पर दूर हो जाते हैं। आचमन करना अथवा जल छिड़कना भी आंशिक स्नान है। स्नान न कर सकने की विवशता या स्थिति में आचमन या पानी छिड़कना भी स्नान का ही प्रतीक है और उसी से शुद्धि मान ली जाती है। यह शुद्धि सभी संस्कारों की अनिवार्य और व्यापक विशेषता है। केवल व्यक्ति या व्यक्तियों पर ही नहीं अपितु समस्त संस्कार सामग्री को भी जल छिड़क कर पवित्र कर लिया जाता है। हर संस्कार के साथ स्नान अनिवार्यतया सम्बद्ध है। विद्यार्थी जीवन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार में विद्यार्थी स्नान करके ही स्नातक बनता था, जो समाज में परम सम्माननीय होता था। स्नान से शुद्धि का यह भाव इतना अधिक प्रबल है कि दाह के लिए ले जाने से पूर्व मृत शरीर को भी स्नान कराया जाता है।


विशिष्ट दिशा- निर्देश- संस्कार के समय दिशाओं का ध्यान रखकर कार्य करना भी एक अनिवार्य अंग है। पुराणों ने विविध दिशाओं के भिन्न-भिन्न देवता वर्णित किए थे। इस विचारधारा ने भारतीय मानस में गहरी जड़ें जमा ली और तदनुसार ही संस्कारों में भी विशेष दिशा में बैठना निश्चित किया गया। पूर्व दिशा में सूर्य उदित होता है और पूर्व दिशा के देवता देवराज इन्द्र हैं। यह दिशा प्रकाश, उष्णता, ऊर्जा, जागृति, जीवन और समृद्धि की प्रतिनिधि बन गई।


पश्चिम दिशा में सूर्यास्त होता है और वह अन्धकार शीत तथा विनाश की दिशा है। दक्षिण दिशा के अधिपति यमराज हैं अतः वह मृत्यु की दिशा है और अत्यन्त अशुभ है। किसी भी संस्कार (अथवा पूजा) के समय व्यक्ति (संस्कार्य) को पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना शुभ है क्योंकि इससे वह प्रकाश, ऊर्जा, सुख और समृद्धि की ओर उन्मुख होता है। मृतक के पैर दक्षिण की ओर रखे जाते हैं क्योंकि उसे यमालय पहुँचना है। इसी प्रकार देव प्रदक्षिणा में भी सूर्य क्रम (पूर्व से पश्चिम) का अनुसरण किया जाता है। किन्तु मृतक की अथवा चिता की प्रदक्षिणा उलटे क्रम (पश्चिम से पूर्व) की जाती है क्योंकि वह अशुभ अथवा अमांगलिक है। किसी भी संस्कार के समय शुभ दिशा का स्थान अवश्य देखा जाता है।


प्रतीकत्व- संस्कारों में प्रतीकवाद भी एक प्रतिपादक तत्त्व है। किसी भी प्रतीक के माध्यम से व्यक्त होने वाला गुण व्यक्ति में भी आ जाता है- यह धारणा जनमानस में दृढ़ है। ध्रुवतारा स्थिरता का प्रतीक है। वह उत्तर दिशा में सदैव एक स्थान पर रहता है। विवाह संस्कार के समय वधू को ध्रुव तारे का दर्शन कराया जाता है जिस प्रतीक का यही अर्थ है कि 'हे वधू! ध्रुव नक्षत्र की भाँति पति की निष्ठा में स्थिर रहना।' पत्थर दृढ़ता का प्रतीक है। उपनयन संस्कार में ब्रह्मचारी पत्थर पर पैर रखता है और इस प्रतीक से वह आचार्य के प्रति दृढ़ भक्ति और निष्ठा विज्ञापित करता है। जो गर्भवती पुत्र प्राप्ति की कामना करती थी, उसके लिए दही से मिश्रित द्विदल (दो दल वाला- दालें) धान्य के साथ जौ का एक दाना खाना अत्यावश्यक था। ये दोनों (द्विदल एवं जौ) पुरुष अन्न के प्रतीक हैं और इनके खाने से गर्भ में पुरुष सन्तति की सम्भावना बढ़ जाती थी। इस प्रकार प्रायः सभी संस्कारों में प्रतीकों का बहुत प्रयोग हुआ है।


सामाजिक विधियाँ- संस्कारों का प्रबल विधायक अंग है उनकी सामाजिकता एवं सांस्कृतिक गतिविधियाँ। मनुष्य स्वभावतः ही सौन्दर्सप्रिय होता है। संस्कार जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर वातावरण को मांगलिक व उल्लासप्रद बनाने के लिए नाना प्रकार से संस्कार स्थल को सुशोभित किया जाता है। सारे घर या सम्बद्ध स्थल को धो पोंछ कर शुद्ध कर लिया जाता है। द्वार के ऊपर या अन्य ऊँचे स्थल पर विघ्नहर्ता गणेश की स्थापना करके पुष्पसज्जा, रंगोली, माण्डने आदि से भित्तियों तथा फर्श को शोभा सम्पन्न कर देते हैं। परिवारजन, इष्ट मित्र आदि को आमन्त्रित करके संस्कार समाप्ति पर नृत्यगीत तथा सहभोज आदि से उनका सम्मान किया जाता है। ये सारे शोभाधायक तत्व एवं सामाजिक विधियाँ जीवन में सौन्दर्य के महत्त्व को तो निरूपति करते ही हैं, साथ ही घर के छोटे लड़के-लड़कियाँ इसी क्रम में वे सारे कार्य सीखते हैं और इनकी छाप आद्यन्त उनके जीवन में बनी रहती है। इस प्रकार पीढ़ीदर-पीढ़ी ये शोभा कार्य जीवन में सौन्यर्द और उल्लास भरते रहते हैं। संस्कारों के समय इष्टमित्रों, बन्धु बान्धवों और कुटुम्बीजनों को एकत्रित करने से व्यक्ति पुनः पुनः अपने परिवार और समाज से जुड़ता रहता है, जीवन में उल्लास और प्रसन्नता का समावेश रहता है और व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर जीने की कला सीखता है। समाज के बिना व्यक्ति का मूल्य कुछ नहीं-यह ऐसे ही अवसरों पर ज्ञात होता है।


वर्तमान युग में संस्कारों की महत्ता कम होते जाने के साथ-साथ उनके ये विधायक अंग भी कम होते जा रहे हैं। अनेक संस्कारों के समय अग्नि एवं यज्ञ के स्थान पर एक दीपक मात्र प्रज्वलित करके रख लिया जाता है। हाँ, नृत्य गीत और भोजन की महत्ता बहुत बढ़ गई है। संस्कार्य शिशु या व्यक्ति को हार्दिक आशीर्वाद के स्थान पर शगुन का एक लिफाफा मात्र पकड़ा कर कर्तव्य की इतिश्री कर जाती है। कैसी विडम्बना है कि संस्कार में सम्मिलित होने के लिए जितने भी निमन्त्रित या अभ्यागतजन आते हैं, वे उस संस्कार को देखने या समझने में कोई रुचि नहीं रखते। ऐसी स्थिति में संस्कारों के महत्त्व अथवा उनके विधायक अंगों पर ध्यान कहाँ से जा सकेगा !