हृदय : प्राचीन वाङ्मय में

भारतीय संस्कृति और भारतीय साहित्य ने 'हृदय' को गहराई से समझा है, उसके प्रत्येक आयाम को परखा है, इसकी हर धड़कन सुनी है और उसे मजबूत बनाए रखने के अनेक उपाय अपनाए हैं। साहित्य तो हृदय से हृदय की बात पहुंचाने का ही माध्यम है। अतः उसने तो हृदय को सर्वोपरि महत्व दिया है। केवल सहृदय व्यक्ति ही साहित्य की गहराई तक जा सकता है। यह साहित्य कारों का सिद्धान्त हैसाहित्य हृदय को छू लेते हैं, हृदय की गहराई तक पहुंचता है, यह कहा जाता रहा है, साहित्य का यह हृदय शरीर विज्ञान वाला हृदय नहीं है। जो एक प्रवाह को नियंत्रित करता है। साहित्य का हृदय भावनाओं, संवेदनाओं आदि से ही संबद्ध रहता है, अतः वह मन, अन्तःकरण और अन्तरचेतना के पर्याय के रूप में ही वहाँ प्रयुक्त हुआ है। आजकल जिस हृदय ने विश्व को आन्दोलित कर रखा है, जिन हृदय रोगों, हृदयघातों आदि के लिए अस्पताल कमाई कर रहे हैं। वह हृदय कुछ अलग है, किन्तु उसका भी गहरा विवेचन भारतीय वाङ्मय में हुआ है। शरीर के एक प्रमुख अंग के रूप में जीवन को नियंत्रित करने वाले हृदय को समझने और उसको स्वस्थ रखने का भी समुचित प्रयास करते है। भारतीय मनीषी सहस्त्रियों से करते-करवाते रहे हैं। इससे संबंधित प्रभूत साहित्य भी भारत में उपलब्ध है। विश्व की नवीनतम भाषा संस्कृत में उस हृदय पर भी बहुमूल्य जानकारी निहित है।



हृदय को स्वस्थ रखने के उपाय, उसकी चिकित्सा आदि पर विपुल जानकारी आयुर्वेद में तो उपलब्ध है ही जिस पर इन दिनों हिन्दी में भी बहुत कुछ लिखा गया हैकिन्तु उपनिषदों में, विशेषकर योग और तंत्र से संबद्ध वाह्य में हृदय पर प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और प्रतीकात्मक रूप से इतना लिखा गया है, जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। आज योग 'योगा' बनकर विश्वभर में अपने झंडे गाड़ रहा है। अनेक योगगुरू इसके बल पर पूज रहे हैंयोग से शरीर और मन स्चस्थ रहते हैं, हृदय सशक्त रहता है, यह योग गुरूओं का दावा है। इसके लिए आसन, व्यायाम, कपालभाति आदि क्रियाएँ तो बनाई ही जाती हैं। कुछ शास्त्रज्ञ योगगुरु इनसे संबंधित प्राचीन ग्रन्थों का नाम भी कभी ले लेते हैं। इसमें से अधिकांश संस्कृत भाषा से परिचित नहीं हैं, उस पर अधिकार नहीं रखते इसलिए मूल शास्त्रों को वे बहुधा उद्धृत नहीं करते, यह बात अलग है, किन्तु प्राचीन शास्त्रों में हृदय तंत्र का जिस प्रकार वर्णन किया गया हैवह आज भी चमत्कारजनक है, उपयोगी है। उसका गहन अध्ययन नहीं हो पाया है किन्तु शोधार्थियों द्वारा ऐसा किया जा सकेगा यह आशा बँधी हुई है।


योगदर्शन और शास्त्र ने शरीर की 5 महत्वपूर्ण तन्त्रजालकों (plexus) की स्थितियों का विशेष किन्तु प्रतीकात्मक वर्णन किया है। आयुर्वेद की प्रत्यक्ष शारीरक (anatomy) शाखा तो इन अंगों का शरीर के अवयवों के रूप में वर्णन करती है, किन्तु योग ने इन तंत्रजनकों को अत्यन्त सुकुमार होने के कारण कमल की प्रतीक लेकर वर्णित किया है। शरीर के इन छह तंत्रजालको को योग ''जट्-चक्र'' कहता है। प्रत्येक चक्र को कमलदल ''पद्म'' का नाम दिया गया है, और तांत्रिकाओं की संख्या आदि के आधार पर इन पद्म को चतुर्दल, षड्दल, अष्टदल आदि कहकर कमल के रूप मे इनका विवरण दिया गया हैइसके साथ ही इसका आकार भी ज्यामितिक विधि से चतुष्कोण, षट्कोण आदि रूपों में वर्णित है। इस कोण चित्रण को प्रतीकात्मक होने के कारण तंत्र शास्त्र ने भी स्वीकार किया है। तांत्रिक क्रियाओं और शास्त्रों में जो यन्त्रपूजन होता है, तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र के साथ जो शानम आदि उपासनाएँ की जाती हैंउनमें भी इन चक्रो का पूजन प्रतीकात्मक साधना के रूप में किया जाता है 


षट्चक्र 


मानव शरीर के बीच से लेकर ऊपर तक विद्यमान उन तंत्रजालकों को जो सबसे अर स्थित मस्तिष्क को जीवनी शक्ति पहुँचाते हैं। छह चक्रो का नाम दिया गया है। सबसे नीचे मूलाधार चक्र, उससे ऊपर खाधिष्ठान नाभि में मणिपुर, हृदय में अनाहत, कंठ में विशुद्ध और भौंहो के बीच आज्ञा चक्र। ये सब मस्तिष्क में स्थित शून्य चक्र अर्थात् सहस्त्रदल कमल को जीवनी शक्ति पहुँचाते हैं। मस्तिष्क की अनन्त नाडियाँ जिन्हें आजकल 'न्यूरोन' कहा जाता है। सहस्त्रदल कमल के रूप में ''सहस्त्रार'' नाम से वर्णित हैं तथा से षट्चक्र क्रमशः चतुर्दल, षद्दल, द्वशदल, द्वाडशदल, षोडशदल और द्विदल कमल के रूप में वर्णित हैं। जिन्हें योगविद्या पूरी तरह समझाती है। इन्हें नक्शे के रूप में ज्यामितिक आकार देते हुए मंत्रों का रूप भी दिया गया है, और क्रमशः चतुकोण, गोल, त्रिकोण, षट्कोण, कुछ गोल और लिंगाकार, इस प्रकार के नक्शे से समझाया गया है। योगविद्या के व्यवहारिक रूप से समझाने हेतु जो ग्रन्थ पिछले दिनों लिखे गए हैं उनमें भी यह सब स्पष्ट दिया गया है। पं. डॉ. राधेश्याम परमहंस ने जो योगाचार्य भी हैं, त्रिपुराम्बा प्रकाशन से षट्चक्र ध्यान योग' नामक जो पुस्तक निकाली है उसमें भी इनका विशद विवरण है। योग के इन षट्चक्रों में हृदय को अनाहत चक्र के रूप में, द्वादश दल कमल के रूप में तथा षट्कोण यन्त्र के रूप में वर्णित किया गया है। तंत्रोपासना में भी स्थान-स्थान पर षट्कोण यंत्र की पूजा होती है। यह हृदय से ही संबद्ध है। हृदय के द्वादश दल रक्त को लाने-ले जाने पहुँचाने और नियंत्रित करने का कार्य किस प्रकार करते हैं, यह भी प्रतीकात्मक रूप से समझाया जाता है। कुछ विद्वान तो इसीलिए हृदय शब्द का भी विश्लेषण कर समझाते हैं कि इसमें दृ=हरण करने अर्थात एक को ले जाने का सूचक है, दृ=रक्त को देने का तथा य-यंत्रित अर्थात नियंत्रित करने का सूचक है। इन द्वादश दलों के बीजमंत्र भी बनाए गए हैं, कं खं गं घं से लेकर टं ठं तक, इनकी काकिनी शक्ति, इशान देव, मृग वाहन और वायु तत्व बतलाए गए हैं। जो विवरण रक्तप्रवाह के विभिन्न प्रतीको से पूरी तरह सामंजस्य रखता हैयोगक्रियाओं के समय ध्यान के लिए योगगुरु विभिन्न प्रकार की साधनाएँ बतलाते हैं, ध्यान और एकाग्रता से हृदय को बल मिलता है, यह भी समझाते हैंरक्त का प्रवाह सदा समान, सतत, अनाहत रहना चाहिए, इसीलिए इसे अनाहत चक्र कहा गया हैं।


योगशास्त्र के इन विवरणों को प्रतीकात्मक रूप से समझ लेना सरल नहीं है, किन्तु यौगिक क्रियाओं द्वारा हृदय को स्वस्थ रखने की जो क्रिया बतलाई जाती है। वह सबको समझ में आ सकती है। इसलिए “योगा'' विश्व में लोकप्रिय हो रहा हैप्राणायाम से हृदय रक्तवाहिनी नाड़ियों को लाभा पहुँचता है, यह तो स्पष्ट ही हैकपालभाति यद्यपि अन्त्रजाल को स्वस्थ रखने का प्रमुख कार्य करती है। किन्तु उससे हृदय को भी लाभ पहुँचता है। इसी प्रकार अनेक योगासन ऐसे हैं। जो हृदय को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं। सूर्य नमस्कार से भी हृदय को लाभ पहुँचता हैतभी तो हमारे यहाँ सदियों से प्रतिदिन के धार्मिक कृत्यों में, संध्यावन्दन में, प्राणायाम, सूर्यनमस्कार, आसन आदि दिनचर्या के अंग के रूप में इस प्रकार विहित किए गए हैं, कि यह जीवनशैली का अंग बन जाएँ हृदय को सशक्त रखने हेतु अधिभौतिक उपायों में आहार का नियंत्रण और जड़ी-बूटियों, फलों, गुणकारी वनस्पतियां, सात्विक अन्नों आदि से बने भोज्य पदार्थों के सेवन का विधान किया जाता रहा हैगीता भी स्पष्ट कहती है-“रस्यः स्निग्धाः स्थिरा दृघा  आहाराः सात्विक प्रियाः [4th अध्याय 17/8] अर्थात सान्त्विक लोग ऐसे आहार लेते हैं जो हृदय को बल दें। हृदय के लिए हितकारी कौन कौन से आहार होते हैं इसका विवरण तो इन दिनों सर्वत्र उपलब्ध है। कोलेस्ट्रेल से कैसे बचें इस बारे में प्रबुद्ध व्यक्ति सतर्क रहते हैंपहले भी विघान किए जाते रहे हैं, कि गोघृत निरापद रहता है, तामस पदार्थ हृदय के लिए अहितकारी हैं। इस प्रकार हृदय के भौतिक रूप का भी विस्तृत विवेचन भारतीय साहित्य में मिलता हैं। हृदय को निर्मल रखने के लिए ईर्ष्या द्वेज न करने, तनाव से मुक्त रहने, ध्यान आदि करने के आध्यात्मिक उपाय तो सुविहित हैं ही।