जीवन के सोलह संस्कार शऱीर के सोलह श्रृंगार जैसे हैं

'हमें गर्व है कि बहुत ही गहरे अपनी नींव पड़ी।


हमने बहुत बार सिजी हैं कई क्रांतियाँ बड़ी-बड़ी।।


इतिहासों ने किया सदा ही अतिशय मान हमारा है।


भारत वर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है।।'


भारतवासी होने के नाते हमारे लिए परम गौरव की बात हैकि हमने उस संस्कृति में जन्म लिया है, जिसकी प्राचीनता अनादि काल से है। श्री बाल-कृष्ण शर्मा 'नवीन' के काव्य 'अनिकेतन' की उपर्युक्त पंक्तियों से यही भाव प्रस्फुटित हो रहा है। इसीलिए भारतीय संस्कृति, जो निश्चित रूप से हिन्दू संस्कृति' है, को 'सनातन संस्कृति' भी कहा जाता है'सनातन' का अर्थ होता है- 'सदा से अस्तित्व में रहना । जिन मतों का प्रवर्तन या प्रचलन कोई आदमी करता है, उनकी संस्कृति तभी से चलती है, जब से उनका जन्म होता है, इससे पूर्व से नहीं। ये संस्कृतियाँ अमर नहीं होती, कालान्तर में उनका अंत हो जाता है, भले ही वे कितने दीर्घकाल तक जमीन पर क्यों न रहे। पर, जो संस्कृति संसृति के अस्तित्व के साथ प्रकट होती है, वह संसृति के विलयन तक अक्षुण्ण रहती है। कम शब्दों में कहा जा सकता है कि पीर-पैगम्बर, महापुरुषों आदि के द्वारा चलायी जाने वाली संस्कृतियाँ, जिन्हें 'मजहब', 'दीन', 'मत', 'पथ' या 'विश्वास', कहते हैं, मरणशील होती हैं, जबकि स्वयं सजेता के साथ सृजित हुई संस्कृति जिस को 'धर्म' कहते हैं, सनातन या सर्व कालिक होती है। मानवकृत होने के कारण ही 'इस्लाम', 'ईसाई', 'पारसी', 'यहूदी' आदि मजहब या पंथ हैं, जबकि 'हिन्दू संस्कृति धर्म है, क्योंकि यह संस्कृति संसार की संरचना के साथ ही अवतरित हुई है। राम, कृष्ण, शंकराचार्य, दयानंद, विवेकानंद आदि हिन्दू संस्कृति के महापुरुष और ईश्वर के अवतार अवश्य रहे हैं। इनमें से किसी ने भी हिन्दू या सनातन संस्कृति का निर्माण नहीं किया है। हाँ, इन लोगों ने अपने विचारों से हिन्दू संस्कृति को समृद्ध अवश्य किया है। हिन्दू संस्कृति तो जीवन और चेतना के साथ ही इस जमीन पर उतरी है।


हमें इस बात पर गर्व करना चाहिए कि हमारी संस्कृति में कुछ भी अनुपयोगी नहीं है और यदि कालान्तर में हमें कभी कोई चीज काल वाय या अनुपयोगी लगी है, तो हमने उसके तत्काल त्याग में भी देर नहीं की है। जो समझ नहीं रखते, उनके लिए क्या कहें, पर जो ज्ञानी हैं, वे जानते हैं कि हिन्दू के माथे पर लगे हुए तिलक, हाथ में बंधे हुए कलावा, कमर में बँधी हुई करधनी, पाश्ववृत्तक, यज्ञोपवीत जैसी चीजें, जो ऊपर से मात्र कच्चा धागा या सत दिखाई देते हैंअच्छे एवं पूर्ण जीवन के सुत्र हैं। ये छोटीछोटी चीजें भी हाथ, मस्तिष्क, कटि प्रदेश, पेट व पीठ क्षेत्र की शक्तियों की उच्छृखलता को बाँधते-नियंत्रित करते हुए जीवन को सुखमय और श्रेष्ठदिशा में गतिमय बनाते हुए हमारे जीवन को पूर्ण बनाती हैं। कलावा करधनी, जनेऊ जैसी छोटी-छोटी प्रतीत होने वाली ये चीजें मील या किलोमीटर दर्शाने वाले पत्थर हैं, जिनके सहारे हम जीवन की पूर्णता रूपी बिना व्यवधान के प्राप्त कर लेते शरीर को सुंदर बनाने के लिए बनाए गये हैं, उसी प्रकार जीवन सहारे हम जीवन की पूर्णता रूपी मंजिल को बिना व्यवधान के प्राप्त कर लेते हैं। जैसे शरीर को सुंदर बनाने के लिए सोलह श्रृंगार बनाए गये हैं, उसी प्रकार जीवन को सुंदर बनाने के लिए हिन्दू संस्कृति में अनेक संस्कार निर्धारित किए गए हैं। 


जीवन यात्रा को श्रेष्ठ एवं मंगलमय बनाने के लिए अच्छी बातों या सत्रों का मानना-पालना ही 'संस्कार' कहलाते हैं। सम् पूर्वक कृञ् धातु घञ् प्रत्यये होकर 'संस्कार' शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है-'संस्करणं सम्यक्करणं वा संस्कारः अर्थात् परिष्कार करना अथवा भली भाँति निर्माण करना 'संस्कार' है। गीमांसा दर्शन का भाष्य करते हुए शबर मुनि कहते हैं, 'संस्कारो नाम स भवति, यस्मिन जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्यं। (संस्कार वह प्रक्रिया है, जिसके होने से कोई व्यक्ति या पदार्थ किसी कार्य के योग्य हो जाता है।) प्रसिद्ध मीमांसक, कुमारिल भट्ट कृत 'तंत्र वार्तिक' में कहा गया है, 'योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते।' (संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं।) 


भारतीय संस्कृति में, माँ के गर्भ में आने से लेकर धरती माँ की गोद में समा जाने तक जीवन में सोलह बार शरीर को संस्कारित होना पड़ता है। इन संस्कारों को 'षोडश संस्कार' भी कहा जाता है।


(1) गभार्धान (2) पुंसवन (3) सीमान्तोन्नयन (4) जातकर्म (5) नामकरण (6) निष्क्रमण (7) अन्नप्राशन (8) वपन-क्रिया चूड़ाकर्म (9) कर्णवेध (10) विद्यारम्भ (11) उपनयन संस्कार (12) वेदारम्भ (13) केशान्तधगोदान (14) समावर्तन (15) विवाह (16) अंत्येष्टि संस्कार अंत्येष्टि संस्कार इन संस्कारों का आरम्भ जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है। गभार्धान संस्कार- जब जीव माँ के उदर (गर्भ) में प्रवेश करता है, वह समय गभार्धान कहलाता है। इस समय किए गए संस्कार को गभार्धान संस्कार कहा जाता है। द्विजाति को गभार्धान से पूर्व पवित्र होकर प्रार्थना करनी चाहिए।


गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टके।


गर्भ ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्त्रजौ।।


बृहदारण्यक (६/४/२१)


अर्थात हे सिनीवालि देवि! आप स्त्री को गर्भ धारण करने का सामर्थ्य दे। कमलों की माला से सुशोभित अश्विनीकुमार गर्भ को पुष्ट करें। पुंसवन संस्कार- गर्भ के तीसरे माह में यह संस्कार पुत्र प्राप्ति की कामना हेतु सम्पन्न कराया जाता है।


पुंसवन संस्कार- गर्भ के तीसरे माह में यह संस्कार पुत्र प्राप्ति की कामना हेतु सम्पन्न कराया जाता है।


सीमान्तोंनन्यन संस्कार- गर्भ के छठे या आठवें मास में किया जाता है। गर्भ में जब मन तथा बुद्धि में नवीन चेतना का उदय होने लगता है, तब इनमें जो संस्कार डाले जाते हैं, उनका बालक पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। अभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश की शिक्षा इसी दौरान प्राप्त हुई थी। अनिष्टकारी शक्तियों से बचाने के लिए भी यह संस्कार सम्पादित किया जाता है।


जातकर्म संस्कार- बालक के जन्म के समय को जातकर्म कहा जाता है। बालक का जन्म होने के पश्चात यह संस्कार करने का विधान उल्लेखित है। नालछेदन से पूर्व बालक को अनामिका से घृत या मधु चटाया जाता है। लोक संस्कृति में इसे घुटी देना भी कहा जाता है। इस संस्कार में माँ के दूध का पान बालक को करवाया जाता है, विज्ञान भी मान चुका है कि माँ का दूध शिशु के लिए अमृत तुल्य सर्वाधिक पोषक पदार्थ हैं।


नामकरण संस्कार- इस संस्कार का फल, आयु तथा तेज की वृद्धि एवं सिद्धि के लिए बताया गया है। जन्म के 10 वें या 12 वें दिन नामकरण किया जाता है।


निष्क्रमण संस्कार- इस संस्कार का फल विद्धानों द्वारा आयु की वृद्धि उल्लेखित किया गया है- निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्यूद्दिष्टा मनीषिभिः। जब प्रथम बार बालक घर से बाहर निकलता है (12 वें दिन से लेकर चौथे माह के मध्य) निष्क्रमण संस्कार सम्पन्न किया जाता हैभगवान सूर्य, चन्द्रादि देवताओं का पूजन कर शिशु को उनके दर्शन करवाना इस संस्कार की प्रमुख प्रक्रिया है।


अन्नप्राशन संस्कार- जब बालक 67 माह का हो जाता है, उसकी पाचनशक्ति मजबूत होने लगती है तब इस संस्कार के निर्वाह किया जाता है। इस संस्कार के विधान के अनुसार देवी-देवताओं को प्रसाद (खाद्य- पदार्थ) निवेदित कर बालक को खिलाने का उल्लेख मिलता है।


चूडाकर्म (वपन क्रिया) संस्कार- यह संस्कार प्रायः तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष अथवा कुल परम्परा के अनुसार सम्पन्न करने का विधान बतलाया गया है। इस संस्कार में शुभ मुहूर्त में बालक का मुण्डन करवाया जाता है, तत्पश्चात शीश पर दधि-मक्खन लगा कर बालक को स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ पूर्ण की जाती है।


कर्णवेधन संस्कार- इस संस्कार के अंतर्गत जब बालक का प्रथम बार कर्णवेधन किया जाता है। यह संस्कार छः मास से सोलहवें मास तक अथवा प्रथम, तृतीय, पाचवें वर्ष एवं कुल परम्परा के अनुसार निर्वाह किया जाता है।


उपनयन संस्कार- इस संस्कार से द्विजत्व की प्राप्ति मानी गयी है। उपनयन संस्कार के पश्चात बालक द्विज कहलाता है। द्विज का अर्थ है-पुनर्जन्म। इस संस्कार में गुरु आश्रम आने से पूर्व यज्ञोपवित धारण कराया जाता था। इसमें तीन धागे (सूत/सूत्र)होते है, जिन्हें सत, रज एवं तम का प्रतीक माना गया है। उपनयन संस्कार प्रमुखतः शिक्षा से सम्बन्धित माना गया है।


विद्यारम्भ संस्कार- उपनयन हो जाने के पश्चात वटु का वेदाध्ययन में अधिकार प्राप्त हो जाता था। यह संस्कार जन्म से पाँचवें वर्ष सम्पन्न होता था। शास्त्रों में वर्णित है कि- विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाऽऽ युरूप्रवर्धते । अर्थात वेदविद्या के अध्ययन से सम्पूर्ण पापों का लोप होता है। 


वेदारम्भ संस्कार- गुरु आश्रम में वेद पठन कराने के समय यह संस्कार सम्पन्न होता था। भगवान गणेश एवं देवी सरस्वती के पूजन के पश्चात वेदारम्भ में प्रविष्ट होने का विधान है। केशान्त (गोदान) संस्कार- इस संस्कार में वटु के केश एवं श्मश्रु बनवाये जाने का विधान मिलता है। शास्त्रों में वर्णित मिलता है कि यह संस्कार उत्तरायण में किया जाता है।


समावर्तन संस्कार- यह विद्याध्ययन का अन्तिम संस्कार है। इस संस्कार गुरु द्वारा सम्पादित होता था। गुरुकुल में शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात वटु के गृह लौटने के पूर्व यह संस्कार सम्पन्न होता था। इस संस्कार को वेदस्नानसंस्कार भी कहा जाता था।


विवाह संस्कार- इस संस्कार के पश्चात स्नातक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। विवाह संस्कार भारतीय में विशेष महत्त्व रखता है। पाणिग्रहण संस्कार देवता और अग्नि के समक्ष सम्पूर्ण करने का विधान है। भारतीय संस्कृति में यह दाम्पत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध माना गया है। विवाह के लिए कई शब्दों का प्रयोग मिलता है- उद्वाह अर्थात कन्या को ऊपर ले जाना। विवाह-कन्या को विशेष प्रयोजन से ले जाना। परिणय-अर्थात किसी के साथ परिक्रमा करना। पाणिग्रहण- कर बद्ध होना अर्थात हाथ थामना। हिन्दू-धर्म में सौभाग्य की देवी गौरी, भगवान शिव के आधे अंग के रूप में स्थित मानी जाती है, इसलिए स्त्री को अग्नि माना जाता है, इसी में स्त्री एवं पुरुष दोनों की शोभा है। इस संस्कार का मुख्य भाग है-लाजाहोम और सप्तपदी। लाजाहोम में भुने धान के लावे से तिन आहुतियाँ दी जाती है। सप्तपदी में वेदी पर स्थापित अग्नि से उत्तर की ओर चावल की सात ढेरियों पर वर-वधू एक के पीछे एक पैर रखते, सात प्रतिज्ञा करते है। शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाह का उल्लेख मिलता है-(1) ब्राह्य (2) दैव (3) आर्ष (4) प्राजापत्य (5) आसुर (6) गान्धर्व (7) राक्षस (8) पैशाच। जिनमें प्रथम चार विवाह उत्तम और पश्चात चार विवाह निम्न स्तर के माने गये हैं।


अंत्येष्टि क्रिया- यह संस्कार मृत्योपरांत सम्पादित किया जाता है। इस संस्कार में अग्नि से दाक्रिया से लेकर द्वादशाह तक के कर्म सम्पन्न किये जाते है। अग्नि संस्कार के पश्चात जो भी लोकाचार एवं अनुष्ठान होते है वे पिण्डदानात्मक है।


भारतीय संस्कृति में शास्त्रोंक्त संस्कार अन्तःकरण की शुद्धि के कारक है। जिस प्रकार स्वर्ण, हीरा आदि खान से निकलने पर उसमें चमक लाना आवश्यक होता है उसी प्रकार मानवीय शक्ति को परिष्कृत करने के लिए संस्कार की महत्ती भूमिका है। संस्कारों से आचार-विचार-व्यवहार शुद्ध होने के साथ आत्मा का शुद्धि करण भी होता है।


1 गर्भाधान


'आधान' का अर्थ होता है, 'धारण करना' । अच्छी संतान पाने के लिए माँबाप का तन मन और आत्मा से स्वस्थ, शुद्ध एवं आनंद मय होना चाहिए। ऐसी स्थिति में संतान भी श्रेष्ठ उत्पन्न होती है। इंद्रिय जनित सुखोपभोग से जो संतान पैदा होती है, वह आवश्यक नहीं कि श्रेष्ठ भी हो। जब काम सेवन श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है और तटस्थ एवं साक्षी भाव से किया जाता है, ध्रुव, प्रहलाद एवं श्रवण कुमार जैसे श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति तभी होती है। जब किसी दंपति के बच्चे पैदा नहीं होते, तो वे भगवान् से मन्नतें कर बच्चे प्राप्त करते हैं। बाद को वे कपूत-कपूतियाँ निकल जाते है तो लोग भगवान् से। शिकायत करते हैं, पर अपनी गलती नहीं देखते। भगवान् तो स्टॉक में रखे हुए बच्चों में से कोई टूटा-फूटा उठाकर दे-देते हैं। यह तो आदमी का कर्तव्य हैकि वह काम का सेवन करते समय भगवान् का स्मरण कर और इसे प्रभु की इच्छा व अपना कर्तव्य समझते हुए निर्विकार-भाव बना रहे ताकि ऊपर की टूट-फूट नीचे आकर सही-साबुत बन जाए। तब यह कहने की नौबत नहीं आएगी कि भगवान से सुपुत्र माँगा था, पर उसने कुपुत्र दे दिया। समझदार दंपति संस्कार की भाँति गर्भाधान करते हैं।


2 पुंसवन संस्कार


गर्भ सुनिश्चित हो जाने पर गर्भ धारण के तीन महीने पूर्ण हो जाने तक यह संस्कार किया जाता है। देर हो जाने पर भी किया जा सकता है, पर तीसरे माह से गर्भ में आकार और संस्कार दोनों का स्वरूप निर्धारित होने लगता है। अभिमन्यु की भाँति शिशु इसी समय से माँ के गर्भ से सीखना शुरू कर देता है। कहते हैं, अष्ट्रावक्र, जो राजा जनक जैसे योगी के गुरु और संसार के सब से बड़े ज्ञानी थे, का शरीर पुंसवन संस्कार के समय ही आठ जगहों से टेढ़ा हो गया था, जब उनके पिता ने संस्कार कराते समय पढ़े गये श्लोकों में गलती की थी। अष्टावक्र ने गर्भ में से ही अपने पिता को टोकते हुए कहा था, 'पिताजी! आपने उच्चारण में 8 बार अशुद्धियाँ की हैं। तभी पिता ने उन्हें क्रोधवश श्राप दे दिया, 'तु अभी से मुझ में दोष निकालने लगा है। दुष्ट जब तू पैदा होगा, तब आठ जगहों से टेढ़ा पैदा होगा।' पुंसवन संस्कार में गर्भवती को गिलोय, ब्राह्मी आदि सुगंधित पदार्थ सुंघाए जाते है तथा घर में गायत्री यज्ञ किया जाता है।



3 सीमंतोन्नयन


शिशु-जन्म के बाद चौथे, छठे या आठवें माह में इस संस्कार को किया जाता है। 'सीमन्त+'उन्नयन' से 'सीमंतोन्नयन' शब्द बना है। 'सीमंत' का तात्पर्य 'पत्नी' और 'उन्नयन' का ताप्तर्य 'विकास', 'कल्याण' या 'आनन्द' से होता है। इस संस्कार में पति पत्नी के बालों को सहलाता है उन्हें गूंधता है तथा वे सब क्रियाएँ करता है, जिससे पत्नी का चित्त प्रसन्न हो। पत्नी के केशों को सहलाने, उनकी वेणी बनाने आदि के कारण इसे 'केशोवर्धन संस्कार भी कहा जाता है।


4 जातकर्म


जातक के कल्याणार्थ किए जाने के कारण इस संस्कार को 'जात कर्म संस्कार कहा जाता है। शिशु के जन्मते । ही उसे 2 बूंद घी और 6 बूंदें शहद की चटाई जाती हैं। यह नियम व्याकरण के नियमों जैसा कठोर नहीं है। दोनों पदार्थों की मात्रा अधिक व कम हो सकती है, पर ध्यान रहे कि, घी और शहद दोनों की मात्राएँ समान न हो। (मधु और घृत की समान मात्राएँ मिलने से विष बन जाती हैं।) शिशु को यह अवलहे चटाते समय 'गायत्री मंत्र' या 'महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना श्रेष्ठ माना जाता हैयह औषधीय मिश्रण शिशु के संपूर्ण जीवन प्राणशक्ति (immunity power) बनाए रखता है।


5 नामकरण


शशु के जन्म के 11वें दिन उसका नामकरण करते हैं। जन्म के बाद 10 दिन 'सूतक' याने अपवित्र माने जाते हैं। इसलिए पुरोहित 11वें दिन यज्ञादि करवा कर ज्योतिष की गणनानुसार, जिस राशि में जातक पैदा होता है उसका कोई श्रेष्ठ नाम रखते है। अमूमन राशि के नाम का उच्चारण करना ठीक नहीं माना जाता, इसलिए घर में पुकारने के लिए लोग कोई दूसरा लघु व मन भावन नाम रख लेते हैं जैसे- 'दीप', 'अंशु', 'आशू', 'श्रिया', आदि। राशि का नाम विशेष रूप से जन्म कुण्डली-निर्माण और विद्यालय में पंजीकरण कराने के उपयोग में ही आता है। नाम की बहुत महिमा गाई गयी है। नाम के बारे में तुलसीदास कहते हैं, 'कहाँ कहां लगि नाम बढ़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।' (इधर लगभग दो दशाब्दियों से यह विडम्बना बन गई है कि हिन्दू समाज के लोग अब भगवान और देवी-देवताओं के 'रामचंद्र', 'श्रीकृष्ण', 'शिवशंकर', 'सूरज', 'सीता' आदि नामों की जगह अपने बच्चों के 'कुणााल', 'कुश', 'राजेश', 'बिंदिया', 'प्रिया' 'स्वीटी' आदि नाम रखने लगे हैं।)


6 निष्क्रमण


जन्म के तीसरे या चौथे माह में शिशु को किसी शुभ दिन को घर के बाहर निकालते हैं, ताकि उसका शरीर, पृथ्वी, जल, वायु अग्नि, आकाश नामक पंचतत्वों के संपर्क में आकर इनसे अनुकूलन कर सके। शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास के लिए भी इस संस्कार से शुरूआत की जाती है।


7 अन्नप्राशन'


प्राशन का अर्थ होता है-खाना! शिशु के दांत निकलते वक्त जब वह 5-6 माह का होता है, तब 'अन्नप्राशन' संस्कार कराया जाता है। भोजन में शिशु को विशेष रूप से खीर, हलवा, मिष्ठान आदि खिलाया जाता है। इसके पीछे एक भावना यह भी होती है कि जातक का पूर्ण जीवन मधुरता से भरा रहे।


8 चूडाकर्म


बच्चे की आयु के पहले तीसरे, पाँचवे या सातवें वर्ष में उसके सिरके बाल घुटवा दिए जाते हैंइसे ही 'चूड़ाकर्म' या 'मुंडन' कहते हैं। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत बनता है और बुद्धि तेज बनती है।


9 विद्यारम्भ


इसे 'पट्टी पूजन' भी कहा जाता है। शिशु को तीसरे या पाँचवें वर्ष में वैदिक मंत्रों के साथ यज्ञ कर पट्टी या तख्ती पर लिखना सिखाया जाता है। वर्तमान समय में पढ़ने-लिखने के उपकरण बदल चुके हैं। प्राचीन काल में खड़िया से पट्टी या तख्ती पर 'राम' व 'गणेश' शब्दों को बच्चे से लिखवा कर और उच्चारण करवा कर 'विधारम्भ' संस्कार का श्रीगणेश किया जाता था। (ध्यान रहे यह 'विधारम्भ संस्कार है, 'वेदारम्भ संस्कार नहीं।)


10 कर्णवेधन


इसका अर्थ होता है, 'कान का छेदना। जब बच्चा 5-6 वर्ष का हो जाता है. तब उसका कान छेदा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे राह-केतु के प्रकोप से बचा जाता है, मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक रहता है, श्रवणशक्ति ठीक रहती है तथा योनेन्द्रियों के रोगों आदि की रोकथाम होती है। (आज भी हाइड्रोसील होने पर बड़े-बड़े लोग कान छिदवाते हैं।)


11 यज्ञोपवति


इसे 'उपनयन संस्कार भी कहते हैं। उपनयन का अर्थ होता है, बच्चे को गुरु के पास ले जाना। प्राचीनकाल में बालक सातवें या नौवें वर्ष में शास्त्रोम्त विधि से जनेऊ धारण कर किसी अच्छे गुरु के पास जाने से पूर्व इस संस्कार के द्वारा अपनी भाव भूमि का निर्माण किया करते थे। (आज लोगों में वेदाध्ययन आदि लुप्त प्राय ही हैं, इसलिए यज्ञोपवीत धारण की आयु का कोई पालन नहीं हो रहा है। अधिकतर लोग 30-40 वर्ष की आयु हो जाने पर विवाह के समय ही जनेऊ धारण करते हैं। कुछ लोग तो जनेऊ धारण ही नहीं करते और कुछ लोग प्रगतिशीलता के नाम पर जनेऊ धारण करने के उपरांत भी उतार कर रख देते हैं।) जनेऊ के 3 धागों में असीम शक्ति रहती है।


12 वेदारम्भ


यज्ञोपवीत संस्कार के बाद बालक को किसी गुरुकुल में वेद-शास्त्र, पुराणादि के अध्ययनार्थ भेजने के लिए वैदिक मंत्रों के साथ यह संस्कार कराया जाता है। (आज वेदाध्ययन की परम्परा लगभग लुप्त हो चुकी हैइसलिए यह संस्कार भी समाप्त सा हो गया है।) अति प्राचीन काल में लोग प्रयागराज, काशी आदि के गुरुकुलों में वेदाध्ययन के लिए जाया करते थे। आजकल यह संस्कार अधिकतर 'यज्ञापवीत' संस्कार के साथ ही संपन्न हो जाता है। लकीर पूजने के लिए बालक एक पोटली को एक डंडे में बाँध कर कंधे पर रख कर कुछ कदम चलता है, लोग उससे पूछते हैं 'कहाँ जा रहे हो?', तो वह कहता है, 'वेद पढ़ने के लिए काशी जा रहे हैं।' 'यज्ञोपवीत' संस्कार में पास-पड़ोस की महिलाएँ थाल में भीख लाती हैं, जिसे, 'भिखी कहा जाता है। यह भी वेदाध्यायी द्वारा भिक्षा माँग कर पेट भरने की परम्परा का प्रतीक है। ब्रह्मचारी भीख से ही पेट भरते थे।


13 समावर्तन


'समावर्तन' का अर्थ है, पुनः लौटना। गुरुकुल से विद्याप्राप्ति के बाद युवक को फिर से समाज में लाने के लिए संस्कारित किया जाता था। उसे वैवाहिक जीवन ग्रहण करने से पूर्व उसकी मानसिकता निर्माण के लिए यह संस्कार किया जाता था। (आज 'लव मैरिज' एज में इस संस्कार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस समय रामतीर्थ जैसे लोग शादी के नाम से भाग जाते थे।)


14 केशांत


इसका अर्थ होता है 'केशकर्तन' याने बालों का कटना। प्राचीन काल में विद्याप्राप्ति से पहले और बाद दोनों समय अन्तेवासी छात्र के बालों का अंत किया जाता था, ताकि बालों के प्रति उसका चाव इतना न बढ़ जाए कि उसका पढ़ने में मन न लगे या समाज में शिक्षा व विद्या के प्रसार में प्रमादी बन जाये। 'केशांत' संस्कार ही अपने विकृत रूप में आज का 'दीक्षांत समारोह' या 'कन्वोकेशन' है। पर कन्वोकेशन में केशों के अंत की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज बालों के फैशन के कितने वैरायटी शो चल रहे हैं, देख ही रहे हैं।


15 विवाह


हिन्दू संस्कृति में विवाह भी एक संस्कार है। यह मौज मस्ती का आइटम नहीं है। गुरुकुल से शिक्षा-दीक्षा पूर्ण करने के बाद ब्रह्मचारी घर वापस आता है, तब वह तन, मन, आत्मा से पूर्ण स्वस्थ, शुद्ध, समृद्ध और विवाह योग्य होता है। तब जीवन क्रम और सृष्टि क्रम के पावन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किसी सुयोग्य कन्या के साथ उसका विवाह कराया जाता है। (यही बात कन्या के बारे में भी कही जा सकती है।) वर और कन्या के विवाह से पूर्व दोनों के गुण, कर्म और स्वभाव का काफी मिलान किया जाता था, ताकि वे जीवन भर एक दूसरे का आनंद व सुख के साथ संग निभा सकें। हिन्दू संस्कृति में विवाह को दो शरीरों का नहीं, दो आत्माओं का मेल और सात जन्म का साथ माना जाता है। इसी तथ्य से जुड़े हुए सात संकल्प भी कराए जाते हैं। 'विवाह' कामोन्माद और अनैतिकता पर नियंत्रण के लिए एक सशक्त एवं सफल व्यवस्था है, इसीलिए हिन्दू धर्म में ग्रहस्थ आश्रम को 'धन्य' कहा गया है । (इसे आज के लव मैरिज, युग के लोग क्या समझें, जो बिना गुण, कर्म और स्वभाव के सूत्रों को मिलाए काम के उद्दाम वेग को शांत करने या भोग लिप्सा को पूर्ण करने के लिए लव मैरिज कर लेते हैं और शीघ्र ही संबद्धताच्यत होकर शेष जीवन भर पछताते हैं।) 'गृहस्थ आश्रम इसलिए भी महान है कि शेष तीनों, 'ब्रह्मचर्य, 'वानप्रस्थ' एवं 'संन्यास आश्रमों का अस्तित्व इसी आश्रम के कारण सुरक्षित रहता है।


16 अत्येष्टि


यह जीवन का अंतिम संस्कार है। हिन्दू इसे संस्कार मानते हैं, इसीलिए मृत शरीर को अग्निसात करते हैं ताकि अन्त्येष्टि क्रिया यज्ञकर्म' बन सके। बिना अग्नि के यज्ञ नहीं होता और बिना यज्ञ या यज्ञ सदृश क्रियाओं के कोई संस्कार संपन्न नहीं होता। संसार में अन्य कोई भी मजहब या पंथ मृत्यु को संस्कार नहीं मानता, इसीलिए शव को वे शास्त्रोक्त विधि से अग्निसात करने के बजाय कीड़ों के खाने के लिए जमीन में गाड़ देते हैं या चीलों-गीधों के खाने के लिए ऊँची छत पर डाल देते हैं। (हालांकि गाँवों में अशिक्षा होने के कारण 'अन्त्येष्टि की क्रिया उतनी शास्त्रोक्त विधि से संपन्न नहीं हो पाती।) हिन्दू संस्कृति जीवन को एक सतत प्रक्रिया मानती है, इसीलिए गतात्मा को अगला जीवन अच्छा मिले, इस उद्देश्य से मरण को भी संस्कार जैसा मनाया जाता है। (यहाँ आत्माओं को अन्य कुछ 'मतो' की भाँति स्टोर की चीजों की तरह 'क्लियर ऑफ' या 'राइट ऑफ' करने की वस्तु नहीं माना जाता।) अंत्येष्टि के बाद भी दो संस्कार मरणोत्तर संस्कार के रूप में संपन्न किए जाते हैं। एक-दशमा' संस्कार, जो मृत्यु के दशवें दिन किया जाता है, ताकि घर का सूतक समाप्त हो। दूसरा-तेरहवीं, जो मृत्यु के तेरहवें दिन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि तेरहवें दिन गतात्मा किसी उपयुक्त व अनुकूल गर्भ में प्रवेश करता है।