कर्णवेध संस्कार

इस संस्कार का नाम ही इसके अर्थ को स्पष्ट कर देता है। चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से सुश्रुत (शरीर स्थान-19-21) ने कहा है कि कान के निचले स्थान को सुई से छेद देने पर आन्त्रवृद्धि (हर्निया) का रोग नहीं होता। सुश्रुत ने ही यह निर्देश भी दिया है कि शिशु की स्वास्थ्य रक्षा के लिए और सौन्दर्यवृद्धि (आभूषण पहनने के द्वारा) के लिए बालक के दोनों कान बेधने चाहिए।



वैदिक ग्रन्थों में कर्णवेध संस्कार का कोई उल्लेख नहीं है। निरुक्त (274) में एक स्थल पर कर्णवेध क्रिया का एक प्रसंग अवश्य है किन्तु वह संस्कार के रूप में नहीं है। अधिकांश गृह्यसूत्र भी इस संस्कार के विषय में मौन है। सम्भवतः पर्याप्त परवर्ती समय में कर्णवेध को संस्कार के रूप में मान्यता मिली हो क्योंकि लगभग सभी स्मृतियों में इसका वर्णन उपलब्ध है।


बालक के जन्म के दसवें, बारहवें, अथवा सोलहवें दिन यह संस्कार सम्पन्न करना चाहिए। इस समय बालक के अंग अत्यन्त कोमल होते हैं और यह संस्कार सुगमता से हो जाता है। कान को बेधने का काम प्रायः कोई चिकित्सक अथवा सुनार करता था। परिवार की सामर्थ्य के अनुसार कान बेधने की सुई सोने, चाँदी अथवा लोहे की हो सकती है। एक उल्लेख के अनुसार क्षत्रिय के लिए सोने की, ब्राह्मण तथा वैश्य के लिए चाँदी की तथा शूद्र के लिए लोहे की सुई का प्रयोग करना चाहिए। 


कभी भी परीक्षा करके देखिए। यदि बच्चे के कान की निचली लौ (हिस्से) को थोड़ा खींच कर उसमें से सूर्य की और देखा जाए, तो उसमें एक छिद्र जैसा स्पष्ट दिखाई देता है। 'सुश्रुत संहिता' का कथन है कि चतुर वैद्य अपने बाएँ हाथ से बालक के कान के निचले हिस्से को खींचकर सूर्यकिरणों से प्रकाशित देवकृत छिद्र को सावधानी से बांध देऐसा माना जाता है कि कानों के छिद्र से प्रवेश करके सूर्य की किरणें बालक या बालिका को तेज सम्पन्न करके पवित्र कर देती हैं। देवल स्मृति ने स्पष्ट कहा है कि जिस व्यक्ति के कर्णरन्ध्र में सूर्य की किरणें प्रविष्ट नहीं हो पाती, उसको देखते ही सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं। यदि कर्णवेध संस्कार न किए गए ब्राह्मण को श्राद्ध में निमन्त्रित कर लिया जाए, तो निमन्त्रित करने वाला व्यक्ति असुर हो जाता है- 'तस्मै श्राद्धं न दातव्यं, यदि चेदसुरं भवेत्।


इस संस्कार का संक्षिप्त स्वरूप कुछ इस प्रकार था। निर्धारित दिवस पर प्रातः काल शिशु को स्नान कराके नए वस्त्र पहना दिए जाते हैं। तत्पश्चात माता शिशु को गोद में लेकर कर्णवेध के स्थान पर लाती है। ईशस्तुति करके वैद्य या सुनार कर्णवेध करता था। लड़के का पहले दायाँ कान और फिर बायाँ कान बेधा जाता था और लड़की का पहले बायाँ और फिर दायाँ कान छेदा जाता था। यह छिद्र पक न जाए इसलिए उसमें तेल लगाया जाता था। वैद्य अथवा सुनार को धनराशि तथा वस्त्रादि देकर सन्तुष्ट किया जाता था। भगवान् को भोग लगाकर प्रसाद दिया जाता है।


रामायण, महाभारत अथवा संस्कृत के अन्य काव्यों-नाटकों में इस संस्कार के प्रसंग नहीं मिलते। वस्तुतः कर्णवेध संस्कार कभी भी महत्वपूर्ण रहा ही नहीं। वर्तमान काल में तो यह सर्वथा लुप्त हो गया। सुविधा के अनुसार आयु के प्रथम द्वितीय मास से अठारह-बीस वर्ष आयु तक कभी भी कान छिदवा लिए जाते हैं। आभूषण पहनाने/पहनने के लिए लड़कियों के ही कान बिंधे जाते हैं। अब तो अस्पतालों में भी यह कार्य होने लगा है। घर पर भी कान छेदने वाला व्यक्ति आकर कान छेद देता है। चाँदी या सोने के तार से कान बेध कर उसी तार को मोड़ दिया जाता है अन्यथा छिद्र में नीम का नन्हा सा तिनका फैसा देते हैं कि छेद बन्द न हो जाए। दो तीन दिन तक गुनगुने देसी घी में हल्दी डाल कर उस छिद्र पर लगाते रहते हैं जिससे कान पक न जाए। गत दस वर्षों से अठारह बीस वर्षों के युवकों में भी एक कान छिदवा कर आभूषण पहनने का फैशन चल पड़ा है। कर्णवेध अब धार्मिक संस्कार नहीं रहा।