नामकरण संस्कार क्यों? ।

नामकरण संस्कार के संबंध में स्मृति संग्रह में लिखा है


आयुर्वर्चाऽभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहृतेस्तया।


नामकर्मफलं त्वेतत् समुदृिष्टं मनीषिभिः ।।


नामकर्मफलं त्वेतत् समुदृिष्टं मनीषिभिः ।। अर्थात् नामकरण संस्कार से आयु तथा तेज की वृद्धि होती है एवं लौकिक व्यवहार में नाम की प्रसिद्धि से व्यक्ति का अलग अस्तित्व बनता है।


इस संस्कार की प्रायः दस दिन के सूतक की निवृत्ति के बाद ही किया जाता है। पाराशर गृह्यसूत्र में लिखा है- दशम्यामुत्वाप्य पिता नाम करोति। कहीं-कहीं जन्म के दसवें दिन सूतिका का शुद्धिकरण यज्ञ द्वारा करा कर भी संस्कार संपन्न किया जाता है। कहीं-कहीं 100वें दिन या एक वर्ष बीत जाने के बाद नामकरण करने की विधि प्रचलित है गोभिल गृह्यसूत्रकार के अनुसार- जननादृशरात्रे व्युष्टे शतरात्रे संवत्सरे वा नामवेयकरणाभ्। इस संस्कार में बच्चे को शहद चटाकर शालीनता पूर्वक मधुर भाषण कर, सूर्य दर्शन कराया जाता है और कामना की जाती है कि बच्चा सूर्य की प्रखरता-तेजस्विता धारण करे, इसके साथ ही भूमि को नमन कर देख संस्कृति के प्रति श्रद्धापूर्वक समर्पण किया जाता है। शिशु का नया नाम लेकर सबके द्वारा उसके चिरंजीवी, धर्मशील, स्वस्थ एवं समृद्ध होने की कामना की जाती है । 


नामकरण के तीन आधार माने गए हैं। पहला, जिस नक्षत्र में शिशु का जन्म होता है, उस नक्षत्र की पहचान रहे। इसलिए नाम नक्षत्र के लिए नियत अक्षर से शुरू होना चाहिए, ताकि नाम से जन्म नक्षत्र का पता चले और ज्योतिषीय राशिफल भी समझा जा सके। भूलरूप से नामों की वैज्ञानिकता का यही एक दर्शन है। दूसरा यह है कि नाम आपको जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक बने और तीसरा यह कि नाम से आपके जातिनाम, वंश, गोत्र आदि की जानकारी हो जाए। ब्राह्मणों के नाम के अंत में शर्मा, क्षत्रियों के वर्मा, वणिक के गुप्ता और अन्य वर्गों के लिए दास शब्द लगाया जाता है।



 


निष्क्रमण संस्कार क्यों?


निष्क्रमण का अर्थ है- बाहर निकालना। बच्चे को पहली बार जब घर से बाहर निकाला जाता है, जैसे माता-पिता के यात्रादि पर जाने के समय निष्कमण संस्कार किया जाता है।


इस संस्कार का फल विद्वानों द्वारा शिशु के स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना बताया है


निष्कमणादायुषो वृद्धिरप्यूद्दिष्टा मनीषिभिः।


जन्म के चौथे मास में निष्कमण संस्कार होता है। जब बच्चे का ज्ञान और कमेंन्द्रियाँ सशक्त होकर धूप, वायु आदि को सहने योग्य बन जाती हैं। सूर्य तथा चंद्रादि देवताओं का पूजन करके बच्चे को सूर्य, चन्द्र आदि के दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। चूंकि बच्चे का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश से बनता है, इसलिए बच्चे का पिता इस संस्कार के अंतर्गत आकाश आदि पंचभूतों के अधिष्ठाता देवताओं से बच्चे के कल्याण की कामना करता है


शिवे तेस्तां द्यावापृथिवी असंताप आभाश्रयी,


शं ते सूर्य आ तप तुर्श वातु ते हृदे।


शिवा अभि क्षरं त्वापो दिव्याः पयस्वतीः।।


-अथर्ववेद सं. 8/2/14


अर्थात् हे बालक! तेरे निष्कमण के समय द्युलोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी सुखद एवं शोभास्पद हों। सूर्य तेरे लिए कल्याणकारी प्रकाश करे। तेरे हृदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो । दिव्य जल वाली गंगा-यमुना आदि नदियाँ तेरे लिए निर्मल स्वादिष्ट जल का वहन करे।


अन्नप्राशन संस्कार क्यों?


माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में जा जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है


अन्नाशनान्मातूगर्भे मलाशाद्यपि शुष्यति।


शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्राशन संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है कि शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे


आहारशुद्धो-सत्त्वशुद्धिः।।


-छान्दोग्य उपनिषद् 7/26/2


अर्थात् शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्व गुण की वृद्धि होती है।


6-7 माह के शिशु के दाँत निकलने लगते हैं और पाचन क्रिया प्रबल होने लगती है, ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरूप उसका तन-मन बनता है। मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है। अन्न से ही जीवन तत्त्व मिलते हैं, जिससे रक्त, माँस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है। अन्न हो मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए। शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चाँदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्न मंत्र बोलते हैं-


शिवौ ते स्तां ब्रीहियवावबलासावदोमधी।


एतो यक्ष्मं विचापेते एत्ती मुंचती अंहसः ।।


-अथर्ववेद 8/2/18 


अर्थात् है बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा नाशक है तथा देवान्न होने से पाप नाशक हैं।


इस संदर्भ में महाभारत में एक रोचक कथा आती है- एक दिन भीष्म पितामह पांडवों को कोई उपदेश दे रहे थे कि अचानक द्रोपदी को हंसी आ गई। द्रौपदी के इस व्यवहार से पितामह को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने द्रौपदी से हँसने का कारण पूछा। द्रौपदी ने विनम्रता से कहा-“आपके उपदेशों में धर्म का मर्म छिपा है पितामहआप हमें कितनी अच्छी-अच्छी ज्ञान की बातें बता रहे हैं। यह सब सुनकर कौरवों की उस सभा की याद हो आई, जिसमें वे मेरे वस्त्र उतारने का प्रयास कर रहे थे। तब मैं चीख-चीखकर न्याय की भीख माँग रही थी, लेकिन आप वहाँ पर होने के बाद भी मौन रहकर उन अधार्मियों का प्रतिवाद नहीं कर रहे थे। आप जैसे धर्मात्मा उस समय क्यों चुप रहे? दुर्योधन को क्यों नहीं समझाया, यही सोचकर मुझे हँसी आ गई।''


इस पर भीष्म पितामह गंभीर होकर बोले- 'बेटी, उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खाता था। उसी से मेरा रक्त बनता था। जैसा कुत्सित स्वभाव दुर्योधन का है, वही असर उसका दिया अन्न खाने से मेरे मन और बुद्धि पर पड़ा, किन्तु जब अर्जुन के बाणों ने पाप के अन्न से बने रक्त की मेरे तन से बाहर निकाल दिया है और मेरी भावनाएँ शुद्ध हो गई हैं। इसीलिए अब में वही कह रहा हूँ, जो धर्म के अनुकूल है।''


चूडाकर्म (कुंडन) संस्कार क्यों?


इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उस्तरै से उतारे जाते हैं। जन्म के पश्चात् प्रथम वर्ष के अंत तथा तीसरे वर्ष की समाप्ति के पूर्व मुंडन संस्कार कराना आमतौर पर प्रचलित है। क्योंकि हिन्दू मान्यता के अनुसार एक वर्ष से कम की उम्र में मुंडन संस्कार करने से शिशु की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता हैऔर अमंगल होने की संभावना रहती है। फिर भी कुल परम्परा के अनुसार पाँचवें या सातवें वर्ष में भी इस संस्कार को करने का विधान है।


मान्यता यह है कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट-करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भगत मलिन संस्कारों को निकालकर मानवतावादी आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने हेतु चूड़ाकर्म संस्कार किया जाता है। इसका फल बुद्धि, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है। इसे किसी देव स्थल या तीर्थ स्थान पर इसलिए कराया जाता है, ताकि वहाँ के दिव्य वातावरण का भी लाभ शिशु को मिले तथा उतारे गए बालों के साथ बच्चे के मन में कुसंस्कारों का शमन हो सके, और साथ ही सुसंस्कारों की स्थापना हो सकें। आश्चलायन गृह्यसूत्र के अनुसारतेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्तये।


तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्तये।


-आश्ववालयन गृह्यसूत्र 1/17/12


अर्थात् चूडाकर्म से दीर्घ आयु प्राप्त होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।


कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है। वेदों में चूड़ाकर्म संस्कार का विस्तार से उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में लिखा है


निवर्तयाम्यायुषेऽन्नाष्द्याय प्रजननाय।


रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्वाय।।


-यजुर्वेद 3/63


अर्थात् हे बालक! मैं तेरी दीर्घायु के लिए, तुझे अन्न-ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिए, उत्पादन शक्ति प्राप्ति के लिए, ऐश्वर्य वृद्धि के लिए, सुंदर संतान के लिए एवं बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिए तेरा (चूड़ाकर्म (मुंडन)) संस्कार करता हूँ।


उल्लेखनीय है कि चूड़ाकर्म वस्तुतः मस्तिष्क की पूजा अभिवंदना है। मस्तिष्क का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना ही बुद्धिमत्ता है। शुभ विचारों को धारण करने वाला व्यक्ति परोपकार या पुण्य लाभ पाता है और अशुभ विचारों को मन में भरे रहने वाला व्यक्ति पानी ईश्वरीय दंड और कोप का भागी बनता हैयहाँ तक कि अपनी जीवन प्रक्रिया को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। अतः मस्तिष्क का सार्थक सदुपयोग ही चूड़ाकर्म का वास्तविक उद्देश्य है।


कर्णवेध संस्कार क्यों?


इस संस्कार को 6 माह से लेकर 16वें माह तक अथवा 3, 5 आदि विषम वर्षों में या कुल की परंपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है। इसे स्त्री-पुरुषों में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है। मान्यता यह भी है कि सूर्य की किरणे कानों के छिद्र से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज संपन्न बनाती हैं। बालिकाओं के आभूषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्युपंचर पद्धति के अनुरूप एक सशक्त माध्यम भी है।


हमारे शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है। ब्राह्मण और वैश्य का कर्णवेध चाँदी की सुई से, शूद्र का लोहे की सुई से तथा क्षत्रिय और संपन्न पुरुषों का सोने की सुई से करने का विधान है।


शुभ समय में, पवित्र स्थान पर बैठकर देवताओं का पूजन करने के पश्चात् सूर्य के सम्मुख बालक या बालिका के कानों को निम्न मंत्र द्वारा अभिमंत्रित करना चाहिए


भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।


स्थिरैरंगैस्तुष्टुवाः सस्तनूभिर्व्यशेमह देवहितं बदायुः ।।


-यजुर्वेद 25/21


इसके बाद बालक के दाहिने कान में पहले और बाएँ कान में बाद में सुई से छेद करें। उनमें कुंडल आदि पहनाएँ। बालिका के पहले बाएँ कान में, फिर दाहिने कान में छेद करके तथा बाएँ नाक में भी छेद करके आभूषण पहनाने का विधान है।


मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशील बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है। नाक में नथुनी पहनने से नासिका संबंधी रोग नहीं होते और सदी-खाँसी में राहत मिलती है। जबकि कानों में सोने की बालियाँ या झुमके आदि पहनने से स्त्रियों में मासिक धर्म नियमित रहता है, इससे हिस्टीरिया रोग में लाभ मिलता है।


 विद्यारंभ संस्कार का महत्त्व क्याे


गुरुजनों से वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है। जब बालक- बालिका का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है, तब यह संस्कार किया जाता है। आमतौर पर 5 वर्ष का बच्चा इसके लिए उपयुक्त होता है। मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है। बालक विद्या देने वाले गुरु का पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन व प्रणाम इसलिए करता है कि गुरु एक श्रेष्ठ मानद बनाए।


ज्ञान स्वरूप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार-करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है। इसके करने से बालक में मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है। इससे वेदाध्ययन आदि में न केवल सुविधा होती है, बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। ज्योतिर्निबंध में लिखा है


विद्यया लूप्यते पापं विद्ययाऽऽयुः प्रवर्धते।।


विद्यवा सर्वसिद्धिः स्याद्धिद्ययात्मृतमश्रुते।।


अर्थात् वेद विद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयु की वृद्धि होती है, सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, यहाँ तक कि विद्यार्थी के समक्ष साक्षात् अमृत रस अशन-पान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।


उपलब्ध हो जाता है। शास्त्र वचन है कि जिसे विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों फलों से वंचित रहना पड़ता हैइसलिए विद्या की आवश्यकताएँ अनिवार्य हैं। मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्ते,


मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्ते,


कान्तेव चापि रमवत्यपनीय खेदम्।।


लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीति,


किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या।।


-सुभाषित भाण्डागार 31-14


अर्थात् विद्या माता की तरह रक्षा करती है, पिता की तरह हितकारी कार्यों में नियोजित करती है, पत्नी की तरह कष्टों का निवारण करके आनंद प्रदान करती है, लक्ष्मी का विस्तार करती है और सभी दिशाओं में कीर्तिवान् बनाती है, इस प्रकार कल्पलता की तरह विद्या क्या-क्या नहीं करती, अर्थात् सब कुछ प्रदान करती है।


यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कार क्यों?


मनु महाराज का वचन है


मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौञ्जिबन्धनं।


-मनुस्मति 2/169


अर्थात् पहला जन्म माता के पेट से होता है और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है।


माता के गर्भ से जो जन्म होता है, उस पर जन्म-जन्मांतरों के संस्कार हावी रहते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा बुरे संस्कारों का शमन करके अच्छे संस्कारों को स्थायी बनाया जाता है। इसी को द्विज अर्थात् दूसरा जन्म कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों इसीलिए द्विजाति कहे जाते हैं। मनु महाराज के अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार हुए बिना द्विज किसी कर्म का अधिकारी नहीं होता


न ह्यस्मिन्युज्यते कर्म किंचदामौजीबन्धनात्।


-मनुस्मृति 2/171


-मनुस्मृति 2/171 यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद ही बालक को धार्मिक कार्य करने का अधिकार मिलता है। व्यक्ति को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाना ही यज्ञोपवीत है। यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कंधों पर उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना और परमात्मा को प्राप्त करना। शास्त्रों में यज्ञोपवीत के लाभों का विस्तार से वर्णन मिलता है। पद्मपुराण कौशल कांड में लिखा है कि करोड़ों जन्म के ज्ञान-अज्ञान में किए हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से नष्ट हो जाते हैं। पारस्करगृह्यसूत्र 2/2/7 में लिखा है, जिस प्रकार इंद्र को बृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था, उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और संपत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहनना चाहिए ।


यज्ञोपवीत धारण करने से शुद्ध चरित्र और कठिन कर्तव्य पालन की प्रेरणा मिलती है। इसके धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पा लेते हैं। यानी मनुष्यत्व से देवत्व प्राप्त करने हेतु यज्ञोपवीत सशक्त साधन है। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है कि यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बंधनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है।


जो द्विजाति अपने बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार नहीं करते, वे अपने परोहित के साथ निश्चित ही नरक में जाते हैं, ऐसा नारद संहिता में लिखा है। इसमें यह भी लिखा है कि यज्ञोपवीत रहित द्विज के हाथ का दिया हुआ चरणामृत मंदिरा के तुल्व और तुलसीपत्र कर्पट के समान है। उसका दिया हुआ पिंडदान उसके पिता के मुख में काक विष्ठा के समान है।


 वेदांत रामायण में लिखा है कि जो द्विजाति यज्ञोपवीत संस्कार किए बिना मंद बुद्धि से मंत्र जपते और पूजा-पाठादि करते हैं, उनका जप निष्फल है और वह फल हानिप्रद होता है।


समावर्तन (उपदेष्टा) संस्कार क्यों?


ब्रह्मचर्य व्रत के समापन व विद्यार्थी जीवन के अंत के सूचक के रूप में समावर्तन (उपदेश) संस्कार मनाया जाता है, जो साधारणतया 25 वर्ष की आयु में होता है। इस संस्कार के माध्यम से गुरु शिष्य को इंद्रिय निग्रह, दान, दया और मानव कल्याण की शिक्षा देता है। ऋग्वेद में लिखा है 


युवा युवासाः परिवीत आगात् स उ श्रोयान् भवति जायमानः।


घीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो 3 मनसा देवयन्तः ।।


-ऋग्वेद 3/8/4


अर्थात् युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, उपवीत (ब्रह्मचारी) सब विद्या से प्रकाशित जब गृहाश्रम में आता है, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता है। उसको धीर, बुद्धिमान, विद्वान्, अच्छे ध्यान युक्त मन से विद्या प्रकाश की कामना करते हुए, ऊँचे पद पर बैठाते हैं।


अथर्ववेद 11 (5) 7-26 में लिखे मंत्र का अर्थ है कि- ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाचार प्रभु के आनन्द रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शक्तिमान् और पिंगल दीप्तिमान् बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।


इस समावर्तन संस्कार के संबंध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभो! हमें उपदेश दीजिए। 'प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया 'द'। इस पर देवताओं ने कहा- हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोगों की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें 'द' से दमन अर्थात् इंद्रिय संयम का उपदेश कर रहे हैं। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा- ठीक है, तुम समझ गए।'


फिर मनुष्यों को भी 'द' अक्षर दिया गया, तो उन्होंने कहा- हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैंअतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए।


असुरों की भी ब्रह्मा ने उपदेश में 'द' अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्चय ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मो को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात् प्राणि मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा- ठीक है, तुम समझ गए।'


निश्चय ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनाना उन्नति का मार्ग होगा।


विवाह एक पवित्र संस्कार क्यों?


श्रुति का वचन है-दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत को पालन करने वाले दंपती उमा-महेश्वर के प्रेमादर्श को धारण करते हैं, यही विवाह का स्वरूप है।


हिन्दू संस्कृति में विवाह कभी न टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्त्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं एवं भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर बढ़ते हैं। यानी विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रियसुख भोग नहीं, बल्कि संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है।


ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब व्यवस्था का श्री गणेश हुआ।


आज-कल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाहों को ब्राह्म विवाह कहते हैं। इस विवाह की धार्मिक महत्ता मनु ने इस प्रकार लिखी है


दश पूर्वान् परान पंश्यान् आत्मनं चैक विशकम् ।


ब्रह्मीपुत्रः सुकृतकृत मोचये देवसः पितृन।।


-मनुस्मृति 3


अर्थात् ब्राह्म विवाह से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है-10 अपने आगे के, 10 अपने से पीछे और एक स्वयं अपनी।


भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लड़की को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरक भोग से बचा लेते हैं।


अश्वलायन ने तो यहाँ तक लिखा है कि इस विवाह विधि से उत्पन्न पुत्र बारह पूर्वजों और बारह अवरणों को पवित्र करता है


तस्यां जातो द्वादशा वरान् द्वादश पूर्वान् पुनाति।


भारतीय संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे हैं। मनुस्मृति 3/21 के अनुसार विवाह-ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं।


विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रूप से परिपक्वता दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ़ प्रेम संबंध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार देखें, तो ज्ञात होगा कि विचार संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का मेरुदंड है ।