पितृ-ऋण, मुक्ति संस्कार -“श्राद्ध का सूकरक्षेत्र (सोरों) में करने का महत्व

मृत देह को चिताग्नि में विसर्जन के बाद जो देहांश उस अग्नि में भी भस्म नहीं होता वह शरीर का कंकाल होता है यह जला हुआ कंकाल ही 'अस्थियाँ' या 'फूल' कहे जाते हैं; जो जीव के घर का एक भाँति से खण्डर ही होता है देह रूपी घर को माता-पिता पित्रों से 28 अंश रेतस लेकर ही बना पाते हैं यही पितृ ऋण है तो माता-पिता इस देहरूपी घर के निर्माता हैं और संतान आदि इस के विसर्जन करने की अधिकारिणी होती है शोडष संस्कारों में केवल एक अन्तिम संस्कार ही पुत्रादि को करने का अधिकार ऋषि चेतना ने प्रदान किया है।



प्रत्येक मानव जीव 'देव ऋण', 'ऋषि ऋण', 'पितृ ऋण' व 'जन्म भूमि ऋण' के साथ ही जन्म लिये होता है। ऋण चुकाना कर्त्तव्य भी है और धर्म भी। 'पितृ ऋण' की यहाँ मैं चर्चा करूँगा इससे मुक्त होने के विविध चरण हैं। उनमें माता-पिता आदि परिवारजनों के जीवन काल में ही सेवा शुश्रूषा की जाती हैउसके बाद उनका देह विसर्जन होने के उपरान्त अन्त्येष्टि क्रिया से सपिण्डन, एकोदिष्ट, क्षमा तिथि श्राद्ध आदि भी करना 'पितृ-ऋण से मुक्ति के विविध स्पेमान ही हैं।


मृत देह को चिताग्नि में विसर्जन के बाद जो देहांश उस अग्नि में भी भस्म नहीं होता वह शरीर का कंकाल होता है यह जला हुआ कंकाल ही 'अस्थियाँ' या 'फूल' कहे जाते हैं; जो जीव के घर का एक भाँति से खण्डर ही होता है देह रूपी घर को माता-पिता पित्रों से 28 अंश रेतस लेकर ही बना पाते हैं यही पितृ ऋण है तो माता-पिता इस देहरूपी घर के निर्माता हैं और संतान आदि इस के विसर्जन करने की अधिकारिणी होती है शोडष संस्कारों में केवल एक अन्तिम संस्कार ही पुत्रादि को करने का अधिकार ऋषि चेतना ने प्रदान किया है। मैं अपनी बात आप सम्मानित पाठकों के समक्ष रखने के लिए मृत व्यक्ति के चिताग्नि से बचे हुए देहांश को यदि शरीर रूपी घर का कचरा कहूँ तो अन्यथा न लिया जाय। कोई भी कचरा वहाँ डाला जाता है जहाँ वह किसी को कोई समस्या पैदा न करे, जैसे कृषक अपने पशु धन का गोबर आदि किसी स्थान पर एकत्र करता रहता है तो वह एक ढेर के रूप में दिखाई देने लगता है जब वह सारे ढेर को वहाँ से हटा कर अपने क्षेत्र (खेत) प्रकीर्णित कर देता तो वहाँ वह कचरा देर नहीं मालूम होता न ही वह कोई हानि पहुँचाता है उसका अच्छा प्रभाव ही होता है खेत उपजाऊ हो जाता है।


होता है खेत उपजाऊ हो जाता है। मृत व्यक्ति के देहांश को कहाँ विसर्जित किया जाय इस विषय का चिन्तन करते हुए आदेशित है कि गंगा आदि पवित्र नदियों में इसे प्रक्षिप्त किया जाय। यहाँ विचारणीय विषय यह है कि ऐसा करने को क्यों कहा गया, इसके पीछे कारण यह है जिस व्यक्ति के शरीर रूपी घर का वह अवशेष है, उसे उस देह रूपी घर में रहने वाला जीव, अपने घर का खण्डहर मानता है। उसके प्रति उस जीव का मोह होता है, उस घर के खण्डहर को ऐसे स्थान पर डाल दो जहाँ वह उस जीव को भी दिखाई ना दे, ना ही किसी को कोई समस्या पैदा करे। क्या गंगा आदि नदियों में वह देहांश विसर्जित किया जाना चाहिए? ऐसा कहना उचित है? जिस घटना से प्रेरित होकर जन मानस ने यह करना शुरू किया है वह एक पौराणिक आख्यान हैसूर्यवंश के राजा 'सागर' के पुत्रों का 'कपिल' (संकल्प दर्शन के प्रणेता) के शाप से भस्म हुए थे का उद्धार करने के लिए उनके वंशज भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाकर उनका गंगाजल में विसर्जन या स्पर्श कराया था जिसमें मृताला मुक्त होकर स्वर्ग चले गये थे। यहाँ विद्वदजनों के समक्ष मेरी जिज्ञासा है 'भस्म' में क्या कोई जीवांश शेष रहता है? जब सगर पुत्र शाप से भस्म (राख) ही हो गये तब उनको चिताग्रि तो दी नहीं गई, तीसरे जब राख (भस्म) ही हो गये तो वहाँ उनके देहांश तो थे ही नहीं फिर गंगा के जल में स्पर्श होने बाद वे सगर पुत्र दिव्य देह धारण कर स्वर्ग चले गये? तो गंगा में हड्डियाँ या देहांश डालने की क्रिया क्यों और कैसे आरम्भ हो गई? गंगा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न थीं या सभी जनमानस से भी उसी बात के लिए वचनबद्ध ? यहाँ यह भी विचारणीय है जब गंगा पृथ्वी पर नहीं थी तब मृत देहों की अस्थियाँ कहाँ डाली जाती थी? यदि गंगा में ही फूल अस्थियाँ डालने से मोक्ष या स्वर्ग की प्राप्ति होती हैतो पहले के जो मुक्ति के साधन-जप, तप आदि थे। को छोड़ क्यों बचा जाने लगा? गंगा में हड्डियाँ या मृत देह को डालने को इतना महिमा मंडित किया जाने लगा कि आज वह समस्या बन चुका है। 'मदन रत्न' में वृद्ध मनु ने कहा


दशाहाम्यन्तरे यस्य गङ्गतोऽस्थ मञ्जति।


गंगयां मरणं यादूक तादृक् फलमवाटनुयात्।।


अर्थात् दस दिनों के अन्तर्गत (मृत्यु होने के बाद) गंगा में अस्थियाँ प्रवाहित करने से मतृ व्यक्ति को वही फल प्राप्त होता है जो गंगा तट पर प्राण त्यागने से होता है।


ब्रह्मपुराण में उल्लेख है


ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि वा।


गङ्गयां च मृतो मृर्त्यः स्वर्ग मोक्ष च निन्दति।।


गंगाजी की सन्निधि में मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होता है।


मोक्ष प्राप्त होता है। विचारणीय है 'मृत्यु' जीव को लेने आती है और स्वयं 'प्राण' तथा 'देह' का विलग करना एक मौलिक क्रिया है जो किया जाता है तो दिनों में से कौन सी क्रिया में स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होती है?


में स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त विद्वजन! आलेख के विस्तार भय के ऋण विचारणीय और मनन चिन्तन के विषय को अपने मूल मन्तव्य की ओर ले जाता हूँ:


श्राद्धादिक क्रियाओं के करने को सप्तपुरियों का विशेष महत्व बताया गया-


अयोध्या मथुरा गया काशी काञ्ची अवन्तिका


पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्ष दाणिका।।


उपरोक्त सभी स्थान मोक्ष प्रदाता है।


विदुद्दजनों के सम्मुख करबद्ध अपना विचार रखना चाहता हूँ-'गंगा' और 'गंगाजी' दोनों के अर्थ सम्मिलत के कारण भय वस 'गंगाजी' को 'गंगा' और 'गंगा' को 'गंगाजी' समझ लिया गया है वैदिक वाङ्गमय का एक श्लोक प्रस्तुत है


गङ्गगयानैमिषपुष्कराणि काशी, प्रयागः | कुरूजाङ्गलानि।


तिष्ठन्ति देहे कृतभक्तिपूर्व गोविन्दभक्ती वहतां नराणाम् ।।


पद्मपुराण


पद्मपुराण अर्थात् श्री गोविन्द की भक्ति करने वाले मनुष्य के शरीर गंगा, गया, नैमिषारण्यण, पुष्कर, काशी, प्रयाग और कुरूक्षेत्र भक्तिपूर्वक निवास करते हैं ।


प्रस्तुत श्लोक पर मनन करने से एक बिन्दु स्पष्ट है कि गंगा को इन सभी तीर्थ स्थानों में प्रथम रखा गया है पर क्या कारण है कि 'स्थान वाची' संज्ञाओं के साथ नदी वाची' संज्ञा को रखा गया है? गंगा को अन्य पवित्र नदी जैसे नर्मदा, गोदावरी आदि में प्रमुख न बताकर स्थानों के साथ क्यों रखा गया हैं?


बस यही थोड़ा चिन्तन का विषय हैत्रिगंग (आदि गंगा, वृद्ध गंगा औ भागीरथी गंगा) तटीय 'सूकरक्षेत्र' सप्तक्षेत्रों में गण्य एक जो वर्तमान में भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश राज्य के कासगंज जनपद में मथुरा, आगरा, अलीगढ़ बरेली आदि नगरों से सौ किमी. तथा राजधानी दिल्ली से लगभग 250 किमी. है। इस स्थान को पौराणिक और लोक मानस में लगभग चौदह नामों से जाना जाता है इनमें इस समय इस स्थान को सोरों (सूकरक्षेत्र) नाम से जाना जाता है, इस स्थान का एक पर्याय नाम 'गंगाजी' भी है, जिसे 'गंगा नदी' वाची के रूप में ले लिया गया है भाषा विज्ञान में शब्दों का लिया गया है भाषा विज्ञान में शब्दों का 'अर्थ संकुचन' और 'अर्थ विस्तार होता है, यह सभी जानते हैं। 'गंगाजी' (सूकरक्षेत्र सोरों) के साथ भी यहीं हुआ है।


एक जिज्ञासा और भी है कि जब 'गंगा' 'हस्तिनापुर के राजा 'शान्तनु' की पत्नी और भीष्म की माता के रूप में थी तब भगवान भोले नाथ' की जटाओं में कौन था क्या तब भी नीर रुपा सतत प्रवाह था क्या तब भी वह मृतात्माओं को मोक्ष और स्वर्ग उस नीर से प्राप्त हो रहा थाइस विषय का यह समाधान दिया जा सकता कि मानव मस्तिष्क ईश्वर लीला को नहीं समझ सकता।


पुनःश्च एक बिन्दु और स्पष्ट कर देंजब मध्य और पश्चिम भारत से कोई भी तीर्थ यात्री 'गंगाजी' या 'गंगा' के उद्देश्य से आता तो वहाँ उसका समझ लिया जाता है- 'गंगाजी' यानि 'सोरों सूकरक्षेत्र और 'गंगा' माने 'हरिद्वार' 'प्रयाग' 'बनारस', आदि।


अब मैं सूकरक्षेत्र में श्राद्धादिक क्रियाओं के विषय में अनुशीलता प्रस्तुत करता हूँ


यत्र संस्था च मे दनि खुधृतात्सि रसातलात।


यत्र भागीरथी गंगा यम सौकर वे स्थिता।।


भगवान वराह कहते है देखि पृथ्वी! मैंने तुम्हें रसातल से उद्वार करके वहाँ स्थापित किया जहाँ भागीरथी गंगा प्रवाहित है।


'पञ्च योजन विस्तार्थे सूकरे मन मन्दिरे।''


अर्थात् संसार का सबसे बड़ा मन्दिर सूकरक्षेत्र है।


“वाराहं परम तीर्थम् त्रिशु लोकेशु विश्रुतम्।


यह वराह तीर्थ सूकरक्षेत्र तीनों लोकों में विख्यात है।


यहाँ तपस्या का फल अन्य किसी स्थान पर साठ हजार वर्षों करके प्राप्त होगा वह मात्र प्रहर के आधे भाग में प्राप्त होता है


सष्टि वर्ष सहस्राणि योऽन्यत्र करते तपः।


तत्फलं लभते देवि! प्रहराऽर्धन सूकरे।।


गगायं च स्थले मुक्ति वाराणस्यं जले स्थले।


जले स्थले च अन्तरिक्षे त्रिधामुक्ति सूकरे।।


गया में स्थल में मुक्ति वाराणसी में जल व स्थल दोनों में मुक्ति, है तथा सूकरक्षेत्र में नभ, थल, जल तीनों में मुक्ति है।


इसी भाँति यहाँ 'गंगाजी' 'सोरो' में दान की महिमा भी कही गयी है


कुरूक्षेत्र में दान करने से दस गुना बनारस में सौ गुना गंगासागर में हजार गुना और सकरक्षेत्र में अनन्त गुना फल प्राप्त होता है।


जहाँ तक अस्थि (फूल) विसर्जन का विषय है तो उल्लेख ही नहीं प्रमाण परीक्षणित है। शंकालुओं तथा लिखे-पढ़े जो जानने समझने के स्थान पर नकारम्त अधिक सीख जाते हैं। जब बुद्धि शून्य हो जाती है तब आश्चर्य चकित निहारते हैं। मैंने अपने आलेख के आरम्भ में परोक्ष रूप से गंगा में अस्थि विर्सजन को अस्वीकार किया क्यों कि इस कार्य को करने का पृथ्वी पर एक मात्र स्थान 'सूकरक्षेत्र सोरों (गंगाजी) ही है यहाँ विसर्जित की गई पूर्वजों की अस्थियाँ तीन दिन में अणु रूप में परिवर्तित हो जाती है


प्रक्षिप्तास्तुवर्गस्तु रेणुरूपेण जयावते।


त्रिदिनान्ते वरारोहे ममक्षेत्र प्रभावत।।


यह घटना अनेक प्रसारण माध्यमों ने अपने कैमरों खींच कर प्रसादित की है यहाँ के जब का परीक्षण किया है। पर रहस्य समझ से परे है।


'गंगाजी' ('सूकरक्षेत्र'-सोरों) के बारे में भगवान धरणीघर का उद्घोष है


दश पूर्वापराश्चायि अपरे सप्त पञ्च


चस्वर्ग गच्छन्ति पुरुषास्तेषां ये तत्र वै मृताः।। 16


गमजादेव सुश्रोणि मुखस्य मम दर्शनात्।


धनधान्यसमृद्धेषु रूपवान गुणवान शुचिः।


मधक्तश्चैव जायते मम कर्मपरायणः।। 15


एवं वै मानुषो भूत्वा अपराधविवर्जिजतः।


गमनन्तस्य क्षेत्रस्य मरणं तत्र कारणम्।। 16


ये मृतास्तस्य क्षेत्रस्य सौकरस्य प्रभावतः।


शंखचक्रगदापद्म धनुर्हस्ताश्चतुर्भुजा ।। 17


त्यक्त्वा कलेवरन्तपूर्णा श्वेतद्दीपाय यान्ति।


वराहपुराण 167


मनीषिगण ! फिर में कहँगा कि गंगा में अस्थि व देह विसर्जन मोक्ष और स्वर्ग का प्रदाता हो सकता है पर, भगवान महीधर का यह कथन क्यों विस्मृत किया गया है


परम कोकामुखं स्थानं तथा कुव्जाम्रकंपरम्।


परम सौकरवं स्थानं सर्वसंसार मोक्षणम्।।


वराहपुराण 137/7


 श्राद्धदक कार्य के लिए वेद में पारंगत ब्राह्मणों का चयन किया जाना चाहिए ।


न ब्राह्मणं परीक्षेत्र देवकार्येषु प्रत्यक्षः।


पितृकार्ये परीक्षेत ब्राह्मणं तु विशेषतः।।


वचन के अनुसार गंगाजी सोरों सूकरक्षेत्र में निवास करने लगभग साढ़े तीन हजार परिवारों में विविध गोत्रिय ऋषिपुत्रों व वेरचतुष्टयी के निष्णात श्रौत कर्मरत् ब्राह्मणों के यहाँ आने वाले संस्कारभिलाषियों की तृषा तृप्त की जाती हैं।


सोरों में प्रत्येक प्रकार के संस्कारों का विधिवतपूर्ण करने वाले ब्राह्मण हैं यहाँ यदि अन्त्येष्टि क्रिया तीन सोपान-1 अस्थि विसर्जन (आदि गंगाजी/ हरि पौड़ी/ वराह कुण्ड/ ब्रह्मकुण्ड), श्री हरि गंगा 2. तर्पण, 3. दशाह, एकादशा, एकोदिष्ट त्रिपिड़ी, नरायणवली, नागवली, मैमित्तक, काम्य, दैविक, महालय, आदि सभी प्रकार के श्राद्ध कर्म ज्योतिष कालानुसार सम्पन्न किये जाते हैं।


अशोच के समय के श्राद्ध के तीन चरण मृतात्मा की अस्थिविसर्जन, तपर्ण दशाह आदि कर्म एक साथ सम्पन्न हो जाते हैं।


उपरोक्त विवेचन क्या आप के विचारों को तरंगित करता हैं तो गंगा नहीं गंगाजी सोरों सूकरक्षेत्र का विषय विचारणीय है-या नहीं?


है-या नहीं? शरीर से आत्मा के प्रयाण काल के समय और स्थान के बारे में कूर्मपुराण व स्कन्दपुराण में चर्चा है कि मृत्यु के समीप होने पर गंगा तट पर चले जाना चाहिए वहाँ मृत्यु होने से स्वर्ग मिलता है। मैं फिर निवेदित करता हूँ यह बात गंगाजी सोरों सूकरक्षेत्र सन्दर्भ में है क्योंकि मैं पहले भी कह चुका हूँ


'परम सौकरवं स्थानं सर्वसंसार मोक्षण' यह स्थान सभी के मोक्ष देने वाला स्थान है। गंगा के विषय में पुनः चिन्तन करने की आवश्यकता है।