सनातन संस्कारों की मानव-जीवन में उपादेयता

सनातनकाल से भारतवर्ष सत्संस्कार सम्पन्नता के कारण निखिल विश्व का धर्मगुरु' रहा है। ऋतम्भराप्रज्ञा सम्पन्न ऋषि-मुनियों द्वारा समग्र ज्ञानराशि के सञ्चित कोष अपौरुषेय वेद भगवान् का साक्षात्कार करने के अनन्तर जीव-जगत् के कल्याण हेतु परमार्थ दृष्ट्या संविधानक के रूप में जो शाश्वत-सिद्धान्त निर्दिष्ट किये गये हैं, वे अनन्तकाल तक मानवसमाज को सुसंस्कृत करते रहेंगे। दार्शनिक-दृष्टि से आत्मा के विशेष गुण में रहने वाली तथा मूर्त द्रव्यों में रहने वाले 'गुण' में रहने वाली तथा गुणत्व जाति की व्याप्य जो जाति है उससे युक्त गुण को 'संस्कार' कहते हैं :


'आत्मविशेषगुण वृत्तिमूर्त वृत्ति-वृत्ति


गुणत्व व्याप्य जातिमान् संस्कारः।



संस्कार त्रिविध प्रकार का होता है(1) वेग (2) भावना और (3) स्थितिस्थापक। अतिसङ्क्षेप में इनका परिचय इस प्रकार से है- 'वेग' नामक संस्कार पृथिवी, जल, तेज तथा वायु - इन चार महाभूतों के साथ ही विशेषरूप से 'मन' में रहता है। यह क्रिया का हेतु होता है। भावना नामक संस्कार तो केवल 'आत्मा' में रहता है, जो कि अनुभव से उत्पन्न होकर स्मृति का कारण (हेतु) होता है और यह उद्बुद्ध होकर ही स्मृति को उत्पन्न करता है। स्थितिस्थापक नामक संस्कार तो स्पर्शयुक्त द्रव्य विशेषों में रहता है। यह अपने आश्रयभूत 'धनुष' आदि जब अन्य आकार के हो जाते हैं, तब पुनः उसे पूर्वस्थिति में पहुँचाने वाला होता है। श्रौतयाजी अर्थात् आर्ष-परम्परा के संवाहक अग्निहोत्री-गण 'अग्निचयन' को ही संस्कार स्वीकार करते हैं।


सम्यक् करण का नाम संस्कार है। संस्कार शब्द की निष्पयत्ति सम् उपसर्गपूर्वक तनादिगणपठित 'दुकृञ्करणे (उभयपदी, अनिट्) धातु में 'घञ्' प्रत्यय और 'सम्पर्युपेभ्यः करोतौ भूषणे' (पाणिनिअष्टाध्यायी 6/1/137) तथा महावैयाकरण श्रीभट्टोजिदीक्षित महाभाग द्वारा विरचित व्याकरण-ग्रन्थ 'सिद्धान्तकौमुदी' के अनुसार - “सम्परिभ्यां करोतौ भूषणे च सुट् स्यात् भूषणेऽर्थे'' - इस सूत्र से सुट् का आगम करने पर भूषण (अलङ्कार) अर्थ में होती है।


कर्तव्यता की दृष्टि से संस्कार के तीन प्रमुख कार्य हैं -


1. मलापनयन अथवा मलापनोदन


2. हीनाङ्गपूर्ति


3. अतिशयाधान


विजातीय द्रव्य के योग से मलिनता को प्राप्त सुवर्ण (सोना) को घर्षणादि के द्वारा निर्मल बनाना मलापनयन अथवा मलापनोदन (मल-धूल आदि का दूर करना) है। आभूषण के रूप में स्थैर्य प्रदान करने के लिये उसमें किञ्चित् ताम्र-धातु (ताँबा) का सन्निवेश हीनाङ्गपूर्ति है। उसे आभूषण का रूप प्रदान करके उसमें यथास्थान हीरा, मोती, माणिक्य आदि का योग अतिशयाधान है। पहले अनुभूत, दृष्टि या श्रुत विषय के स्मरण होने के अर्थ से 'अभिधान चिन्तामणि' कार श्वेताम्बर- जैनाचार्य हेमचन्द्र संस्कार के त्रिविध रूप में- (1) वासना (2) भावना, तथा (3) संस्कार- ये नाम प्रदान करते हैं। यथा


वासना भावना संस्कारोंऽनुभूती द्यविस्मृतिः।


-(अभिधानचिन्तामणिः 6, सामान्यकाण्डः 9)


व्याकरणशास्त्रीय-ग्रन्थ 'काशिकावृत्ति


के अनुसार उत्कर्ष के आधान को (संस्थापन को) संस्कार कहा जाता है; - उत्कर्षाधानं संस्कारः। संस्कार प्रकाश' नामक धर्मशास्त्रीय-ग्रन्थ में अतिशय गुण को संस्कार माना गया है;-'अतिशय विशेषः संस्कारः।' आयुर्वेदाचार्य महर्षिचरक की संस्कार-विषयक अवधारणा है कि दुर्गुणों, दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन करके भिन्न एवं नये गुणों का आधान करने का नाम संस्कार है


संस्कारों हि गुणन्तराधानमुच्यते'


-(चरसंहिता विमान. 1/27)।


भारतीय तत्त्ववेत्ता महापुरुषों ने जिस संस्कार पद्धति का निर्देश किया है, वह पूर्णतया काल (समय, अवस्था) पर आधारित है। काल को तो भगवत्स्वरूप माना गया है। काल की गति से सम्पूर्ण चराचर सृष्टि सञ्चालित और नियन्त्रित होती है। मूलरूप से सर्वथा अविभाज्य कालतत्त्व को सुचारु जीवनचर्या के लिये सूर्यचन्द्रमा के परिभ्रमण के अनुसार विज्ञानसम्मत ज्योतिषशास्त्र में सन्निहित किया गया है। तदनुसार संवत्सर, अयन, ऋतु आदि भेद होते हैंसंवत्सरों के योग क्रम से ही युग, मनवन्तर तथा कल्प आदि की भी गणना की जाती है। काल की इतनी महिमा है कि वह मनुष्य के गर्भाधान से प्रारम्भ करके अन्त्येष्टि-पर्यन्त प्रभावित करता है; अतः कालगणना के अनुसार यथाकाल निर्दिष्ट समय में सम्पन्न किये गये सनातनधर्मी विधि से संस्कारों द्वारा मनुष्य देवत्व की प्राप्ति करने में समर्थ हो जाता है। दैवज्ञ ऋषि-मुनियों ने स्वमतानुसार निर्धारित विविध भेद-प्रभेद युक्तसंस्कारों का समय-निर्धारण अत्यन्त सूक्ष्म साधना के आधार पर किया है। काल के यथोचित परिपालन से ही संस्कारों में परिपूर्णता आती है। 'यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' के सिद्धान्तानुसार काल, ग्रह, नक्षत्र, राशियाँ जैसे ब्रह्माण्ड को प्रभावित करती हैं उसी प्रकार इस मानव-शरीर को भी।


संस्कार परिभाषा


जिसके वैदिक संस्कार सविधि सम्पन्न हुये हैं। जो नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है, उस विज्ञपुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त करने में विलम्ब नहीं होता है -


संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः।


प्रज्ञास्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत्र च।।24।।


-(महाभारत, शान्तिपर्व-मोक्षपर्व,


अध्याय 235/24)


अध्याय 235/24) भगवत्पाद आदिशंकराचार्य महाभाग (ईसापूर्व 509 वर्ष पूर्व लब्धजन्मा) का प्राकट्य आज से लगभग (2524) दो हजार पाँच सौ चौबीस वर्ष पूर्व केरल प्रान्त के कालडी (टी) नामक ग्राम में हुआ था। आपने भगवान् वेदव्यासविरचित 'ब्रह्मसूत्र' ग्रन्थरत्न के अद्वैतवादपरक 'शाङ्करभाष्य' में संस्कार की परिभाषा निर्दिष्ट की है;


'संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य


गुणाधानेन वा स्यादुद्दोषापनयनेन वा।'-


गुणाधानेन वा स्यादुद्दोषापनयनेन वा।'- (ब्रह्मसूत्रम् अध्यायः 1/ पादः 1/ समन्वयाधिकरणम् 4/ सूत्रम् 4 शाङ्करभाष्यम्- “तत्तु समन्वयात्' सूत्रस्यभाष्ये)


अर्थात् संस्कार्य (जिसको संस्कारित करना है) में सद्गुणों का संस्थापन- आधान, और उससे पूर्व दोषों का अपनयन (दूरीकरण, परिमार्जन) का नाम ही 'संस्कार' है।


विशिष्टा द्वै तसम्प्रदाय के संस्थापक जगद्गुरुस्वामिश्रीरामानुजाचार्यवर्य ने 'संस्कार' शब्द को पारिभाषित करते हुये 'श्रीभाष्य' में लिखा है;


'श्रीभाष्य' में लिखा है;'संस्कारो हि नाम कार्यान्तरयोग्यताकरणम्' योग्यताकरणम्'


(श्रीरामानुजाचार्यकृत श्रीभाष्यम् | 1/1/9)


शास्त्रविहित क्रियाजन्य संस्कार न केवल उत्पन्न दुरित (पाप) का ही नाश करता है, अपितु कार्यान्तरयोग्यता का भी  सम्पादन करता है।


संस्कार-साक्षात्कार या संस्कार-दर्शन योग की विभूतियों में से एक विभूति। आचार्यपतञ्जलि ने संस्कार-दर्शन के सम्बन्ध में कहा है; 


'संस्कार साक्षात्करणात् पूर्व जातिज्ञानम्।' अर्थात् संस्कारों के साक्षात्कार-दर्शन से जन्म-जन्मान्तर का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।


-(योगदर्शनम् विभूतिपादः, 3/18) योगदर्शन के विभूतिवर्णनपरक इस सूत्र से सनातनधर्म-भारतीय संस्कृति का पूर्वजन्म-पुनर्जन्मसिद्धान्त परिपुष्ट होता है। संस्कारगत कर्मों के प्रभाव से ही जीव सर्वथा बाध्य होकर नाना प्रकार की चौरासी लाख योनियों के चक्र में फँसकर स्थावर जङ्गन्म योनियों में पुनर्जन्म कर्मभोग भोगता है।


योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।


स्थाणुमन्ये अनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।।''


आगे और है....