विवाह-संस्कार

भारतीय विवाह प्रणाली के भीतर छिपी हुई संस्कार की पद्धति अत्यंत शिक्षाप्रद और बोधगम्प है। वैदिक संस्कार के अनुसार विवाह विधि में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण बातें है, जिनका संबंध समाज से हैं, कुछ का सम्बंध वर-कन्या से है और कुछ का परिवार से वस्तुतः स्त्री और पुरुष का परस्पर मिलना ही विवाह-संस्कार के भीतर बीज मन्त्र की तरह छिपा बैठा है। उसी बीज को लेकर उस पर कई प्रकार के अनिवार्य खोल को चढ़ाकर पारिवारिक और सामाजिक संस्कार को कलात्मक रूप से किया जाता है जो कार्य असली रूप से वर के मंडप में पधारने से शुरू होता है।



पहला नियम वैदिक मंत्रों और श्लोकों से मंगलाचरण करने के बाद दूसरा शुभ कृत्य कलश-स्थापना है। इसमें जल से पूरित आम्रादि पल्लवों से युक्त पूर्ण कलश को सृष्टि के अखंड सत्य और विश्व के पूर्ण रूप की प्रतीक स्थापना समझी जाती हैविवाह की इस पूर्वांग विधि के उपरान्त वरार्चन होता है। इसके अन्तर्गत कन्या- पक्ष से मंडप में पधारे प्रधान अतिथि अर्थात् वर का उचित सत्कार किया जाता है।


जाता है। प्राचीन काल से ही प्रचलित इस आतिध्यसत्कार के द्वारा आसन, पाद्य (पैर धोने का पानी) कुल्ला करने का जल (आचमनीय,) खाने के लिए थोड़ा मधुपर्क (शहद-घी मिला हुआ दही अर्पित किया जाता है।) इसके उपरान्त अग्निप्रणयन, यानी मंडप की वेदिका में अग्नि लाकर रखा जाता है। यह अग्नि विवाह का साक्षी कर्म है। इसके बाद का कर्म परस्पर समंजन है। वर-वधू मंडप में बैठे हैं। उन्हें इस संबंध के लिए परस्पर मानसिक अनुमति देनी आवश्यक है। इसीका नाम हृदय समंजन या मैत्रीकरण है। दो विभिन्न हृदयों को मिलानेवाला यह भाव विवाह का मूल है।


इसके पश्चात् विवाह की सबसे महत्त्वपूर्ण विधि आती है अर्थात् कन्यादान। कन्यादान के संकल्प में दोनों पक्ष अपनी-अपनी और का अंश तीन बार पढ़ते हैं। कानूनी ढंग का चुस्त भाषा में रचा हुआ यह प्रतिज्ञापत्र है। इसमें कन्या का तीन पुश्तों सहित गोत्र-नाम-समेत वंशगन परिचय, देने के समय और स्थान का उल्लेख, दानकर्ता का नाम और अन्त में दान के संकल्प का उच्चारण प्रभावी ढंग से किया जाता है। यह कानूनी भाषा साहित्यिक दृष्टि से भी बड़ी प्रभावोत्पादक लगती है :


लगती है : अमुक नाम्नी कन्याम्... अमुके नाम्ने वराय... 'अग्न्यादि साक्षितया सहधर्म चरणाय पत्नीत्वेन तुम्यमहं संप्रददे' यहाँ एक साथ धर्म का आचरण करने के लिए'- यह वाक्य बड़ा ही सार्थक है। कालिदास ने भी पार्वती का दान-संकल्प कराते समय सहधर्माचरण का उल्लेख किया है : (अनेन भर्ना सहधर्मचर्या मुक्त विचारत्येति) कन्यादान का संकल्प पढ़ा जा चुका। वर ने दान ले लिया। अब पितृ कुल का जो अधिकार कन्या पर था, वह समाप्त हो गया। लोक में तीन दान बड़े भारी हैं-गौ का,धरती का और कन्या कादान में कन्या को प्राप्त करने के अनन्तर विवाह की पद्धति यज्ञ की सामान्य पद्धति के अनुसार चलती है। वर-वधू एक दूसरे को अच्छी तरह देख-भाल (समीक्षण) लेते हैं। तब विवाह होम शुरू होता है। इसमें कई तरह की आहुतियाँ हैं। जिनमें दो प्रकार की आहुतियाँ महत्त्वपूर्ण हैं :


इसकी पहली आहुति सृष्टि में व्याप्त जो अखंड नियमन है, जिसे ऋत कहते थे, उस ऋत के लिए आहुति, क्योंकि सृष्टि के नियमों का ही एक रूप विवाह है। दूसरे, राष्ट्र में शान्ति होने से ही गृहस्थाश्रम चलते है, इसलिए राष्ट्रभृद् होम के कुछ मंत्रों में राष्ट्रीय व्यवस्था का आवाहन है। कामोपयोग विवाह का प्रेरक नहीं है। वैदिक परिभाषा में राष्ट्र की विचार शक्ति (ब्रह्मशक्ति) और दण्डशक्ति (क्षात्र शक्ति) दोनों सकुशल रहे तभी गृहस्थाश्रम फलती-फूलती है। होम के बाद लोकाचार की कुछ विधियाँ है :


 अन्तःपटः वर-वधू के बीच में चुपचाप एक कपड़ा तानकर हटा देना।


लाजाहोम : धान की खीलें सामाजिक आचार-शुद्धि के प्रतीक हैं।


पाणिग्रहण : वर के द्वारा कन्या के हाथ को ग्रहण करना।


अश्मारोहण : अपने व्रत के पालन हेतु दोनों पत्थर की तरह स्थिर रहें।


गाथा गान : आदर्श विवाह में नारी कीयशोगाथा गाई जाती है।


अग्नि प्रदक्षिणा : अग्नि के चारों ओर वर वधू चार बार घूमे।


सप्तपदी : सात पद मिलकर और सात प्रतिज्ञाएँ धारण कर चलें। मैत्री भाव दृढ़ रहे।


ध्रुव दर्शन कर दोनों साथ-साथ सैंकड़ों वर्ष जीएँ।


दयालम्भन : पत्नी के हृदय पर हाथ रखकर पति शिव संकल्प करे। सुमंगलि नामक अंतिम विधि में गुरुजन आशीष प्रदान करते हैं। सौभाग्य की शुभकामना करते हैं।