यज्ञोपवीत : एक वैज्ञानिक संस्कार

हमारा देश संस्कार प्रधान है। अतः हम भारतीय संस्कारों का हर काम संस्कारों से लदा हुआ है। खाना पीना, सोना, जागना, रसोई बनाना, स्नान पूजा पाठ, आपसी संबंध, रिश्ते, आदि भी कहीं न कहीं संस्कारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। इसी संस्कारशील जीवन के कारण हम विश्व गुरु कहलाए। दुनियाँ में ऐसा कोई दूसरा नहीं है जहाँ विज्ञान के साथ-साथ संस्कारों का भी समन्वय होता है।



इसी आस्था के आधार पर मनुष्य के पूरे जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार संपन्न किये जाते हैं। गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूढ़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णभेद, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अन्त्येष्टिये सभी संस्कार हमारे सामाजिक जीवन की पहचान होते हैं। ये संस्कार न केवल हमें समाज और राष्ट्र के अनुरूप चलना सिखाते हैं अपितु जीवन की दिशा भी तय करते हैं।


हिन्दुधर्म के अनुसार यज्ञोपवीत अथवा उपनयन सोलह संस्कारों में एक प्रमुख संस्कार माना जाता है। कहा जाता है कि यज्ञोपवीत न केवल द्विजत्व की पहचान हैअपितु मानवीय संस्कारों का भी प्रतीक है। यह संस्कार न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होता है। वैदिक काल से चली आ रही इस पंरम्परा के अनुसार प्रत्येक हिन्दू को जनेऊ धारण करना चाहिये। क्योंकि उपनयन संस्कार के बाद ही बटुक ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है। तत्पश्चात् विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनता है। इस संस्कार के साथ ही विद्यारंभ की परंपरा भी जुड़ी है। कहा गया है कि- “जनमने जायते शूद्रः, कर्मेणहि उच्येत द्विजः''।


इसे संस्कृत में यज्ञोपवीत एवं बोलचाल की भाषा में जनेऊ या उपनयन संस्कार भी कहते हैं। यह तीन धागों से बना होता है। प्रत्येक धागे में तीन-तीन धागे जुड़े होते हैं। इस प्रकार इनकी संख्या नौ हो जाती है। ये नौ सूत्र क्रमशः एक मुख, दो आँख, दो नासिका, दो कान और दो मल मूत्र द्वार के प्रतीक होते हैं। इसमें पाँच ब्रह्म गाँठ लगाई जाती हैं। जो कर्तव्य परायणता मातृ भक्ति, उत्तरदायित्व, गृहस्थ जीवन एवं सदाचार की सीख देती है। इसकी लम्बाई 96 अंगुल जो चौंसठ कलाओं और 32 विद्याओं की प्रतीक होती है। जनेऊ धारण करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि इसे बाँये कंधे में डालकर हृदय स्थान से स्पर्श करता हुआ दाहिनी कमर पर झूलता रहे।


यज्ञोपवीत यज्ञ+उपवीत से बना है। अर्थात् यज्ञ करने का अधिकार। साथ ही उपनयन उप+नयन अर्थात् गुरु के पास विद्या प्राप्त करने का अधिकार। आज भी इन दोनों शब्दों के पीछे इसी पवित्र कर्म की परंपरा चली आ रही है। जनेऊ में मुख्य जो तीन कच्चे धागे के सूत्र होते हैं वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक होते हैं और नौ धागों में नौ शक्तियों का निवास माना जाता है। अतः स्पष्ट हो जाता है कि उपनयन संस्कार का धार्मिकता के साथ-साथ वैज्ञानिकता का संदेश भी निहित होता है।


हिन्दुधर्म की परंपराओं के अनुसार बालक या बटुक का उपनयन संस्कार उम्र के विषम वर्ष में प्रवेश के समय किया जाता है। जैसे सातवें, नौवे, ग्यारहवे, पंद्रहवें या चौदहवें, इस संस्कार में भी विवाह संस्कार की तरह रीति-रिवाज और परम्पराओं के अनुसार सारे संस्कार किये जाते हैं। शुभ मुहूर्त और तिथि के अनुसार निमंत्रण पत्र द्वारा मित्र और बंधुबांधवों को निमंत्रित किया जाता है। मंडपाच्छादन होता है। तेल हल्दी की रस्में होती हैं। मुंडन और शिखा रखने की शुरूआत होती है। बटुक को पीला अधोवस्त्र पहना कर कंधे पर पीला पटका डाला जाता है। हाथ में दंड और बगल में विद्यारंभ के लिये पुस्तक होती है। पैरों में खड़ाऊँ पहनी होती है। इस तरह घर के मान्यवरों के हाथों वेदमंत्रों की ध्वनि के साथ जनेऊ धारण करवाया जाता है। गीत नृत्य होता है। घर में उल्लास का वातावरण होता है। पंडितों को दान दक्षिणा के साथ विदाई तत्पश्चात् स्वादिष्ट भोजन की परंपरा है। कहीं-कहीं पर तो बृहमलाओं का आगमन होकर माहौल और भी आनंददाई हो जाता है। कहते हैं उनका आशीर्वाद जीवन में फलीभूत अवश्य होता है। इस तरह कहा जाता है कि उपनयन समारोह भी विवाह समारोह का एक छोटा रूप होता है।


उपनयन संस्कार के समय जब बटुक का जनेऊ धारण करवाया जाता है तब पंडित के मुख से इस वैदिक मंत्र का उच्चारण बटुक की आत्मीय बल प्रदान करता है।


“यज्ञोपवीत'' परमं पवित्रं


प्रजायतेयर्सहज पुरस्तात्


आयुष्यमगयं प्रतिमुञ्च शुभ्र ।


यज्ञोपवीत बलमस्तु तेडाः


यज्ञोपवीत बलमस्तु तेडाः इस प्रकार तीन सूत्र वाला कच्चे धागे से बना यह सूत्र देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण की हमेशा याद दिलाता रहता है। साथ ही जनेऊ धारण को गायत्री मंत्र जाप के माध्यम से सदा ईश्वर का सानिध्य देता है।


वैसे तो जनेऊ धारकों के लिये बहुत से नियम उपनियम बनाये गये हैं। मगर गृहस्थों के लिये कुछ खास नियम निर्धारित किये गये हैं जिन्हें वे आसानी से मान सके। जैसे मलमूत्र त्यागते समय जनेऊ को कान में लपेटना, गायत्री मंत्र का नित्य जाप करना, मलमूत्र त्याग के बाद हाथ पैर धोकर मुख मार्जन करना, परिवार में परिजन की मृत्यु के बाद जनेऊ बदलना, श्रावणी, अर्थात् रक्षाबंधन के दिन श्रावणी कर्म के माध्यम से पवित्र नदी के तट पर जनेऊ बदलना और परिवार के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन मनसर करना, कर्मणा के साथ- साथ तन मन धन से करना।


यज्ञोपवीत धारण करने के लाभ यज्ञोपवीत धारण करने के धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से लाभ है।


मलमूत्र त्यागते समय जनेऊ को कान पर लपेटने से नसों पर दवाब पड़ता हैजिससे पेट साफ आसानी से होता है। पेट संबंधी रोगों से छुटकारा मिलता है। इस प्रक्रिया में जनेऊ एक्यूप्रेशर का काम करता है। वीर्य को तेजबल प्रदान करता है। बिस्तर में पेशाब की प्रवृत्ति रूकती है। स्वप्न दोष दूर होता है। बुढ़ापा देर से आता है। हृदय रोग से मुक्ति मिलती है। मन स्थिर और उम्र लम्बी होती है। ब्लडप्रेशर ठीक रहता है। इस संस्कार से संस्कारित बटुक चरित्रवान और कर्तव्य परायण बनता है। पवित्र विचारों से दुष्ट संगति में जाने से बचता है।


यज्ञोपवीत संस्कार का संबंध सिर के बालों से होता है। सिर में धारित बालों की शिखा कर्तव्य पालन, संकल्प साधना और अन्याय के प्रति लड़ना सिखाती है। इसे धारण करने से शराब और मांस भक्षण की प्रवृत्ति नष्ट होती है। चूंकि जनेऊ संस्कार धर्म के साथ-साथ स्वास्थ्य से भी जुड़ा हैअतः हिन्दु धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ है। उन लोगों ने इसे स्वीकारा भी है। जैसे बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि में भी इसे भिन्न रूपों में देखा जा सकता है। 


हम देख रहे हैं कि सदियों से चली आ रही यह पवित्र परंपरा आज भी हमसे जुड़ी हुई है। उपनयन अर्थात् गुरु दीक्षा लेने का सशक्त माध्यम और संस्कार हैदेखा जाय तो यह दीक्षा एक शपथ है। एक अनुबंध है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाता है। दिशाहीन को दिशा देता है। मगर अफशोस? होता है यह देखकर कि वैदिक ऋषियों द्वारा जारी की गई इस अनमोल परंपरा के प्रति हमारी आस्था धीरे-धीरे कम से कमतर होती जा रही है। अतः यह कहने में कतई संकोच नहीं होना चाहिये कि अपने प्राचीन वैज्ञानिक संस्कारों के प्रति हमारी ये उदासी हमें भटकाव पूर्ण रास्ते पर ले जा रही है। यही कारण है कि परिवार समाज और मानवीय संबंध विखराव की स्थिति में आ पहुँचे हैंचरित्रों में गिरावट आ रही है। घोर स्वार्थी प्रवृत्ति आदमी को आदमी का दुष्मन बना रही है। शराब और नशीले पद्धार्थों की गिरफ्त में आकर युवा शक्ति कमजोर हो रही है। भावी संकेत भी नई आयातित पश्चिम संस्कृति की और आकर्षित हैं। आधुनिक बनने की होड़ में हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये हैं? सवाल अनुत्तरित है। इसी सवाल से चिंतित होकर राष्ट्र कवि गुप्त जी ने कहा था


हम कौन हैं, क्या हो गये, क्या होंगे अभी।


आओ विचारें आज मिलकर यह समस्यायें सभी।


संस्कारों से व्यक्ति की अन्तः चेतना पवित्र होती है। खनन से निकाले गये रत्न और धातुओं का शोधन आवश्यक होता है वैसे ही मानव गुण का संस्कारों से व्यक्ति में आदोपण होता है।


गौतम स्मृति शास्त्र में 40 संस्कारों का उल्लेख है। कुछ जगह 48 संस्कार भी बताए गए हैं। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कारों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार, 16 संस्कार प्रचलित हैं, उसके अनुसार


 गभार्धानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च।


नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रियाः ।


कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधिः।


केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः।


त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः


। (व्यासस्मृति 1/13-15)


1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमन्तोन्नयन 4. जातककर्म, 5. नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. वपन क्रिया (चूड़ाकर्म), 9. कर्णवेध, 10. व्रतादेश (उपनयन), 11. वेदारम्भ, 12. केशान्त (गोदान), 13. वेदस्रान (समावर्तन), 14. विवाह, 15. विवाहाग्निपरिग्रह, 16. त्रेताग्निसंग्रह गृह्यसूत्रों मनुस्मृति आदि में तथा पुराणों में विशेष वर्णन है


गौतम सूत्र के 8 वे अध्याय में अड़तालीस संस्कार है


1. गर्भाधान, 2. पुंसवान, 3. सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. अन्नप्राशन, 7. चौल, 8. उपनयन, (9-12) चार वेदव्रत ((क) महानाम्नीव्रत ख-उपनिषदुव्रत ग-महाव्रत घ-गोदान) 13. स्नान 14. विवाह (15-19) पञ्चमहायज्ञ- क ब्रह्मयज्ञ ख- देवयज्ञ ग-पितृयज्ञ घ-भूतयज्ञ मनुष्ययज्ञ (20-26) सप्तपाकसूत्र (क-अष्टका, ख- पार्वण, ग- श्राद्ध घ-श्रावणी ङ आग्रहायणी च-निरूढ़पशुबन्धन छ-सौत्रायणी) 33-40 सप्त सोमयज्ञ (क-अग्निष्येय, ख-अत्यग्निचेम ग-उक्थ्य घ- षोडगी वाजपेय च-अतिरात्र छ-आप्तोयमिक 41. दया, 42. क्षमा, 43. अनसूया, 44. शौच, 45. अनायास, 46. मंगल, 47. अकार्षण्य 48. अस्पृहा)


मंगल, 47. अकार्षण्य 48. अस्पृहा) संस्कार ममूख और संस्कार प्रकाश में महर्षि अंगिरा के अनुसार 25 संस्कार होते है- 1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमन्त 4. विष्णुबलि, 5. जातकर्म, 6. नामकरण, 7. निष्क्रमण, 8. अन्नप्राशन 9. चूड़ाकर्म 10. उपनयन, 11-14 चारों वेदों का आरम्भ 15. स्नान (समावर्तन) 16. विवाह, 17. आग्रयण, 18. अष्टका, 19. श्रावणी, 20. आश्वनी, 21. मार्गशीर्णी, 22. पार्वण, 23. उपाकर्ण, 24. उत्सर्ग, 25. नित्यमहायज्ञ 


श्रीजातूकर्ण और मार्कण्डेयस्मृति के अनुसार सोलह संस्कार-1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. अन्नप्राशन, 7. चौल, 8. मौजी, 9-12 चतुर्वेदव्रत 13. गोदान (केशान्त) 14. समावर्तन, 15. विवाह और 16. अन्त्य (पैतृमैधिक)


याज्ञवत्क्य स्मृति के अनुसार 16 संस्कार-


 1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. स्पनन्द, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. सूर्यावेक्षण (निष्क्रमण, उपनिष्क्रमण, निर्णयन) 7. अन्नप्राशन, 8. चूड़ाकरण, 9. कर्णवेध, 10. ब्रह्मसूत्रोपनयन, 11. व्रत, 12. विसर्जन, 13. केशान्त, 14. विवाह, 15. चतुर्थीकर्ण, 16. अग्निसंग्रह, (ब्रह्मेषज्ञा याज्ञवल्क्य संठित्य 8/359-361) वैष्णवधम्रशास्त्र अ. 26 में 1. निषेक, 2. पुंसवन, 3. स्पनन्द, 4. सीमन्तोन्नयन, 5. जातकर्म, 6. नामकर्म, 7. आदित्यदर्शन 8. अन्नप्राशन, 9. चूड़ाकरण, 10. उपनयन, और विवाह है


मनुस्मृति (गर्भाधान) 2. पुंसवन, 3. सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. निष्ठक्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. चूड़ाकरण, 9. कर्णवेध, 10. उपनयन, 11. केशान्त, 12. स्नान (समावर्तन) 13. विवाह, (स्मार्त और सौत अग्न्याधान) 14. वानप्रस्थ, 15. परिव्रजया, 16. पितृमेध


आश्वलायनगृह्य सूत्र में 11 पारस्कर, बौजायन एवं वाराहगृह्य सूत्रों में 11 तथा वैरवानसगृह्यासूत्र में 18 संस्कारों का उल्लेख है।


भूम्युपवेशन-बालक के पाँचवें मास में भूम्युपवेशन नामक संस्कार होता है। शुभ कर बालक की कमर में सूत्र बाँधकर पृथ्वी पर बिठाते है। और पृथ्वी से शर्धन करते है


रक्षेनं वसुधे देवि सदा सर्वगतं शुभे।


आयुः प्रमाणं सकलं निक्षिपस्व हरिप्रिये॥


इस अवसर पर पुस्तक, कलम, मशीन, आदि विभिन्न वस्तुएँ बालक के सामने रखी जाती हैं। वह जिस वस्तु को सबसे पहले उठाता है, वही उसकी आजीविका का साधन होगा- यह मानकर उसी प्रकार की विद्या उसे पढ़ायी जाती है।