भारत में वस्त्रोद्योग : एक स्वर्णिम इतिहास

प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जीवन के सुचारू संचालन के लिए तीन चीजों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कियाये तीनों चीजें थी रोटी, कपड़ा और संयोग है कि आदि काल से लेकर आज तक तीनों चीजों की मांग में कमी नहीं आई बल्कि यह भी कहा जावे तो ज्यादा ठीक होगा कि आज इनकी मांग में अत्यधिक वृद्धि हुई है। आधुनिक माध्यम से वस्त्रोद्योग की कोशिश की जा रही है। महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन इस आलेख के माध्यम से वस्त्रोद्योग की भारतीय परंपरा के इतिहास पर  दृष्टिपात करने की कोशिश की जा रही है।


सृष्टि के प्रारंभ से ही मनुष्य ने अपनी प्राथमिक आवश्यकता भोजन की प्राचा पूर्ति के तत्काल बाद अपने शरीर को ढ़ांपने के लिए वस्त्र का आविष्कार किया। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख मिलता है ऋग्वेद का ऋषि न केवल वस्त्र से परिचित है बल्कि वह उसे बुनना और अन्य धातुओं के तारों से (यथा सोने के तार) सजाना भी जानता है। इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद में एक शब्द पेशस् का उल्लेख हुआ है, इसका अर्थ है जरी का काम किया हुआ वस्त्र, जिसे एक नर्तकी पहनेगी। इससे यह विदित होता है कि ऋग्वेद काल में न केवल साधारण कपड़े की बुनाई से ऋषि परिचित है बल्कि वह जरी युक्त कपड़ों को बुनने की कला में भी निष्णात् है। इसी बात की पुष्टि के लिए ऋग्वेद में उषा से संबन्धित मन्त्र का उल्लेख आया है। उषा के लिए कहा गया है कि वह नर्तकी के समान वस्त्र धारण करती है। यानि, जिस काल में ऋग्वेद का लेखन हो रहा है उस समय तक वस्त्र उद्योग पर्याप्त उन्नत अवस्था को प्राप्त हो चुका था और सूती धागों के साथ धातुओं से बने धागों का भी प्रयोग होने लगा था तभी तो नर्तकी रेशमी वस्त्र जो कि जरी युक्त है को धारण करती है। साथ ही, उषा की तुलना नर्तकी के जरी युक्त वस्त्रों से भी की जा रही है यानि यह तुलात्मक दृष्टि एकाएक विकसित न हुई होगी इसमें पर्याप्त समय लगा होगा। 



मैकडनल वैदिक इंडेक्स में इस विद्या पर और विस्तार से प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि वास और वस्त्र दो शब्द हैं किन्तु दोनों का प्रयोग एक ही अर्थ में होता है। वस्त्र का निर्माण भेड़ की ऊन से होता था। वस्त्रों के बुनने वाले देव का नाम 'पूषन' था और उसे वस्त्र बुनने के कारण 'वासोवाय' यानि वस्त्रों का बुनकर भी कहा जाता था। कपड़े साधारण और असाधारण दो प्रकार के होते होगें, किन्तु यहाँ पर जिन वस्त्रों का उल्लेख किया गया है उनमें प्रायः सोने का ही काम हो रहा है। ये बुनकर जिसे 'वासोवाय' कहा गया है प्रायः जो कपड़े बुनता था उन पर सोने का काम होता था। मरूतों को सोने के वस्त्रों से अंलकृत बताया गया है। दान में भी जो वस्त्र दिए जाते थे वे भी सोने के काम वाले होते थे। ऋग्वेद में 'वासोदा' शब्द वस्त्र देने वाले के रूप में प्रयुक्त हुआ है। मैकडनल इसको साधारण वस्त्र नहीं मानते बल्कि ये जरी के काम वाला वस्त्र है।


आज का ताना-बाना ऋग्वेद में तन्तु और ओतु हैं। ताना में तन्तु का तन अब भी बना हुआ है और ओतु वा क्रिया से बना है जिसका अर्थ है बुनना। ऋग्वेद का वा आजकल बा बन गया है। जिस उपकरण से बुनाई करते थे उसे तसर कहते थे। ऋग्वेद में बुनने की तुलना बार-बार सूर्य, से उसकी किरणों से की जा रही है। जहाँ पर यज्ञ होता है ऋषि उसकी भी तुलना बुनने से करता है। ऋषि कहता है कि किरण बुनने के लिए साम रूपी ताने बाने को बनाती है। कवि यहाँ पर जहाँ एक और ताने-बाने के संयोग से श्रेष्ठ वस्त्र बुनने की बात करता है वहीं वह प्रकृति के संयोग को भी इसी परिप्रेक्ष्य में व्याख्यापित करता है। कवि कहता है कि 'खूटिया गाड़कर चारों तरफ से पृथ्वी को स्थिर बना दिया। यानि, ठीक उस प्रकार से जैसे बुनकर खड्डी पर ताने-बाने को खूटियों से बाँधकर बिल्कुल स्थिर कर देता है और फिर उन्नत कोटि का वस्त्र बुनता है। ठीक उसी प्रकार से विष्णु ने भी पृथ्वी और आकाश के ताने-बाने को फैलाया और उसे खूटियों पर कस दिया। जिससे श्रेष्ठ सृष्टि का सृजन किया जा सके।'


भारत में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास और प्रलय के साथ ताना-बाना तथा वस्त्र की अद्भुत युति है। दक्षिण भारत के संत कवि तिरूवल्लुर और उत्तर भारत के संत कवि कबीर भी इसी प्रकार की बात करते हैं। जो भी हो किन्तु ऋग्वेद के अनुशीलन से यह ध्यान में आता है कि उस काल में उन्नत श्रेणी के वस्त्रों का निर्माण होने लगा था। यह वस्त्र प्रायः स्त्रियों के द्वारा बुने जाते थे। ऋग्वेद में उल्लेख आता है कि 'माताएँ पुत्र के लिए वस्त्र बुनती है'। इस प्रकार भारत में आदि काल से ही श्रेष्ठ वस्त्र-निर्माण कला का विकास हो चुका था। इस काल ने आगे और विकास किया। ऋग्वेद के अध्ययन से यह भी संज्ञान में आता है कि ऋषि ऊन को उत्तर से प्राप्त करता था। ऊन के लच्छों को 'परुष' कहते थे एवं नदी के किनारे भेड़ें बहुत पाली जाती थीं इसलिए उस नदी का नाम परूष्णी पड़ गया। ऋग्वेद में एक स्थान पर यह उल्लेख है कि मरुत परुष्णी के ऊपर से आ रहे है और ऊनी वस्त्र पहने हुए हैं। इसी सक्त में मरुतों के लिए 'पारावता' विशेषण प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ होता है दूर देश से आने वाला। इसका अभिप्राय यह है कि ऋग्वेद का कवि जहाँ पर सूक्तों की रचना कर रहा है वहाँ से परुष्णी काफी दूर है, तभी तो वह मरुतों के लिए 'पारावता' विशेषण का प्रयोग कर रहा है।


हड़प्पा काल तक आते-आते कपास से भी वस्त्रों का निर्माण होने लगा था और इन वस्त्रों का बहुतायात में निर्यात सुमेर जैसे क्षेत्रों को किया जाता था। यद्यपि ऋग्वैदिक संस्कृति सिंधु घाटी सभ्यता से अधिक प्राचीन है लेकिन कुछ लोग इसका उल्टा मानते है कि सिंधु सभ्यता पहले हुई, ऋग्वेद का लेखन बाद में हुआ। लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि ऋग्वेद में सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार आया है और वह जल में पर्याप्त भरपूर है। सत्य को झुठलाना कालोनियल कन्नोटेशन है। आधुनिक शोध के द्वारा यह अवधारणा बदल रही है।


वाल्मीकि काल में उन्नत वस्त्रोद्योग


वाल्मीकि रामायण के अध्ययनोपरांत यह संज्ञान में आता है कि वेद काल की तुलना में यहाँ पर वस्त्रोद्योग और भी उन्नत हआ है। वस्त्रों के विविध रंग यहाँ पर देखने को मिलते हैं। वाल्मीकि लिखते हैं कि महाराज जनक ने अपनी पुत्रियों के विवाह में बहुसंख्या में वस्त्रों का उपहार दिया था। यानि वस्त्रों का आदान-प्रदान भी उपहार आदि के रूप में होने लगा थादान-दक्षिणा के रूप में भी वस्त्रों का चलन प्रारंभ हो गया था। वनगमन के पूर्व श्रीराम ने अपने वस्त्र परिजनों को प्रदान किए थेयह भी उल्लेख मिलता है कि भरत जी अयोध्यावासियों सहित जब श्रीराम को वापिस लाने के लिए चित्रकूट जा रहे थे तो रास्ते में भारद्वाज के आश्रम पर रूके थे, वहाँ पर भारद्वाज ने भरत के स्वागत सत्कार में वस्त्रों के ढेर लगा दिए थे। वस्त्रों में रंगों का प्रयोग होने लगा था।


रामायण काल में व्यक्ति अपनी स्थिति के अनुरूप वस्त्र धारण करता था। वाल्मीकि लिखते हैं कि राम जो कि दशरथ के पुत्र हैं, राम कुमार भी हैं वे सदैव अपनी स्थिति के अनुरूप ही बहुमूल्य वस्त्र पहनते थे। ऋग्वेद की भाँति स्वर्ण रजत के तंतुओं का प्रयोग रामायण काल में भी बहुतायत में होता था। इनको 'महारजत वासम्' कहा जाता था। सुनहरे धागों वाले पीले वस्त्र तथा रत्नों से जुड़े 'रत्नांबर' का भी उल्लेख आया है। लंका में तो कालीन तक का उपयोग होता था। रावण की वस्त्र सज्जा के विषय में वाल्मीकि लिखते हैं कि उसने उत्तम, मथे हुए अमृत के झाग के समान श्वेत, धुला हुआ, पुष्पों से युक्त और मणियों से जड़ित वस्त्र पहने हुए थे। संपूर्ण रामायण में वाल्मीकि सुसज्जित स्त्रियों का अनेकानेक बार उल्लेख करते हैं। ऋग्वेद की भाँति यहाँ पर भी उपमा के रूप में वस्त्रों का उपयोग समाज में किया जाता था जो कि वस्त्रों के बहुतायत में उत्पादित होने का संकेत है। लक्ष्मण के समझाने पर राम सीता का विरह जन्य शोक वैसे छोड़ने को तैयार हो गए, जैसे मनुष्य मैले वस्त्र का तुरन्त परित्याग कर देता है। इसी प्रकार स्त्रियों को आकर्षक वस्त्रों से सुसज्जित बताया गया है।


वाल्मीकि लिखते हैं अभिसारिका के रूप में रंभा ने मेघों के समान नीला वस्त्र धारण कर रखा था। वस्त्रों में रंगों का प्रयोग भी सोने-चाँदी की भाँति होने लगा था। वस्त्रों के उत्पादन के बाद वस्त्र की धुलाई की प्रथा भी प्रचलन में आ गई थी। तभी तो वाल्मीकि रावण के वस्त्र के लिए लिखते हैं कि उसने 'मथे हुए अमृत के झाग के समान श्वेत वस्त्र' पहन रखा था। वस्त्रों की गुणवत्ता का उल्लेख भी वाल्मीकि ने बहुत ही सहज रूप में किया है। वे लिखते है कि धीमी हवाओं से चलायमान नवकाश-पुष्पों में सुशोभित नदी तट को देखकर राम को धुले हुए स्वच्छ क्षौम वस्त्रों का सहज ही स्मरण हो आता है। वे आगे फिर तुलना करते हुए लिखते हैं कि चाँदनी रात धवल वस्त्र में लिपटी हुई नारी सदृश प्रतीत होती है। यानि नारी वस्त्रों से आच्छादित होने के बाद और धवल रूप को प्राप्त हो जाती है।


वस्त्रों के अनेक प्रकार प्रचलन में थेयथा-रेशमी, सीता ने सदैव कौशेय (रेशमी) वस्त्रों को धारण किया। अशोक वाटिका में भी वे कौशेय वस्त्रों में ही थी। वनगमन के समय भी राम ने कौशेय वस्त्रों का दान किया था। इसी प्रकार क्षौम वस्त्र का भी उल्लेख आया है। यह वस्त्र अधिक कीमती, मुलायम और बारीक होते थे तथा पूजा-अर्चना में प्रयुक्त किये जाते थे। इनको अलसी के पौधे के रेशों से तैयार किया जाता थारामायण में अनेक स्थानों पर क्षौम वस्त्र का उल्लेख मिलता है। यथाकौशल्या को पूजा के समय 'क्षौमवासिनी' कहा है। राम को भी पूजा के समय क्षौम वस्त्र धारण करने वाला ही बताया हैउत्सव के समय भी क्षौम वस्त्र ही धारण किया जाता था। विवाह के बाद जब सीता अयोध्या आई तो सभी रानियों ने क्षौम वस्त्र पहन कर ही उनका स्वागत किया। रामायण के अध्ययन से यह संज्ञान में आता है कि पुरुष पूजा-अर्चना को छोड़कर भव्य सोनेचाँदी के तन्तुओं से युक्त वस्त्रों को धारण किया करते थे और स्त्रियाँ प्रायः क्षौम वस्त्रों को धारण करती थीं क्योंकि यह हल्का और मुलायम होता था जो कि उनके स्वभाव के साथ साम्य रखता था।


रामायण काल में मृग-चर्म, (अजिन) पेड़ों की छाल, (वल्कल), कुश-धीर (घास के बुने कपड़े) मुनि वस्त्र कहलाते थे। नरम मृग-चर्म को तूलाजिन (रूई की सी मृग छाला) कहते थे। कढ़ाई का प्रचलन भी था। रावण सुनहरे सूत के कपड़े पहनता था। कढ़ाई युक्त बहुमूल्य क्षौम भी वह पहनता था। सीता का उत्तरीय भी इसी प्रकार का था। कपड़ा बनाने के लिए प्रायः रेशम, क्षौम, कपास ऊन और सन का उल्लेख मिलता है। सन का उपयोग रस्सियाँ आदि के लिए ज्यादा होता था। लंका में हनुमान को इसी से बांधा गया था। कपड़ों की गुणवत्ता के आधार पर उनका नामकरण किया जाता था। यथा-महीन कपड़े को 'सूक्ष्म वस्त्र', कीमती कपड़े को महार्हवस्त्र या वराहवस्त्र तथा नये कपड़े का आहतवस्त्र कहते थे। किनारीदार और कढ़ाई युक्त वस्त्रों को संवीतवस्त्र कहा जाता था। पोशाक के लिए 'वसन', 'वासस', 'अंशुक' और 'अंबर' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। मोटे कपड़े को 'शाटी' कहा है। 'प्रावरण' एक प्रकार का ऊपरी वस्त्र था। 'परिस्तोम' या 'उत्तरच्छद' बिछाने के कपड़े को कहते थे और 'शयनप्रस्तर' पलंग पर बिछाने की चादर को कहा जाता था। 'कंचुक' बांहदार घुटनों तक लटकता हुआ क्लाक जैसा पहनावा था। 'उष्णीय' पगड़ी का बोधक था। इस प्रकार वाल्मीकि रामायण की रचना तक भारत का वस्त्र थे। उद्योग न केवल तरक्की कर गया था बल्कि बहुविध प्रयोग भी करने लगा था, उनमें से कुछ प्रयोग तो आजकल 'वस्त्र डिजायनर' कर रहे हैं जो कि रामायण काल में होते थे। 


पाणिनी काल में वस्त्र उद्योग


पाणिनी लिखते हैं कि वैदिक काल में 'वस्त्र' और 'वसन' शब्द ही प्रचलन में थे किन्तु उनके काल में 'चीर' 'चेल' 'चीवर' 'आच्छादन' इन चारों का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूपों में हुआ है। इस काल में भी वस्त्रों के विभिन्न प्रकार पाए जाते थे, यथा :- रेशमी वस्त्र - कौशेय अलसी के रेशे से बने वस्त्र औभ-औभक और ऊनी वस्त्रों को औण-और्णक (4/3/158) कहते थे। सूती वस्त्र भी प्रचलन में थे। इस प्रकार पाणिनी काल में भी वस्त्र उद्योग अपने चरम पर था और अनेक प्रकार से पहनने वाले वस्त्रों का नामकरण उनकी उपयोगिता के आधार पर किया जाता था।


कालांतर में वस्त्र उद्योग ने न केवल विकास किया, बल्कि अपने विकास के बल पर भारत को समृद्ध भी किया। सर विलियम जोन्स भारत के कपड़े उद्योग के विषय में लिखते हैं कि 'इस देश में अनेक बार परिवर्तन हुए हैं। बाहर के लोगों ने आकर इसे जीता है फिर भी यहाँ संपदा के स्रोत अब भी बहुत बड़े हैं। कपास की चीजें बनाने में वे अब भी सारी दुनिया से बड़े हैं। वे आगे लिखते हैं कि भारत में शिल्पशास्त्र पर अनेक ग्रन्थ रचे गए थे। उनसे पता चलता है कि यहाँ कौशल में कैसे विकास हुआ था, किन-किन तरकीबों से धातु से चीजें बनायी जाती थी, कपड़े कैसे रंगे जाते थे। परन्तु शिल्पशास्त्र की उपेक्षा की गई और इसलिए बहुत से लोग उनके बारे में जानते भी नहीं हैं। फिर भी भारत में चरखा और करधा से जो चीजें बनती हैं, उनकी प्रशंसा सारी दुनिया में की जाती है और यह असंभव नहीं है कि जो भी नफीस कपड़ा हो, उसे सिंदोस कहा जाता था, इसलिए कि सिंधु नदी के किनारे इस तरह के बहुत अच्छे स्तर का कपड़ा बनाया जाता था। प्राचीन भारत में कपड़े का उत्पादन न केवल घरेलू खपत के लिए किया जाता था बल्कि इसका व्यापार भी होता था। कपड़े के व्यापार के लिए कर्ज का विधान था किन्तु इस पर ब्याज नहीं लिया जाता था, क्योंकि दूसरे व्यापार से जो पैसा आता था वह ब्याज से कहीं अधिक लाभकारी होता था। कपड़े के व्यापार के कारण ही भारत का संबंध अरबों से और फिर शेष यूरोप के साथ स्थापित हुआ था।' मध्यकाल में भी वस्त्रों की बुनाई में सोनेचाँदी के काम की उपलब्धता है अकबर के वस्त्र रेशम के होते थे और उसमें सोने का सुंदर काम किया होता था। मौसम के अनुरूप भी वस्त्रों का उत्पादन होता था। प्राचीन भारत की भाँति कपास और ऊन की भूमिका विद्यमान थी।


वैश्विक व्यापार में भारतीय वस्त्राेद्योग : भ्रम व यथार्थ


प्राचीन भारत में प्रारंभ से ही कृषि के साथ-साथ कुटीर उद्योगों को भी प्रश्रय दिया गया था। तभी तो भारत शेष विश्व के साथ व्यापार करके सोने की चिड़िया बन सका था। कोई भी देश कभी भी मात्र कृषि के बल पर विश्व की आर्थिक शक्ति नहीं बन सकता। भारत के बारे में वे सभी बातें कि भारत कृषि प्रधान देश है भ्रमकारी एवं उपनिवेशिक मानसिकता को बल प्रदान करने वाली है। ऋग्वेद से लेकर अंग्रेजों के आने के पूर्व तक भारत कृषि के साथ-साथ उद्योग प्रधान व्यवस्था भी था, भारत में अनेकानेक प्रकार की जातियों का अभ्युदय और उनका विकास उनके कौशल का प्रतीक है। इन्हीं के कौशल से भारत का विश्व व्यापार में 18वीं सदी तक 34 प्रतिशत सहभाग था जोकि उस समय सर्वाधिक था। अंग्रेजों ने आकर इस व्यवस्था को खत्म कर दिया और भारत पर कृषि प्रधान देश का तमगा लगा दिया, जो कि आज भी प्रचलित है। देश के बजट की समीक्षा के समय यह जुमला बहुतायत में प्रचलित रहता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। ऐसा इसलिए रहता है, जिससे कि हम अंग्रेजों के प्रति कृतज्ञ बने रहें कि आपने आकर हमें उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना दिया, नहीं तो हम कृषि आधारित गंवार अर्थव्यवस्था का ही हिस्सा बने रहते। भारत के वस्त्रोद्योग को सबसे ज्यादा हानि अंग्रेजों ने पहुँचाई क्योंकि भारत के वस्त्रोद्योग को हानि पहँचाए बिना उनका वस्त्रोद्योग पनप नहीं सकता था। मार्क्स ने इस विषय पर बहुत ही ध्यानाकर्षक बात 10 जून 1853 को लिखे लेख में लिखी हैं-'यूरोप इन्हें भारत से प्राप्त करता है, बदले में उसे अपना सोना-चाँदी भेजता है।' यानि भारत का वस्त्र इतना उच्च कोटि का होता था कि इसका व्यापार अपने पैसे से न होकर सोने चाँदी से होता था। यही कारण था कि संपूर्ण यूरोप का सोना-चाँदी भारत खिंचकर चला आया था, और ऐसा सदियों से हो रहा था। यह बात यूरोप-वासियों को भारत की ओर खींचकर लाई। मार्क्स 24 जून, 1853 के लेख में पुनः लिखते हैं कि 17वीं सदी के अन्तिम चरण और 18वीं सदी के अधिकांश काल में इंग्लैण्ड के उद्योगपति कह रहे थे कि भारत के सूती और रेशमी वस्त्रों का आयात उन्हें तबाह किए डाल रहा है, अतः पार्लियामेंट को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए।


भारतीय वस्त्र उद्योग व सामाजिक सरचना।


मार्क्स ने इसी लेख में भारत को सूती वस्त्र का कारखाना कहा है। मार्क्स भारत के उत्स को समझने की कोशिश कर रहे थे। वे यह मानते थे कि भारत की समृद्धि में अन्य उद्योग के साथ कपड़ा उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह भूमिका भारत के समाज की एक दिन में ही नहीं बन गई थी यह उसकी युग-युगीन साधना का परिणाम थी। यह वैशिष्ट्य कृषि करने वाले किसान में हो तो सकता है किन्तु इतना उन्नत नहीं हो सकता। जबतक कि इस प्रकार का कार्य करने वाला कोई अलग वर्ग न हो। इस प्रकार से भारत कौशल आधारित समाज का देश था जिसे अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए नष्ट किया। यदि ऐसा नहीं होता तो यह समाज अंग्रेजों के उद्योगों को स्थापित नहीं होने देता। 10 जून, 1853 के लेख में मार्क्स आगे लिखते हैं कि कातना-बुनना इन लाखों आदमियों का धंधा गौण रूप से नहीं था। वह उनका मुख्य धंधा था। उनके उत्पादन का उद्देश्य बिकाऊ माल तैयार करना था। यह माल भारत में और भारत के बाहर बड़े-बड़े बाजारों में बेचा जाता था। इस माल को तैयार करने वाले कारीगर गाँवों में नहीं, ढाका जैसे शहरों में रहते थे। जब अंग्रेजों ने यहाँ के उद्योग व्यापार को नष्ट कर दिया, तब ढाका की आबादी डेढ़ लाख से घटकर बीस हजार रह गई। इस प्रकार से अंग्रेजों ने व्यवस्थित रूप से भारत के उद्योगों को तबाह किया और शहर तथा गाँव के मध्य आबादी का संतुलन बिगाड़ा। शहर बर्बाद होने के बाद शिल्पी गाँव के बाहर की ओर रोजगार की तलाश में पलायन कर गए, फलतः गाँवों की दशा भी बिगड़ी और अंग्रेजों ने कृषि प्रधान देश का तमगा लगा दिया और उससे मुक्ति के लिए उद्योगीकरण को आधार बनाया।


भारत के ये बुनकर विश्व का सबसे महीन सूत का कपड़ा बनाते थे जो कि लगभग 2300 काउण्ट (धागे की मोटाई नापने की इकाई) का होता था। आज विश्व की आधुनिकतम मशीनों के बावजूद भी हम इतना महीन सूत बनाने में सफल नहीं हो सके हैं। भारत की इसी कारीगरी से यूरोप के उद्योगपति प्रभावित हो रहे थे। व्यापारी भारत के कपड़े को पसन्द करते थे क्योंकि यह मंहगा विकास था और मुनाफा अधिक देता था इसलिए व्यापारियों के लिए ये लाभकारी था किन्तु यह उद्योगपतियों को बर्बाद कर रहा था। इसलिए उद्योगपत्ति पार्लियामेंट से इसके आयात पर प्रतिबन्ध की माँग करते थे। फलतः इंग्लैण्ड में यह कानून बनाया गया कि जो व्यक्ति भारत के कपड़े को अपने पास रखेगा या बेचेगा उसे 200 पौंड जुर्मना भरना होगा। विलियम तृतीय, जार्ज पंचम, जार्ज द्वितीय, जार्ज तृतीय सदृश अनेक राजाओं के जमाने में ऐसे कानून बनाए गए जिससे भारत का माल इंग्लैण्ड में बिकना बंद हो गया।


भारत में वस्त्रोद्योग आधारित पूरा एक समाज था, जिसने भारत की समृद्धि में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया था लेकिन अंग्रेजों ने इसे व्यवस्थित रूप से नष्ट किया। अंग्रेजों की यह भूमिका विश्व में अपने आप में एक अलग ही उदाहरण है। धर्मपाल जी लिखते हैं कि सन् 1810 ई. के आसपास के ब्रिटिश भारतीय आंकड़ों से पता चलता है कि दक्षिण भारत के मिलों में सूती, रेशमी आदि कपड़ा बनाने और निवाड़ आदि तैयार करने के काम आने वाली स्त्रियों की संख्या 15 से 20 हजार तक प्रति जिले में थी। ऐसा लगता है कि देश भर में प्रायः सर्वत्र हर जिले में लगभग इतनी ही स्त्रियाँ हो सकती हैं। बुनने वाले बुनकारों की संख्या तो स्त्रियों की संख्या से अधिक ही होगी। कातने वालों की तो अनगिनत ही होगी। धुनाई, रंगाई, छपाई आदि का काम करने वाले धुनिया, रंगराज, छीपी आदि की संख्या भी इसी अनुपात में होगी। भारतीय वस्त्र उद्योग के विनाश से ये सब दरिद्र और गरीब हो गए। इस प्रकार से अंग्रेजों ने एक समृद्ध समाज की स्वयं के स्वार्थ के लिए विपन्न बना दिया।


वस्त्रोद्योग यों तो संपूर्ण भारत में स्थापित था किन्तु इसके कुछ प्रमुख केन्द्र भी थे जैसे : ढाका, पटना के पास जहानाबाद, बुलन्दशहर में सिकन्दराबाद, लखनऊ, बनारस, रायबरेली में जायस, फैजाबाद में पांडा, रामपुर, मुरादाबाद, कानपुर, प्रतापगढ़, ललितपुर, शाहपुर, अलीपुर, मरेठ, आगरा, दिल्ली, रोहतक, ग्वालियर, चंदेरी, इंदौर, दक्षिण भारत में आर्नी, हैदराबाद, रायपुर, सेलम, तंजौर, पैठन, मदुरै आदि-आदि। इनमें से कुछ अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं, कुछ आज भी प्रतिष्ठित हैं।


हथकरधा उद्योग भारत की पहचान थी जिसे अंग्रेजों ने समाप्त किया और बाद में स्वतंत्र भारत की सरकारों ने मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल स्वीकार करने के कारण इसके उन्नयन के विशेष प्रयास नहीं किए। सामान्यतः यह उद्योग स्त्री और बच्चों के बल पर अधिक समृद्ध था किन्तु कालान्तर में अनेक प्रकार के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों ने भी इस उद्योग को उजाड़ने में आधुनिक अंग्रेजों को ही भूमिका का निर्वहन किया। इस प्रकार से परतन्त्रता के काल में प्रत्यक्ष रूप से और स्वतन्त्रता के बाद अप्रत्यक्ष रूप से यह उद्योग अपने आस्तित्व को बनाये रखने के लिए संघर्षरत ही रहा। जिस उद्योग के बल पर भारत सोने की चिड़िया बना और जिसके वैशिष्ट्य ने संपूर्ण यूरोप को भयभीत कर दिया था वही उद्योग आज अपने स्वर्णिम दिनों की वापसी की बाट जोह रहा है। यद्यपि भारत सरकार द्वारा कुछ प्रयास अवश्य किए जा रहे हैं किन्तु वैश्विक नीतियों के चलते ये सब कितने सार्थक हो पाएंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।