भारतीय मूर्तिकला के सौन्दर्य पुरा आभूषण

वर्तमान आभूषणों में आज भी रत्न, मणि, आदि उसी प्रकार निर्मित होकर अलंकृत होती है जो प्राचीन प्रकार के आभूषणों में होती थी। राजशाही वेशभूषा, कमरबन्ध, ओपरना, साफा, पगड़ी, जूतियाँ, चूडीदार पायजामा, लम्बी अचकन, लूगड़ी, करधनी, कुर्ता,ओढ़नी, पल्लूदार धाधरा, केशराशिका बन्धन तथा उन पर आभूषणों का अंकन, हाथ में कड़ा, ब्रेसलेट, आदि वर्तमान आभूषण, वस्त्र सब कुछ प्राचीन मूर्तियों के दैहिक आभूषणों तथा वस्त्र विन्यासों से ही अभिप्रेरित माने जा सकते है।



भारतीय मूर्तिकला में जितने भी देव-देवी, सुन्दरियों, परिचारकों, व्यन्तर देवों आदि की मूर्तियाँ मिली है। उनमें जैन एवं बौद्ध मूर्तियों के अतिरिक्त सभी के शरीर पर सुन्दर आभूषणों का अंकन दिखायी देता है। मूलतः मूर्तियों में आभूषणों के अंकनों से ही उसके स्तर तथा वैभव का ज्ञान होता है। कलासंसार में इसे शृंगार आभूषण कहा जाता है। पाषाणमूर्तियों पर उभरे ये आभूषण उनके व्यक्तित्व को न केवल आभासित करते है, वरन् मूर्ति में उनकी पहचान के सहायक भी सिद्ध होते हे। पाषाण पर उत्कीर्ण विभिन्न आभूषणों को देखकर प्रतीत होता है मानो रत्न व स्वर्ग का सारा जमाकोष रत्नसागर से निकलकर इन मूर्तियों की देह पर आ गया हो और सागर में केवल जलराशि ही शेष बची रही हो।


इन आभूषणों के अनेक प्रकार है, जो मूर्तियों के दैहिक सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते है। इनका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन आभूषणों के निर्माण की शैली, प्रकार तथा धारण करने की संस्कृति जो अंग्रेजी शासन के समय लुप्त हो गई थी, अब विगत डेढ़ दशक से पुरुष और महिलाओं में वापस प्रत्यक्ष दिखायी देती है। आज के विवाहोत्सव आदि में पुरुषों स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाले परिधानों तथा अंलकृत आभूषणों का निर्माण तथा प्रकार, शैली पूर्णतः उक्त प्राचीन आभूषणों से ही न केवल प्रेरित है वरन् साम्यता रखने के स्तर पर मानी जा सकती है। वर्तमान आभूषणों में आज भी रत्न, मणि, आदि उसी प्रकार निर्मित होकर अलंकृत होती है जो प्राचीन प्रकार के आभूषणों में होती थी। राजशाही वेशभूषा, कमरबन्ध, ओपरना, साफा, पगड़ी, जूतियाँ, चूडीदार पायजामा, लम्बी अचकन, लूगड़ी, करधनी, कुर्ता, ओढ़नी, पल्लूदार धाधरा, केशराशि का बन्धन तथा उन पर आभूषणों का अंकन, हाथ में कड़ा, ब्रेसलेट, आदि वर्तमान आभूषण, वस्त्र सब कुछ प्राचीन मूर्तियों के दैहिक आभूषणों तथा वस्त्र विन्यासों से ही अभिप्रेरित माने जा सकते है।


इस क्रम में राजस्थान क्षेत्र में विभिन्न धर्मो, मतों की देवी, देवता, देवगणों सुन्दरियों, परिचारकों की सुन्दर मूर्तियों में हमे उक्त प्रकार के विविध आभूषण दिखायी देते हे। जिनसे उनका स्वरूप अत्यधिक निखरता हुआ दर्शित होता है। इन आभूषणों के विविध नाम और शैलियों का परिवर्तन प्राचीन श्रृंगार के इतिहास में होता रहा है जिन्हें समझाना दुष्कर है। परन्तु देवों, देवी में आभूषण के प्राचीन नाम यथावत है। लेकिन अन्य प्रकार के देव, देवी की मूर्तियों में ये नाम परिवर्तन होकर मिलते है जिनका कारण युगान्तर तथा शासन व कलाशैली का परिवर्तन रहा। इन सभी आभूषणों के नाम की सरलीकरण व्याख्या शब्दों के अनुसार यहाँ हम पाठको, शोधार्थियों की जानकारी के लिये प्रस्तुत कर रहे हैं, जो लेखक द्वारा देखी, परखी अनेक मूर्तियों के विभिन्न आभूषणों की परख तथा ग्रंथ पठन के आधार पर है।


विष्णु की देवमूर्ति में आभूषण के रूप में कौस्तुभमणि का नाम सर्वविख्यात है। इसे उनके वक्षस्थल के मध्य का रत्न कहा जाता हैवनमाला-विष्णु की लम्बी पुष्प माला। वैजयन्तीमाला-देवों के शरीर की राजसी बड़ी अलंकृत मालाकेयून-बाहु का आभूषण। कुण्डल-कानों का आभूषण। किरीट-विष्णु के शीश का मुकुट । पीताम्बर-विष्णु मूर्ति के चमकीले वस्त्र। उदीच्य वेष-सूर्य मूर्ति में उत्तरीय का पहनावा जिसमें अंगरखा तथा करों में लम्बा उपानह (घुटनों तक जूते) होते है। कीर्तिवासा-चमड़े का बना वस्त्र (शिव का बाघम्बर जिसे पहनने पर उन्हें कृत्तिवासा कहा गया)। जटामुकुट-सघन केशराशि का मुकुट(शिवजटा)। शुक्लाम्बर-श्वेत वस्त्र जिसे ब्रह्मा धारण करते है। कर्णवली-पार्वती के कानों प्रयुक्त कर्णफूल, इसे लम्बक भी कहते है। कर्णपूर-कान का एक आभूषण जो फूल के आकार का होता है। मणिकुण्डल- रत्नजटित कान की बाली। मेखला- रत्नजड़ित करधनी। कंचुक-अंगरखा (लक्ष्मी का वस्त्र)। अक्षमाल-ब्रह्मा की माला। चीवर-बुद्ध का वस्त्र। यद्यपि बौद्ध मूर्तियों में बोधसत्व राजकीय वस्त्र में है तो बुद्ध चीवर सहित प्रदर्शित होते है। चीवर का अर्थ फटे पुराने वस्त्र से होता है, लेकिन बौद्ध भिक्षुओं का पहनावा चीवर नाम से प्रसिद्ध था। चीवर कन्धे से पैरों तक लटका रहता है। बुद्धमूर्ति में कभी दोनों या कभी एक कन्धा चीवर से ढका हुआ प्रदर्शित रहता है। बौद्ध भिक्षुओं में चोगा भी पहना जाता है, जिसे मूर्ति विज्ञान में समघटी कहा जाता है।


जैन तीर्थंकरों के दो मतों, श्वेताम्बर तथा दिगम्बर के अनुसार निर्मित करने की परम्परा रही है, परन्तु उनमें आभूषणों को स्थान नहीं दिया गया। इसका कारण जैन मूर्तियों में तप, विराग की भावना थी। जैनधर्म के श्वेताम्बर अर्थात् श्वेत-अम्बर (सफेद वस्त्र) कहने से ही किसी वस्त्र का आभास होता है। मूर्तियों में वस्त्रों के रंग का ज्ञान मालूम करना दुष्कर कार्य है, किन्तु श्वेताम्बर मुनि सफेद रंग के वस्त्र धारण करते है। इसके अतिरिक्त दिगम्बरमतीय मुनिजन वस्त्र तथा आभूषण से विलग होते है।


पूर्वोक्त वर्णित चर्चा के क्रम में यहाँ यह जान लेना आवश्यक होगा कि राजस्थान क्षेत्र की मूर्तियों में आभूषणों की जो उत्कीर्ण भावना है वह स्पष्ट रूप से गुप्त एवं उसके परवतीर्कालीन युग की मूर्तियों के आभूषणों से मिलती है। अतः इन्हीं कालों को ध्यान में रखकर हम यहां उन्हीं आभूषणों की शब्दावली सामान्य रूप रेखांकित करने का प्रयास करेंगे जो विवेच्य क्षेत्र की मूर्तियों मे स्पष्ट तौर पर दिखायी देती है। इनमें प्रमुख है:


अंगड़-कुण्डलित सर्प के समान बाजूबन्द। अंगरखा (द्वितीय)-बगल में बांधा जाने वला कुरता। अंगुलय-अंगूठी। अंतरीय-अधोवस्त्र। अटकन-रत्नजड़ित हार। उपवीत-बायें स्कन्ध पर दायें बाजू के नीचे पहनने वाला ऊपरी वस्त्र। एकावलीएक लड़ की मोतियों का हार। ओपासाकेशों का परन्दा। कंकाल कुण्डललटकनों सहित अलंकृत कर्णफूल। कंगनकलाई पर पहनें जाने वाला आभूषणकंचुक (द्वितीय)-कुरता। कंठा-चौडा, चपटा व छोटा, गले में पहनने वाला। कक्षबन्ध-एक रत्नजड़ित भारी कनकती जो कुल्हों पर तिरछी पड़ी रहती है। कटिसूत्रनितम्बों पर पड़ी पट्टी को संभालने वाली करधनी। कड़ा-अंगूठी के प्रकार की साधारण पाजेब। कर्णफूल-पुष्परूपी कर्णफूल। कर्णिका-कर्णफूल। कनककमल-पूर्ण खिले कमल के फूल स्वरूप के मानिक जड़े कर्णफूल जिसका दक्षिण भारत में आज भी प्रचलन है। कबरीबन्ध-साधारण केशसज्जा जिसमें केश जूड़े चोटी से गूंथे जाते है। कलावककई कलाबों की डोरी का कमरबन्ध। कांसी-धुंधरू लगा कमरबन्ध। कायबन्धकमरबन्धपेटी। किंकणी-छोटे चूंघरू लगी पाजेब। किरीट-कुण्डल (द्वितीय) मुकुट, एक प्रकार का शीश का राजसी आभूषण तथा साधारण कुण्डल अथवा गोल कर्णफूल। केयूर(द्वितीय)-ऊपर के बाजू का बाजूबन्ध । केशपाश- केशों की शैली जिसमें केशों को कुण्डलित कर लम्बीगांठ से सिर के निकट पाश में लपेटा जाता है। चौलड़ी-चार लड़ों का हार। तरहरा-बड़े मोतियों की एक लड़। तिलड़ी-तीन लड़ियों का हार। पचलड़ी-पाँच लड़ियों का हार। हारवष्टि- बड़े मोतियों का हार। हेमसूत्रमध्य में पत्थर जड़ी गले की सोने की जंजीर। हेमावेकक्ष- वक्ष पर आड़े पुष्पों अथवा मोतियों की दो लम्बी मालाएँ जो मुख्यतः स्त्रियों द्वारा पहनी जाती है। सूत्रगले की जंजीर। सितारा-सितारे के रूप का स्त्रियों के ललाट का आभूषण। सतलड़ीसात लड़ियों का हार। शुद्ध एकावलीमोतियों का हार जिसके मध्य रत्न जड़ा हुआ हो। वेकक्ष-वक्ष पर आड़ी तिरछी पड़ी मोतियों की दो लम्बी लड़ियाँ। वेधककमर बन्ध (साधारण)। वलय- कंगन। लंबनम-लम्बा हार। लहंगा-नितम्बों के चारों ओर पहनने वाला अंतरीय लहंगा एवं उसकी बन्धन शैली। रसन-जुड़ी हुई जंजीरों अथवा मोतियों, मनकों या कीमती पत्थरों की लड़ियों से बनी करधनी। रत्नांगुलीय-कीमती पत्थर (नगीने, रत्न) जड़ी अंगूठी। रत्नावलि-जूड़े के चारों और पहना जाने वाला रत्नजड़ित जाल। रत्नाजली-गोटे और मोतियों का जाल जो स्त्रियों के द्वारा जुड़े के चारों ओर पहना जाता हैरत्न-कीमती पत्थर (नगीना)यष्टि-रत्न और स्वर्ण मनकों का हार जिसमें मध्य का कनका अपेक्षाकृत बड़ा होता है। यज्ञोपवीत-स्कन्ध से कटि तक पहने जाने वाला पवित्र धागा जो पूर्व में ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा या ब्राह्मण वर्ग द्वारा आवश्यक रूप से पहना जाता था। मौलिमणि-पगड़ी का रत्नजटित जड़ाऊ बकलस। मौलिबन्द-पगड़ी पहनने की एक अंलकृत शैली। मेखला-कमरबन, नितम्ब की पेटी। मुकुटजाल-केशों को सजाने के लिए जूड़े पर पहनी जाने वाली मोतियों की जालावली। मुक्तायक्षोपवीत-मोतियों का बना हुआ पवित्र धागा। माल्य-स्वर्ग सिक्कों से निर्मित दक्षिण भारत का हार। मुक्तावली-मोतियों की एक लड़ी का हारमांगलाल्य-स्वर्ण सिक्कों का रत्नजड़ित दक्षिण भारत का हार। मणिनुपुर-मणिक जड़ित पाजेब। मक्रिका-मत्स्य-मकर रूप का केशभूषण। बिन्दी-लालट का आभूषण। बाली-मोतियों की लड़ लगे अंगूठी जैसे कर्णफूल। चूड़ामणि- कमलाकृति के केशभूषण, पंखुड़ियों में मोती और कीमती पत्थर जड़े हुए। चोलका-सामने पेट बन्द लगी छोटी चोली। छत्र-छतरी-राजत्व की प्रतीक। छत्रधार- राजसी छतरी लेकर चलने वाला परिचायक (छत्र और छत्रधार का विशेष अंकन जो सूर्यपुत्र रेवन्त की मूर्ति फलक में दर्शित रहता है।) छन्नवीर-वक्ष का क्रासबेल्ट (सूर्य के वक्ष कवच के सदृश)। झुमकी-लटकन लगे बडे. कर्णफूल। तालपत्र-तालवृक्ष के पत्ते के डंठल को मोड़कर कानों की लौ में पिरोने हेतू बनाया गया कर्णफूल। तुला कोटि-दो सिरों के मिलन बिन्दु पर अंत में बढ़ाकर जोड़ी गई भारी पायजेब। तोक-सुनहरे तारो की कण्ठी। देहरी-चक्रिका के प्रकार का कर्णफूल। धमीलिया-पुष्पों, मोतियों तथा रत्नों से सज्जित केश विन्यास। निश्क- सिक्कों का हार। नुपुर-पाजेब। पटका- बेलबूटें से कढ़ा कमरपट्टा जिसे अंतरीय के ऊपर खोसा जाता है। पट्टबंध-पगड़ी को यथास्थान बनाए रखने के लिए सोने से अलंकृत पट्टी। पट्टिका-रिबन जैसा कशीदाकारी का अलंकृत चपटा कमरबन्द। पदपत्र-मोजाबन्द के समान जंघा का आभूषण। पुतल्य-महाराष्ट्र का स्वर्ण का समकालीन सिक्कों का हार। प्रतिधि-वक्षबन्ध। प्रवेणी-केश की वेणी। फलक-चौकी जैसे रत्न। फलक वलय- चौकी जैसे रत्न जड़ित कंगन। फलक हार- अन्तराल से जड़े चौकी जैसे रत्नों का हार। बाजूबन्द-बाजू के ऊपर पहना जाने वाला आभूषण। अलक-केश के चूंघर। आपीड़शीश पर धारण की जाने वाली पुष्पमाला। आभरण-आभूषण। कंकण कटक-कलाई पर धारण किया जाने वाला आभूषण। ताटक-कणाभूषण। आभरण मंजूषाआभूषण रखने वाला पात्र, इसे समुद्गक नाम से भी जाना जाता है। उक्त प्रकार के अनेकानक आभूषण राजस्थान प्रदेश की विभिन्न मूर्तियों में आज भी देखे, परखे जा सकते है।


अजमेर संग्रहालय में प्रदर्शित इस मूर्ति ने विदेशों में फहराई थी भारतीय संस्कृति की पताका-अजमेर (राजस्थान) के पुरातत्व संग्रहालय में प्रदर्शित एवं शिवपुराण के कथानक पर आधारित 'लिंगोद्भव महेश्वर' की एक ऐसी अद्भुत मूर्ति है जिसकी साम्यता वाली मूर्ति समूचे उत्तरी भारत की शिल्पकला में अभी तक प्राप्त नहीं हो पायी है। लेखिका के सामुख्य अध्ययानानुसार यह मूर्ति इतनी अधिक आकर्षक और सुधड़ है कि इसके मध्यवर्ती भाग में स्तम्भाकृति शिवलिंग है। इसके बांयी ओर त्रिमुखी ब्रह्मा तथा दांयी ओर चतुभुर्जी विष्णु शिवलिंग के ऊपरी छोर तक पहुँचने के लिए आकाशगंगा में उड़ते हुए तथा दूसरी ओर चतुभुर्जी विष्णु नीचे क्षीर सागर में शिवलिंग के निचले छोर तक पहुँचने के लिए उतरते हुए दिखायी देते है। विष्णु ने अपने दोनों हाथों में शंख धारण किया है तथा वे उससे धर्मघोष कर रहे है। उनके अन्य दो करों में चक्र एवं गदा धारित है। शिवलिंग के नीचे ही ब्रह्मा भी अपने आयुधों के साथ प्रदर्शित है परन्तु दोनों ही हतोत्साहित भावों से स्थानक मुद्रा में खड़े है। चूंकि वे दोनों महादेव शिवलिंग स्वरूप के आद्य उद्भव एवं अन्त की थाह को खोजने के प्रयत्नों में असफल रहे है। उत्तरी भारत के मूर्ति शिल्प में सर्वाति अद्भुत यह मूर्ति अपने उत्कृष्ट भावों एवं कला सौष्ठव के कारण सन् 1982 ई. में लन्दन तथा 1987 में रूस में आयोजित विश्व मूर्तिकला प्रदर्शनी में भारतीय संस्कृति का सफल प्रतिनिधित्व कर भारत की सांस्कृतिक पताका को फहरा चुकी है। संग्रहालय सूत्रों के अनुसार यह मूर्ति 10वीं सदी की है तथा सीकर के हर्षनाथ शिवालय से अवाप्त की गयी थी।