भारतीय परम्परा में परिधान ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

वस्त्रों की प्रकृति का निर्धारण किसीभी देशव उसके अंचलों के भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में होता है। जहाँ तक भारतीय वस्त्रों का सम्बंध है, इनमें व्यापक विविधता दिखाई देती है क्योंकि भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा व दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला ऐसा देश है, जो उत्तरी गोलार्द्ध के लगभग 33 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस देश के शीर्ष पर यदि हिमालय है, तो मध्य में रेगिस्तान और नीचे की ओर सागर है। इन सब के कारण यहाँ की जलवायु विविधतापूर्ण है और इसी के कारण यहाँ वस्त्रों की प्रकृति में विविधता है।


 भारतीय कला परम्परा इस तथ्य की साक्षी है कि परिधान व अलंकरण प्रत्येक काल में अत्यन्त महत्वपूर्ण रहे हैं। हमारे प्राचीन वांग्मय में जहाँ, एक और शारीरिक सौष्ठव के सम्बंध में विस्तार से विचार किया गया है, वहीं दूसरी और वस्त्रों की विविधता पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। भारतीय कला में यदि देह के बलिष्ठ (Powerful) होने के स्थान पर उसके सुसंहत (Proportionate) होने पर बल है, तो दूसरी ओर परिधान और अलंकरण इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि वे विभिन्न कवियों के काव्य में भी ढ़ल गए हैं।



वस्त्रों की प्रकृति का निर्धारण किसी भी देश व उसके अंचलों के भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में होता है। जहाँ तक भारतीय वस्त्रों का सम्बंध है, इनमें व्यापक विविधता दिखाई देती है क्योंकि भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा व दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला ऐसा देश है, जो उत्तरी गोलार्द्ध के लगभग 33 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस देश के शीर्ष पर यदि हिमालय है, तो मध्य में रेगिस्तान और नीचे की ओर सागर है। इन सब के कारण यहाँ की जलवायु विविधतापूर्ण है और इसी के कारण यहाँ वस्त्रों की प्रकृति में विविधता है।


सांस्कृतिक विविधता के कारण तथा लोक की उत्सवप्रियता ने भी इस देश के बुनकरों को बहुत अधिक प्रभावित किया है और उन्होंने नाना प्रकार के वस्त्र बनाए। सादरी, मिरजई, कुरता व नामावली चादर जैसे धार्मिक वस्त्र आज भी बड़े लोकप्रिय हैं। यह जानना भी बड़ा रोचक होगा कि वैदिक युग से आज तक, भारत में सिले हुए वस्त्रों के स्थान पर शरीर पर लपेटे जाने वाले वस्त्र अधिक लोकप्रिय रहे हैं तथा इनकी लोकप्रियता दक्षिण भारत में अधिक रही है। जैसा कि उल्लेख किया गया है उत्सवों की अधिकता के कारण विभिन्न प्रकार के रंगों और आकल्पनों का प्रयोग भी बहुत हुआ।


विशातीत भारतीय परिधान का वैशिष्टय


सिंधु घाटी की सभ्यता से सम्बंधित, जो वस्तुएँ पुरातत्वविदों को मिली हैं, उनमें रूई, रेशम व धागों के साथ-साथ सुईयाँ, स्पिण्डल तथा बॉबिन भी मिले हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि यह सभ्यता उन्नत वस्त्रों के निर्माण की साक्षी अवश्य रही होगी। विद्वानों ने यह अनुमान भी लगाया है कि उस काल में अधोवस्त्र (Lower Garment) के पृथक से पहने जाने की परम्परा थी। कराची संग्रहालय, पाकिस्तान में जिस दाढ़ी वाले पुरोहित का शिल्प रखा हुआ है, उसमें उसे एक सुन्दर शॉल पहने हुए दर्शाया गया है। सिंधु घाटी की सभ्यता में अनेक शिल्प ऐसे भी मिले हैं, जिनमें आकृतियों ने सिले हुए वस्त्र पहने हैं। इस्लामाबाद संग्रहालय में मोहनजोदाड़ों से मिली एक सील रखी है, जिस पर सात स्त्री आकृतियाँ उरेही गई हैं, जिन्होंने अंगरखा (Tunic) जैसे लम्बे वस्त्र पहन रखे हैं।


विद्वानों का यह अनुमान है कि इस सभ्यता में सिले हुए वस्त्र प्रायः नहीं पहने जाते थे। एक ऐसी मनुष्य मूर्ति मिली है, जिसने लम्बी चादर को लपेट रखा है। यह चादर छाती को ढंकती हुई बायें कंधे पर डाल दी गई है, जो खाली है। इसी प्रकार की एक दूसरी मूर्ति है, जिसमें पुरुष को तहमदनुमा कपड़ा पहने हुए दर्शाया गया है। इस सभ्यता की जो मूर्तियाँ मिली हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि तब चादर पहनने का रिवाज था तथा यह अनियमित रूप से पहनी जाती थी।


हड़प्पा से मिले हुए एक टेराकोटा शिल्प में एक ऐसी मनुष्य मूर्ति है, जिसने तंग मोहरी वाला पायजामा पहन रखा है, जिसे धोती भी कहा जा सकता है। इन शिल्पों में दुपट्टे की तरह का वस्त्र पुरुष गले में पहने हुए दिखाई देते हैं। पुरुषों को शिरोवस्त्र पहने हुए शिल्पित किया गया है। यह शिरोवस्त्र पंखे के आकार का है। इसी प्रकार के कुछ शिरोवस्त्र स्त्रियों ने भी पहन रखे हैं। स्त्रियों की जो मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं, उनमें उनके शरीर का ऊपरी भाग प्रायः निर्वस्त्र है तथा संकरी साड़ी घुटने के बहुत ऊपर तक पहुँची हुई है। इसे बाँधने के लिए मेखला का प्रयोग किया गया है।


सिंधु घाटी की सभ्यता का काल विद्वान 2600 से 1400 ईसा पूर्व का मानते हैं। वैदिक काल (1200-600 ईस्वी) में वेदों, ब्राह्माणों तथा उपनिषदों की रचना हुई। इनमें हमें वस्त्रों के विस्तृत संदर्भ मिलते हैं। यह जानकारी मिलती है कि पुरुष तीन भागों वाले वस्त्र पहना करते थे, जिनमें नीवी (Nivi), (अधोवस्त्र) (Adhivasa), वास (Vasas) (ऊपरी वस्त्र) तथा आधिवस्त्र (Adhivasa), (बाह्य वस्त्र अथवा उपर्णा) हैं। इन वस्त्रों के साथ बाद में पगड़ी अथवा उसनिसा (Usnisa) जुड़ी। महिलाओं के द्वारा ऊपरी वस्त्र व अधोवस्त्र ही पहने जाते थे। देवियों के द्वारा पगड़ी पहनने का भी संदर्भ मिलता है। वेदों में विस्तार से अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख है।


वैदिक से प्राचीन भारतीय परम्परा में परिधानो का वैविध्य


वैदिक काल (1200600 ईस्वी) में भेड़ तथा हिरण के रोमों से ऊन प्राप्त की जाती थी। ऊन से निर्मित वस्त्रों के लिए 'ऊर्णम्' शब्द का प्रयोग किया गया है। वैदिक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि गांधार में सर्वश्रेष्ठ ऊनी वस्त्र तैयार किए जाते थे। गांधार की भेड़ें सर्वाधिक रोमयुक्त होती थीं तथा ऋग्वेद में पूषा देवता द्वारा ऊनी वस्त्रों के बुनने का वर्णन मिलता है।


वैदिक काल (1200600 ईस्वी) में रेशमी वस्त्रों का भी प्रयोग किया जाता था तथा रेशमी वस्त्र को कौशेय या कौशेयम् कहा जाता था। सर्वप्रथम 'अथर्ववेद' में रेशमी वस्त्रों का उल्लेख है। इन्हें 'तामे' कहा गया है। तार्क्ष्य वस्त्रों का वर्णन 'मैत्रायणी संहिता', तैत्तिरीय ब्राह्मण' तथा 'शतपथ ब्राह्मण' में भी मिलता है जिसके अनुसार राजसूय यज्ञ के अवसर पर राजा तार्ण्य वस्त्र पहनते थे। वैदिक युग में सूती वस्त्र कपास से तैयार किए जाते थे जिसे 'कास' कहा जाता था। कपास का पहला उल्लेख 'आष्वलायन' और 'लाट्यायन श्रौतसूत्र' में मिलता है जिसके अनुसार सोमयज्ञ सम्पन्न करते समय कपास से निर्मित वस्त्र दक्षिणा के रूप में दिए जाते थे।


... . . . 'मनुस्मृति' में यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर तीनों वर्गों के ब्रह्मचारियों में से क्षत्रिय ब्रह्मचारी को धोती और कोपीन अथवा मृग के चमड़े के स्थान पर क्षौम (रेशमी वस्त्र) उपयोग में लाने के लिए कहा गया है। 'वराह पुराण' में यह उल्लेख है। 


__ संहिताओं, ब्राह्मणों और उपनिशदों में गौण रूप में वस्त्रों की चर्चा की गई है। इससे यह ज्ञात होता है कि वैदिक काल में वस्त्र विन्यास में लगभग 800 वर्षों तक कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। यह भी ज्ञात होता है कि उस समय पशुओं की खालों के वस्त्र भी पहने जाते थेसूत्र युग में, जिसका आरम्भ लगभग 500 ईसा पूर्व से होता है, में नए वस्त्रों के नाम मिलते हैं। यह युग महाजनपद युग भी कहा जाता है, जो वैदिक काल के बाद का युग है। यह वह समय था, जब भारतीय सभ्यता नगरों में केन्द्रित होने लगी थी तथा राजगृह, साकेत, वाराणसी, वैशाली जैसे बड़े नगर बस गए थे। यहाँ कपास, रेशम और ऊनी कपड़ों का काफी प्रचलन था तथा कपड़ों पर कसीदाकारी भी होती थी।


___'महाभारत' के सभापर्व में द्रौपदी के चीरहरण की कथा है, जिससे यह विदित" होता है कि उस काल में महिलाओं के द्वारा सुन्दर साड़ियाँ पहनी जाती रही होंगी। 'महाभारत' में ऊन का वर्णन भी मिलता है, जिसके अनुसार काम्बोज नरेश ने भेड़ की ऊन तथा अन्य पशुओं के रोमों से तैयार किए हुए सुवर्ण चित्रित, भिन्न-भिन्न प्रकार के सुंदर वस्त्र युधिष्ठिर को राज्याभिषेक के समय भेंट में दिए थे। 'महाभारत' में यह उल्लेख है कि जब अर्जुन ने उत्तर कुरु पर विजय प्राप्त की तब द्वारपालों ने उन्हें कर के रूप में आभूषणों के साथ, दिव्य रेशमी वस्त्र भेंट में दिए। 'महाभारत' के सभापर्व में यह उल्लेख है कि कीटज साधारण रेशम के तथा पट्टज कीमती रेशम के वस्त्र होते थे। महाकाव्यों में भी रेशमी वस्त्रों का उल्लेख है। 'रामायण' में माता सीता को 'पीत कौशेय वासिनी' कहा गया है। 'रामायण' में यह भी उल्लेख है कि जब वध के रूप में माता सीता अयोध्या आईं, तब उनके आगमन के समय अयोध्या की रानियों ने 'क्षौम वस्त्र धारण किए हए थेकिए हुए था 


मौर्य और शुंग काल में (324-72 ईसा पूर्व) में भी विभिन्न प्रकार के मनोहारी वस्त्र पहने जाते थे, जिनके उल्लेख तत्कालीन ग्रंथों में विशेष रूप से कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मिलते हैं। मेगास्थनीज की 'इण्डिका' में भी रूई, ऊन सहित वल्कल वस्त्रों का उल्लेख है। भरहुत के एक तोरण में दो व्यक्तियों को पत्तों के वस्त्र पहने हुए उकेरा गया है। अन्तःवस्त्र, उत्तरीय तथा कबंध के उल्लेख इस काल के ग्रंथों में मिलते हैं।


शालभंजिकाओं के शिल्प उस काल में पहने जाने वाले सुन्दर वस्त्रों की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। दीदारगंज की यक्षी की जो प्रतिमा पटना संग्रहालय में है, उसके अवलोकन से मौर्ययुगीन वस्त्रों की अवधारणा स्पष्ट हो जाती है। इस यक्षी ने ऐसी धोती पहन रखी है, जो उसके घुटनों तक आती है तथा पाँच सिलवटों वाली इस धोती ने इस यक्षी की कमर को लपेट रखा है। भिक्षुओं के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र तीन भागों में होते थे। बौद्ध भिक्षुणियों के द्वारा कंचुकी पहनी जाती थी।


कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' में चमड़ों और समूरों का विवरण दिया है। कौटिल्य ने भेड़ की ऊन से निर्मित वस्त्रों के रंग सफेद और लाल बताए हैं। उन्होंने वस्त्र बुनावट के आधार पर चार प्रकार के वस्त्रों का विवरण दिया, खचित (कसीदाकारी युक्त), वान चित्र (बुनाई के साथ ही, जिनमें तरह-तरह के फूल चित्रित हों), खण्डसंघात्य (भिन्न-भिन्न प्रकार की बुनावट के छोटे-छोटे टुकड़ों को जोड़कर, जो वस्त्र तैयार किया गया हो) तथा तन्तु विच्छिन्न (तन्तुओं को बुनाई के समय छोड़कर जाली की तरह बुना हुआ वस्त्र)।


इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने ऊनी वस्त्रों के दस भेद भी बताए, जो सभी भेड़ की ऊन से तैयार किए जाते थे। इनमें कम्बल, वर्णक (रंगा हुआ कम्बल), समन्तभद्रक (चार खाने वाला कम्बल), वारबाण (कोट, कुर्ता या चोला) तथा कौचपक अथवा केचलक (जंगल में काम आने वाला शिरोवस्त्र) शामिल हैं। कौटिल्य ने मृग के रोमों से बनाए जाने वाले वस्त्र के छः प्रकार बताए, जिनमें लम्बरा (ऊपर ओढ़ने का कपड़ा) व चतुरश्रिका (बेलबूटों से युक्त वस्त्र) शामिल हैं। उन्होंने कान्तानावक नामक नीले रंग के एक चमड़े का उल्लेख किया है, जिससे चमड़े के वस्त्र बनते थे। __ कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में 'पत्रोर्णा' नामक ऐसे रेशम का भी उल्लेख किया है, जो पत्तों पर कीड़ों के द्वारा छोड़ी गई लार से या पत्तों को कूटकर उनके रेशों से तैयार किया जाता था। पत्रोर्णा का निर्माण चीन में भी होता था, जिसे चीनपट्ट कहते थे।


सातवाहन काल (200 ईसा पूर्व से 250 ईस्वी) में भी वस्त्रों के विशिष्ट संदर्भ हैं। सातवाहन या आन्ध्र सातवाहन शासक दक्षिण में शासन करते थे तथा उनका समय मौर्य शासकों के अंतिम काल का समय था। गौतमी पुत्र सतकर्णी (106 ईस्वी से 130 ईस्वी) के समय में इस वंश ने अपने उत्कर्ष को छुआ। यह वह काल था, जब भारतीय लोग रोमन प्रभाव में थे। उसी समय साँची के तोरण द्वारों का निर्माण हुआ। साँची के तोरण द्वारों पर विभिन्न प्रकार के वस्त्रों को पहने जनसामान्य सहित आभिजात्य वर्ग के व्यक्तियों को शिल्पित किया गया है। सातवाहनों के काल में प्रायः पुरुष धोती पहनते थे, जो घुटनों तक आती थी। स्त्रियों के द्वारा पहनी जाने वाली ऐसी धोतियों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें कमर पर लपेटा जाता था। ओढ़नियों के पहने जाने के संदर्भ भी तत्कालीन ग्रंथों में मिलते हैं।


कुषाण काल (130 ईसा पूर्व से 185 ईस्वी) में गांधार प्रभाव दिखाई देता है तथा माथुरी कला मे इसके अनेक उदाहरण है। बौद्ध त्रिपिटक, जैन शास्त्रों व तत्कालीन संस्कृत साहित्य में उस समय प्रयुक्त किए जाने वाले वस्त्रों का विस्तार से उल्लेख है। कनिष्क के मूर्तिशिल्पों में ऐसे पहने गए वस्त्रों की विविधता दिखाई देती है तथा यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उस समय के राजा भारी चोगे पहनते थे। उस काल के पुरुषों के द्वारा बाहों वाले अंगरखों को पहना जाता था व साड़ी की तरह कबंध या चादर का भी प्रयोग किया जाता था। इस काल के जिन विदेशियों को चित्रित किया गया है, उनमें इन वस्त्रों को उन्हें पहने हुए दिखाया गया है।


नागार्जुनकोण्डा के एक पाषाण पैनल में एक सुरक्षाकर्मी को दर्शाया गया है, जिसने पूरी बाहों वाले अंगरखे को पहन रखा है। सुरक्षाकर्मियों को पायजामे पहने हुए भी शिल्पित किया गया है। उन्होंने पगड़ी भी पहन रखी है, जो भारतीय नहीं है। स्पष्ट है कि इस काल में गांधार प्रभाव के कारण वस्त्रों के पहनावे में भी विविधता आई।


गुप्त काल (4-5वीं सदी) भारतीय इतिहास में ऐसे स्वर्ण युग के रूप में प्रख्यात है, जब मगध के शासक चन्द्रगुप्त प्रथम,


उसके पुत्र समुद्रगुप्त तथा उसके पोते चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने प्रत्येक क्षेत्र में शीर्ष छुए तथा इसी कारण इस काल को स्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल में रचे हुए उत्कृष्ट संस्कृत साहित्य में, जिसमें कालिदास के काव्य और नाटक, अमरसिंह के 'अमरकोष' तथा भवभूति के 'महावीर चरित्' जैसे ग्रंथ शामिल हैं, में विस्तार से इस काल में पहने जाने वाले वस्त्रों का उल्लेख है। इसके अलावा चीनी यात्री फाहियान के यात्रा संस्मरणों तथा उस काल के विभिन्न शिलालेखों आदि के आधार पर भी उस काल के वस्त्रों आदि के सम्बंध में विस्तृत जानकारी मिलती है।


इन ग्रंथों में सूत व रेशम से बनाए जाने वाले वस्त्रों के साथ-साथ उनकी गुणवत्ता व उनके निर्माण केन्द्रों की जानकारी मिलती है। इनके आधार पर अजंता, एलोरा तथा बाघ की गुफाओं में किए गए अंकनों के परिधानों के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है। समुद्रगुप्त के काल में ढाले गए ऐसे सिक्कों से, जिनमें उसे अंगरखा, पायजामा तथा विशेष प्रकार की टोपी पहने अंकित किया गया है, उस काल के वस्त्रों की जानकारी मिलती है। यह ज्ञात होता है कि कमर के नीचे तक पहने जाने वाले अंगरखे व ढीले पायजामों को पहनने का प्रचलन उस युग में रहा। यह भी ज्ञात होता है कि उस काल में सिले हुए वस्त्र पहने जाते थेउत्तरीय तथा कमरबंध का पहना जाना बड़ा लोकप्रिय था। 


भारतीय कला परम्परा में परिधानों का अंकन (वृहत्तर भारत के परिपेक्ष्य में)


भारतीय कला के इतिहास में यद्यपि चित्रांकन के साक्ष्य काफी बाद में मिलते हैं लेकिन जो मिलते हैं, उन्हें देखकर पूरा विश्व आश्चर्यचकित हो जाता है। अजंता इसका जीवन्त उदाहरण है। यहाँ की चित्रावली में वस्त्रों के अंकन के माध्यम से चितेरों ने विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों का चित्रण बखूबी किया है। यदि राजाओं और कुलीन वर्ग के व्यक्तियों का आभिजात्य दिखाने के लिए सुन्दर विभिन्न आकल्पनों वाले रंगीन और रेशमी वस्त्रों का अंकन किया गया है तो भिक्षुक, ब्राह्मण, सैनिक, प्रतिहार, कंचुक, राजपरिवार, निरीह सेवक, वधिक, तपस्वी, साधु के वेश में धूर्त और परिचारिका आदि को सामान्य वस्त्रों के माध्यम से उनके वर्ग को दर्शा दिया गया है। 


अजंता में (गुफा क्र. 6) के एक अंकन में एक सन्यासी को छोटी धोती पहने हुए चित्रित किया गया है। उसने ऐसा कबंध लपेट रखा है, जो उसके बाएँ कंधे के ऊपर तक आता है। गुफा क्र. 1 की छत पर एक विदेशी जो सम्भवतः फारसी है, उसने लम्बा तथा तंग व पूरी बाहों वाला ऐसा अंगरखा पहन रखा है, जो तिकोना है, साथ ही उसने कमर में पटका भी बाँध रखा है।


यह विदेशी अपने सहायकों के साथ बैठा हुआ चित्रित किया गया है। उसकी दाँई और बैठे सहायक को एक विशेष प्रकार के अधोवस्त्र को पहने चित्रित किया गया है, जो आधुनिक स्कर्ट की तरह है। बाँई ओर जो सहायक बैठा है, उसने पूरी बाहों वाला जामा पहन रखा है, जो गर्दन की और v आकार में है। गुफा क्र. 1 में संकल्प जातक को उरेहा गया है, जिसमें राजा अपने राजदरबारियों के साथ रेशम या मलमल के सुन्दर वस्त्र पहने हुए है। उन्होंने कबंध कमर में बाँध रखे हैं ताकि वस्त्र अपने स्थान पर रहें तथा उनके राजदरबारियों ने पगड़ी भी पहन रखी है।


इस काल के अजंता के अंकनों में वस्त्रों के सम्बंध में एक विशिष्टता यह दिखाई देती है कि इस काल के वस्त्र पिछले युगों में पहने जाने वाले भारी वस्त्रों की तुलना में हल्के हैं। वे पारदर्शी भी हैं तथा फूलों के रंगों से रंगे धागों से ये वस्त्र बनाए गए हैं।


अजंता के भित्ति चित्रों में नारियों के वस्त्रों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने साड़ी, घाघरा तथा चोली पहन रखी है। विद्वानों ने इन वस्त्रों के सम्बंध में विस्तार से विचार किया है तथा यह पाया है कि अजंता के चित्रों में महिलाओं के द्वारा जिन दुपट्टों को ओढ़ा जाता था, उनके ओढ़ने के अनेक ढंग थे। धोती को घाघरे की तरह भी उपयोग में लाया जाता था। कच्छे भी पहने जाते थे। अजंता के चित्रों में सिले हुए वस्त्रों के अंकन भी बहुतायत से मिलते हैं तथा आभिजात्य वर्ग व जनसामान्य तथा सेवकों के वस्त्रों का अन्तर भी स्पष्ट दिखाई देता है।


अन्तर भी स्पष्ट दिखाई देता है। अजंता की आकृतियों का वस्त्र विधान अद्भुत है तथा इस विधान का अनुगमन कर आगामी युगों में निरंतर वस्त्रों के अंकन, भित्ति चित्रों तथा ताड़पत्र व कागज़ पर बने लघुचित्रों में होता रहा है।


महिलाओं के द्वारा चोलका, चोला, चोलिका, चोली व कंचोलिका आदि नामों से वक्ष को कसकर ढंकने वाले वस्त्र का भी उल्लेख मिलता है तथा अजंता की गुफा क्र. 1 के महाजनक जातक में एक नृत्यांगना को ऐसी चोली पहने हुए चित्रित किया गया है। चोली पहनने की यह परम्परा आज तक निरंतर चली आई है।


गुप्त काल के बाद 7वीं से 12वीं सदी के बीच वस्त्रों के विधान में अनेक प्रयोग हुए। सम्राट हर्षवर्धन (ईस्वी सन् 606646) के समय में बाणभट्ट ने 'हर्षचरित्' लिखा। उसने उस समय में विभिन्न वर्ग के लोगों के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का उल्लेख किया है। हर्ष के वस्त्रों के सम्बंध में उल्लेख करते हुए, उसने लिखा है कि वह प्रायः धोती, उत्तरीय तथा पटका पहनता था। अंगवस्त्रों के पहने जाने की भी पूर्ववर्ती परम्परा इस काल में निरंतर रही। स्त्रियाँ साड़ी, धोती, कंचुकी व ओढ़नी पहनती थीं। उस काल की नारियों के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों के सम्बन्ध में बाणभट्ट ने हर्षवर्धन की बहन राजश्री के विवाह का वर्णन करते हुए विस्तार से उल्लेख किया है।


'हर्षचरित्' में 6वीं तथा 7वीं सदी के भारतवर्ष के लोकजीवन का विस्तार से विवरण दिया गया है। साथ ही सम्राट हर्षवर्धन के लोकजीवन का विस्तार से विवरण दिया गया है। साथ ही सम्राट हर्षवर्धन के जीवन, उसकी गतिविधियों तथा उसके द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों आदि के सम्बंध में जानकारी दी गई है। बाणभट्ट ने अवगत कराया है कि सम्राट हर्षवर्धन मुख्य रूप से दो वस्त्र पहना करते थे, अन्तरीय तथा उत्तरीय। उनके द्वारा कमर के आसपास लपेट कर पहने जाने वाला पटका भी पहना जाता था। उत्तरीय कंधे के ऊपर से नीचे की ओर जाने वाला वस्त्र था। इसे जामदानी की तरह बनाया जाता था। राजा तथा प्रजा दोनों के द्वारा ही गले में नेकलेस तथा सिर पर आभूषण पहने जाते थे।


बाणभट्ट ने छः प्रकार की उन वस्तुओं का संदर्भ दिया है, जो वस्त्रों को बनाने में प्रयुक्त होती थी। इनमें विभिन्न प्रकार की गुणवत्ता वाली रूई, सिल्क तथा लिनिन शामिल थे। बाणभट्ट ने भास्करवर्मन, जो आसाम का शासक था तथा हर्ष का समकालीन था, का उल्लेख किया है तथा यह कहा है कि उसने आसाम के सिल्क से निर्मित एक सुन्दर पोषाख राजकुमारी को उसकी सगाई के समय भेट की थी


हर्ष के राजदरबारी कवि बाण ने सातवी सदी में बद्ध वस्त्रों का वर्णन किया है। उसने चार प्रकार के कोट का विवरण दिया है। पहला कंचुक, जिसमें पूरी बाहें आती थीं तथा जो बन्द गले का होता था। दूसरे प्रकार का कोट बरबन कहलाता था, जो कंचुक के समान ही होता था किन्तु जिसकी लम्बाई कम होती थी। तीसरे प्रकार का कोट चिंचोलक कहलाता था, जो लम्बा और ढीला होता था तथा उसे कंचुक के ऊपर चोगे के तरह पहना जाता था। चौथे प्रकार का कोट कुपर्सक कहलाता था, जिसकी लम्बाई तो चोगे के समान ही होती थी लेकिन जिसमें बाहें नहीं होती थी।


 बाणभट्ट ने हर्ष के समय प्रचलित तीन प्रकार के पायजामों का उल्लेख किया है। इनमें एक चूड़ीदार पायजामे की तरह होता था, जिसे सूथन कहते थे। दूसरे प्रकार के पायजामे को, जो सलवार की तरह ढीला होता था, पिंगा कहा जाता था तथा तीसरे प्रकार के पायजामे को स्थूल कहा जाता था, जो आकार में छोटा होता था। ये परिधान राज परिवार के लोगों के द्वारा पहने जाते थे। स्त्रियों के प्रमुख परिधान साड़ी और चादर थे। चुन्नटदार तथा बन्धेज का भी प्रचलन था, जो मोतियों से जड़ित होते थे। बाणभट्ट ने उत्तरीय बनाने वाले निष्णात कारीगरों का भी उल्लेख किया है तथा यह भी उल्लेख किया है कि बन्धेज के आकल्पन बनाने वाली महिलाओं का एक विशेष वर्ग हुआ करता था।


हर्षवर्धन के बाद के शासकों में बिहार व बंगाल के पाल, गुजरात के प्रतिहार व दक्षिण के चालुक्य शासकों ने सत्ता के लिए निरंतर संघर्ष किया। उत्तरी भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया तथा 7वीं से 12वीं सदी के बीच पल्लव और 9वीं से 13वीं सदी के बीच प्रमुखतः चोल शासक शासन करते रहे किन्तु 10वीं सदी के बाद मुसलमानों के आगमन के साथ ही परिदृश्य बदला तथा वस्त्रों के प्रकार से लेकर उनके आकारों और आकल्पनों में व्यापक परिवर्तन आए।


चोल शासकों के द्वारा बनाए गए स्मारकों में सबसे महत्वपूर्ण स्मारक है, तंजावुर का राजराजेश्वर मंदिर, जिसे वृहदेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। वृहदेश्वर मंदिर की भित्तियों पर संगीतज्ञों के अंकन हैं, इनमें से दो महिला व एक पुरुष संगीतज्ञ हैं। इन सभी ने जिन अधोवस्त्रों को पहना है, वे भारी कर्धनी सहित समान्य आभूषणों से वेष्ठित हैं। इन सभी ने परम्परागत दक्षिण भारतीय वस्त्र पहन रखे हैं।


पल्लव राज परिवार के द्वारा पहने गए वस्त्र भी परम्परागत वस्त्र है। अजंता के बाद चित्रांकन की पश्चिमोत्तर भारतीय शैली, पाल शैली व अपभ्रंश शैली में, जो लघुचित्र बने तथा सित्तनवासल सहित देश के विभिन्न अंचलों में, गुफाओं में जो भित्ति चित्र बने, उनमें प्रायः अजंता के भित्ति चित्रों जैसी विविधता न रही हो किन्तु उनमें भारतीय संस्कृति की विविधता अवश्य परिलक्षित होती है।


जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है, विदेशी आक्रमणों के कारण तथा इन आक्रामकों की विध्वंस वृत्ति के कारण सक्ष्य नष्ट हो गए तथा केवल संदर्भ बचे, जिनके आधार पर यह ज्ञात होता है कि भारत में वस्त्र निर्माण, उनके पहनने व उनसे जुड़ी हुई गतिविधियों की कितनी समृद्ध परम्परा थी। फिर भी इन संदर्भो के अलावा 10वीं सदी के पूर्व की अवधि के, जो शिल्प व भित्ति चित्र मिले हैं तथा कुछ अन्य चित्रित साक्ष्य मिले हैं, उनके आधार पर उस काल के वस्त्र विन्यास के सम्बंध में जानकारी मिलती हैं


राय कृष्णदास जी ने अवगत कराया है कि भारत में गुफा चित्र बनाए जाने की परम्परा लगभग 12वीं सदी तक, राजा भोज के भतीजे उदयादित्य के समय तक चली। प्रख्यात कलामनीषी डॉ. स्टेला क्रैमरिश ने ईस्वी सन् 1934 में देवगढ़ के पास मोहनपुर के विष्णु मंदिर में राजा मदनवर्मा के समय बने भित्ति चित्र खोजे थे। ये भित्ति चित्र अपभ्रंश शैली के हैं तथा इनका आकर्षक वस्त्र विन्यास सहज आकृष्ट करता है।


मध्ययगीन भारतीय कला परिवेश मे परिधानों की विविधता


इस परिप्रेक्ष्य में 11वीं, 12वीं सदी के बाद, वस्त्र विन्यास की भारतीय विरासत के बारे में जानकारी के स्रोत प्रमुख रूप से भित्ति चित्र व लघुचित्र हैं। इसलिए इन्हीं चित्रों के परिप्रेक्ष्य में आगे के काल के वस्त्र विन्यास के बारे में विचार किया जा सकता है।


यह तथ्य स्पष्ट है कि भारत में मुसलमानों और मुगलों के आगमन के बाद परिधानों के अंकन में बड़ा अन्तर आया। मुगलों के आगमन के पहले पश्चिमोत्तर भारत में जिस प्रकार के वस्त्र पहने जाते थे, उन्हें मुख्यतः दो वर्गों में लघुचित्रों में हुए अंकनों की दृष्टि में बाँटा जा सकता है। पहले वर्ग में आरम्भिक काल में बने वे राजपूत शैली के चित्र रखे जा सकते हैं, जो उस समय के हिन्दू शासकों के दरबारों में बने और दूसरे वर्ग में वे चित्र हैं, जो सल्तनत काल में मुस्लिम शासकों के संरक्षण में निर्मित हुए। 


पहले वर्ग के अंतर्गत चौरपंचाशिका शैली के चित्र आते हैं। इस शैली के आधार पर पश्चातवर्ती काल में राजस्थानी, पहाड़ी व मध्य भारत की विभिन्न शैलियों में अंकन किए गए। ईस्वी सन् 1520 से 1530 के बीच भागवत पुराण के अंकन हुए तथा ईस्वी सन् 1550 से 1560 के बीच 'गीत गोविन्द' के प्रसंगों पर व रागमाला पर आधारित अंकन हुए और उसके बाद केशव की 'रसिकप्रिया', 'कविप्रिया' व बिहारी की 'सतसई' सहित मतिराम के 'रसराज' व अन्य रीतिकालीन कवियों के काव्यों में वर्णित प्रसंगों के आधार पर अंकन निरंतर होते रहे।


अंकन निरंतर होते रहे। सल्तनत काल में देहली, गुजरात, बंगाल व दक्षिण में मुसलमान शासकों के द्वारा चित्राकंन का जो कार्य कराया गया, उनमें ईस्वी सन् 1490 से 1510 के बीच मालवा में माण्डू में सुन्दर चित्र बने। माण्डू में ईस्वी सन् 1439 में जो कल्पसूत्र बनाया गया, वह इन मायनों में अत्यन्त महत्वपूर्ण था कि उसमें अंकित कतिपय महिला आकृतियों के परिधान व आभूषण प्रायः स्थानीय ही थे। विशेष रूप से चोली व साड़ी स्थानीय रूप से पहने जाने वाली चोली और साड़ी थी।


यद्यपि नियामतनामा की आकृतियों के अंकनों पर तुर्कमान व शिराज शैली का प्रभाव था लेकिन वे स्थानीयता के प्रभाव से पूर्णतः अछूते नहीं थे। 'अमरूकशतक' के अंकन भी इन अर्थों में विशिष्ट हैं कि उनमें जो पुरुष व महिला परिधान चित्रित किए गए हैं, उन पर मुगल प्रभाव होने के साथ-साथ स्थानीय प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इसी प्रकार दक्षिण में भी यद्यपि दकनी कलम में चित्र बने लेकिन उनमें भी स्थानीयता विद्यमान थी। इन अंकनों में महिलाओं ने फारसी वस्त्र पहने हैं लेकिन अनेक अभिकल्पनाओं पर जैन प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है।


दिखाई देता है। पूर्व मुगलकाल में पुरुषों की आकृतियाँ, सिले हुए वस्त्र पहने हुए अंकित की गई हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की आकृतियों वाले ऐसे अंगरखे प्रमुख हैं, जो कमर तक पायजामे के साथ पहने जाते हैं। ऐसी आकृतियों के सिर पर पगड़ी या टोपी विशेष रूप से पहनी हुई दिखाई देती है। जहाँ तक महिला आकृतियों का सम्बंध है, उनके द्वारा शरीर पर लपेटी गई धोती पहनी गई है। पूर्व मुगलकाल में महिलाओं के द्वारा चोली, लहंगा व ओढ़नी, जो परम्परागत रूप से पहनी जाती थी, को चित्रों में अंकित किया गया है तथा फारसी प्रभाव के कारण एक लम्बा चोगा पहने हुए भी पुरुष आकृतियों को दर्शाया गया है।


जामा पहनी हुई आकृतियाँ प्रायः दिखाई देती हैं और जैसा कि सर्वज्ञात है, चौरपंचाशिका शैली या कुलहेदार शैली की आकृतियों में चाकदार जामा विशेष रूप से चित्रित किया गया है, जो छोटा होता है व जिसकी लम्बाई घुटनों तक होती है। इसमें चार दरारें भी दिखाई देती हैं। इसे सामने की ओर से बाँधा जाता है तथा अनेक गाँठे स्पष्ट दीख पड़ती हैं। इन पुरुष आकृतियों के द्वारा कमर पर पटका भी बाँधा जाता है। पुरुष पायजामा पहनते हैं व सिर पर प्रायः कुलहेदार लम्बी टोपी पहनते हैं। इस प्रकार की कुलहे को कुलहेदार पगड़ी या अटपटी पगड़ी भी कहा जाता है।


नारी आकृतियों के द्वारा शरीर पर लपेटे जाने वाले वस्त्र, इस तरह पहने जाते हैं ताकि शरीर के ऊपरी हिस्से को, विशेष कर वक्ष को बेहतर तरीके से ढंका जा सके।


पूर्व मुगलकालीन लघुचित्रों के विश्लेषण से विशेष रूप से ऐसे लघुचित्रों के विश्लेषण से, जो मुगलों के पहले देश के पश्चिमी अंचलों में बने, यह ज्ञात होता है कि पुरुष प्रायः जामा, चाकदार जामा व पायजामा पहना करते थे तथा सादी पगड़ियाँ बाँधा करते थे।


महिलाओं की पोषाख पारम्परिक हिन्दू पोशाक हुआ करती थी अर्थात् चोली, लहंगा तथा ओढ़नी। ओढ़नियाँ पारदर्शी हआ करती थी। ये पोषाखें सिली हई पोषाखें हुआ करती थीं। लहंगों पर विभिन्न प्रकार के आकल्पन बनाने का प्रचलन था। ये वस्त्र उत्तम गुणवत्ता वाली रूई से बने धागे से निर्मित होते थे तथा इस प्रकार की सुन्दर पोशाकों, इसी अवधि में बने लौरचन्दा के लघुचित्रों में देखी जा सकती हैं। यह चित्र वर्तमान में राजा छतपति शिवाजी वास्तु संग्रहालय, मुंबई (पूर्ववर्ती प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम) में संग्रहीत है।


11वीं सदी के यात्री अलबरूनी ने भी उस काल में पहने जाने वाले वस्त्रों का वर्णन अपने यात्रा वृत्तान्त में किया है। उसने विशेष रूप से उन कुरतों के बारे में उल्लेख किया है, जिन पर बाई और दाई ओर झालर होती थी। उसने पुरुषों के द्वारा पहने जाने वाले उन विशेष करतों का भी उल्लेख किया है, जिसके दोनों ओर सिलवटें अथवा वक्ष के दोनों ओर छिद्र हुआ करते थे। इस प्रकार के परिधान चौरपंचाशिका शैली में बनाए गए लघुचित्रों में दिखाई देते हैं।


कल्पसूत्र में परिधान का उल्लेख


यहाँ यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जिस अपभ्रंश शैली में 'कल्पसूत्र' व 'कालकाचार्य कथा' जैसे सचित्र ग्रंथ ताड़पत्रों व कागज़ पर बारहवींतेरहवीं सदी से लेकर अठारवहीं सदी तक निर्मित किए गए, उनमें बने चित्रों की आकृतियों की वेशभूषाएँ विशिष्ट हैं क्योंकि शक राजाओं का अंकन इन चित्रों में हुआ है। इन आकृतियों को साही आकृति कहा जाता है। अपभ्रंश शैली में पुरुषों के परिधानों में धोती, उत्तरीय तथा कटिपट प्रमुख हैं। स्त्रियों के लिए चोली, चूनर, रंगीन धोती तथा कटिपट का प्रयोग किया गया है। इस शैली में महिलाओं के द्वारा पहने जाने वाली साड़ी को सामने स्पष्ट रूप में इस प्रकार बाँधा गया है कि वह वक्ष को पार करती हुई सिर के पीछे तक चली गई है।


कल्पसूत्र की पुरुष आकृतियों को जामा और पायजामा पहने हुए अंकित किया गया है। झीने दुपट्टे का अंकन भी इन चित्रों में दृष्टिगत होता है। अपभ्रंश शैली में बनाए गए अधिकांश कल्पसूत्रों में जो परिधान अंकित किए गए हैं, उनमें सफेद बिंदियों का प्रयोग विशेष रूप से किया गया है। लाल बिंदियों के भी परिधान बनाए गए हैं। परिधानों के अंकन में सोने के रंग का बहुलता से प्रायः प्रयोग किया गया है। अंगवस्त्र भी सुगढ़ता के साथ सफेद रंग से बनाए गए हैं।


इस काल में बनाए गए सचित्र 'कल्पसूत्र' व 'कालकाचार्य कथा' में महिलाओं के वस्त्रों पर मनोहारी आकल्पन दिखाई देते हैं। ये आकल्पन बड़े गोल फूलों के हैं, जिनकी पाँखुरियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। सर्पिल रेखाओं का धोतियों पर अंकन विशिष्ट है। पुरुषों के उत्तरीय व अधोवस्त्र भी प्रायः चौकड़ी बनाती हुई रेखाओं को अंकित करते हुए बनाए गए हैं। साही पुरुष आकृतियों ने फारसी प्रभाव वाला विशेष प्रकार का ऊपरी वस्त्र पहन रखा है। साही आकृतियों की फारसी प्रभाव वाली पोशाख अपने आप में विशिष्ट है। साही राजा लम्बे चोगे पहनता है तथा उसके पैरों में जूते भी होते हैं। इस प्रकार की समन्वित शैली के उदाहरण, पन्द्रवहीं सदी के बाद भी मिलते हैं। इस प्रकार के वस्त्र अन्य सचित्र ग्रंथों के अंकनों में दिखाई नहीं देते। कल्पसूत्रों के अंकनों में सर्वाधिक महत्व उन आकल्पनों का है, जो कलाकारों ने अपनी कल्पना से बनाए।


यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि 'बालगोपाल स्तुति', 'रति रहस्य', 'गीत गोविन्द', 'वसन्त विलास' तथा 'दुर्गा सप्तशती' जैसे सचित्र हिन्दू ग्रंथ भी इस काल में निर्मित हुए। इनमें जिन आकृतियों को चित्रित किया गया, उनके द्वारा पारम्परिक रूप से जो परिधान चले आते थे, उन्हीं परिधानों को इन अंकनों में प्रयुक्त किया गया।


ईस्वी सन् 1526 में जब ज़हीरुद्दीन मोहम्मद बाबर ने मुगल सल्तनत की स्थापना भारत में की, तब इस पहनावे में परिवर्तन आया। बाबर एक सुरुचि सम्पन्न व्यक्तित्व का धनी था। उसने अपनी आत्मकथा 'तुजुक-ए-बाबरी' में जो मूलतः तुर्की भाषा में लिखी गई थी और जिसका फारसी अनुवाद ईस्वी सन् 1589 में अब्दुल रहीम खानखाना ने अकबर के समय किया था, में विस्तार से उस काल के वस्त्रों के बारे में उल्लेख किया है।


अकबर के समय में तैयार की गई इस सचित्र कृति में अनेक चित्र भी थे, जिनमें बाबर को विभिन्न पोशाखों में दर्शाया गया था। इसलिए बहुत संभव है कि अकबर के समय में चित्रित होने के कारण, अकबरकालीन पोशाखों का भी इन अंकनों पर प्रभाव पड़ा। बाबर ने अपनी आत्मकथा में अनेक तुर्की व मंगोल वस्त्रों के नाम लिए हैं। उसने जामा के साथ-साथ निमचा (Nimcha) नामक एक ऐसे अंगरखे का उल्लेख किया है, जो पुरुषों के द्वारा पहना जाता था। उसने 'चगताई जामा' का भी उल्लेख किया है, जो चगताई तुर्कों के द्वारा पहना जाता था तथा जिस पर धारियाँ नहीं होती थीं।


सोने की पच्चीकारी किए हुए 'चरकाब' नामक एक वस्त्र का उल्लेख बाबर ने किया है तथा भेड़ की खाल से निर्मित 'पोस्तिन' नामक एक ऐसे परिधान का भी वर्णन किया है, जो कोट की तरह होता था। एक लम्बा कोट भी होता था, जिसे 'जिबा' कहते थे। विभिन्न प्रकार की टोपियों का भी उल्लेख बाबर ने अपनी आत्मकथा में किया है, जो उस समय के पुरुषों के द्वारा पहनी जाती थीइन्हें प्रायः 'क्वाराक्विज़िबर्क' के नाम से उसने पुकारा है। विभिन्न प्रकार की पगड़ियों का भी उसने उल्लेख किया है।


उसने मंगोलों की पोशाखों का विवरण दिया है तथा यह भी लिखा है कि क्षेत्रगत रूप से उस समय टोपियों के आधार पर मंगोल लोगों को पहचाना जा सकता थाउस समय के सुलतान विशेष प्रकार की टोपियाँ पहना करते थे ताकि वे अलग से समझ में आ सकें। भेड़ की खाल की टोपियाँ काफी प्रचलन मे थीं।


हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम ने अपने संस्मरणों में महिलाओं के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का उल्लेख किया है। उच्च वर्ग की व निम्न वर्ग की महिलाओं के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का उसने विवरण दिया है तथा यह लिखा है कि उस समय स्त्रियाँ सिर से पाँव तक वस्त्र से ढंकी रहती थीं तथा राजवर्ग की महिलाएँ चार सतहों वाले वस्त्र को ओढ़ कर निकलती थीं। गले के आसपास वे मोतियों की माला भी पहना करती थीं। उसने यह भी लिखा है कि उन दिनों काबुल में यद्यपि शरीर को महिलाओं के द्वारा ढंका जाता था किन्तु बूंघट निकालने की प्रथा नहीं थी।


बाबर के समय में राज पोषाख में लम्बे अंगरखे पहने जाते थे। पेशवाज (Peshwaz) या जामा के पहनने का प्रचलन था तथा कुलहेदार पगड़ी पहनी जाती थी। बाबर मध्य एशिया से आया था, जहाँ घुटनों तक पहने जाने वाले वस्त्रों का प्रचलन था इसलिए यह वस्त्र हमें प्रायः अकबर कालीन लघुचित्रों में दिखाई देते हैं। इन लघुचित्रों में पुरुषों के द्वारा पहने जाने वाले अंत:वस्त्र भी दिखाई देते हैं। इस तरह 'पेशवाज़', 'फरजी', एक लम्बा कोट जिसे 'काबा' कहा जाता था, उस काल में पहना जाता था। अबुल फज़ल ने इसे आईने अकबरी में 'जामा-ए-पम्बदर' कहा है। इसका उपयोग विशेष रूप से ठण्ड के मौसम में किया जाता था।


जहाँ तक महिलाओं के वस्त्रों का प्रश्न है, वे इस्लाम के निर्देशों से बंधी हुई थी तथा वे सार्वजनिक तौर पर बिना बुरके केनहीं घूम सकती थीं। इसलिए आरम्भिक मुगल काल की महिलाओं के वस्त्रों के सम्बंध में लघुचित्रों के माध्यम से व अन्य प्रासंगिक साहित्य के आधार पर कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है।


हुमायूँ के समय में जो वस्त्र पहने जाते थे, वे प्रायः पारम्परिक वस्त्र ही थे लेकिन हुमायूँ लम्बे समय तक ईरान में शाह तहमास्य के साथ रहा था इसलिए वस्त्रों पर भी ईरानी प्रभाव था। वह कहा जाता है कि हुमायूँ ने 'ताज-ए-इज्जत' नामक एक टोपी को ईजाद किया था, जो अंग्रेजी के V अक्षर के आकार की हुआ करती थी। यह विविधरंगी नहीं होती थी। 'काबा', 'पिरहान', 'जिबा' व 'कसाबा' जैसे वस्त्रों का उल्लेख हुमायूँ के काल के संदर्भ में मिलता है। गुलबदन बेगम ने हुमायूँ के भाई हिन्दाल की शादी के समय दुल्हन को, उसकी माँ के द्वारा दी गई भेटों की सूची दी है, जिसमें सोने के बटन लगे हुए नौ जेकट्स का विवरण है, जिन पर विभिन्न रत्न भी जड़े हुए थे।


उस समय के साहित्य में पुरुषों, महिलाओं, सेवकों, दरबारियों व बच्चों सहित सामान्य लोगों के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों के बाबद् उल्लेख मिलता है। अकबर का काल बड़ा महत्वपूर्ण काल है। अबुल फजल के द्वारा लिखे गए सचित्र अकबरनामे में बने हुए चित्रों को देखने पर, उस काल में पहने जाने वाले वस्त्रों के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है। यह सचित्र ग्रंथ अभी विक्टोरिया एण्ड अलबर्ट म्यूज़ियम, लंदन में संरक्षित है।


अकबर के समय में उसके पूर्वजों के काल में, जो वस्त्र जैसे पेशवाज़, जामा, फरजी आदि जो पहने जाते थे, वे तो पहने ही जाते थे लेकिन अकबर ने अपनी ओर से नए वस्त्र भी ईजाद किए तथा पुराने चले आ रहे वस्त्रों की डिजाइन में भी बदलाव किया। उदाहरणार्थ, जैसा कि रायकृष्णदासजी उल्लेख करते हैं, गुप्तों के समय से जो जामा तिकोना चला आ रहा था, उसे अकबर ने सीधा कर दिया।


__अकबर ने 'तकाउचिया' नामक एक वस्त्र को बनाया। यह परम्परागत रूप से मध्य एशिया में पहना जाने वाला परिधान था, जिसमें अकबर ने भारतीय परिस्थितियों के अनुसार बदलाव किए। इस वस्त्र ने जामा का स्थान लिया। उसने रेशमी व ऊनी वस्त्रों को भी विभिन्न डिजाइनों में विशेष रूप से बनावाया। उसने दोशाले या शॉल को विशेष ढंग से पहनने के लिए तैयार करवाया। अकबरी पगड़ी भी अपने आप में विशिष्ट है क्योंकि वह पगड़ी एक विशेष प्रकार से बनाई गई थी ताकि उसके नीचे सिर के सभी बाल आ सके। उल्लेखनीय है कि अकबर कभी बाल नहीं कटवाता था। पगड़ी पर लगाया जाने वाला सरपंच भी अकबर ने विशेष रूप से बनवाया थाअकबर के समय में आए पादरी फादर मॉन्सरेट ने अकबर के पहनावे के सम्बंध में विशेष जानकारी दी है। अकबर के समय में भी चाकदार जामा व अंगरखे को पहनने का प्रचलन था।


चौरपंचाशिका शैली में बनाए गए लघुचित्रों में तथा 16वीं सदी के भागवत पुराण व गीत गोविन्द के प्रसंगों पर बनाए गए लघुचित्रों में उस काल के परिधानों को देखा जा सकता है। अकबर के समय में जामा विशेष प्रकार से बनाया गया, जिसमें अपेक्षाकृत सिलवटें अधिक थीं। अकबर ने अपने समय में विभिन्न देशों के बुनकरों को इकट्ठा किया था, जिनसे वह विभिन्न प्रकार के वस्त्रों को तैयार करवाया करता था। अबुल फजल ने गुजरात, यूरोप, मध्य एशिया व चीन से लाए गए वस्त्रों का उल्लेख किया है।


अबुल फज़ल ने ओढ़े जाने वाले व सिलकर पहने जाने वाले वस्त्रों का भी उल्लेख किया है, साथ ही विभिन्न वर्ग के लोगों के द्वारा पहने जाने वाले व पुरुष संगीतकारों तथा नर्तकों के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों की भी जानकारी दी है। ये वस्त्र उस काल के लघुचित्रों में भी दिखाई देते हैं।


महिलाओं के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों के बारे में भी उस समय के लघुचित्रों के आधार पर विशेष जानकारी मिलती है। अंग्रेजी के V अक्षर के 'पेशवाज़' तथा घुटनों तक पहने जाने वाले गाउन, अकबर के समय में बड़े लोकप्रिय थे। महिलाओं के द्वारा परम्परागत लहंगा, ओढ़नी, चुन्नी को पहना जाता था। वे पायजामा भी पहनती थी


जहाँगीर कालीन लघुचित्रों में उसके स्वयं के द्वारा पहने जाने वाले राजकीय परिधान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें शॉल, गुजराती साटन का बना हुआ 'काबा' व 'बातूगिरेबान' उल्लेखनीय है। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' भी लिखी, जिसमें बड़ी बारीकी के साथ उसने अपने वस्त्रों आदि के बारे में उल्लेख किया है। जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ बड़ी विदुषी और आभिजात्य महिला थी। उसने अनेक प्रकार के वस्त्रों को बनवाकर प्रचलन में लाने की कोशिश की।


जहाँगीर के समय में भारत की यात्रा करने वाले फ्रेंच यात्री थेवनॉट तथा यूरोपीय यात्री सर टॉमस रो ने जहाँगीर की पोशाख का वर्णन किया है लेकिन इन वर्णनों में उसके द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों व रत्नों का वर्णन अधिक है। उन्होंने एक बड़े सोने के धागों से बने ओवरकोट का वर्णन किया, जिसे जहाँगीर पहना करता थाजहाँगीरी पगड़ी एक विशेष प्रकार की पगड़ी थी, जिसे उसने स्वयं ईजाद किया था। इनके अलावा वह चूड़ीदार पायजामा पहनता था व पटका भी बाँधता था। उसके समय की ढाका की मलमल बड़ी प्रसिद्ध थी, जिसके बारे में जॉर्ज वॉट ने लिखा है कि उसका एक थान महिलाओं के द्वारा पहनी जाने वाली अंगूठी के छिद्र से अन्दर जा सकता था। इस मलमल को मलमलखास कहा जाता था। जहाँगीर के समय में महिलओं के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का उल्लेख गुलबदन बेगम ने किया है, जिनमें सिल्क की 'धूपछाँव' व 'सूजीखानी' महत्वपूर्ण है। पंजाब और बनारस में बनने वाले वस्त्रों के बारे में विशेष रूप से 'किमखाब' के बारे में उल्लेख मिलता है।


विविध परिधान का आकर्षण


सर जॉर्ज वॉट ने विस्तार से जहाँगीर के समय में विभिन्न वर्गों के पुरुषों तथा महिलाओं की पोशाखों का वर्णन किया है। पुरुष एक प्रकार की जेकेट पहनते थे, जो बाँह रहित होती थी तथा जिसे 'नादिरी' कहा जाता था। एक विशेष प्रकार की जेकेट सिल्क या रेशम की बनी होती थी, जिसमें बाई व दाई और सिलवटें होती थीं तथा जिसके चारों ओर सोने की किनारी होती थी। जहाँगीर के समय का कमर में पहने जाने वाला पटका, अकबर के समय में पहने जाने वाले पटके से अपेक्षाकृत लम्बा होता था, जिस पर मनोहारी आकल्पन (Designs) बने होते थे। लाल व हरे रंग के विशेष कमरबंध भी होते थे, जिन्हें बंधनी कहा जाता था। जहाँगीर के द्वारा पहने जाने वाला चोगा घुटनों तक आता था तथा कमर में सोने व चाँदी के तारों से रेशमी वस्त्र पर बुने हुए पटके को वह पहनता था।


धारीदार पायजामों के पहनने का प्रचलन था। ये धारियाँ मोटी व पतली भी हुआ करती थी व अधिकतर लाल व हरे रंगों की होती थी। एक विशेष प्रकार का वस्त्र जिसे 'दाराबफ' कहते थे तथा जिस पर धारियाँ हुआ करती थीं, उसका उल्लेख भी जहाँगीर कालीन वस्त्रों के संदर्भ में किया गया है। सिर पर विशेष प्रकार की टोपी (Headgear) पहनी जाती थी।


राज परिवार के लोगों के वस्त्र व सामान्य वर्ग के लोगों के वस्त्र अलगअलग होते थे।


महिलाओं के परिधान भी पृथक्-पृथक् वर्ग के अनुसार हुआ करते थे। लहंगा, ओढ़नी, सलवार, चुन्नी, पेशवाज, चोली तथा पायजामा प्रमुख वस्त्र थे। महिलाओं के द्वारा एक विशेष प्रकार का पटका भी पहना जाता था, जिसे फेंटा कहा जाता था। पुरुषों के फेंटे अलग होते थे। हिन्दू व मुस्लिम सेवकों के वस्त्र अलग-अलग होते थे। जहाँगीर कालीन वस्त्र विशेष रूप से दर्शनीय हैं क्योंकि जहाँगीर तथा उसकी पत्नी नूरजहाँ दोनों ही सुरुचि सम्पन्न व्यक्तित्व के धनी थे तथा उनके द्वारा फैशन के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किए गए।


शाहजहाँ का काल भी आभिजात्य का काल था। शाहजहाँ के समय उसके दरबारी लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी ने 'पादशाहनामा' लिखा, जिसमें शाहजहाँ के जीवनवृत्त तथा उससे जुड़ी हुई घटनाओं का उल्लेख है। यह वर्तमान में विण्डसर कैसल म्यूज़ियम, लंदन में है। शाहजहाँ को भारी भरकम वस्त्रों के पहनने का शौक था। यद्यपि उसकी पोशाक व जहाँगीर की पोशाख में कोई विशेष अन्तर नहीं था किन्तु जहाँगीर के द्वारा पहने जाने वाले चोगों की तुलना में शाहजहाँ के चोगे अपेक्षाकृत अधिक अलंकृत और भारी थे।


शाहजहाँ की पगड़ी और उस पर लगाई जाने वाली कलगी का विवरण चेप्लिन टेरी ने दिया है, जिसके अनुसार उसकी पगड़ी में लगने वाले कपड़े की चौड़ाई लगभग आधा गज हुआ करती थी। तथा कपड़े का वज़न चार औंस होता था। कलगी कश्मीर से लाई जाती थी।


तत्कालीन यूरोपीय व फारसी स्रोतों से यह ज्ञात होता है कि जहाँगीर के समय में पोशाख जिन रिबन्स से बाँधी जाती थी, वे शाहजहाँ के काल में अधिक आकर्षक बनाए जाने लगे। वे दो अंगुश्त चौड़े होते थे तथा उनकी लम्बाई भी लगभग एक फीट के बराबर होती थी। पहले और अंतिम रिबन को बाँधा जाता था।


जामा, पायजामा, चूड़ीदार पायजामा, पटका व पगड़ी सामान्य पोशाख थी। अंर्तवस्त्रों में निमचा अथवा निमा को पहना जाता था। जामा व पायजामा सुन्दर बेलबूटों के आकल्पनों वाले हुआ करते थे तथा उनमें विरोधी रंग (Contrast Colour) होते थे। सोने से बने रंगों का बहुतायत से प्रयोग होता था। जामा के आकल्पन में भरा हुआ काला रंग (Silhouette) विशिष्ट होता था। वस्त्रों की किनारियों फूलों के आकल्पन से परिपूर्ण होती थीं।


जेकेट दो तरह के होते थे, जिन्हें सदरी (Sadri) व गादर या फरजी (Gadar or Farji) कहा जाता था। सदरी में बाहें नहीं होती थी तथा वह कमर तक लम्बा होता था, जबकि गादर या फरजी लम्बी जेकेट हुआ करती थी, जिनमें बाहें हुआ करती थींफरकोट पहनने का प्रचलन बहुत था। कमर में पटके बाँधे जाते थे, जो अलंकृत होते थे


बाँधे जाने वाले वस्त्रों का भी प्रचलन था। प्रायः यही वस्त्र शाहजहाँ के समय में राजकीय लोगों के द्वारा पहने जाते थे। सुरक्षाकर्मियों तथा सेवकों की पोशाखें अलग हुआ करती थीं। उनका जामा अपेक्षाकृत छोटा होता था तथा पटका भी प्रायः सादा होता थाअधिक आकल्पन वाले पायजामे नहीं पहने जाते थे। कंधे पर प्रायः उपर्णा डाला जाता था। कमर में कटारभी बाँधी जाती थी। 


कला साधका के पारधान


संगीतज्ञों की पोशाख भी अलग होती थी। उनकी पगड़ियाँ व पटके सादे होते थे। पगड़ियों का आकार छोटा होता था। महिलाओं के वस्त्र प्रायः उसी प्रकार के होते थे, जो जहाँगीर के समय में होते थे। हिन्दू महिलाएँ ऊँची चोली, ओढ़नी तथा साड़ी पहनती थीं। शरीर का निचला हिस्सा लहंगे से ढंका रहता था। जहाँगीर के समय में लहंगे का आकार बड़ा हुआ तथा कमर पर जहाँ लहंगा बाँधा जाता है, वहाँ किनारियाँ भी बनाई गई। ओढ़नियाँ भी अनेक लघुचित्रों में ऐसी दिखाई देती हैं, जो सिर पर ओढ़ी हुई हैं।


ओढ़नी के साथ पेशवाज़ भी पहने जाते थे, जो पारदर्शी होते थे। चोलियों व फेंटों का प्रचलन भी मुस्लिम महिलाओं में था। शरीर के निचले भाग को ढंकने के लिए पायजामा पहना जाता था। जहाँगीर के समय में पहने जाने वाले पेशवाज शाहजहाँ के समय अधिक पारदर्शी हो गए थे। शाहजहाँ के समय में आधुनिक फ्रॉक की तरह एक वस्त्र कमर से नीचे की ओर पहना जाता थामहिलाएँ इन वस्त्रों पर भरपूर व तरह-तरह के आभूषण पहनती थीं।


औरंगजेब के समय में जैसा कि हम जानते हैं कोई विशेष प्रयोग नहीं हुए। वह एक धार्मिक प्रवृत्ति का शासक था, जिसकी कला में कोई रुचि नहीं थी इसलिए उसके समय में वस्त्र विन्यास के सम्बंध में कोई नए प्रयोग नहीं हुए तथा जहाँगीर और शाहजहाँ के समय, जो शैलियाँ प्रचलित रहीं वही औरंगजेब के समय में विद्यमान रहीं। वह एक कट्टर शासक था तथा सादगी का हिमायती होने के कारण उसके समय में जो वस्त्र बने, उनमें अलंकरण की प्रधानता नहीं थी। सोने और चाँदी के धागों पर उसके समय में प्रतिबंध था व समृद्ध लोग प्रायः विभिन्न रंगों से रंगे रंगीन वस्त्र पहनते थे। स्वयं औरंगज़ेब के लिए बनाए जाने वाले काबा का मूल्य 10 मोहर से अधिक नहीं था। औरंगजेब यद्यपि उत्सवों के समय परम्परागत राजसी वस्त्र पहनता था लेकिन शेष दिनों में वह सादे वस्त्र ही पहनता था।


औरंगजेब के द्वारा घुटनों तक आने वाला जामा पहना जाता था। लम्बी बाहों वाले जेकेट व पटके व चूड़ीदार पायजामा उसकी सामान्य पोशाख थे। सदरी व फरजी भी उसके द्वारा पहनी जाती थी। उसके समय के राजदरबारी व राजकुमार भी प्रायः इसी प्रकार के वस्त्र पहनते थे। भिश्ती, सुरक्षाकर्मी व सेवकों की पोशाखें भिन्न होती थीं। वे सादी व पारदर्शी होती थी। उनके द्वारा पटका भी पहना जाता था। संगीतकार भी जामा व पायजामा पहनते थे। मलमल का भी प्रयोग होता था।


ढाका की मलमल को शबनम कहा जाता था। वह इसलिए क्योंकि वह बहुत पारदर्शी होती थी। महिलाओं के द्वारा परम्परागत वस्त्र पहने जाते थे, जिनमें बुर्का प्रमुख था, जिसके कारण उनका शरीर दिखाई नहीं देता था। पेशवाज़, ओढ़नी व पायजामा महिलाओं के द्वारा पहना जाता था। किन्हीं लघुचित्रों में वे फेंटा पहने भी दिखाई देती हैं।


औरंगजेब के शासन के समाप्त होते ही, राजपूत शासकों के द्वारा शासित रियासतों तथा ठिकाणों में नए उन्मेव के साथ एक सांस्कृतिक लहर आई। ये शासक राजस्थान में भी थे और पहाड़ों तथा पंजाब में भी।


तत्कालीन साहित्यिक ग्रंथों में जिन वस्त्रों का वर्णन है, वे इस समय में निर्मित लघुचित्रों में भी दिखाई देते हैं। मलिक मोहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' में 'समुद्र लहर' तथा 'लहर पटोर' का वर्णन सोलहवीं सदी में किया है। इसी प्रकार गुजराती वर्णक (सत्रहवीं सदी) प्रतापसाही लहरिया की भूरि-भूरि प्रशंसा करते है तथा 'सभा श्रृंगार' के संकलनकर्ता चुनरी का।


अकबर के समय में जिस साक्षा संस्कृति के परिणामस्वरूप वस्त्र विन्यास में परिवर्तन आया था, उस वस्त्र विन्यास ने अपनी लोकप्रियता को नहीं खोया बल्कि उसमें नए प्रयोग हुए।


पश्चिम भारत का वस्त्र विन्यास (राजपूताना आदि के क्रम में)


राजस्थान की वस्त्र विन्यास परम्परा पर दृष्टिपात करें तो यह ज्ञात होता है कि कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के युग से ही राजस्थान में सूती वस्त्रों का उपयोग होना आरम्भ हुआ। रूई कातने के चक्र तथा तकली उत्खनन में प्राप्त हुए हैं। बैराठ व रंगमहल में भी रूई के वस्त्रों के प्रयोग के प्रमाण हैं। आगे के समय में अधोवस्त्र (धोती) तथा उत्तरीय वस्त्र के प्रयुक्त किए जाने के भी प्रमाण मिलते हैं। साधुओं के द्वारा ठण्ड से बचने के लिए पशुओं के चर्म के प्रयोग के भी उदाहरण हैं। अनेक मंदिरों में ऐसी वेदिकाएँ मिली है, जो पुरुषों की इस वेशभूषा पर प्रकाश डालती हैं।


राजस्थान की वस्त्र परम्परा के सम्बंध में प्राचीन मूर्ति शिल्पों व चित्रों से जानकारी मिलती है। इसके अलावा मेगास्थनीज व ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों में भी यह जानकारी मिलती है। कविराज श्यामलदास ने अपनी कृति 'वीर विनोद' में इसका उल्लेख किया है। कपास की पर्याप्त उपलब्धता होने के कारण यहाँ के राजाओं और सामन्तों ने आकल्पनों से भरपूर वस्त्र बनवाए। इस काल में राजस्थान के शासकों के द्वारा विभिन्न प्रकार की पगड़ियाँ भी पहनी जाती थीं, जिनके उदाहरण आज भी विभिन्न संग्रहालयों में मौजूद हैं। चित्तौड़ में ईस्वी सन् 1448 में बने कीर्ति स्तम्भ पर अंकित आकृतियों के वस्त्र उस समय की वेशभूषा की कहानी कहते हैं। इन अंकनों से यह स्पष्ट होता है कि पुरुष विभिन्न प्रकार के आकल्पनों वाले वस्त्र पहना करते थे तथा सिर पर गोलाकार मोटी पगड़ी पल्लों को लटकाकर पहनी जाती थी। घुटनों तक आने वाली लम्बी धोती पुरुष पहनते थे तथा ऐसे अंगरखे भी पहने जाते थे, जो जांघों तक आते थे।


रेशमी परिधान भी बारीक कलाकारी वाले होते थे। विभिन्न प्रकार के कार्यकलाप सम्पन्न करने वाले व्यक्तियों के परिधान भी भिन्न-भिन्न होते थे। प्राचीन स्त्री मूर्तियों के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि केवल अधोभाग में, वे छोटी साड़ी पहने रखती थीं, जिसे कमर में मेखला से बाँध लिया जाता था।


दिलवाड़ा के मंदिर की सुन्दर मूर्तियाँ तत्कालीन राजस्थानी परिधानों को दर्शाती हैं। इन मूर्तियों में पुरुष कामदार धोती पहने हुए हैं तथा दोनों किनारों की ओर से झूलता हुआ बारीक दुपट्टा पहने हैं, जिससे यह ज्ञात होता है कि वे राजपरिवार के लोग हैं। राजस्थान में सोलहवीं सदी में जो कल्पसूत्र चित्रित हुए, उनमें साधारण व्यक्ति से लेकर राजा-महाराजाओं के परिधान दिखाई देते हैं, जिनमें विविधता तथा परिवर्तन मुगलों के सम्पर्क से आया।


सुन्दर पगड़ियाँ


राजस्थानी परिधान में पगड़ियों का बड़ा महत्व है। कई शैलियों की पगड़ियाँ राजस्थान में मध्य युग में पहनी जाती थीं, जिन्हें राजस्थान की विभिन्न चित्रशैलियों में किए गए अंकनों में देखा जा सकता है। इनमें अटपटी, अमरशाही, उदेहशाही, खंजरशाही तथा शाहजहाँशाही प्रमुख हैं। अलग-अलग पेशे के लोगों के द्वारा जो पगड़ी पहनी जाती थी, उसके पेंच तथा आकार में आए परिवर्तन से सम्बंधित व्यक्ति की जाति का भी बोध होता थाउदाहरण के लिए सुनार आंटे वाली पगड़ी पहनते थे, तो बंजारे पट्टेदार पगड़ी। ऋतुओं के अनुसार भी रंगीन पगड़ियाँ पहनी जाती थीं। मोथड़े की पगड़ी यदि विवाह के समय पहनी जाती थी तो लहरिया पगड़ी श्रावण में बाँधी जाती थी। फूल-पत्ती की छपाई वाली पगड़ी होली पर पहनी जाती थी। पगड़ी आकर्षक व चमकीली दिखाई दे इसलिए तुर्रे, सरपंच, बालाबन्दी, लटकन व धुगधुगी आदि का प्रयोग होता था। ये पगड़ियाँ तंजेब डोरिया और मलमल की होती थीं। समाज के उच्च वर्ग के लोग चीरा और फेंटा भी बाँधते थे। यह प्रतिष्ठा का प्रतीक थी तथा आज भी है।


पगड़ी की तरह अंगरक्षी अथवा अंगरखी भी होती थी, जिसे साधारण लोग पहनते थे। इसे विविध ढंग व आकार में बनाया जाने लगा। अंगरक्षी को तनसुख, दुतई, गाबा, मिरजई, डोढ़ी, कानो व डगला आदि कहते थे। यह प्रायः कमर तक लम्बी होती थी। राजस्थान के कुछ भागों में घुटने तक लम्बी अंगरखी पहनी जाती थी। इसमें कलियाँ लगाकर या चुन्नट देकर नीचे का घेरदार हिस्सा तैयार किया जाता था तथा गला प्रायः बन्द भी रखा जाता था। वर्तमान में इसे अचकन के रूप में पहना जाता है।


अंगरखी के ऊपर सम्पन्न लोग चोगा पहनते थे। यह रेशमी, ऊनी, किमखाब की कीमती पोशाख होती थी। वैसे तो जामा दरबारी पोशाख थी लेकिन इसे शादी-ब्याह के समय भी पहना जाता था। इसकी लम्बाई नीचे जमीन तक होती थी।


अंगरखी, चोगा और जामा के नीचे तंग पायजामा पहना जाता था। यह साधारण ही होता था लेकिन विशेष व्यक्तियों के लिए जो पायजामे बनाए जाते थे, उन पर गोट लगी होती थी तथा उन पर मीनाकारी भी की जाती थी। सामान्य लोगों के द्वारा प्रायः धोती पहनी जाती रही है। यह सूती व रेशमी दोनों प्रकार की होती है तथा इसे धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करते समय पहना जाता रहा है।


स्त्रियाँ घाघरा पहनती रही हैं। यह कमर से ऐड़ी तक पहने जाने वाला लम्बा वस्त्र होता है। कलियों को जोड़कर चुन्नटों के द्वारा इसे ऊपर संकरा और नीचे घेरदार बनाया जाता था तथा ऐड़ी से कुछ ऊँचा रखा जाता था, जिससे कि पैरों के गहने भी दिखाई दें। मुल्तानी व सांगानेरी छींट के घाघरे भी बनाए जाते थे।


स्त्रियों के द्वारा कुर्ती व कांचली पहनी जाती रही है। कुर्ती में बाहें नहीं होती जबकि कांचली में बाहें होती हैं। ओढ़नी, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, राजस्थान की स्त्रियों का प्रमुख वस्त्र है। साधारणतया सूती, मलमल की ओढ़नी को रंगवाकर, गोटा लगवा लिया जाता था।


स्त्रियों की वेशभूषा के सम्बंध में विपुल संदर्भ उपलब्ध हैं। आरम्भ में राजस्थान के नारी वस्त्रों में बिना सिले खुले वस्त्रों को शरीर के निचले हिस्से में बाँधने की परम्परा रही थी लेकिन बाद में राजस्थानी स्त्रियों के तीन प्रमुख परिधान हुए, लहंगा, चोली तथा ओढ़नी। चोली को जामा के ऊपर पहना जाता था। कालांतर में कांचली व कुर्ती का प्रयोग भी होने लगा।


राजस्थान की विभिन्न शैलियों में बनाए गए मध्यकालीन अंकनों को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि मुख्य रूप से घाघरा, चोली व ओढ़नी पहने हुए, अंकन बनाए गए हैं। लहंगा विशेष रूप से बनाया गया। मेवाड़ शैली के चित्रों में विशेष रूप से राजस्थानी स्त्री व पुरुष परिधानों को बड़ी सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। मुगल प्रभाव के बाद कहीं-कहीं स्त्रियों को अंगरखी के समान वस्त्रों को पहनाए हुए चित्रित किया गया है। मुगल प्रभाव के कारण अनेक अंकनों में नायिकाएँ चूड़ीदार पायजामा, कुर्ती व ओढ़नी पहने हुए भी दिखाई देती हैं।


राजस्थान में स्त्री व पुरुष परिधानों के सम्बंध में विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उच्च वर्ग की स्त्रियों के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का उल्लेख पूर्व में किया गया है। मध्य वर्ग की स्त्रियाँ जम्फर, बगतरी व छोटी साड़ियाँ भी पहनती रही हैं जबकि निम्न वर्ग की स्त्रियाँ जुल्की, नांदणा व फेटिया पहनती रही हैं।


राजस्थानी में लिखे गए मध्यकालीन ग्रंथों में भी वस्त्रों का वर्णन आता है। सत्रहवीं सदी की एक पुस्तक में 'कपड़ चिंतावणी थिरमा' (ऊनी चादर) का उल्लेख इस तरह है


पहुना नगर सुहावनों, जहाँ करण बड़ भूप थिरमो लिशमीदास को........


पहुना का आशय उदयपुर क्षेत्र है, जो आज भी बुनाई के लिए मशहूर है।


अठारवहीं सदी की एक कृति 'बुद्धि विलास' में जैन कवि बखतराम शाह ने जयपुर के बाजारों में बिकने वाले रंगीन वस्त्रों का वर्णन इस तरह किया हैरंगरेज रंगरेज रंगत कहूँ पट सुरंग लहरिया जु बाँधत करि उमंग ।।8।। कहूँ शन्नी छीपे चूनरीन पोमचे बाँधी बेचत प्रवीन। 


राजस्थान में प्राचीनकाल से वस्त्रों की रंगाई का काम होता रहा है तथा रंगाई करने का काम रंगरेज़ या नीलगर करते हैं। पगड़ियाँ, साफे, ओढ़नी, घाघरे तथा अंगरखी विशेष रूप से रंगे जाते रहे हैं। ओढ़नी को पोमचा भी कहा जाता है, जिसका आशय है कमल के फूलों के अभिप्रायों से युक्त ओढ़नी।


ओढ़नी स्त्रियों के द्वारा पहना जाने वाला प्रमुख वस्त्र है। सुहागिन स्त्रियाँ अलग प्रकार की पहनती हैं, जिसे मलिक मोहम्मद जायसी ने समुद्र लहर या लहरपटोर का नाम दिया है। प्रतापसाही लहरिये के साहित्यिक संदर्भ का पूर्व में उल्लेख किया गया है। इसके अलावा राजसाही, भूपालसाही, डूंगरसाही व गंगधार लहरिए विशेष रूप से प्रचलित थे। गुलाबी, अंगूरी, सुआपंखी, शरबती, कसकसी, नारंगी, तोरम्या, अरदंग व लाल, पीले, काले व सफेद आदि रंगों से इनको बनाया जाता था।


फागुनी परिधान


लाल रंग में रंगी ओढ़नी चूंदड़ कहलाती थी। इसमें विशेष रूप से बंधेज की बिंदियों से तरह-तरह के आकल्पन बनाए जाते थे तथा इसे सौभाग्य प्रतीक माना जाता था। इसमें चाँद, फूल, तोता, हाथी, चकोर, मोर आदि अंकित किए जाते थेइन्हें सधवा स्त्रियों के द्वारा पहना जाता था। इसी प्रकार पीले, सफेद व लाल रंग में रंगी गई ओढ़नी जो फागुन माह में पहनी जाती थी, उसे फागणिया कहा जाता रहा है। फागुन आते ही प्रेयसी अपने प्रीतम से फागणिया रंगाने का आग्रह करते हुए कहती है


फागण आयो रसिया म्हानै


फागणियो रंगायदो।


विशेष प्रकार के फागणियों को मोतीकोर फागणिया या मोती कोरया बंदागर भी कहा जाता था क्योंकि इनके किनारों पर मोती टाँके जाते थे। इनके अलावा कोरवरया, घाट, वांदवन्या, खम्भा ओढ़ना, फंवरी, चाँदणी व सालू जैसी ओढ़नियाँ भी सधवा स्त्रियों की ओढ़नियाँ रही हैं।


विधवा स्त्रियों की ओढ़नियों के रंग अपेक्षाकृत गहरे और मटमैले होते थे। उनके द्वारा पहने जाने वाली ओढ़नियों को कोसोनया, फुमड़िया व पोमचना कहा जाता रहा है।


जहाँ तक स्त्रियों के अंगवस्त्रों का प्रश्न है, इनमें कांचली प्रमुख है, जिसे केंचुली, कार्यालका या कासरी शब्दों से भी जाना जाता था तथा वह कटोरीनुमा हिस्सा जो स्तनों को ढेंकता था, उसे उभी कहते थे। कांचली को कसने के लिए रंग बिरंगे फूंदने लटकाए जाते थे तथा बाँह और पेट को ढंकने वाला हिस्सा खरांक्या कहलाता था


आधुनिक ब्लाउज़ को पोलका कहा जाता है, इसका प्रयोग उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ होगा।


जहाँ तक पुरुष वस्त्रों का प्रश्न है, इनमें पगड़ी सहित अंगरखा, कमरबंध, धोती, जग्गा (घेरदार जामा), पायजामा व अंगा पहना जाता रहा है। मध्य वर्ग के लोग बगलबंदी भी पहनते थे तथा निम्न वर्ग के लोग छोटी धोती व लंगोटी का उपयोग करते थे। पुरुषों के द्वारा पहने जाने वाले अंगरखा को वागा भी कहा जाता था। उच्च वर्ग के लोग डगला, डोढ़ी तथा दोवड जैसे वस्त्र भी पहना करते थे। बगलबंदी भी अंगरखी की तरह बनावट का वस्त्र था लेकिन यह बाहों या बगलों के पास बाँधा या पहना जाता था, इसी कारण इसे बगलबंदी कहते थे।


गदल नामक एक मोटा वस्त्र सर्दियों में पुरुषों के द्वारा पहना जाता था। इसमें साटन के पीछे सूती कपड़ा लगाकर बीच में रूई भरकर बनाया जाता था। उल्लेखनीय है कि श्रीनाथजी के विग्रह को यह वस्त्र आज भी धारण कराया जाता है। पुरुषों के द्वारा जो पटके या कमरबंध बाँधे जाते थे वे सुंदर बेलबूटों से सुसज्जित होते थे।


विवाह में दूल्हे एक विशेष प्रकार का माँगलिक वस्त्र पहनते थे, जिसे अगताई कहा जाता था। यह लम्बी शेरवानी के समान सूती कपड़े का बना होता था। योद्धागण अपने शरीर के मध्य भाग की सुरक्षा के लिए जिरहबख्तर पहनते थे।


अधोवस्त्र के रूप में विभिन्न प्रकार की धोतियाँ पहनी जाती थीं, जिसे धावत्या या पोत के नाम से पुकारा जाता था। किसान दो लांग वाली तथा साहूकार व ब्राह्मण एक लांग वाली धोती पहनते थे। उच्च वर्ग के पुरुष चूड़ीदार पायजामा पहना करते थे।


बच्चों को छोटी धोती और कुर्ता पहनाया जाता था। लड़कों को पहनाए जाने वाली धोती को पल्लिया कहते थे। छोटी लड़कियों को घाघरा-चोली पहनाई जाती थी।


यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि राजस्थान में उत्सवों के अनुसार वस्त्र पहने जाने की परम्परा है। उदाहरणार्थ बेटे के जन्म पर पीला और बेटी के जन्म पर गुलाबी पोमचा दिया जाता है व इन्हें पहना जाता है। पोमचे के अलावा श्रावण में विशेषकर तीज के अवसर पर राजस्थान की स्त्रियाँ लहरिया भाँत की ओढ़नी पहनती हैं तथा पुरुष पगड़ी। पंचरंग लहरिया का विशेष महत्व है। यहाँ इसका दार्शनिक अर्थ है।


राजस्थान में बद्ध तकनीक से बनाए जाने वाले बंधेज बहुत लोकप्रिय हैं। चुनरी राजस्थान के जनजीवन का अंग है। जोधाणा अर्थात् जोधपुर की बनी चुनरी के रंग बड़े चमकीले होते हैं तथा वह टिकाऊ भी होती है। इसके अलावा सीकर बंधेज भी लोकप्रिय है।


राजस्थान में कढ़ाई भी बहुत सुंदर होती है। सीकर जिले का खण्डेला कस्बा गोटा उद्योग का केन्द्र है


जहाँ तक पहाड़ी वस्त्रों का प्रश्न है, विभिन्न पहाड़ी शैलियों में जो अंकन हुए हैं, उनसे यह विदित होता है कि पहाड़ी परिधान प्रायः उसी प्रकार के परिधान रहे हैं, जो राजस्थानी परम्परा में पहने जाते रहे हैं।


पुरुष परिधान प्रायः दो प्रकार के मध्यकालीन पहाड़ी लघुचित्रों की विभिन्न शैलियों में दिखाई देते हैं। पहले प्रकार में पुरुषों को लांग वाली धोती, उत्तरीय तथा पटका पहने हुए चित्रित किया गया है। दूसरे प्रकार के लघुचित्रों में उन्हें सलवार, जामा जिसे बाँहों के पास रिबिन से बाँधा जाता था, उसे पहने पुरुष आकृतियों को चित्रित किया गया है। विद्वानों का अनुमान है कि यह पोषाख मुगलों के प्रभाव के कारण पहनी जाती थी व तदानुसार ही इसे चित्रित किया जाता था। जैस-जैसे पहाड़ी लघुचित्रों में अंकित किए गए पुरुषों की पोषाखों में भी परिवर्तन हुआ।


औरंगजेब के समय में जो जामा पहना जाता था, वह घुटनों तक नहीं आता था तथा बाँह के पास उसमें फुदने हुआ करते थे। इस प्रकार का जामा आरम्भिक बसोहली शैली के चित्रों में दिखाई देता है। इसी प्रकार औरंगजेब के बाद के शासनकाल में जो कुछ आगे की ओर झुकी हुई पगड़ियाँ पहनी जाती थीं, वैसी पगड़ियों को भी पहाड़ी लघुचित्रों में चित्रित किया गया है। औरंगजेब के समय आगे की ओर थोड़ी झुकी हुई जो पगड़ी पहनी जाती थी, उसी प्रकार की पगड़ी बूंदी के शासकों के द्वारा भी पहनी जाना चित्रित किया गया है।


पगड़ी व राजस्थानी कलमों के लक्षणों के पारस्परिक समन्वय को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि इन कलमों ने एक-दूसरे के प्रभावों को ग्रहण किया। यह भी ज्ञात होता है कि सत्रहवीं सदी के अन्त में बसोहली व चम्बा कलमों में विशिष्ट पगड़ियाँ चित्रित की गई। कुछ पगड़ियाँ ऐसी हैं, जिनमें ताजे फूल भी लगाए गए हैं। यह एक विशिष्ट लक्षण है। बुंदेलखण्ड के बिजना ठिकाणे में ईस्वी सन् 1808 में जो लघुचित्र बने, उनमें अधिकांश में पगड़ियों में ऊपर फूल लगाए गए चित्रित किए गए हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह प्रथा परवर्ती काल में प्रचलित हुई होगी। यह भी ज्ञात होता है कि कतिपय चित्रों में पुरुष आकृतियों ने चोगा टोपी को पहन रखा है। कुल्लू शैली में पुरुष आकृतियों ने तिकोनी पगड़ियाँ पहन रखी है। ____ फर्रुखसियर और मोहम्मद शाह के समय में, जो पोषाख, विशेष रूप से पगड़ियाँ पहनी गई, उनका अनुकरण पहाड़ी शैली के लघुचित्रों के अंकन में हुआ। इसी प्रकार कांगड़ा के शासक संसारचंद व गुलेर शासकों ने उस कमरबंद को अपनाया, जो अहमद शाह के समय में प्रचलित था। इसी प्रकार का कमरबंद अवध के नवाबों में भी लोकप्रिय हुआ।


विविध प्रादेशिक वस्त्र अलंकरण - एक परिचय


जम्मू शैली के लघुचित्रों में कमरबंद चौड़े व मोटे चित्रित किए गए हैं तथा वे दायीं और बाँधे जाते हैं। पहाडी चित्रों में ऐसे फर के कोट को भी पुरुष आकृतियाँ पहने हुए हैं, जो जामे के ऊपर पहना जाता था। कुल्लू कलम में एक विशेष प्रकार की टोपी दिखाई देती है, जिसमें कुलह लगी हुई होती है। इसी प्रकार गुलेर शैली के अंकनों मे जिस टोपी को प्रायः गोप पहनते हैं, उस पर ऊपर लाल मोटी गाँठ लगी हुई दिखाई देती है।


कृष्ण के सखा गोप कमर में पटका बाँधे हुए व जांघिया पहने हुए दिखाई देते हैं। वे एक ऊनी दुशाला भी ओढ़े हुए चित्रित किए गए हैं जिसे पहाड़ी भाषा में गोट्टी कहा जाता है। बाल कृष्ण को कुर्ती व कभी-कभी छोटे जामे पहने भी चित्रित किया गया है।


अवध के शासकों की पोशाकों से भी पहाड़ी पोशाक प्रभावित रही। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि पहाड़ी कलम में चाकदार जामा अनुपस्थित है क्योंकि यह अकबर व जहाँगीर के समय में प्रचलन में था तथा इस समय तक पहाड़ी शैलियाँ अस्तित्व में नहीं आई थीं। पहाड़ी शैलियों की पोषाखों पर मुख्य प्रभाव औरंगजेब के समय की पोषाखों का है क्योंकि औरंगज़ेब के समय में ही पहाड़ी शैलियों का विकास हुआ।


जहाँ तक पहाड़ी शैलियों में बने अंकनों में चित्रित महिलाओं की पोशाकों का प्रश्न है, इनमें तीन प्रकार से वस्त्र विन्यास को चित्रित किया गया है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है, पहाड़ी कलमों के अंकन मुगलों से काफी प्रभावित रहे। इसलिए महिलाओं को पायजामा या सलवार, चोली तथा पेशवाज पहने हुए चित्रित किया गया है। पेशवाज एक पारदर्शी व लम्बा वस्त्र हुआ करता था। वे पटका भी पहने हुए हैं, जो अलंकृत भी है और सादे भी। बसोहली शैली के आरम्भिक अंकनों में शाहजहाँ व औरंगजेब के समय पहने जाने वाली ओढ़नी को चित्रित किया गया है। इस प्रकार की ओढ़नी कांगड़ा कलम में नहीं है।


दूसरे प्रकार के अंकनों में ऐसे पायजामे को महिलाओं को पहने दर्शाया गया है, जिन्हें सूथन कहते हैं। एक लम्बा गाउन पहने महिलाएँ चित्रित की गई हैं, जिन्हें जगूली के नाम से सम्बोधित किया गया है। यह यदि मोटे कपड़े की होती है, तो इसे डोरू कहते हैं, जिसे निर्धन लोग पहनते हैं। इनके अलावा चोली, ओढ़नी व दुपट्टा ओढ़े स्त्री आकृतियाँ चित्रित की गई हैं। कांगड़ा की बालोरी रानी को पगड़ी पहने हुए भी अंकित किया गया है। राजशाही गाउन पहने राधा चित्रित की गई हैं।


तीसरे प्रकार के वस्त्र विन्यास में महिलाओं को घाघरा, चोली, ओढ़नी अथवा चद्दर व पटका पहने हुए अंकित किया गया है। चोली '५' आकार की है। सिख कलम के चित्रों में पायजामा, कुर्ती, जैकेट व पगड़ी पहने आकृतियाँ चित्रित की गई हैं।


गढ़वाल शैली में पोशाकें पहाड़ की अन्य शैलियों से किंचित भिन्न हैं। गढ़वाल तथा कुमाँऊ में जो परिधान पहने जाते रहे, वे वहाँ की जलवायु की आवश्यकता के अनुसार निर्मित किए गए। यहाँ पुरुष वर्ग के द्वारा पायजामा अधिकतर पहना जाता है तथा सिर पर टोपी व छाती के हिस्से पर कोट पहना जाता है। ठण्ड के समय लम्बे लबादे व ऊन के बुने हुए दुशाले पहने जाते हैं। ऊन के वस्त्र पहने जाते रहे हैं। भाग के रेशे से निर्मित वस्त्र भंगोला के नाम से भी जाने जाते हैं।


गढ़वाल क्षेत्र में पगड़ी को मुन्यासा तथा मुख्य शरीर के वस्त्र को जो ऊन या भांग के रेशे से निर्मित होता है, गाती कहा जाता है। बिना बाहों वाले ऊन से निर्मित होता है, गाती कहा जाता है। बिना बाहों वाले ऊन से निर्मित कोटनुमा वस्त्र को दोखी कहते हैं। धोती आम वस्त्र है। अंगरखा, चूड़ीदार पायजामा और साफा आमतौर पर पहना जाता है। विशेष प्रकार की पहाड़ी टोपी यहाँ की विशेषता है।


जहाँ तक देश के पूर्वी अंचल का सम्बंध है बंगाल और आसाम में जो लघुचित्र बने, उनसे वहाँ पहने जाने वाली पोशाकों के सम्बंध में स्थिति स्पष्ट होती है। कालीघाट शैली के लघुचित्रों से बंगाल में उत्तर मध्यकाल में जो पोशाकें पहनी जाती थीं, उनके सम्बंध में स्थिति स्पष्ट होती है। वहाँ लम्बे वस्त्रों को पहनने का प्रचलन था तथा अधिकांश पोशाकों पर ब्रिटिश प्रभाव था। यही स्थिति आसाम के मध्यकालीन लघुचित्रों में दिखाई देती है। उत्तरीय, धोती व कुर्ता पहने आकृतियाँ दिखाई देती हैं। आसाम व बंगाल की महिलाएँ साड़ी पहनती हैं तथा इन्हें तत्कालीन लघुचित्रों में चित्रित किया गया है।


देश के अन्य भागों में भी प्रायः वही परिधान पहने जाते रहे हैं, जिनका उल्लेख पूर्व में किया गया है। देश के मध्यांचल में, मालवा शैली में पन्द्रहवीं सदी से अंकन आरम्भ हुए। इन अंकनों में धोती, जामा व कुर्ता पहने पुरुष तथा साड़ी व चोली पहने हुए महिलाओं को चित्रित किया गया है। माण्डू कल्पसूत्र में जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है, स्थानीयता के आधार पर वस्त्र चितेरों ने बनाए हैं। मध्य भारत में जो पोषाखें राजस्थान में पहनी जाती रहीं, बहुत थोड़े अन्तरों के साथ वही पोषाखें इस अंचल में भी पहनी गई।


जहाँ तक मराठा शैली के अंकनों का प्रश्न है, उनमें लम्बा कुर्ता व उत्तरीय पहने पुरुषों को चित्रित किया गया है। इस उत्तरीय को इस अंचल में उपर्णा के नाम से सम्बोधित करते हैं। कृष्ण को विठोबा की तरह चित्रित किया गया है, जिन्होंने धोती पहन रखी है। विशेष कर खानदेश तथा विदर्भ में नववारी साड़ी पहने हुए महिला आकृतियाँ चित्रित की गई हैं।


देश के पश्चिमी अंचल में, विशेषकर गुजरात में जो लघुचित्र बने, उनमें अपभ्रंश शैली में जिन पोषाखों को बनाया गया है, वही चित्रित हैं। सुदूर कच्छ में जो लघुचित्र बने उन पर गुजराती व राजस्थानी प्रभाव दिखाई देता है।


उक्त विवेचन से देश के विभिन्न अंचलों में प्राचीनकाल व मध्यकाल में पुरुषों व महिलाओं के द्वारा पहने गए परिधानों के सम्बंध में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य स्पष्ट होता है।


भारतीय संस्कृति की सामासिकता इन परिधानों में स्पष्ट होती है तथा यह सामासिकता सिद्ध करती है कि भारत विविधता से परिपूर्ण ऐसा देश है, जहाँ इस वैविध्य के इन्द्रधनुषी रंग तो विद्यमान हैं ही यह देश अपने आपमें एक ऐसा अपूर्व क्षितिज भी है, जहाँ समन्वय के फलस्वरूप ऐसी एकता दिखाई देती हैं, जो विश्व में अन्वत्र दुर्लभ है।