बुन्देलखण्ड की वस्त्र निर्माणकला

भारत का हृदय स्थल बुन्देल खण्ड के अन्तर्गत मध्य प्रदेश के सागर सम्भाग के निवाडी, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना रमोह, सागर जिला ग्वालियर सम्भाग को अशोकनगर, दतिया जिला शिवपुरी जिला की पिछोर करेरा तहसील एवं भिण्ड जिला की लहार तहसील आती है। उत्तर प्रदेश के झांसी सम्भाग के ललितपुर, जालौन एवं झांसी, वादा सम्भाग के हमीरपुर, महोबा, चित्रकूट एवं वादा के जिला आते है। बुन्देलखण्ड में चित्रकला, स्थापत्यकला, काष्ठकला, लोहकला के साथ-साथ वस्त्र निर्माण कला का भी विकास हुआ, बुन्देलखण्ड के वस्त्र निर्माण कला का निवारण इस प्रकार है :



बुन्देलखण्ड में वस्त्र निर्माण कला अन्य कलाओं की तुलना में पीछे नहीं थी बल्देवगढ़ तथा चन्देरी की साड़ियाँ जितनी विख्यात थी, उतनी ही मऊ-रानीपुर की छपाई एवं रंग बनाने की कला भी थी, वस्त्रों का रंजन पर्व छपाई का कार्य यही प्रारम्भ था। चन्देल कालीन खजुराहो के पश्चिमी मंदिर समूह में बनी नायिकाओं के वस्त्रों पर बूटे एवं पुण्य इस बात के प्रमाण है, कि नौवी-दसवीं शती ईस्वी में भी बुन्देलखण्ड छपाई की कला में अग्रनण्य था, चन्देरी की वस्त्र निर्माण कला में साफे बहुत बनाये जाते थे। बिजावर राज्य में भडोंरी, चन्देरी का सेला, वाला बन्द सेला, लहरियादार तथा सलमें सितारे के साफे चन्देरी के ही बने होते थे, ये साफे 376 तथा 26 नम्बर की मलमल के बनाये जाते थे, जो चन्देरी के थानों पर अंकित होते थे।


वस्त्रों की छपाई एवं रंजित करने का कार्य मऊ-रानीपुर में दीर्घकाल से होता चला आ रहा है। बहुत पैमाने पर एवं दीर्घकाल से होने के कारण वस्त्र रंजन कला में निष्णात कलाकारों की छीप्पी नामक एक जाति का ही वर्गीकरण हो गया है। रानीपुर का टेरीकाट का उदयोग अपना एक विशिष्ट स्थान बनाता जा रहा है। यहाँ का टेरीकाट बाहर भी भेजा जाने लगा है।


अन्य कलाओं की उन्नति के साथ बुन्देलखण्ड में कालीन तथा दारियाँ बनाने की कला का थथेष्ठा उत्थान हुआ। दतिया राज्य के कला प्रिय महाराज पारीक्षत (1801-1839 ईस्वी) को झांसी की कालीन तथा दरियाँ विशेष प्रिय थी, स्वदेशी के दासत्व काल में इन कलाओं का मुलोबोधन हो गया था। वर्तमान युग में कालीन निर्माण कला पुनः उत्तरोत्तर का श्रेय श्री श्याम छावड़ा, सदर बाजार के ओमशरण गुप्ता तथा श्री प्रीतमदास शिवहरे को है, कालीन निर्माण की तकनीकी को जीवित रखने का श्रेय ग्वालियर के कालीन निर्माता कारीगरों को है।


कालीन बनाने की कला में बुनाई को बाई ओर से दाहिनी ओर ले जाने के लिये प्रयुक्त तकनीकी शब्दों को बच्चा तथा दाहिनी और से बाई ओर को बुनाई पूरी करने के लिए तकनीकी शब्द को 'चाल' कहते है, फन्दे के ऊपर दूसरे फन्दे के थाने के न्यापी कहा जाता है। इस कार्य को आठ-नौ वर्ष के बालकों से लेकर वृद्ध व्यक्ति तक सभी कर सकते है। कालीन बनाने की कला में ऊन को रंजित करना बड़ा महत्त्व का कार्य होता है। उन की रंगाई यदि कुशल हाथों से की जाती है, तो कालीन प्रक्षालन के उपरान्त उसमें मनोरम चमक उत्पन्न हो जाती है और यदि उन रंजन का कार्य अरब कारीगरों द्वारा सम्पन्न होता है, तो कालीन प्रक्षालन के पश्चात् सम्पूर्ण रंग प्रक्षालित हो जाते है तथा बुनाई में व्यय की गई श्री. श्रम एवं समय सभी निष्फल रहते है। अतिविकसित अर्थ व्यवस्था होने पर इनका पुनस्थान दुष्कर कार्य हो जाता है।


कालीन का विक्रय 100-200 रुपये प्रति वर्गफीट की कम से कम दर से होता है। कालीनों को बनाने के लिये नाना विधि रंजित आलेखन तैयार आते है, जिसमें रंगों की संगाति होती है। इसी आलोवन को देखकर बालक कालीन के रंग तथा फन्दो की सख्या बोलता तथा दूसरा श्रवण मात्र से कालीन में फन्दे लगाता जाता है, कंचन कार्पेट कम्पनी फोजदारी मुहल्ला ग्वालियर म.प्र. में कालीनों के बने बनाये नक्शे, ऊन की रंगाई का कालीनों की धुलाई के लिए उत्तम केन्द्र है। इस कला कौशल के अधिकाश ज्ञाता मुसलमान है। झांसी के प्रीतमदास शिवहरे केन्द्र पर कार्यरत कारीगर सलीम, हलीम तथा मुकीम ग्वालियर थे, ग्वालियर में कालीन बनाने के केन्द्र लशकर, मुरार, तथा ग्वालियर खास में है। झासी बरूआ सागर, टीकमगढ़, मऊ-रानीपुर में कालीन बनाने के अन्य नये स्थापित केन्द्र है।


बुन्देलखण्ड की वस्त्र निर्माण कला से संबंधित जानकारी की जीर्ण शीर्ण टाईप प्रति मुझे श्री दीपक कुमार महाशब्दे तत्कालीन रजिस्ट्रीकरण अधिकारी इन्दौर द्वारा दी गई थी इसी के आधार पर आलेख तैयार किया गया है।