एक रात में बैकुंठ

रे दादाजी पंडित पन्नालालजी शर्मा कहा करते थे कि राजस्थान के सवाईमाधोपुर एवं करौली जिलों में पांच स्थान ऐसे हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि यदि उन्हें एक रात में देख लिया जाए तो सीधे बैकुंठ की प्राप्ति होती है। वे कहते थे कि उन्हें इन्सानों ने नहीं बल्कि प्रेतों ने बनाया है। ये स्थान हैं- बिनेगा ग्राम का अश्व. कसांय गांव का कआं. कतकपर ग्राम का वट वक्ष. ढिंढोरा गांव की बावड़ी तथा मंडरायल कस्बे का किला। मैं, बचपन से वयस्क होने तक उनकी वह बात मौकेबेमौके सुनता रहा था। दादाजी की उस बात की पुष्टि कुछ स्थानीय बुजुर्गों ने भी की थी। अतः, उन - जगहों को एक बार देख लेने का मोह कई बार मन में उपजा। उस जनश्रुति की पुष्टि वहां जाए बिना हो भी नहीं सकती थी। फिर, एक दिन डॉयरी और कैमरा लेकर निकल पड़ा उन स्थानों की ओर।



मैंने गंगापुर सिटी से अपनी यात्रा आरंभ शकी, क्योंकि वहां से बिनेगा गांव बहुत नजदीक है। महज आठ किलोमीटर - "


हिनहिनाती अश्वपतिमा और चमत्कारी नौके


बिनेगा ग्राम सवाईमाधोपुर जिला के गंगापुर सिटी से हिन्डौन सिटी की ओर जाने वाले सड़क मार्ग पर है। इस छोटे से गांव का इतिहास भी बड़ा रोचक है। पास के कस्बे छोटी उदेई की एक कन्या ने विवाहोपरांत अपने पिता से जीवनयापन के लिए कुछ जमीन देने की गुजारिश की तो पिता ने कह दिया कि जो भी जमीन उसे पसंद आए और जितनी भी जमीन चाहिए, उसका एक चक्कर लगा ले तो वह उसे उतनी ही जमीन दे देगा। उस लड़की ने अपने गुजारे लायक आमदनी का अनुमान लगा कर एक निश्चित क्षेत्रफल चुना और कालांतर में वही बिनेगा ग्राम कहलाया। यहां, सड़क के किनारे ही चालीस फुट लम्बे तथा पैंतीस फुट चौड़े चबूतरे पर घोड़े की एक प्रतिमा नजर आती है। इसे घोड़े वाला पठान कहा जाता है। आस पास के सात गांवों में मान्यता है कि यह प्रतिमा चोरों से ग्रामवासियों की रक्षा करती है। अगर कोई चोर घुस आए तो यह हिनहिना जाती है। उसी भय से चोरों ने अनेक बार उस मूर्ति का मुंह और पूंछ तोड़ी। गाववासी उसकी मरम्मत करते रहे। एक बार किसी ने अश्व प्रतिमा के चारों पैर तोड़ दिए। इसका भी पुननिर्माण किया गया। अश्व की पूंछ से लटके एक बंदर की नन्हीं प्रतिमा भी घोड़े की मूर्ति के टूटने से पहले हुआ करती थी। अब नहीं है। चबूतरे पर जड़े चौकों की संख्या लगभग सौ बतायी जाती है। कहा जाता है कि इसे आज तक कोई भी सही नहीं गिन पाया। यह गिनती कभी 101 होती है तो कभी 99 रह जाती है। बिनेगा के ग्रामीणों ने बताया कि 1927 में एक अंग्रेज सरकार की ओर से एक नाजिम यहां आए थे और वे जयपुर रियासत द्वारा घोड़े वाले बाबा के नाम बख्शी गयी पांच बीघा जमीन को जब्त करना चाहते थे। जब गांव वालों ने कहा कि ये पठान बाबा हैं और हमारे पूज्य हैं, अतः इनकी जमीन जब्त मत करो। पर, वह राजी नहीं हुआ। तब, उन्हें चौकों की संख्या घटने-बढने के चमत्कार के बारे में बताया गया तो उसने, उस बात को झूठा बताते हुए गिनने की कोशिश की। हर बार घट-बढ़ हो जाती थी। फिर नाजिम ने चांदी के सौ सिक्के निकाले और हरेक चौके पर एक-एक सिक्का रख दिया। पहली बार एक सिक्का


बच गया यानी चौकों की संख्या निन्यानवे आयी। दूसरी बार फिर कोशिश की गयी। इस दफा एक सिक्का कम पड़ गया अर्थात चौकों की संख्या एक सौ एक हो गयी। हार कर नाजिम ने जमीन जब्त करने का इरादा छोड़ दिया।


- नौ हाथ की शिलाओं वाला कुआं


इसी मार्ग पर कुछ आगे चलकर कुसांय गांव है। प्राचीन काल में इसका नाम कुसावा बताया जाता है। यहां कुशवाहा राजपूत काबिज थे, कदाचित कुशवाहा से ही कुसावा होकर कालांतर से कुसांय हो गया। सड़क के किनारे वह प्राचीन कुआं है, जिसे नौ हाथ लम्बी शिलाओं से चुनाई करके बनाया गया बताते हैं। कुसांय के ठाकुर पूरणसिंह जी की इतिहास में गहरी रूचि थी। बहुत साल पहले, इस लेखक की मुलाकात ठाकुर साहब से उनके किले में हुई थी तो उन्होने बताया कि उनके वंशज यहां चार सौ वर्ष पूर्व यहां आए थे और उन्होंने यह किला बनाया था लेकिन कुआं उससे भी पहले का है, संभवतः प्रागैतिहासिक काल का है क्योंकि एक बार इसमें से आदमकद के दो मटके निकले थे, जो लाल रंग की मिट्टी से निर्मित थे। उन पर पक्के रंगों से चित्रकारी भी की हुई थी उन मटकों को पुरातत्व विभाग वाले ले गए। ठाकुर साहब ने बताया था कि कुएं में दो प्राचीन खंब भी अवस्थित हैं। जिनका कुएं में होना भी एक रहस्य है। उनका कहना था कि नौ हाथ लंबी शिलाओं से कुएं का निर्माण किसी इंसान के बस का नहीं। इसे निश्चित ही किसी प्रेत शक्ति ने बनाया होगा। कुएं की मुंडेर के नीचे एक शिलालेख भी लगा हुआ था, जो अपठनीय ही रहा ।


बारह बीघे में फैला था बड़


इसी सड़क मार्ग पर कटकड़ नदी पार करने के बाद, ढाई-तीन हजार की आबादी वाला कुतकपुर गांव है। इसी गांव में था बारह बीघे में फैला हुआ बड़ का पेड़। कहा जाता है कि उस पर इतने पक्षी रहते थे कि आस पास के खेतों से उनके द्वारा लायी हुईं अन्न की जितनी बालियां नीचे गिर जाती थीं, उन्हें बीन कर वहां रह रहे, एक वृद्ध दम्पति वर्ष भर की अपनी रोटियों का जुगाड़ कर लेते थे। एक बुजुर्ग बोला कि उस दरख्त पर बैठे पक्षी बारह मन वजन के बराबर अनाज की बालें गिरा देते थे और वह वृद्ध परिवार उन्हें एकत्र कर अपना साल भर का काम चला लेते थे। मुझे बताया गया कि वह दरख्त कभी का खत्म हो गया। एक अन्य सज्जन ने बताया कि वैसा पेड़ अब धरती पर नहीं उग सकता। उसे उगाना किसी प्रेतात्मा के वश का ही था। उस, महावृक्ष के नष्ट होने के बाद कुतकपुर गांव में दो विशाल वट वृक्ष और हुए थे। यद्यपि वे उतने बड़े तो न थे पर इतने छोटे भी नहीं थे। एक वृद्ध किसान ज्ञाना ने मुझे वह स्थल बताया जहां बारह बीघे का बड़ हुआ करता था। अब, वहां एक जर्जर कुआं और एक मजार है। जब मैंने पूछा कि क्या आपने उस वट वृक्ष को देखा था तो वह बोला, "देखा तो नहीं बाबूजी! हमने तो क्या हमारे बाप-दादों ने भी नहीं देखा।" लेकिन गांव के कुछ लोगों ने यह अवश्य कहा कि बाद में उत्पन्न हुए, दूसरे वृक्षों को उनके बाप-दादों ने देखा था। मास्टर गुलाम मोहम्मद बोले, "इस गांव को कुतुबद्धीन एबक ने बसाया था और उसी के नाम पर कुतकपुर पड़ा। हमारा गांव बड़ों के पेड़ की वजह से विख्यात रहा है। बाद के जो तीन दरख्त हुए, उनमें से तीसरे वट वृक्ष के आखिरी निशान को तो हमारे गांव के अनेक बुजुर्गों ने अपनी आंखों से देखा था। उस तीसरे और अंतिम वृक्ष ने हमारे आधे गांव को घेरा हुआ था। मैंने वहां मौजूद सबसे वृद्ध नसीर खां साहेब से जब सवाल किया कि क्या उन्होंने अंतिम वट-वृक्ष के या उसके वजूद होने की किसी निशानी के दीदार किए थे तो वे बोले, "नहीं मैंने उसे नहीं देखा।"


वो ढिंढोरा की बावड़ी


अब, मेरा रूख ढिंढोरा की बावड़ी की ओर था। यहां मेरे साथ हिण्डौन के कार्टूनिस्ट मुकेश शर्मा भी साथ चल दिए थे। हिन्डौन से बयाना की ओर जाने वाले सड़क मार्ग पर ढिंढोरा गांव है। यहां हमें एक प्राचीन बावड़ी के भग्नावशेष के दीदार हुए। खंडहर बताते हैं कि कभी यह बावड़ी बेहद कलात्मक रही होगी। बावड़ी के घाटों में लगे पत्थरों पर मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी थीं। बावड़ी के क्षतिग्रस्त होने में मूर्ति चोरों का भी बड़ा हाथ रहा है। बावड़ी के चारों कोनों पर चार कुएं थे। पास में एक मस्जिदनुमा इमारत है, जिसे बारह खंबा कहा जाता है। नजदीक ही एक मजार है। थोड़ा आगे कब्रिस्तान है। ढिंढोरा के एक वृद्ध नाथू पटेल ने बताया कि प्रेत कभी भवनों का निर्माण नहीं करते बल्कि पूर्व निर्मित निमाणों में ही निवास करते हैं। इस बावड़ी पर एक जिन्न रहता था जिसे हेलक गांव का एक तांत्रिक बोतल में बंद करके ले गया था और उसने उस प्रेत को गांव की एक लड़की के विवाह में दहेज में दे दिया था। इस प्रकार वह जिन्न दहेज में दिल्ली चला गया था। एक पढे लिखे व्यक्ति भीम सिंह ने बताया कि इस बावड़ी का निर्माण, कुतुबुद्धीन एबक के एक मंत्री ने तेरहवीं शती में करवाया था। जो अपने समय में बेहद भव्य और कलात्मक थी।


सूर्य पौल, जहां सूर्य का प्रकाश सदा रहे


अब तक मैं एक ही दिशा में दक्षिण से उत्तर की ओर आगे बढता रहा था। अब, दिशा परिवर्तन हुआ उत्तर से पूर्व की ओर। और अब मैं पहुंचा, करौली नगरी। एक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल। कैलादेवी तथा मदनमोहनजी के मंदिर यहां आस्था के बड़े केन्द्र हैं। यहां मेरे साथ जुड़े पत्रकार श्री कृष्णगोपाल शुक्ला। करौली से निकल कर हम, मंडरायल की दिशा में अग्रसर हुए। चंबल नदी से कुछ पहले ही मंडरायल का किला नजर आ जाता है और पास में ही है, कस्बा मंडरायल। माण्डव्य ऋषि ने यहां तप किया था अतः कस्बे का नाम मंडरायल पड़ा। यह कस्बा स्वाधीनता से पूर्व करौली रियासत के आधीन रहा था। मंडरायल का किला सामरिक महत्व का था और इसी किले में है, अदभुत सूर्य पौल। कहते हैं कि सूरज चाहे जिस दिशा में हो, यहां दिन भर सूर्य की रोशनी रहती है। मंडरायल के अनेक लोगों से मैंने उस पौल में पूरे दिन रोशनी रहने का रहस्य पूछा तो वे कोई संतोषपूर्ण जवाब नहीं दे पाए। किले में अपनी जवानी के दिन काटने वाले एक सौ वर्ष से अधिक के एक बुजुर्ग गंगाधर वैद्य ने बताया कि दरअसल उस पौल में एक ऐसा टेलीस्कॉपिक सूराख है जहां से झांको तो पूरे दिन सूरज नजर आता है और उस अनूठी शिल्पकारी जब लोगों को समझ न आयी तो उन्होंने उसे प्रेत निर्माण से जोड़ दिया। मैंने देखा कि किले की हालत बेहद खस्ता है। गुप्त खजानों और ऐतिहासिक शिल्प सामग्री की तलाश में लुटेरों इसे बुरी तरह खोद डाला है।


निष्कर्ष और ऐतिहासिक संदर्भ


उपरोक्त स्थलों के लोक मिथकों से हटकर विचार करने तथा इनके भौगोलिक और ऐतिहासिक संदर्भ तलाशने पर जो निष्कर्ष निकले हैं, उनसे ये बातें सामने आयी हैं


1. अधिकांश निर्माण बारहवीं सदी या उसके बाद के हैं और ये करौली क्षेत्र से निकलने वाले लाल बलुआ पत्थर से निर्मित हैं।


2. इन जगहों के पास जिन्न के थान, पीर की मजार और मस्जिद आदि हैं।


मजार और मस्जिद आदि हैं। 3. प्राचीन भारत में व्यापारिक और सामरिक महत्व वाले मार्गों को सार्थवाह कहा जाता था। आगरा से मांडू और दिल्ली से रणथंभोर का एक उपमार्ग इस क्षेत्र से गुजरता था। इसकी दूरी लगभग 232 किलोमीटर थी। तुजक-ए-जहांगीर में अलाउद्दीन खिलजी के रणथंभौर कूच में हिंडोन का जिक्र है। इससे आगे पड़ने वाले कस्बों वजीरपुर, सलेमपुर, तथा कुड़गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि खिलजी सुल्तान उन जगहों से होता हुआ रणथंभौर गया था। खजाएनुल फुतूह एवं देवलरानी ग्रंथों में दिल्ली से रणथंभौर की दूरी मात्र तीन दिन, घुड़सवारी द्वारा बतायी गयी है। तीन दिनों में यह दरी इसी उपमार्ग से संभव थी। यह दुर्गम और कष्टसाध्य मार्ग था और उसका कारण था, इस क्षेत्र में फैला घना और कंटीला जंगल। डंडाथूहर नामक कंटीली वनस्पति भी यहां की यात्रा में बहुत बाधक थी। इस घनघोर जंगल में यात्रीगण भटक नहीं जाएं, इसलिए इस वन्य क्षेत्र के सौ किलोमीटर के दायरे में कुछ ऐसे निर्माण बतौर संकेतक बना दिए गये ताकि राहगीर भ्रमित नहीं होकर सही सही चलता रहे। इन स्थानों को विख्यात करने हेतु कुछ कथाएं एवं मिथक गढ़ दिए गए। जिनमें एक रात में बैकुंठ वाला मिथ भी है। इस प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि हिंसक वन्य जीवों से भरे इस भयानक जंगल से जो भी सकुशल गुजर गया अर्थात जिसकी भोर मंडरायल में हुई यानि जिसने सूर्य पौल और उस पौल में खड़े होकर चंबल नदी के दर्शन कर लिए तो समझो कि वह भवसागर तर गया और उसे बैकुंठ प्राप्ति जीते जी हो गयी।