हाडौती के परम्परावात वस्त्र छापे

राजस्थान की पारस्परिक हस्तकलाओं में वस्त्रकला का प्रमुख स्थान रहा है। यहाँ के वस्त्रों में जितनी रंगीनी है, उतनी अन्य प्रदेशों में दृष्टिगत नहीं होती। यहाँ के वस्त्रों की मुख्य विशेषता है- रंगों की विविधता और स्थायी चमक, जिसकी छटा तीज- त्यौहारों, हाट-बाजारों, शादी-विवाहों तथा मेलों और उत्सवों के दौरान सहजता से देखी जा सकती है।



जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह (1688-1743 ई.) ने अपने काल में वस्त्रों की रंगाई-छपाई कला को प्रोत्साहन दियासवाई माधोसिंह ने अपने काल (1880-1922 ई.) में राज्य में निर्मित वस्त्रों की प्रदर्शनी लगवाई, जिसमें 'लहरिये' भी शामिल थे। उस जमाने में कभी जाति-बिरादरी के लोग, चाहे वे अमीर हो या गरीब, रईस हों या जागीरदार अथवा राजा-महाराजा ही क्यों न हों, रंगाई-छपाई एवं बंधेज के वस्त्रों को खूब चाव से पहनते थे। एक समय ऐसा था, जब यहाँ के वस्त्रों की विशेष पहचान थी। लेकिन कालान्तर में कई क्षेत्रों में यह कला समाप्त होती चली गई, जिनमें हाड़ौती अंचल भी शामिल है। हाड़ौती में वस्त्र निर्माण कला के प्रमुख केन्द्र नदियों के किनारे स्थित ग्राम और कस्बे थे। रंगाई-छपाई के वस्त्र तैयार करने में पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होने के कारण ही यह काम नदियों के किनारे फला-फूला।


हाड़ौती अंचल में रंगाई-छपाई और बंधेज के प्रमुख केन्द्र कोटा जिला में सकतपुरा, नान्ता, खेड़ारसूलपुर, कैथून, सुल्तानपुर, बड़ौद, मुडावरा, पीपल्दा, करवाड़, खातौली, कनवास, सांगोद, चेचट आदि स्थान थे। अंचल के नव गठित बाराँ जिले में बार, मांगरोल, सीसवाली, अटरू, अन्ता, बड़वा, आटौन, छबड़ा, छीपाबड़ौद, जलवाड़ा, मोठपुर, हरनावदाशाहजी, कवाई, शेरगढ़, नाहरगढ़, रेलावन आदि ग्रामों में छीपा जाति के परिवार बहुतायात में निवास करते थे और रंगाई-छपाई तथा बंधेज का कार्य करके अपनी आजीविका चलाते थे। इसी प्रकार बूंदी जिले के दर्जनभर से अधिक स्थान वस्त्रकला के केन्द्र थे, जिनमें बूंदी, हिण्डोली, नैनवा, देई, गोठड़ा, डाबी, दबलाना, सीलोर, केशवरायपाटन, गेडोंली, करवार, इन्द्रगढ़ आदि शामिल थे। अंचल का झालावाड़ जिला भी इस कला के दस्तकारों से समृद्ध था। इस जिले के खानपुर, बकानी, झालरापाटन, सरड़ा, भालता, कनवाड़ा, कनवाड़ी, भिलवाड़ा, भिलवाड़ी, जुल्मी, डग, पिड़ावा, सुनेल, मनोहरथाना आदि स्थान रंगाई-छपाई के केन्द्र रहे हैं। हाड़ौती अंचल के समीपवर्ती मध्यप्रदेश राज्य के भानपुरा, खिलचीपुर, श्योपुर, राजगढ़, बड़ोद आदि स्थानों पर भी इस कला को पनपने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ।


छीपों द्वारा वस्त्रों की छपाई का कार्य मोटे सूती कपड़ों तथा बारीक मलमल पर किया जाता था। छपाई से पूर्व इन कपड़ों को खूब धोया जाता था। धोने की प्रक्रिया काफी परिश्रम साध्य होती थी। छपाई और रंगाई के लिए वनस्पति रंगों का प्रयोग होता था। वनस्पति रंग को कारीगर स्वयं ही बनाते थे जैसे आल वृक्ष की छाल से लाल रंग, नील वृक्ष से नीला रंग, कसूमे के फलों से कसूमल रंग, हल्दी से पीला तथा इसी भांति अन्य रंग बनाये जाते थे। रंगों को चटकदार बनाने के लिए हरड़, बहेड़ा, गोंद, काली चिकनी मिट्टी, लोहे मैल, अरण्डी का तेल, मंजीठा, रीठा, अनार के डोडे, बेगर, नैपतूल आदि का प्रयोग किया जाता था। प्राकृतिक पदार्थों के प्रयोग के कारण छपाई इतनी पक्की और स्थायी होती थी कि कपड़ा फट जाने पर भी उसके रंगों की चमक कम नहीं होती थी।


वस्त्रों पर छपाई का कार्य लकड़ी के छापों से किया जाता था जिन्हें 'ठप्पा' या 'भांत' कहा जाता था। भांत दो प्रकार की होती थीं। एक किनारे बनाने की और दूसरी फूल-पत्तियों अथवा अन्य डिजाइनों की छपाई की। छपाई के बाद वस्त्रों की रंगाई का कार्य होता था जिसे छीपा जाति के दस्तकार स्वयं करते थे। नीले रंग की छपाई का कार्य नीलगरोंया रंगरेजों से करवाते थे। छपाई से कई प्रकार के वस्त्र तैयार किये जाते थे। मुख्य रूप से छींट की छपाई की जाती थी। इसके अलावा जोट-बदाम, सेले, जाजम, अंगोछे, गिलाफ, चांदनी, रजाईपाट, गदेलापाट, घाधरापाट, बिछायत, पिछवाई, चद्दर, लूगड़ा आदि वस्त्रों की छपाई होती थी। करसानी कपड़ों में मालिन भांत, रेबारी भांत, गुजर भात, गाडरी भांत, मोची भांत, भील भांत, तेली, तमोली, कुम्हार, जाट, महाजन आदि के लिए विशेष प्रकार की भांतों के कपड़े छापे जाते थे। इन छपे हुए वस्त्रों को पहनने वाले स्त्री-पुरुष की जाति की पहचान दूर से ही हो जाती थी।


हाडौती में छपाई के अलावा वस्त्रों की बंधेज कला भी छीपों के हाथों में ही थी। बंधेज का काम पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियाँ भी करती थीं। एक अच्छी भरवाँ चूंदड़ी की बंधेज में सप्ताह भर का समय लग जाता था। कपड़े पर डिजाईन बनाकर बारीक धागों से छोटी-छोटी गाँठे बाँधने को 'नग बाँधना' कहा जाता था। उस समय घर-घर में औरतें नग बाँधती थीं। हाडौती में बूंदी के बंधेज की विशेष पहचान थी।


बंधेज चुनरियाँ तैयार की जाती थी। चुनरियाँ सुहाग की प्रतीक मानी जाती रही हैं। शादी-ब्याह, बाल-बच्चा तथा तीज- त्यौहार होने पर अलग-अलग प्रकार की चुनरियाँ बनाई जाती थीं। विवाह के अवसर पर मामा अपनी भाँजी के लिए, भाई अपनी बहिन के लिए विशेष प्रकार की चुनरी लाता था, जिसे क्रमशः मामा भात और मौसाला भात कहा जाता था। चुनरी के अलावा औरतें सामान्य रूप से पोमचा भी ओढ़ती थीं, जिसे भी बंधेज से ही तैयार किया जाता था। ओढ़नी यहाँ का विशेष परिधान रहा है जिसे देखकर सहज ही यह मालूम किया जा सकता था कि अमुक महिला सुहागन है या विधवा। नव विवाहिता है या बेटे अथवा बेटी की माँ है। गुलाबी रंग की ओढ़नी पहनने वाली युवती को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वह अभी माँ नहीं बनी है। जो औरत बेटे की माँ बनी है उसे 'पीले की ओढ़नी' पहनाई जाती थी, जिस पर बड़े-बड़े लड्डू छपे होते थे। बेटी को जन्म देने वाली औरत को पहनाई जाने वाली ओढ़नी में लड्डू की छाप मोटी साईज की होती थी। विधवा महिला काले रंग की ओढ़नी पहनती थी जिसे 'चौड़ का पोमचा' कहा जाता था। दुल्हन की ओढ़नी को पंवरी कहा जाता था। पंवरी लाल या गुलाबी रंग की होती थी, जिसे आज भी दुल्हन को ओढ़ाये जाने का रिवाज है। पुरुषों के परिधानों में मुख्य रूप से पेंचा, पगड़ी एवं साफों की बंधाई की जाती थी। पेंचा-पगड़ी अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार की डिजाईनों के छापे जाते थे।


उल्लेखनीय है कि छपाई और बंधेज का प्रचलन किसी जमाने में पूरे राजस्थान राज्य में था। जयपुर, सांगानेर, बगरू, बाड़मेर, जैसलमेर, बालोतरा, पाली, चित्तौड़, आकोला, उदयपुर, जोधपुर, पीपाड़ आदि स्थान जो आज भी इस कला के प्रमुख केन्द्र हैं। तीन दशक पूर्व तक हाडौती में छपाई और बंधेज का कार्य यौवन पर था। हाड़ौती में अब मात्र कुछ परिवार ही ऐसे बचे हैं जो रेबारी जाति की महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले बंधेज के लूगड़े तैयार कर उनकी ढाणियों में जाकर बेचते हैं। कुछ परिवार जाजम, गिलाफ आदि छापते हैं और साथ में दूसरा काम-धन्धा करके अपनी आजीविका चलाते हैं।