पुरातात्विक कला में रन आभूषण'

कला के प्रति मानव का अनुराग सहज और स्वाभाविक रहा है। वह अपने परिवेश तथा देह को सुन्दर और सजाकर रखना चाहता है। जब विभिन्न प्रकार के अलंकरणों, रत्नादि से वह अपने शरीर को सौन्दर्य प्रदान करता है, तब उसे "वैयक्तिक श्रृंगार' की संज्ञा दी जाती है। इस श्रृंगार में चार प्रमुख अंग क्रमशः प्रसाधन, वस्त्र, केश विन्यास और रत्नजड़ित आभूषण होते हैं। प्रस्तुत पुराप्रसंग में रत्नाभूषण का प्राचीन विवरण है जो हमारे देश की पुरातात्त्विक मूर्तिकला में अतीत से अब तक उत्खनन में मिला है।



महाकाव्य रामायणकालीन संस्कृति का पुरातात्त्विक अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि इस काल में हीरे-जवाहरातों के विभिन्न रत्नों के साथ पुष्पों से भी उस समय के लोगों द्वारा अपने शरीर की सजावट की जाती थी। विभिन्न रत्नों की चित्र-विचित्र मालाएँ पहनकर अयोध्यावासी कई यात्राएँ निकालने के शौकीन थे। बहुमूल्य वस्त्र और रत्नजड़ित आभूषण धारण करने की क्रिया उस युग में 'नेपथ्य विधि' (वाल्मीकि रामायण 6/123/36) कहलाती थी।


सिन्धु-हड़प्पा सभ्यता में चूड़ी, कर्णपुष्प, मुद्रिका, बाजूबन्द प्रमुख आभूषण थे जिनमें रत्नों का उपयोग होता था। आभूषणों में कांसा, तांबा, स्वर्ण, रजत मिश्रित धातुओं का उपयोग होता था और उनमें पत्थर के रत्नों को जड़ा जाता था। रत्नों में मनकों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान था। हड़प्पा के चन्हूदड़ो में मनके बनाए जाते थे। वहाँ से ये मनके सुमेरियन एवं अन्य देशों में भेजे जाते थे। रत्न रूप में ये मनके स्वर्ण, रजत, तांबा, चमकदार, रंगीन तथा पक्की मिट्टी, शंख, अगेट, स्फटिक, लाजवर्द सामग्री से कई आकार में बनाए जाते थे। लोथल के उत्खनन में आभूषणों के लिए रंग बिरंगे मनके मिले है। रत्नरूपी ये मनके ताबीजों तथा श्वेत रंग के मनके स्टेटाइट पत्थर से बने होते थे। रंगीन मनके नीले एवं हरे रंग के होते थे। श्वेत मनकों का उपयोग स्वर्ण की टोपियों में होता था। मोहनजोदड़ों में वतुर्लाकार,लाल चमकदार मनके मिले है, जो गोलाकार, चतुभुर्जाकार एवं चपटे होते थे। इन मनकों में वृत्त, तीन पत्तियां, लहरिया, बिन्दु जैसे नमूने से अलंकृत मिले हैं। गोलाकार मनके के किनारों को लहरियों से तथा अकीक के मनकों को श्वेत रेखाओं से अलंकृत किया गया है। ये मनके ही रत्न के रूप थे तथा इनके बनाने की प्रथा आज भी हमारे देश में विद्यमान है। मोहनजोदड़ो में स्वर्ण की एक भग्न पट्टिका मिली है जो नारी आभूषण है। इसके दोनों सिरों के साथ ही मध्य में अनेक छिद्र हैं, जिनमें रत्नरूपी मनके लगाए जाते थे। हड़प्पा में गले का ऐसा आभूषण मिला है, जिसमें चार पंक्तियों में 240 स्वर्ण के गोल रत्न मनकों का प्रयोग किया जाता था। इस सभ्यता की - स्त्री आभूषण मूर्तिकला में 0.9 इंच लम्बे मनके, मध्य में 0.45 इंच और सिरे पर 0.25 इंच के मिले हैं।


वैदिक काल में वैदूर्यमणि नामक रत्न का उपयोग आभूषणों के साथ होता था। इस काल में रत्न मूलतः स्वर्ण एवं जटिंगमणि के होते थे। इनमें वर्णमणि, खदिरमणि, यवमणि, पतिसारमणि, शंखमणि दर्भमणि का आभूषणों में प्रयोग किया जाता था। इन रत्नों को बनाने वालों को 'मणिकार' तथा इन्हें पिरोने वालों को 'रज्जूसर्जम' कहा जाता था। मौर्यकालीन पुरावशेषों में 'रत्नावली' नामक माला में मणिरत्न लगी होने पर उसे 'मणिसोपानक' कहते थे। दीदारगंज की मौर्यकालीन यक्षी मूर्ति की मेंखला पांच लड़ियों वाली है। इसमें अलंकृत रत्नों का प्रयोग है। इनमें ऊपर की चार लड़ियों के धारीदार नमूनों में रत्न लगे हैं। शुंगकालीन मूर्तिकला के आभूषणों में रत्न, मणियों से अलंकृत करने का विवरण है। रत्नों को काटने एवं सुन्दर बनाने वालों को उस युग में 'वैकटिक' कहा जाता था। भरहूत स्तूप की मूर्तिकला में “सिरिमा देवता" की मूर्ति के गले में रत्नों का बना लम्बा एक आभूषण है, जिसका वर्णन पुरातत्त्ववेत्ता कनिंघम ने किया है। बोधगया की स्त्री मूर्तियों में उनके गले में अर्द्धचन्द्राकार आभूषणों के साथ रत्नों की दो लड़ियों की माला दशार्थी गई है। इस काल में गले के आभूषण महत्वपूर्ण थे। इनके निर्माण में धातु के साथ रत्नों का प्रयोग शिल्पी द्वारा किया जाता था। सांची स्तूप की मूर्तिकला में गले की गोलाकार माला में रत्नों की विभिन्न आकृतियां मिलती हैं। भरहूत स्तूप में बुद्ध की माता माया देवी को मोटे कंगन पहने हुए दिखाया है। उनके कंगन में मोती और मणिरत्न स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।


कुषाणकालीन पुरातत्त्वकला में आभूषण स्वर्ण, रजत और ताम्र धातु से बनते थे। इनके निर्माण में रत्नों मणियों का प्रयोग किया जाता था। रत्नों में मुक्ता, इन्द्रनील, पद्यमणि (माणिक्य), वैदूर्य, स्फटिक, शंख, द्विरदर (हाथीदांत के रत्न) प्रमुख थे। मूल्यवान रत्नों को घिसकर चिकना बनाया जाता था। तक्षशिला उत्खनन से प्राप्त ज्यादातर 'कणोभूषण' यूनानी शैली के है, जिनमें रत्नों का प्रयोग किया जाता था। गुपत एवं गुप्तोत्तरकालीन पुरातत्त्वकला में तत्कालीन लोग रत्न और मणिमुक्ता युक्त स्वणाभूषण धारण करते थे। महाकवि कालिदास ने अपने ग्रन्थ मेघदूतम्, रघुवंशम्, ऋतुसंहार, कुमारसम्भव में स्पष्ट रूप से रत्नों के पृथक-पृथक नामों यथा वैदूर्यमणि, नीलमणि, महानील, पद्यराग, मूंगा, मकरत, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, सितामणि (हीरा) का उल्लेख किया है। इसमें इन्द्रनील और महानील नीलम रत्न के दो प्रकार के होते थे। गुप्तकालीन मूर्तिकला के शिरोभूषण में रतन रूप में चूड़ामणि, शिखामणि आदि प्रमुख थे। अहिच्छत्रा से प्राप्त एक स्त्री मृणमूर्ति के गले में गोल मनकों की एकावली है, जिसके मध्य मनकों की एकावली है, जिसके मध्य मनका (नीलम रत्न) अन्य मनकों की अपेक्षा बड़ा हैं। इस काल में रत्नों से जड़ित हार को 'रत्नानुविद्वप्रालम्ब' कहा गया है। भगवती सूत्र में इसे 'रमणावली' नाम से भी जाना जाता था। सम्राट हर्ष द्वारा रत्नों से जड़ित केयूर धारण करने का उल्लेख हर्षचरित नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में स्पष्ट मिलता है। कटक मूलतः चूड़ी के समान पहना जाने वाला आभूषण था। इस क्रम में मालती द्वारा हाथों में पन्ना रत्न जड़ित मकरमुखी कटक पहनने का उल्लेख है। (मकरमक वेदिकासनाथ) आज भी यह मकरमुखी और बाहरमुखी कड़ों का प्रचलन दिखाई देता है। मध्यप्रदेश में बाघ की प्रसिद्ध गुफाओं की चित्रांकन परम्परा में रत्नों से जड़ित मेंखला के उदाहरण मिलते है। अहिच्छत्रा की एक स्त्री मृणमूर्ति में मनकों (रत्नों) से निर्मित मेखला का प्रदर्शन है।


पौराणिक कथानुसार सागर मंथन की कथा सर्वज्ञात है, जिसका पुरातत्त्व मूर्तिकला में भी अंकन हुआ है। विभिन्न पुराणों में समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों का उल्लेख मिलता है, जिनमें कोस्तुभमणि नामक रत्न भगवान् विष्णु द्वारा धारण किए जाने का प्रसंग मिलता है। उज्जैन के विक्रम कीर्ति मन्दिर संग्रहालय में शेषशायी माला के साथ कौस्तुभमणि का भी स्पष्ट अंकन है। यह अंकन विष्णु के वक्षस्थल पर सुशोभित है। प्रतिहार शासकों के काल में ऐसी कई मूर्तियों का निर्माण हुआ है, जिनमें विष्णु के वक्ष पर "कौस्तुभ मणि" का अंकन हुआ है। इस प्रकार प्राचीन पुरातत्त्व के कला संसार में रत्नों आभूषणों के विभिन्न रूपों का सुन्दर अंकन हुआ है जिनसे इनकी प्राचीन महत्ता का बोध होता है।