वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री लेखराज सिंह से साक्षात्कार - एक अविस्मरणीय पल

श्री लेखराज सिंह जिला बिजनौर के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानीयों तथा ख्यातिलब्ध हस्तियों में से एक हैं। स्वतंत्रता आंदोलनों में इनके संघर्ष एवं योगदान को देखते हुए प्रतिवर्ष 26 जनवरी तथा 15 अगस्त को जिला मुख्यालय बिजनौर पर जिलाधिकारी द्वारा ध्वजारोहण के समय आपकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती रही है। गंगा नदी पर बने बिजनौर बैराज के शिलान्यास हेतु उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह आए थे। शिलान्यास के समय लेखराज सिंह को बुलवाया गया था। इनके सम्मान में मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने कहा कि शिलान्यास में पहली ईंट आपके हाथ से लगेगी श्री लेखराज सिंह को कई मंत्रियों तथा उच्चाधिकारियों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। फिर भी आपको इतिहास में वह सम्मान नही मिल पाया, जिसके आप वास्तव में हकदार हैं। हम सरकार से अपेक्षा करते हैं कि क्रांतिकारियों के सम्मान में, भव्य स्मारक बनवाकर वहां श्री लेखराज सिंह और अन्य सेनानियों की प्रतिमाएं तथा उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर प्रकाश डालने वाले आलेख लिखे जाए। ताकि आने वाली पीढ़ीयाँ इनसे कुछ प्रेरणा ले सकें। लगभग 110 वर्ष की आयु में भी आप उत्साह से समाज के कार्यों में लगे रहते हैं। आपका कहना है कि जब तक जान है समाज सेवा के कार्य करता रहूँगा। श्री लेखराज सिंह सन्यासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और पारिवारिक दृष्टि से अकेले हैं। इनकी वृद्धावस्था के मद्देनजर सरकार द्वारा इनकी समुचित देखभाल तथा इलाज की व्यवस्था अपेक्षीत है। एक बार डकैत इनके आश्रम पर धावा बोल चुके हैं। इसलिए सरकार को उनकी सुरक्षा की व्यवस्था भी करनी चाहिए। अपने बलिदानों से अनूठी मिसाल पेश करन वाले प्रात: वंदनीय श्री लेखराज सिंह जी को 'दी कोर' परिवार शत शत नमन करते हुए , उनके सुखी जीवन की कामना करता है। जिला बिजनौर के इतिहास पर अपनी प्रस्तावित पुस्तक के लिए तथ्य जुटाने के सिलसिले में इं. हेमंत कुमार ने स्वतत्रता सेनानी लेखराज सिंह से भेंट की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत का सार। -सम्पादक 



श्रीलेखराज सिंह जी का जन्म 15 मार्च 1910 को जिला बिजनौर (उ.प्र.) के गंज नामक कस्बे में हुआ था। इनके पिता जी का नाम मारू सिंह तथ सिंह तथा माता जी का नाम मुक्ता देवी है। इनकी आयु जब मात्र चार-पाँच साल की थी, तब ही इनके माता-पिता का निधन हो गया था। सन् 1919 को इनके टाटाजी भी जलियाँवाला कांड में शहीद हो गए थे। दुर्भाग्य से परिवार में कोई अन्य अभिभावक नहीं था, इसलिए किसी ने इनको गंज कस्बे के प्रसिद्ध आर्यसमाज आश्रम में छोड दिया था। इस घटनाक्रम में श्री लेखराज सिंह को बचपन में अपने परिवारजनों का सान्निध्य नहीं मिल पाया। जिस समय ये गंज कस्बे के आर्य समाज आश्रम में पहुँचे तब वहाँ के महन्त स्वामी शुकानन्द थे। वे ऋषि दयानन्द और आर्य समाज के सच्चे अनुयायी थे, क्षेत्र के जनमानस पर उनका गहरा प्रभाव था। आर्य समाज के प्रर्वतक ऋषि दयानन्द अपनी शिक्षाओं में स्वराज को सर्वोपरी रखते थे, जिससे प्रेरित हो स्वामी शुकानंद भी अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। पुलिस से बचाने के लिए स्वामी शकानन्द क्रांतिकारियों को सन्यासी वेष - भूसा पहना कर आश्रम में छिपा लेते थे, क्योंकि साधु-सन्यासियों को पुलिस जल्दी नही छेड़ती थी। अनुकूल वातावरण पाकर थोड़े समय में ही जिला बिजनौर के बड़े क्रांतिकारियों का उनके आश्रम में आना-जाना शुरू हो गया। यहाँ महावीर लाल, नेमीशरण जैन, किशोरी सिंह, नारायण सिंह, विक्रम सिंह, रतनलाल, चोखेलाल, बिहारी सिंह, दामोदर प्रसाद अक्सर आने-जाने और रूकने लगे। इन क्रांतिकारियों के मुँह से ही लेखराज सिंह को पता चला था कि उनके दादा जी स्वतन्त्रता आन्दोलन के सिलसिले में एक बार जेल गए थे और जलियाँवाला कांड में 1919 को शहीद हो गए थे। तब लेखराज सिंह की आयु मात्र 8-9 वर्ष की थी। युवावस्था आने पर जब श्री लेखराज सिंह का बुद्धि-विवेक जाग्रत हुआ तो इनके मन पर आर्य समाज तथा स्वतंत्रता आन्दोलन का बहुत असर पड़ा, और इन्होने सन्यास ग्रहण कर क्रांतिकारियों के साथ आन्दोलन में रुचिपूर्वक भाग लेना शुरू कर दिया। इन्होंने नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, करो या मरो सहित 16 अगस्त 1942 को नूरपुर थाने पर तिरंगा फहराए जाने की प्रसिद्ध घटना में भी भाग लिया था। वर्तमान में आप बिजनौर बैराज के पहले श्मशान मार्ग पर स्थित एक आश्रम में सन्यासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और स्वामी निरंजानंद के नाम से भी जाने जाते हैं।



सन् 1932 में गांधीजी को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था, जिसके विरोधस्वरूप देश भर में जुलूस प्रर्दशन शुरू हो गए बिजनौर में भी नैमीशरण जैन की अगुवाई में जुलूस प्रर्दशन की योजना बनाई गई। तय किया गया, कि स्वतंत्रता सेनानी रामबाग में एकत्र होगें तथा यहाँ से जुलूस की शक्ल में घंटाघर से होते हुए थाना पहुंचेगें इस जुलूस की पूर्व सूचना जिलाधिकारी को दे दी गई। थाना, पुरानी तहसील के पास था। इस कार्यक्रम में श्री लेखराज सिंह ने भी शामिल होने का मन बनाया और सुबह-सुबह बिजनौर के रामबाग में पहुँच गए। वहाँ करीब 100 लोग जूलुस के लिए एकत्र हुए और थाने की तरफ चल दिए। नेमीशरण जैन, रतनलाल, चोखेलाल, बिहारी सिंह, दामोदर प्रसाद आदि सेनानी इस जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। लेखराज सिंह भी अग्रिम पंक्ति में इनके साथ थे। लेखराज सिंह के हाथ में तिरंगा था। इंकलाब जिंदाबाद, वंदे मातरम, रंग दे बसंती चोला जैसे नारे लगाते हुए यह जुलूस घंटाघर होते हुए थाने के नजदीक पहुँच गया। उस समय थाने के चारों तरफ लगभग चार फीट ऊँची बाउण्डी थी तथा उसमें गेट लगा था। स्वतंत्रता सेनानीयों को आते देख पुलिस ने गेट को घेर लिया, और सभी को रूक जाने का इशारा किया। कुछ देर तक नारेबाजी के बाद नेमीशरण जैन के संकेत पर लेखराज सिंह सहित चार-पाँच सेनानी तिरंगा लिए, थाना परिसर की ओर बढ़े। यह देख पुलिस लाठी लिए इनको रोकने के लिए दौड़ी, कि कहीं ये थाने में घुसकर तिरंगा न लगा दें। पुलिस के संकेत से सेनानी नही रूके, और थाने के गेट के नजदीक पहुँच गए। सन 1932 में देश के अन्दर स्वतंत्रता आन्दोलनों ने गति पकड़नी शुरू ही की थी, और उस समय पुलिस प्रशासन की किसी छोटी-मोटी बात का उल्लंघन भी बहुत बड़ा माना जाता था। इसीलिए थाने के नजदीक आने मात्र से पुलिस ने इन पर लाठीचार्ज कर दिया और गोली चला दी। पाँचसात सेनानीयों को छोड़कर, लगभग सभी तितर-बितर हो गए। जो वहाँ रूके उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।



उस समय क्रांतिकारी दो डिजायन के तिरंगे प्रयोग करते थे। एक पर चरखा बना होता था और यह गांधी जी से प्रेरित नरम गुट का झण्डा माना जाता था, दूसरे पर चक्र बना होता था और यह गरम दल के नेताजी सुभाषचंद्र बोस, गुट का झंडा माना जाता था। क्रांतिकारी अपनी मर्जी से इनमें से कोई एक झण्डा ले लेते थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस हथियारों के बल पर अंग्रजो को भगाने की बात कहते थे, इसलिए अंग्रेज इनसे बहुत अधिक ईर्ष्या करते थे। चक्र वाले तिरंगे को हाथ में ऊठाने वाले सेनानियों पर अंग्रेज पुलिस बहुत अधिक अत्याचार करती थी। नेमीशरण जैन ने लेखराज सिंह के हाथ में चक्र छपा तिरंगा थमाया था।


पुलिस द्वारा की गयी फायरिंग में लेखराज सिंह की जांघ में गोली लगी और वे गिर पड़े। श्री लेखराज सिंह जनपद बिजनौर के अभी तक के ज्ञात पहले स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्होंने आंदोलन के दौरान अपने शरीर पर अंग्रेजों की गोली खाई। पुलिस ने इनको तथा कुछ अन्य सेनानियों को थाने के अन्दर खींचकर बंद कर दिया, और लाठी लिए टूट पड़ी। पिटाई के दौरान श्री लेखराज सिंह ने इंकलाब जिंदाबाद और वंदेमातरम के नारे लगाने शुरू कर दिए। वंदे मातरम के जयघोष से भी अंग्रजों को बहुत नफरत थी। थाने के बाहर श्री लेखराज सिंह द्वारा चक्र वाले तिरंगे का प्रयोग और पिटाई के दौरान वंदेमातरम के नारे लगाने से पुलिस ईर्ष्या से जल ऊठी, और इनको इतने क्रूर तरीके से मारना शुरूकर दिया कि कुछ ही मिनटों में इनके हाथ-पैरों की कई हड्डियां टूट गई। पुलिस ने इनको तब तक मारा, जब तक कि ये बेहोश नहीं हो गए। जब इनको होश आया तो ये न तो खुद चल-फिर पा रहे थे और न ही मुँह से कुछ खा पा रहे थे। पिटाई से लेखराज सिंह की गर्दन में गम्भीर चोट लग गई थी, जिससे उक्त हालत हो गई थी। एक-दो दिन तक इस हालत में रहने से ये मरणासन्न हो गए। इस बात की खबर जेल में बंद इनके साथियों ने किसी प्रकार गुप्त रूप से सक्रिय नरम दल के एक स्वतंत्रता सेनानी हरदेव सिंह तक पहुँचाई। हरदेव सिंह जिला अस्पताल में कम्पॉउण्डर के पद पर कार्यरत थे, और इस वजह से इनको जिला मुख्यालय के बड़े अधिकारी जानते थे। इन्होंने लेखराज सिंह का इलाज सीधे जिला मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) से कराने के लिए, तर्क-वितर्क कर प्रशासन को सहमत किया। इनकी पहल पर मरणासन्न अवस्था में लेखराज सिंह को जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया। एक अंग्रेज डॉक्टर उस समय जिला के सीएमओ थे, उन्होने अपने हाथों से लेखराज सिंह के घावों पर टाँके लगाए और नाक में नली डालकर तरल भोजन दिया हरदेव सिंह ने सीएमओ से कहा कि अपने देश से प्रेम करने वाले लोग अपराधी नहीं होते, इसलिए उनका अच्छे से अच्छा इलाज किया जाना चाहिए। लेखराज सिंह के शरीर पर पुलिस द्वारा की गई पिटाई के कई चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं। पुलिस फायरिंग के दौरान इनकी जाँघ में जो गोली लगी थी, उसका निशान अभी भी बना है।



पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों से भी लेखराज सिंह के हौसले और जज्बे में कोई कमी नहीं आई, और इस घटना के बाद के वर्षों में हुए सविनय अवज्ञा तथा करो या मरो आन्दोलन में भी उन्होने परी दृढ़ता और मनोयोग से हिस्सा लिया। करो या मरो आन्दोलन के अर्न्तगत नूरपुर क्षेत्र के सेनानियों ने नूरपुर थाने पर 16 अगस्त 1942 को तिरंगा फहराने की योजना बनाई। तो इस कार्यक्रम में लेखराज सिंह ने भी नूरपुर जाना तय किया। कार्यक्रम से एक दिन पहले अर्थात 15 अगस्त 1942 को, लेखराज सिंह आर्यसमाज के सन्यासी-क्रांतिकारी केवलानंद के साथ बिजनौर में सेनानियों के जत्थे के पास पहुँचे, जहाँ से नारायण सिंह इस जत्थे को अपने गाँव गोहावर ले आए। इस जत्थे में क्रांतिकारी रतनलाल भी थे। इन सबने 15 तथा 16 अगस्त के मध्य की रात गोहावर गाँव में ही बिताई। 16 अगस्त 1942 को ये सब सुबह-सुबह ग्राम गोहावर से नूरपुर की ओर चल दिए।



लेखराज सिंह 16 अगस्त 1942 को नूरपुर थाने पर तिरंगा फहराने की हर घटना के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। इनके अनुसार उस दिन सुबह से दोपहर तक समय धीमी-धीमी बारिश होती रही, और दोपहर के बाद तेज हो गई थी। नूरपुर थाने के चारों तरफ बाउंड्री बनाए जाने का प्रस्ताव था, जिसके लिए चार से पाँच फुट गहरी खाई खोदी गई थी। खुदाई से निकली मिट्टी को बगल में ही डाल दिया गया था, जिससे एक ऊँची दीवारनुमा मेड़ बन गई थी। इस खाई में बारिश का पानी भरा था, और इस कारण इसे पार करना थोड़ा झंझटी था। दोपहर तक थाने पर हजारों सेनानियों की भीड़ का जुटना, देशभक्ति पूर्ण नारों से वातावरण गुंजायमान होना, फिर ग्राम गुनिया खेड़ी के परवीन सिंह का झंडा लेकर थाने में प्रवेश करना और पुलिस की गोली से घायल हो कर गिरना, इसके बाद रिक्खी सिंह का आगे बढ़ना और परवीन सिंह के हाथ से झंडा निकालकर थाने में लगा देना आदि घटनाओं के समय लेखराज सिंह वहीं मौजूद थे। तिरंगा फहराए जाने के बाद जब सेनानी अपने-अपने गंतव्य की ओर जाने लगे, तब बिजनौर से आए उनके जत्थे को गोहावर के स्वतंत्रता सेनानी नारायण सिंह तथा ग्राम 'आलमपुर एडवा' के विक्रम सिंह ने अपने साथ ले जाकर किसी अज्ञात गाँव में छिपा दिया था। नूरपुर थाना तिरंगा केस में श्री लेखराज सिंह की सहभागिता के बारे में पुलिस कभी नही जान पाई।


श्री लेखराज सिंह उन सच्चे क्रांतिकारियों में से एक हैं, जिन्होंने पुलिस की अनगिनत लाठियाँ और गोली खा कर भी, अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन की कीर्ति के जीवित ध्वजवाहक श्री लेखराज सिंह से प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर, लेखक के बतौर मैं हेमन्त कुमार, अत्यन्त गौरव तथा सौभाग्य का अनुभव कर रहा हूँ। साक्षात्कार के दौरान श्री लेखराज सिंह जी ने मुझे बताया कि वे मेरे गाँव फीना के स्वतंत्रता सेनानी बसंत सिंह, क्षेत्रपाल सिंह, डा. भारत सिंह, होरी सिंह और महाराज सिंह के बारे में सुनते रहे हैं, और इनमें से महाराज सिंह को व्यक्तिगत रूप से जानते भी हैं। मेरे द्वारा महाराज सिंह के निधन की बात सुनकर इन्होने उनके प्रति गहरी संवेदना प्रकट की ।



उपर प्रसंग आया है कि सन् 1932 को बिजनौर में आन्दोलन-प्रर्दशन के दौरान पुलिस ने इनको इतना मारा था, कि इनका शरीर गम्भीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था। सेहत में सुधार के बाद भी इनको चलने-फिरने, ऊठने-बैठने में हमेशा दिक्कत बनी रही। परंतु फिर भी, इन्होने बाद में हुए सभी आंदोलनों में उसी जोशोखरोश से भाग लिया। यहाँ तक कि 16 अगस्त 1942 को लगभग 50 किलोमीटर दूर पैदल चलकर नूरपुर थाने में तिरंगा फहराने के आन्दोलन में पहुँच गए थे। अनेक बड़ी विपत्ति झेलने के बावजूद आपने कभी अपने सिद्धांत, आंदोलन के प्रति निष्ठा, संघर्ष की शैली तथा आदर्श सेनानी का चरित्र नहीं बदला। इनका व्यक्तित्व आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।


(लेखक उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग में सहायक-अभियंता के पद पर कार्यरत हैं।)