महाराजाधिराज डॉ.कर्ण सिंह

स्मृति-पटल पर काश्मीर का नाम आते ही भारतीय संस्कृति के स्वर्णकाल का चित्र उभर आता है। प्राचीन काल में काश्मीर हिंदू और बौद्ध-संस्कृति का पर्यंक रहा है। महाकवि कल्हण कृत 'राजतरंगिणी' और काश्मीर परस्पर पूरक हैं। पूर्व-मध्ययुग में काश्मीर के चक्रवर्ती सम्राट् ललितादित्य के समय में काश्मीर संस्कृतविद्या का विख्यात केन्द्र रहा है। महर्षि पतञ्जलि, दृढ़बल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमेन्द्र प्रभृति संस्कृतज्ञों एवं शैवदर्शन की पवित्र भूमि के रूप में काश्मीर की ख्याति विश्वस्तरीय है। हिमाच्छादित पर्वतमालाओं के परिष्वंग में दूर-दूर तक फैली अनिद्य सुषमा की निर्मल 'राजतरंगिणी' में तैरती काश्मीर के नृपतियों की जिस हंस-पंक्ति का उल्लेख किया गया है, महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह उसके सुमेरु अथवा ज्ञानालोक से समृद्ध परमहंस के पद पर प्रतिष्ठित हैं।



जम्मू-काश्मीर के महाराजाधिराज हरि सिंह और महारानी तारा देवी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के रूप में 09 मार्च, 1931 को जन्मे कर्ण सिंह स्वतन्त्र भारत के महत्त्वपूर्ण राजनयिक हैं। केन्द्र सरकार के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह की पहचान पूरे विश्व में एक विद्वान् लेखक के रूप में है। राजनीति की पाठशाला में युवराज कर्ण सिंह का प्रवेश मात्र अठारह वर्ष की ही उम्र में ही 'राजप्रतिनिधि' के रूप में हो गया था। काश्मीर की स्वातन्त्र्योत्तर राजनीति में लम्बे समय तक राजप्रतिनिधि (1949-1952 ई.), सदर-ए-रियासत (1952-1964 ई.) एवं राज्यपाल (1964-1967 ई.) के रूप में डॉ. कर्ण सिंह की सार्थक, सकारात्मक एवं बृहत्तर भूमिका रही है।


सन् 1967 ई. में डॉ. कर्ण सिंह प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित किये गये। तत्पश्चात् वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के प्रत्याशी के रूप में जम्मू और काश्मीर के उधमपुर संसदीय क्षेत्र से भारी बहुमत से लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इसी क्षेत्र से वे सन् 1971 ई., 1977 ई. और 1980 ई. में पुनः चुने गये। डॉ. कर्ण सिंह को पहले पर्यटन और नगर विमानन मन्त्रालय का दायित्व सौंपा गया। वे 6 वर्ष तक इस मन्त्रालय में रहे, जहाँ उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि और सक्रियता की अमिट छाप छोड़ी। सन् 1973 ई. में वे स्वास्थ्य और परिवार नियोजन मन्त्री बने। 1976 ई. में जब उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की, तो परिवार नियोजन का विषय एक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के रूप में उभरा1979 ई. में वे शिक्षा और संस्कृति मन्त्री बने। इतना ही नहीं डॉ. कर्ण सिंह ने सर्वश्रेष्ठ सांसद के रूप में दोनों सदनों का प्रतिनिधित्व भी किया है।


महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह देशी रियासतों के अकेले ऐसे पूर्व शासक थे, जिन्होंने स्वेच्छा से निजी कोश (प्रिवी पर्स) का त्याग किया। उन्होंने अपनी सारी राशि अपने माता-पिता के नाम पर भारत में मानव सेवा के लिए स्थापित 'हरि-तारा धर्मार्थ न्यास' को दे दी है। उन्होंने जम्मू के अपने अमर महल (राजभवन) को संग्रहालय एवं पुस्तकालय में परिवर्तित कर दिया है, जिसमें पहाड़ी लघुचित्रों और आधुनिक भारतीय कला का अमूल्य संग्रह तथा बीस हज़ार से अधिक पुस्तकों का निजी संग्रह है। महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह धर्मार्थ न्यास के अन्तर्गत चल रहे सौ से अधिक हिंदू तीर्थ-स्थलों तथा मन्दिरों सहित जम्मू और काश्मीर में अन्य कई न्यासों का कामकाज भी देखते हैं। उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान, संस्कृति और चेतना केन्द्र की भी स्थापना की है। यह केन्द्र सृजनात्मक दृष्टिकोण के एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में कार्यरत है।


महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह ने देहरादून-स्थित दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा, जम्मू और काश्मीर विश्वविद्यालय से स्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद 'श्रीअरविन्द की राजनीतिक विचारधारा' विषयक शोधप्रबन्ध लिखकर दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच. डी. उपाधि का अलंकरण प्राप्त किया है


डॉ. कर्ण सिंह ने कई वर्षों तक जम्मू और काश्मीर विश्वविद्यालय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के पद को अलंकृत किया है। प्रथम बार 16 फरवरी, 1963 से 19 मई, 1967 ई. तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति का दायित्व निर्वहन करने के पश्चात् महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह ने इस गुरुतर दायित्व का भार काशी नरेश महाराजाधिराज डॉ. विभूतिनारायण सिंह शर्म देव को प्रदान कर दिया था, किन्तु 25 दिसम्बर, 2000 ई. को काशी नरेश के दिवंगत हो जाने के पश्चात् 26 जुलाई, 2007 ई. तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय कुलाधिपति विहीन रहा। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति, राजवंश में उत्पन्न हुए महाराजाधिराज ही होते रहे हैं, इसलिए 27 जुलाई, 2007 ई. से पुनः इस पद की शोभा महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह से संवर्धित हो रही है। वे केन्द्रीय संस्कृत बोर्ड के अध्यक्ष, भारतीय लेखक संघ, भारतीय राष्ट्रमण्डल सोसायटी और दिल्ली संगीत सोसायटी के सभापति रहे हैं। वे जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि के उपाध्यक्ष, टेम्पल ऑफ अण्डरस्टेण्डिंग (एक प्रसिद्ध अन्तरराष्ट्रीय अन्तरविश्वास संगठन) के अध्यक्ष, भारत पर्यावरण और विकास जनायोग के अध्यक्ष, इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर और विराट् हिंदू समाज के सभापति हैं। उन्हें अनेक मानद उपाधियों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और सोका विश्वविद्यालय, तोक्यो से प्राप्त डॉक्टरेट की मानद उपाधियों के साथ साथ भारत सरकार द्वारा प्रदान किया गया पद्म विभूषण अलंकरण उल्लेखनीय है। डॉ. कर्ण सिंह कई वर्षों तक भारतीय वन्यजीव बोर्ड के अध्यक्ष और अत्यधिक सफल प्रोजेक्ट टाइगर के अध्यक्ष रहने के कारण उसके आजीवन संरक्षक हैं। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में अपनी गहन अन्तर्दृष्टि और पश्चिमी साहित्य और सभ्यता की विस्तृत जानकारी के कारण वे न केवल भारत में, अपितु वैश्विक स्तर पर एक विशिष्ट विचारक और नेता के रूप में जाने जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत (1989-1990 ई.) के रूप में उनका कार्यकाल यद्यपि कम ही रहा है, लेकिन इस दौरान उन्हें दोनों ही देशों में व्यापक और अत्यधिक अनुकूल मीडिया कवरेज मिली।


डॉ. कर्ण सिंह ने राजनीतिविज्ञान पर अनेक पुस्तकें, दार्शनिक निबन्ध, यात्रा- विवरण और अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखी हैं। उन्होंने अपनी मातृभाषा डोगरी में कतिपय भक्तिपूर्ण गीतों की रचना भी की है। 1. Towards A New India (1974), 2. Population, Poverty and the Future of India (1975), 3. One Man's World (1986), 4. Essays on Hinduism (1987), 5.Humanity at the Crossroads (1988), 6. Autobiography (2 vols..1989), 7. Brief Sojourn (1991), 8. Hymn to Shiva and Other Poems (1991), 9. The Transition to a Global Society (1991), 10. Mountain of Shiva (1994), 11. Autobiography (1994), 12. Prophet of Indian Nationalism Hinduism, 13. Mundaka Upanishad: The Bridge to Immortality. 14. Ten Gurus of the Sikhs Their Life Story, 15. Nehru's Kashmir. Wisdom Tree, 16. A Treasury of Indian Wisdom (2010) संज्ञक पुस्तकें महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह की अप्रतिम मेधा की परिचायक हैं।


महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह ने 'Mountain of Shiva' संज्ञक उपन्यास में आध्यात्मिक अन्वेषण के साथ साथ काश्मीर की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को जीवन्त स्वरूप प्रदान किया है। वस्तुतः यह न केवल एक उत्कृष्ट कथा है, अपितु प्रगाढ़ आन्तरिक सन्देशों से भी गर्भित है। आद्य शंकराचार्य की रचनाओं में अभिव्यक्त उनके दर्शन की यत्किंचित् व्याख्या एक गुरु और साधक के बीच हुए संवाद के माध्यम से इस उपन्यास में प्रस्तुत है। डॉ. कर्ण सिंह के विराट् व्यक्तित्व में राजनीति, साहित्य एवं संगीत की त्रिवेणी का अक्षुण्ण प्रवाह है। इस त्रिवेणी के नेपथ्य में काश्मीर का शैवदर्शन विद्यमान है। शिव प्रकृति डॉ. कर्ण सिंह की आस्था आचार्य अभिनवगुप्त की तरह है। 'शिव के प्रति' में अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं


मैं तुम्हारा खिलौना हूँ,


तुम मेरे भीतर भर सकते हो


शाश्वत जीवन की आग और


मुझे अमर बना सकते हो,


या तुम फैला सकते हो मेरे अणु


विश्व के दूर-दराज कोनों में


ताकि मैं हमेशा हमेशा के लिए


विलुप्त हो जाऊँ।


तुम मुझे शक्ति और प्रकाश से


भर सकते हो


ताकि मैं उल्कापिण्ड की भाँति चमकँ,


आकाश में मध्यरात्रि के अन्धकार में


या तुम मेरे प्राण ले सकते हो


ताकि समय के गहरे और अतल


समुद्र में मैं हमेशा हमेशा के लिए डूब जाऊँ।


तुम मुझे दैवि अग्नि से देदीप्यमान


शाश्वत तारों के बीच जड़ सकते हो


या तुम मुझे रसातल में फेंक सकते हो


ताकि मैं नश्वर आँखों को


कभी न दृष्टिगोचर होऊँ।


मैं तुम्हारा खिलौना हँ


निर्णय तुम्हारा है।


महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह संस्कृत, हिंदी, अंग्रेज़ी और डोगरी के प्रकाण्ड पण्डित हैं। इसलिए इनके वैदुष्य की समभ्यर्चना करते हुए अभिराज प्रो. राजेन्द्र मिश्र ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' में 'कर्णसिंहप्रशस्तिः' के अन्तर्गत लिखा है


प्रख्याते राजवंशे धृतिजनिरतुलैः


सद्गुणैर्भासमानः


सोदर्यः केसराणां


गुणगणनिकयाऽऽजन्मविद्याऽनुरागी।


व्यक्तित्वं स्फाटिकाभं निरतिशयसितं


सर्वलोकाभिवन्द्यं


बिभ्रन्न्वेकोऽद्वितीयो जयति नृपवरो भूतले


कर्णसिंहः॥


निश्चय ही महाराजाधिराज डॉ. कर्ण सिंह-जैसे राजनयिक भारतभूमि के गौरव हैं। ऐसे ही नरपुंगवों को प्राप्त करते यह धरित्री अपने 'रत्नगर्भा' अभिधान को चरितार्थ करती है।