आधुनिक हिन्दी काव्यधारा में राष्ट्रीय अस्मिता की अनुगूंज

आधुनिक हिन्दी-साहित्य का उदय भारतेंदु-काल में माना जाता है। बीसवीं सदी के पहले दो दशाब्दों का वह काल 'हिन्दू नवोत्थान काल' भी कहलाता है। उस युग का साहित्य और समाज सांस्कृतिक पुनरुद्धार से परिचालित थाउसी की देन है साहित्य का बहुमुखी विकास। निश्चय ही हिन्दीसाहित्य में उस विकास के सूत्रपात्र का श्रेय भारतेंदु युग को जाता है। ऋर्षि दयानंद, विवेकानंद आदि के द्वारा जिन वैदिक मूल्यों की प्राण-प्रतिष्ठा हुई उन्हें पिछली विरास्त के रूप में साहित्य में गढ़ने की चेष्टा की गई। वैदिक संस्कृति एवं रामायण-महाभारत के समुद्र-मंथन से प्राप्त मूल्यों की नयी दृष्टि से परखकर युगानुकूल व्याख्या करने की प्रवृत्ति जागृत हुई। प्राचीन और नवीन के समन्वय से दो प्रमुख धाराओं का विकास हुआ-मर्यादावाद और आदर्शवाद। एक ओर वैदिक तत्त्वामृतों का पानकर जीवन में ढालने की प्रवृत्ति थी, दूसरी ओर पश्चिम के प्रभाव से अभिभूत न होने की प्रवृत्ति। आधुनिक हिन्दी-साहित्य के इस जागरण काल में वैदिक मूल्यों से भावित राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना एवं राष्ट्रीय गौरव भावना ने पश्चिम के कुप्रभाव से हमारी अस्मिता की रक्षा की। लेकिन, परतंत्रता के कारण देश के बहुत बड़े समुदाय पर अँगरेजी भाषा, साहित्य और संस्कृति का कुप्रभाव भी पड़ा। इस कारण हमारे जीवन मूल्यों का कम अहित नहीं हुआ। लोग स्वदेशी आचार-विचार, रहन-सहन से विमुख हो उठे। इससे देश-हितैषी साहित्यकार सजग हो गए। उन्होंने पश्चिमी प्रभाव का साहित्य में खुलकर विरोध किया। आँख मूंदकर पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य-बाण बरसाये गए। पंडित श्री नाथूराम शंकर शर्मा की कुछ पंक्तियाँ इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं


ईश गिरिजा को छोड़ यीश गिरजा में जाय


शंकर सलोने मैन निस्तर कहावेंगे,


बूट पतलून कोट कामफट टोपि डटी,


जाकट की पाकट में वाच लटकावेंगे।


घमेंगे घमंडी बन रंडी का पकड़ हाथ,


पिएंगे बरंडी मीट होटल में खावेंगे।


फारसी की छार सी उड़ाय अँगरेजी पढ़ि,


मानो देवनागरी का नाम ही मिटावेंगे।


भारतेंदु-मंडल के समग्र रचनाकार नवजागरण के संदेशवाहक थे। इस युग के आदर्श नायकों में राम, कृष्ण, अर्जुन आदि पुरुष थे, तो सीता, सावित्री, द्रौपदी, ललिता, राधिका, गोपिका आदि नायिकाएँ आदर्श थीं। इसके साथ-हीसाथ नाट्य साहित्य में स्वच्छंद प्रणय की एक क्षीण धारा क्रमशः वेगवती होती जा रही थी। लेकिन, मूल्यों के प्रति समर्पण भाव का ही भारतेंदु युग में बाहुल्य था। पंडित राधा धरण गोस्वामी का ऐतिहासिक नाटक सती चंद्रावली महत्त्वपूर्ण है। यहाँ शाहजादा के ..से बचने हेतु चंद्रावली अग्नि में भस्म होकर धर्म-रक्षा करती है। भारतेंदु युग ही आदर्श था। बाद में द्विवेदी और प्रसाद युग में इसमें थोड़ा-बहुत परिवर्तन दिखाई देगा।


सन् 1900 ई. में हिन्दी को कचहरियों में स्थान मिल गया। सन् 1905 ई. में बंग-विच्छेद के विरोध में स्वदेशी आन्दोलन छिड़ गया। इसकी बहुत बड़ी देन है, हिन्दी-साहित्य और प्राचीन संस्कृति के पुनरुत्थान की भावना। फलस्वरूप, मैथिलीशरण गुप्त 'भारत-भारती' का प्रणयन करके उज्ज्वल अतीत के जीवन-मूल्यों से प्रेरणा लेने सिंह-गर्जना-की


'उन पूर्वजों के शील की शिक्षा-तरंगों में बहो।' ....


वे मोह-बंधनमुक्त थे, स्वच्छंद थे, स्वाधीन थे,


संपूर्ण सुखसंयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे


तन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे।'


उनके 'साकेत' मे राम का अवतार, भारतीय जीवन-मूल्यों की रक्षा और उत्कर्ष के लिए ही कीर्त्तित है। उनका राम लोक में आलौकिक आदर्श स्थापित करने नर को नारायण और मूल्यों को स्थापित कर भूतल को स्वर्ग बनाने के लिए ही जन्म ग्रहण करता है :


में मनुष्यत्व का नाट्य खेलने आया।


मैं यहाँ एक अवलम्ब छोड़ने आया..


भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,


नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।


संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग से लाया


इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।


इस महाकाव्य में उर्मिला के इस उद्गार ने उसके विरह-विषाद ने कितना त्यागमय बना दिया है? वह लक्ष्मण से इतना ही कहती है :


'तुम व्रती रहो। मैं सती रहूँ।"


यशोधरा की उद्भावना कितनी सटीक है,


'आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा अब है मेरी बारी।'


यदि गौतम चुपके से न जाकर यशोधरा से अनुमति लेकर जाते तो उस परित्यक्ता गृहिणी को अपने पति को जन-कल्याण के मार्ग के अनुसंधान हेतु विदा करने का गौरव प्राप्त होता


देती उन्हें विदा मैं गाकर,


भार झेलती गौरव पाकर,


पहुँचाती मैं उन्हें सजाकर,


गये स्वयं वे मुझे लजाकर।


पति वियोगिनी यशोधरा हर हाल में खुशहाल रहकर पति की सिद्धि और सफलता की कामना करती :


"जायँ, सिद्धि पावें वे सुख से,


दुःखी न हों इस जन के दुःख से,


उपालम्भ हूँ मैं किस मुख से!


आज अधिक वे भाते!


सखि, वे मुझसे कहकर जाते।"


'वक-संहार' में गुप्तजी ने परोपकारार्थ आत्मोत्सर्ग की उदात्त भावना को निरूपित किया है-बलि दो मुझे माँ, जन्म मेरा हो सुफल। (वक-संहार, पृ. 36), 'अनघ' में मनुजत्व पर अत्याचार के विरोध को दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करते हैं।


'उत्पीड़न अन्याय कहीं हो। दृढ़ता सहित विरोध करो।' यही नहीं उसका नायक मघ सेवा को ही चरम लक्ष्य समझता है


'मुझे है इष्ट जन-सेवा। सदा सच्ची भुवन-सेवा। (पृ.-95) 'मंगल-घट' में गुप्तजी ने अपनी मूल्य निष्ठा का परिचय देते हुए मनुष्यता के महत्त्व पर व्यापक प्रकाश डाला है। तदनुसार जो व्यक्ति जितना ही अधिक धर्मनिष्ठ होगा, वह उतना ही सफल होगा-'


"जहाँ लोक सेवा महाधर्म है। जहाँ कामना छोड़कर ही कर्म है। जहाँ ज्ञान है, कर्म है, भक्ति है। भरी जीव में ईश्वरीय शक्ति है। जहाँ मुक्ति में मुक्ति का धाम है। जहाँ मृत्यु के बाद भी नाम है।" 'गुरुकुल' का बंदा-वैरागी मानवमात्र में निहित मनुष्यता की भावना को सर्वोपरि मानता है और चंडीदास की उक्ति 'सवार उपरि मानुष सत्य' को चरितार्थ करता है


हिन्दू हो या मुसलमान हो।


नीच रहेगा फिर भी नीच,


मनुष्यत्व सबके ऊपर है।


मान्य महीमंडल के बीच।


गौरांग महाप्रभु की सहधर्मिणी विष्णुप्रिया के जीवन का यह सत्य कि 'सहने के ही लिए बनी है, सह तू दुखिया नारी', भारतीय नारी समाज की सहिष्णुता का द्योतक है। बीसवीं शताब्दी के प्रतिभावान कवियों ने जीवन मूल्यों को परीक्षित करके देश के सामान्य जनों के संवेदनों से जोड़कर उन्हें और मूल्यवान तथा सार्थक बना दिया है। इस प्रकार प्राचीन मूल्यों और नवीन दृष्टियों में सेतु स्थापित कर रची गई महत्त्वपूर्ण काव्य-कृतियों में यशोधरा, साकेत, पंचवटी, प्रिय प्रवास, कामायनी, राम की शक्ति-पूजा, उर्मिला, कृष्णायण, पथिक तथा स्वप्न आदि ने कीर्तिमान स्थापित किये।


आधुनिक हिन्दी काव्यधारा में जीवनमूल्यों का जो निरूपण हुआ, उसका मूलस्रोत अतिशय समृद्ध संत एवं भक्ति-साहित्य है। उन संतों और भक्तों ने अद्वैत ब्रह्म की ओर इंगित किया, जो एकात्म मानववाद का केंद्र बिंदु है। उनके अनुसार मन, वचन और कर्म मैं संयम का पालन करना चाहिए। सदाचार, सद्व्यवहार, सत्कर्म, सवचन मानव को उदात्त बनाते हैं। भक्तिकाव्य राम और कृष्ण के उच्चतर जीवन-मूल्यों के अनुसरण और प्रतिष्ठा में संलग्न रहा है। उनके अनुसार जब विधाता एक है तो राम-रहीम में अंतर कैसा? इस प्रकार, आधुनिक हिन्दी-साहित्य प्रेरणा का स्रोत हैभक्त कवियों द्वारा प्रतिपादित एक जीवंत संस्कृति तुलसीकृत रामचरित मानस से जो शील-शक्ति-सौंदर्यमयी मंदाकिनी लोकमंगल, अलौलिक आनंद और शाश्वत शांति का संदेश प्रदान कर आधुनिक कवियों को भी अभिभूत कर दिया। साकेत, वैदेही वनवास आदि में वे जीवन-मूल्य पुनः उद्घाटित हुए हैं। छायावादी युग में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के वास्तविक तत्त्व करुणा, प्रेम, उदारता, सत्य, क्षमा, दया, सेवा, साहस, शौर्य, विजय-भावना आदि के संधान का प्रयास किया, जो भारतीय संस्कृति की महत्ता तथा वैदिक जीवन-मूल्यों को स्थापित करने वाले हैं। भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी ने 'पुष्प की अभिलाषा' के बहाने समर्पणशीलता के आदर्शभूत मूल्यों को बड़ी मार्मिकता से व्यक्त किया है।


मुझे तोड़ लेना वनमाली। उस पथ पर तुम देना फेंक।


मातृभूमि पर शीश चढ़ाने। जिस पथ जावें वीर अनेक।।


उनमें अपार भावुकता है और वे कट्टर राष्ट्रवादी हैं। अपनी वाणी तथा क्रिया में सामंजस्य रखनेवाले और मूल्यों के प्रति समर्पित कवि हैं। महादेवी वर्मा के काव्य में ममता, करुणा, प्रेम कर्तव्यनिष्ठा, अहिंसा, परोपकार, संतोष, उदारता, आत्मीयता, शालीनता, कोमलता आदि चारित्रिक गुणों को मानव में ही नहीं मानवेतर प्राणियों में भी पाये जाने का लालित्यपूर्ण चित्रण मिलता है। उनका हृदय भारतीय दर्शन से अत्याधिक प्रभावित होने के कारण उनकी रचनाओं पर भी उनका स्पष्ट प्रभाव है। वेदांत के अनुसार जीवन को वे क्षणभंगुर समझती हैं


विकसते मुरझाने को फूल। उदय होता छिपने को चंद


शून्य होने को भरते मेघ। दीप जलता होने को मंद,


यहाँ किसका अनंत यौवन? अरे अस्थिर छोटे जीवन!


कवयित्री ने खंड में अखंड और सीमित में असीम को समझने की चेष्टा की है। वह अनंत ब्रह्म तब तक प्राप्तव्य नहीं माना जा सकता जबतक अंतर और बाहर का परिवेश शांत न हो


विश्व में वह कौन सीमाहीन है। हो न जिसका खोज सीमा में मिला?


क्यों रहोगे क्षुद्र प्राणों में नहीं। क्या तुम्ही सर्वेश एक महान् हो?


दुःख के पद छू बहते झर-झर। कण-कण से आँसू के निर्झर हो उठता जीवन मृदु उर्वर।


महाकवि निराला ने अपने काव्य में प्राचीन संस्कृति की गौरव गरिमा की व्याख्या करते हुए, विवेक, संयम, परदुःखकातरता, मर्यादा, शिष्टाचार, अनाचार का दमन, मानव-कल्याण, पुरुषार्थ एवं त्याग-भावना तथा सूक्ष्म सौंदर्य दृष्टि का संबल लेकर जिस उत्कृष्ट काव्य का सृजन किया है, वह वैदिक महनीय जीवन मूल्यों और आधुनिकता के औचित्यपरायण व्यवहार के सम्मिश्रण एवं संप्रेषण से सामान्य मानव को सुसंस्कृत और समाज को समृद्ध एवं सशक्त बनाने में सक्षम है।


सन् 1922 ई. में 'निराला' जी 'समन्वय' के संपादक नियुक्त हुए। वहाँ पर उन्हें रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की अद्वैतवादी स्थापनाओं के अध्ययन का विशेष अवसर प्राप्त हुआ। इसी समय से दर्शन ने अनेक जीवन में इस प्रकार घर कर लिया कि वे फिर आजीवन उससे प्रभावित रहे। उनकी शृगारिक रचनाओं में भी दर्शन का प्रभाव अनुस्यूत रहा। निराला जी की 'जागो फिर एक बार' शीर्षक कविता यद्यपि राष्ट्रीय उद्बोधन गीत है, फिर भी इसमें जीवन के ब्रह्मत्व का स्मरण दिलाकर कवि ने अद्वैत दर्शन की स्थापना की है:


"तुम हो महान, तुम हो महान।


हे नश्वर यह दीन भाव,


कायरता, काम परता। ब्रह्म हो तुम


पद-रज भर भी रे नहीं पूरा यह विश्व भार-जागो फिर बार।" 


'तुम और मैं' शीर्षक रचना में जीवन और ब्रह्म का अन्योन्याश्रित संबंध भक्तिभावना के समग्र उन्मेव के साथ कवि ने संस्थापित किया हैइसमें कवि का भावुक-हृदय दर्शन के साथ बड़े ही भावमय रूप से संबद्ध हो गया है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:


"तुम चित्रकार, घन पटल श्याम।


में तड़ित तूलिका रचना।


तुम रण-तांडव-उन्माद नृत्य।


मैं मुखर मधुर नूपूर-ध्वनि,


तुम नाद-वेद ओंकर सार।


मैं कवि श्रृंगार शिरोमणि।


तुम यश हो मैं हूँ प्राप्ति।


तुम कुंद-इंदु-अरविंद-शुभ्र


तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।"


इन पंक्तियों में कवि ने विशिष्टाद्वैत दर्शन की सुंदर प्रतिष्ठा की है।


अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास को विकृत कर आर्यों को आक्रामक रूप में जो घोषित किया था, उसका महाकवि प्रसाद ने अपनी प्रखर लेखनी से निराकरण किया :


'हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं।' भारतीयों ने जगद्गुरु के रूप में संसार को ज्ञान की दीक्षा दी और सत्य, धर्म, शील एवं शांति का उपदेश दिया था :


"हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद।


विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही,


धरा की रही, धरा पर धूम।


भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम।


यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।


मिला था स्वर्णभूमि को रत्नशील की सिंहल को भी सृष्टि।"


वैदिक जीवन-मूल्यों के संदर्भ में ही महाकवि प्रसाद आचार और विचार की एकता के द्वारा आज हासोन्मुख जीवनमूल्यों के युग में ज्ञान, इच्छा और क्रिया की समरसता पर बल देते हैं :


"ज्ञान भिन्न कुछ क्रिया भिन्न है,


इच्छा क्यों पूरी हो मन की,


एक दूसरे से मिल न सके,


यह विडंबना है जीवन की।" 


प्रगतिशील राष्ट्रीयता तथा भौतिकता एवं आध्यात्मिकता के सेतु कविवर पंत युगधर्म के अनुकूल मूल्यों का निर्धारण कर नवयुग का निर्माण और आस्था का संचार करना चाहते थे:


जग-जीवन में उल्लास मुझे। नव आशा, नव उल्लास मुझे। वस्तुतः भारतेंदु और द्विवेदी युग की सांस्कृतिक चेतना छायावादी युग में और भी सूक्ष्म और संश्लिष्ट रूप में प्रस्फुटित हुई। अरविंद और विवेकानंद के साथ गाँधी का प्रभाव उनके स्वर को यथार्थवादी और लोकोन्मुखी बनाता रहा। ऐसे राष्ट्रीय कवियों में दिनकर सोहनलाल द्विवेदी, नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, भवानी प्रसाद मिश्र की कृतियॉ अमर हैं। अँगरेजी शासकों के अतिरिक्त उनके द्वारा पोषित उनके प्रतिनिधि देशी शोषकों के शोषण से भी लड़ाई चल रही थी। प्रगतिशील राष्ट्रीय कवियों में यह स्वर अधिक उभरकर सामने आया और न कवियों को छायावादी आकाश से उतारकर जनजीवन से जोड़ दिया। दिनकर के समकक्ष नवीन आदि में समाज निर्माण के ऐसे क्रांतिकारी भाव मचल उठे :



"उठो, उठो ओ नंगो भूखो। ओ मजदूर किसान उठो। इस गतिमय मानव समूह के। ओ प्रंचड अभिमान उठो।.."


दिनकर की सृजन-भावना की पृष्ठभूमि में गहरे वैदिक चिंतनदर्शन का अधिष्ठान है। साथ ही रामायण, महाभारत एवं पौराणिक जीवन मूल्यों का भी सन्निवेष है। उन्होंने अपने काव्य में गरिमामय अतीत और उसके संस्कारों का वर्णन करके देशवासियों में राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना का संचार किया है। उनके काव्य में युद्ध- दर्शन का स्वर अधिक मुखर है। प्रारंभिक कविताओं में भले ही उन्होंने विषमताओं के विनाश के लिए क्रांति की अराधना की हो, किन्तु उन्हें, रूस का साम्यवाद और अमेरिका का साम्राज्यवाद भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था के समक्ष महत्त्वहीन ही लगते रहे हैं। कवि ने, वैदिक मान्यताओं के अनुरूप जाति-भेद और रंग-भेद को कभी महत्त्व नहीं दिया। शांति के संदेश में भोग की अपेक्षा त्याग को ही लक्ष्य बनाया है। वह मातृत्व को भारतीय नारी की सर्वाधिक बलवती चाह मानकर 'रसवंती', 'रश्मिरथी', 'उर्वशी', 'औशीनरी' आदि का प्रणयन करता है। वैदिक सभ्यता के अंग रूप मित्रता को मानकर कर्ण को उसका आदर्श मानता है। गुरुभक्ति की मर्यादा का सर्वत्र निर्वाह करता है। ईश्वर के प्रति आस्था तथा अपने कर्त्तव्य-पालन को महत्त्व प्रदान करता है। कवि 'कुरुक्षेत्र' में भीष्म द्वारा भाग्यवाद के प्रति घृणा व्यक्त कराते हुए उसे पाप का आवरण बताकर कर्म को प्राधानता देता है। देश स्वतंत्र होने के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीयता का समर्थक बन जाता है। हिमालय से उसे क्रांति की नहीं, शांति की चाह है। भारत से त्याग और विराग की आकांक्षा है। वह ईर्ष्या, स्पर्धा और पारस्परिक अविश्वास के स्थान पर धर्म और श्रद्धा को महत्त्व देता है। मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु भारतीय जीवन मूल्यों को वरीयता प्रदान करता है


"भारत एक स्वप्न, भू को ऊपर ले जानेवाला,


भारत एक विचार, स्वर्ग को भू पर लानेवाला।


भारत है संज्ञा विराग की, उज्ज्वल आत्म उदय की,


भारत है आभा मनुष्य की, सबसे बड़ी विजय की।" 


कैसी भी विषम परिस्थिति क्यों न हो? भारतीय जीवन-मूल्यों की कहीं भी वह अवहेलना नहीं करता है। उनकी वाणी में जाग्रत और सशक्त पौरुष का उच्चार है। उनका वास्तविक रूप 'रेणुका' और 'हुँकार' में दिखाई पड़ा था। 'हिमालय', 'नई दिल्ली', 'तांडव', 'दिगंबरी' 'हाहाकार', 'अनल किरीट' जैसी विशिष्ट कविताएँ हमलोगों को किशोरावस्था से ही झकझोरती रही हैं। वस्तुतः वे उमंग और मस्ती के कवि हैं। फिर भी सामाजिक मंगलाकांक्षा और जीवन मूल्यों के प्रतिष्ठाता हैं। प्रखर क्रांतिकारी है:


सच कहता हूँ कवे! तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति में


जैसे भारत का हुंकृत तेजोज्ज्वला स्वर है,


मेघमंद्र गर्जन है, राम-भीष्म पौरुष है,


और इंद्र द्वारा प्रदत्त अर्जुन का शर है।


हे युग-स्रष्टा! तुमने जो संकेत किये हैं,


वह निःस्वार्थ हृदय की विशुद्धता का फल है,


किसी महाकवि के झुलसे अंतर की ध्वनि है,


किसी विकल योद्धा का उद्धत क्रोधानल है।


प्रतीक्षा परशुराम से लगा, युधिष्ठिर 'कुरुक्षेत्र' का


आज्ञा देता हो, अर्जुन टुक शस्त्र सँभालो


जिनने अभी तुम्हारे सुत को छल से मारा,


उनके सारे कुटुंबियों के शीश उड़ा लो।


भारतीय जीवन-मूल्यों एवं गाँधी-दर्शन के प्रवक्ता राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी की रचनाधर्मिता में भारत-भक्ति, निष्काम-सेवा, त्याग, बलिदान और सद्भावना का चरमोत्कर्ष है। नेताओं के जीवन में मूल्यों के पतन से उन्हें घोर क्षोभ है, उन्हें वे आत्मचिंतन के लिए ललकारते हैं :


"ओ गणतंत्र मनाने वालो ओ जनतंत्र गीत के गायक,


स्वयं सुधारो तुम अपने को। ओ सुधारवादी नेता!


कथनी और-और करनी है। आज रहे तुम किस लायक?"


आधुनिक हिन्दी काव्य के उत्कर्षकालीन कवियों में बिहार का भी बहुत बड़ा योगदान है। यहाँ के कवियों में मोहन लाल महतो वियोगी, जानकीवल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, मनोरंजन प्रसाद सिंह, राम दयाल पांडेय, प्रो. केसरी, गोपाल सिंह नेपाली तथा जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें आरसी बाबू यद्यपि उद्दाम सौंदर्य के प्रमुख कवि रहे हैं, फिर भी 'नंददास' आदि रचनाओं में वैदिक दर्शन का बिंब अरविंद-दर्शन के आलोक में प्रतिबिंबित होते देख सकते हैं। आरंम्भ में 'अंजलि' शीर्षक से कवि ने श्री अरविंद का स्तवन किया है।


"देख रहा हूँ प्रखर ज्योति जो उतर रही है


दिव्य स्वर्ग से, जो भूतल पर बिखर रही है"


वस्तुतः उनका 'नंददास' काव्य के अतिरिक्त विशिष्ट वेदांतजीवन दर्शन का प्रतीक भी है। श्री विठ्ठलनाथ ने कवि नंददास को अपने आध्यात्मिक उपदेश द्वारा जो प्राणाहुति दी, उससे उसकी चेतना का क्रमशः ऊर्ध्वारोहण होता चला गया।


"जड़-चेतन की ग्रंथि पड़ी है मूढ़ हृदय में।


पर, ज्यों ही यह ग्रंथि टूटती ज्ञानोदय में।


पृथक-पृथक क्या जड़ या चेतन रह जाते हैं।


जड़ भी ज्ञान-ज्योति में चेतन बन जाते हैं।"


(नंददास, पृ. : 56)


वस्तुतः इस प्रतीक-काव्य के माध्यम से कवि ने जड़ के चेतन में रूपांतरित होने के दार्शनिक सिद्धांत का काव्यमय वर्णन किया है:


"वही एक आनंद-सघन रस केवल रमता।


जैसे तिल में तैल दूध में घृत है रहता।


जब आत्मा के सिवा किसी का स्फुरण न आया।


तब समझो कुछ हाथ लगा है, कुछ है पाया।"


आधुनिक हिन्दी काव्य के उत्कर्षकालीन (अर्थात् द्विवेदी युग, छायावादी और प्रगतिवादी युगों के) युगांतरकारी कवियों में जीवनमूल्यों का वैसा ही महत्त्व है, जिस प्रकार पुष्पों में सुगंधि और सौंदर्य, देह में प्राण तथा उत्तम पुरुष और उत्तम नारी में शील अंतर्निहित हो!