भारतीय भाषाओं में आपसी समन्वय जरुरी

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित हिन्दी प्रेमियों के एक सम्मेलन में 29 दिसम्बर 1905 को बाल गंगाधर तिलक ने यह घोषणा की थी कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है और यह घोषणा तब की थी जब सरकारी कार्यालयों में देवनागरी लिपि के प्रवेश मात्र के लिए किया गया आन्दोलन सफल हुआ था और कचहरियों तथा दफतरों में हिन्दी में प्रार्थना-पत्र देने की स्वीकृति भर सरकार ने प्रदान की थी। उस युग के नेता चाहे किसी विचारधारा के रहे हो, हिन्दी के पोषक और हृदय से समर्थक थे। संपूर्ण देश हिन्दी के प्रति समर्पित था। नतीजे के तौर पर हिन्दी सर्वसम्मति से भारत की राजभाषा बनी।



यूँ तो हिन्दी की प्रतिक्षा के लिए सरकार, जनता और संस्थानों द्वारा अनेक ठोस कार्य किए गए, किन्तु जो कर्तव्य भाव हिन्दी के प्रति उस युग में था, वह लगातार क्षीण होता गया और हिन्दी को भारत के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की वाणी के रूप में नहीं, बल्कि उसे व्यवहार की भाषा के रूप में दर्जा मिलने लगा। साथ ही उसे वोट की विभेदक राजनीति का भी शिकार होना पड़ा। अफसोस तो इस बात का है कि आज कोई भी दल या राजनेता ऐसी स्थिति में नहीं है, जैसी स्थिति में इस संबंध में महात्मा गाँधी, तिलक, मालवीय और कांग्रेस उस समय थी। यह भी कि भाषा के प्रश्न पर किया गया समझौता स्वदेशी के उस भाव का तिरस्कार है, जिसके जागरण ने देश को आजादी दिलाई। विश्व प्रेम के लिए सदैव खिड़की और दरवाजा खुला रहना चाहिए, यह तो ठीक है। लेकिन निजत्व का विनाश कर परतत्व को ग्रहण कर उसके रंग में रंजित होना अनकति और स्वाँग है। हिन्दी के साथ यही हुआ और हम भल गए कि मौलिकता व्यक्तित्व और समाज के विकास की जीवनी-शक्ति है। मौलिकता जीवन के विवेक का प्रवाह है और अनुकृति तालाब का पानी। मौलिकता प्रगति का प्रतीक है और अनुकृति भोगाकुल जड़ता की निशानी।


कहने की जरुरत नहीं कि भाषा का संबंध संस्कृति और संस्कारों से है। हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है। इसकी सहायता से पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक लोग आपस में विचार-विनिमय करते रहे हैं। भारत की सभी भाषाएँ हिन्दी की बहनें हैं। आज आवश्यकता है कि हम हिन्दी तथा सभी भारतीय भाषाओं की प्रगति तथा तालमेल के लिए प्रयत्नशील रहें। लेकिन पीड़ादायक तथ्य यह है कि पाश्चात्य सभ्यता के अंधे मोहजाल ने हमें न केवल लोक-संस्कृति एवं परंपराओं से बेमुख किया है, बल्कि भाषा के क्षेत्र में भी हमें छला है। अंग्रेजी के कुचक्र में उलझकर हम भारतीय भाषाओं की उपेक्षा को सहन करने के आदी हो गए हैं। जबकि समस्त भारतीय भाषाओं में भारतीय आत्मा छिपी हुई है, अस्मिता छिपी हुई है, स्वाभिमान और गौरव छुपा हुआ है। दुःख इस बात का भी है कि आज भी हमारे देश में विदेशी भाषा का, विदेशी फैशन का, विदेशी तौर का और विदेशी सोच का वर्चस्व बना हुआ है। इससे हमारे संस्कार दूषित हो रहे हैं और हमारी भाषाएँ उपेक्षित हो रही हैं। यही कारण है कि आज भी हमारी मानसिक गुलामी बनी हुई है और हम हीन भावना से ग्रस्त हैं। आज फिर आवश्यकता है भाषायी स्वाभिमान जगाने की, अपनी संस्कृति से जुड़ने की और भारतीय परिवेश तथा वातावरण में पली हुई प्रतिभा की प्रतिष्ठा की।


आँसुओं और मुस्कान की अलग- अलग भाषा नहीं होती। इनके सामने भाषा की दीवारें नगण्य हैं। इनका जादू हृदय की गहराई तक पहुँचता है। जहाँ हृदय जुड़ते हैं, वहाँ न भाषा की दीवार है और न जाति-वर्ग या सम्प्रदाय की। वहाँ न क्षेत्र है न प्रदेश है। वहाँ है तो केवल मानव संवेदनाएँ। अतः हमें भाषा, संस्कृति, साहित्य धर्म, कर्म, कला और दर्शन का महत्व इन्हीं मानवीय मूल्यों, उच्च आदर्शो और निष्ठापूरक आस्थाओं के संदर्भ में समझना है। पारस्परिक सद्भाव और भावनात्मक एकता की सुनहरी रेखा पहचानना अपनत्व की भावना को बढ़ावा देना है, अपनी उस संस्कृति का पोषण करना है, जिसमें इस देश की माटी की महक हो। 


जगजाहिर है कि हमारे देश में विभिन्न बोलियों, भाषाओं, जातियों, वर्गों और संप्रदायों में आस्था रखने वाले लोग सदियों से आपस में मिल-जुलकर समर्पित भाव से देश की सेवा करते आ रहे हैं। पारस्परिक समन्वय की सही भावना भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विशेषता है। बोली भाषा का मामला हो या कार्य-व्यवहार का, हममें अपना छोड़कर पराए के प्रति लगाव बढ़ रहा है। एक समय था जब देश की आजादी के लिए एकजुट होकर सब कुछ दाँव पर लगाने को हमारे नेताओं, समाज सुधारकों कवियों, लेखकों पत्रकारों तथा दार्शनिकों ने स्वभाषा, स्वदेशी और स्वराज्य के लिए क्या कुछ नहीं किया। लेकिन जब हम आजाद हुए तो कहीं भाषा की दीवारें, कहीं जाति के बंधन, कहीं संप्रदायों की विविधता और कहीं संकुचित क्षेत्रीय आस्था पनपने लगी। इस स्थिति ने देश को ऐसे चौराहे पर खड़ा कर दिया है, जहाँ हमें अपनी पहचान करनी है और अपनी सोच को नया स्वरूप देना है। गौरतलब है कि यदि अपनी भाषा के आधार पर हम चिंतन-मनन और अध्ययन करते तो ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि सभी क्षेत्रों में उसी प्रकार प्रथम रहते, जिस प्रकार हमने अहिंसा के द्वारा सत्याग्रह के माध्यम से संसार को परमाणु से भी अधिक शक्तिशाली लोकमंगल शस्त्र मानव मुक्ति के लिए दिया। जहाँ तक हिन्दी का काम सरकारी कार्यालयों, वित्तीय संस्थाओं, उपक्रमों आदि में बढ़ाने की बात है, वह निस्संदेह बड़ा है। पर यह मानने के लिए हमें तैयार रहना होगा कि हिन्दी के बारे में जो कुछ सरकार द्वारा सर्वसम्मति से तय हुआ, यह पूर्णतः कहीं भी कार्यान्वित नहीं हुआ है। क्या यह हमारी कमजोरी तथा हीनता का प्रतीक नहीं है। प्रजातंत्र में शासक जनता होती है और हमारी सरकार जनता की सेवक है। सेवक स्वामी की भाषा को न जाने, न पहचाने और उसमें काम न करे, इससे बड़ी विडंबना और विसंगति हमारे राष्ट्र की ऊर्जा के प्रति और क्या हो सकती है। संविधान में जिस मूल रूप में हिन्दी को मान्यता मिली है, उसको उस रूप में अंगीकार न कर अनुवाद की भाषा के रूप में उसका व्यापक उपयोग और प्रयोग भारत के मूल व्यक्तित्व के प्रति अपघात है। सरकारी कार्यालयों में हिन्दी प्रायः अनुवाद की भाषा है। अंग्रेजी की अनुगामिनी के रूप में वह व्यवहार में लाई जा रही है। क्या वह संवैधानिक कथनी के विलोम में करनी नहीं है। मूल का स्थान अनुवाद नहीं ले सकता। हिन्दी को निरंतर अनुवाद की भाषा बनाने की प्रक्रिया धान के खेत में केसर उगाने का प्रयत्न है और यह प्रयत्न हमें मानसिक रूप से जीर्ण कर रहा है। जहाँ एक ओर हम इस दुर्बलता से मुक्ति के लिए सोच रहे हैं, वहीं दूसरी और मौलिकता की आँख में अनुवाद की धूल हमें दृष्टिहीन बनाती जा रही है। 


की धूल हमें दृष्टिहीन बनाती जा रही है। हिन्दी की उपेक्षा देश की उपेक्षा है और प्रगति की भी अवहेलना है। जब तक हिन्दी माध्यम से काम नहीं किया जाएगा तब तक भारतीय प्रगति की मनोवांछित कहानी पूरी नहीं होगी। आज हिन्दी पर जो व्यय हो रहा है, वह एक औपचारिकता है। औपचारिकता हिन्दी की अस्मिता पर कच्ची कलई है, जो कभी भी ताप, शीत और बरसात में धूल हो सकती है। इस कलई को वे सब जानते, मानते और पहचानते हैं, जो हिन्दी के व्रत में लगे हैं। अतः जब तक हिन्दी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाकर उसे प्रतिष्ठित और उजागर करने के ईमानदार प्रयास नहीं किए जाएंगे, देश के व्यक्तित्व में नैसर्गिक सौन्दर्य और पुष्टि नहीं आएगी। इसके लिए आवश्यकता है श्रद्धा और विश्वास की।