भाषा ही हमें रचती और गढ़ती है

हिन्दी संघर्ष की भाषा है


हिन्दी इस देश के आमजन के संघर्ष और स्वप्न की भाषा है


हिन्दी भाषा एक सांस्कृतिक समूह की भाषा है


हिन्दी के अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकार हैं


बाजार और जीवन की भाषा है


सबकी निगाह में हिन्दी है, सब हिन्दी की ओर देख रहे हैं


हिन्दी के लिए गर्व की अनुभूति करें


हिन्दी के लिए गर्व की अनुभूति करें हिन्दी जिनकी बोली है, जिनके लिए लिखी जाती है, जिनके प्राण में बसती है उनके लिए क्या करते हैं ...यह महत्वपूर्ण है


हिन्दी को किसी से खतरा नहीं है - यहां सबसे बड़ी दिक्कत इस बात से होती है कि हिन्दी के नाम पर जो लोग हिन्दी की रोटी खाते हैं वहीं सुबह से शाम तक पानी पीकर हिन्दी को कोसते रहते हैं कि हिन्दी में ये नहीं है, ये नहीं है। उन्हें ये पता कर लेना चाहिए की हिन्दी में क्या है फिर हिन्दी की बात करें।


आज हिन्दी की सामर्थ्य को पहचानने की जरूरत है ....आज यह किसी की दया पर नहीं, किसी के सहारे पर नहीं, खुद अपनी विशेषता के कारण जीवित हैं।


आज स्थिति यह है कि हिन्दी का अपना बाजार है, यह बाजार किसी एक दो प्रांत में नहीं बल्कि पूरे देश में पसरा है। पूरे देश में इसकी गति और विस्तार है ...इस कारण हिन्दी को जाने अनजाने सभी को स्वीकार करना पड़ रहा है।


हिन्दी में एक सहज समावेशी समाहार की शक्ति है जिसके कारण वह सब तक अपनी पहुंच बना लेती है।


भाषा मां की घुट्टी से आती है। भाषा में ही एक आदमी जीवित होता है। एक जीवित स्पंदन को पढ़ने, जानने और सुनने के लिए आपको भाषा में आना पड़ता है। यह भाषा ही है जो बराबर आदमी को गढ़ती रहती है। भाषा को छोड़कर हम मनुष्य के बारे में कुछ सोच ही नहीं सकते। भाषा के बीच ही मनुष्य का समाज बनता है। सभ्यता और संस्कृति के सारे अवयव यहां तक कि संस्कृति जिसे समाज की आत्मा कहते हैं वह भी भाषा की एक सर्जना है।


भाषा हमें रचती है , गढ़ती है, बनाती और संस्कारित करती है। भाषा याला के निर्माण में दिन महीने साल नहीं शताब्दियों का संस्कार चलता रहता है यह एक शाश्वत और सतत प्रक्रिया के रूप में हमारे सामने होती है। भाषा इसीलिए एक जादू की तरह हमारे सामने होती है। हमसे हमारा ही राज खोलते हुए।


भाषा के राज में हम जो कुछ जीते हैं वहीं तो जीवन है, वहीं तो संस्कार और संस्कृति है


भाषा के भूलने का अर्थ


अपने आप को भूल जाना


अपनी हवाओं


दिशाओं को भूल जाना


और अंत में.....


अपने वजूद को भूल जाना


भाषा को दरअसल कोई भूलता नहीं। आदमी एक भाषा से दूसरी भाषा में निकलता है - गमन करता है और अपनी मूल भाषा को छोड़कर - सुविधा और संपर्क की भाषा, सत्ता की भाषा, बाजार की भाषा को ग्रहण करना चाहता है। संयोग से जो हिन्दी भाषा है वह एक साथ कई सारे कार्य व जीवन समूह को समाहारित करने की शक्तिशाली भाषा है।


हिन्दी बाजार की भाषा है


जनसंघर्ष और जीवन की भाषा है


सहज, सरल और जीवन संवेदन की भाषा है


हिन्दी जनसंघर्ष से स्वप्न निर्माण के जीवन संघर्ष की साक्षी भाषा है।


हिन्दी इस देश के व्यापक जनसमूह की न केवल पहली भाषा है, पहली से लेकर दूसरी, तीसरी और आखिरी भाषा भी है। दूसरी भाषा से अभिप्राय अपने से इतर अन्य से आमजन से संवाद की भाषा है।


हिन्दी एक तरह से तीसरी भाषा भी है - तीसरी भाषा कहने कहने से अभिप्राय यह है कि हिन्दी संवाद के साथ-साथ रोजगार और संपर्क की भाषा है। रोजगार के रास्ते बाजार से लेकर सत्ता तक जीवन के हर क्षेत्र में पहुंचने के लिए एक संपर्क भाषा के रूप में काम आती है। इसलिए भाषायी संवेदन में हिन्दी को खतरा उन लोगों से नहीं है जो हिन्दी को पहली भाषा मानते हैं बल्कि सबसे ज्यादा खतरा उन लोगों से है जो हिन्दी को पहली, दूसरी और तीसरी भाषा मानते हुए हिन्दी को अपना कुछ न देकर एक हीन ग्रंथि के शिकार बने घूमते रहते हैं ...आज सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि - हिन्दी को ऐसे हीनग्रंथि के शिकार लोगों से बचाया जायें। हिन्दी के प्रति यह कहना छोड़ दे कि हिन्दी में यह है यह नहीं है। हिन्दी में सब है। यह भाव गर्व के साथ स्वीकार करने की जरूरत है। आज सबसे बड़ी जरूरत यह है कि हिन्दी के मार्ग में जो अवरोध हैं उन्हें तोड़िये और आगे बढ़िये। ध्यान से देखे तो कुछ अवरोध यूं है....


1. हीनताग्रंथि


2. तकनीकी और मशीनीकरण के युग में तकनीकी भाव बोध के शब्द और अर्थ युग्म पर विचार की कमी।


3. रोजगार का अभाव।


4. उच्च शिक्षा और श्रेष्ठता भाव बोध के क्षेत्र में हिन्दी की स्वीकार्यता को शक्ति के साथ स्वीकार करने वालों की कमी


5. स्वयं हिन्दी सेवियों के मन में आत्मविश्वास की कमी देखने को मिलती


6. हिन्दी का आदमी जबतक एक पैराग्राफ अंग्रेजी न बोल ले उसे लगता ही नहीं की उसने कुछ बोला है। हिन्दी के सहज विकास में सबसे बड़ा रोड़ा उन छद्म बुद्धिजीवी का है जो खाते तो हिन्दी का हैं और गाते बजाते किसी और का हैं।


7. हिन्दी की सेवा हिन्दी के प्रति सहज प्रेम, सहज सम्मान और अंत में खुद के आत्मविश्वास से पाया जा सकता है।


8. हिन्दी के प्रति एक स्वाभाविक गर्व और सम्मान करते रहिए। हिन्दी लगातार अपनी गति और सामर्थ्य से विकास कर रही है।


9. हिन्दी को अपने घर में दुरस्त करिये


10. हिन्दी का परिवार बनाइये। पड़ोस, आसपास, मुहल्ला। इसी रास्ते हिन्दी बढ़ी है और आगे भी यहीं रास्ता है।


आज हिन्दी के सामने चाहे जो चुनौतियाँ हों - हिन्दी ने न केवल अपना मुकाम हासिल किया बल्कि हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवाया है। अपनी स्वीकार्यता से हिन्दी इस महादेश की सर्वसुलभ, सर्वस्वीकृत जीवंत भाषा है जिसमें प्राणों का स्पंदन होता रहता है। इस तरह हिन्दी प्रेम की, सत्ता की, स्वप्न की और जीवन संघर्ष की भाषा है।