भाषा के असावधान प्रयोग के कुछ प्रकीर्ण प्रसंग

समझ में नहीं आ रहा कि 'भाषा' को क्या कहा जाये - वस्तु, शक्ति या वस्तु एवं शक्ति का समन्वित स्वरूप। पर, भाषा होती बहुत विचित्र एवं विलक्षण है। सदुपयोग होने पर हँसाती हैं, तो दुरउपयोग होने पर रूलाती भी है एक व्यक्ति ने सपत्नीक हलवाई की दुकान पर रबड़ी खाई। रबड़ी छककर वह हलवाई से बोला, "तुम्हारी रबड़ी बहुत सुन्दर है।" "हलवाई बोला आपकी पत्नी बहुत स्वादिष्ट है।" पत्नी का प्रकरण ही पेंचीदा और मुलायम होता है। सो, मामला दोनों के बीच मारधाड़ तक पहुँचते-पहुँचते रह गया। बात या भाषा के महत्व को देखते हुए ही कहा गया है, 'बातहि' हाथी पाइये बातहिं हाथी पाँव एक राजा का हाथी था। हाथी राजा का था, सो जाहिर है, वह प्रजा की फसल खाने के लिए ही रहा होगा। राजा का यह हुक्म था कि जिसके खेत में वह सुबह को पाया जायें, वह गजराज की खैर की खबर तत्काल राजा को दे। हाँ, कोई भी उसकी मृत्यु की खबर न दें, अन्यथा उसकी खैरियत नहीं। मृत्यु की सूचना देने वाले को मृत्यु दण्ड दिया जायेगा और सूचना न देने वाले को भी दण्ड दिया जायेगा। हाथी को तो कभी न कभी मरना ही था, सो एक रात यह एक खेत में मर ही गया। खेत वाले का बेटा बुद्धिमान था, उसने जाकर राजा से कहा, "हे प्रजा के पालन हार। राजन श्रेष्ठ। इस समय आपका गजराज मेरे खेत में विद्यमान है। पर, वह न चल-फिर रहा है, न खा- पी रहा है, न हिल-डुल रहा है और न साँस ही ले रहा है। राजा रहस्य को समझ गया। उसने लड़के के वाक-चातुर्थ पर रीझकर उसे अपना मंत्री बना लिया। अब एक बेवकूफ बेटे द्वारा किए गये भाषा के असावधान प्रयोग को देखें-किसी के पुत्र की अकाल मृत्यु पर संवेदना व्यक्त करने पहुँचे एक कपूत ने शौक व्यक्त करते हुए मृतक के पिता से कहा, "अंकल। डैड तो इस समय आउट हैं, इसलिए इस अवसर पर मुझे ही आना पड़ा। पर, जब आपका दूसरा लड़का मरेगा, तो डैड ही आयेंगें। "इसकी जो दुर्गति हुई होगी, समझा जा सकता है।"



भाषा विशेषज्ञ हर शब्द को ही ऐसे प्रयुक्त करता है, जैसे जौहरी अंगूठी में हीरे को जड़ता है। हर शब्द का ही अपना एक ऐसा मूल्य होता है, जैसे हर अंक का हुआ करता है। उदाहरण के लिए 2345 की संख्या में 2 का मूल्य दो हजार है 3 का मूल्य तीन सौ है, 4 का मूल्य चालीस है, जबकि 5 का मूल्य मात्र पाँच है। अंक 2 देखने में छोटा और अंक 5 देखने में बड़ा है, पर प्रयोग की दृष्टि से 2 का अंक 5 के अंक की तुलना में हजार गुणा बड़ा है। साहित्यिक और मुहावरे द्वारा भाषा में कभी-कभी शब्दों या मुहावरों में हल्केपन से या ऊपर से देखने में कोई अंतर नहीं लगता। पर, गंभीर विवेचन करने पर उनमें आकाश-पाताल सा अंतर दिखाई पड़ता है। उदाहरणार्थ, 'पीछे पड़ना' में बहुत अंतर है। 'पीछे लगना' का अर्थ होता है अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी के पीछे-पीछे डोलते रहना, जबकि 'पीछे पड़ना' का तात्पर्य होता है, किसी कार्य के लिए किसी से लगातार आग्रह करते रहना।


'किनारे लगना'-'लगाना' और 'किनारा करना' मुहावरों का प्रयोग मरने-मारने के लिए किया जाता है। पर, अज्ञानतावश लोग बाग इसका गलत प्रयोग भी कर बैठते हैं। एक बार मेरे एक परिचित, बस स्टाप पर रूकती इससे पूर्व ही गेट की और बढ़ने लगे। मैंने कहा, "अभी तो स्टाप दूर है।" इस पर वे किनारे पहुँचने के लिए बोले, “अरे भाई। भीड़ है, पहले से ही किनारे लग लें।" भाषा-प्रयोग के समय प्रयोक्ता को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सामने वाले का भाषात्मक स्तर कैसा है। किसी व्यक्ति की जमीन उसके शत्रुओं के बीच में फंसी हुई थी, जो अपना दवाब बनाकर उसे आधे-परधे मूल्य पर खरीदना चाहते थे। पर वह उन्हें किसी भी मूल्य पर जमीन नहीं बेचना चाहता था। इस पर उसने अपने एक दबंग संबंधी से जमीन खरीदने के लिए सविनय निवेदन किया। उन्होंने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। मोल-भाव पूरा-पक्का होने पर उस व्यक्ति ने कृतज्ञताज्ञापन स्वरूप कहा, “आज मैं हल्का अनुभव कर रहा हूँ। मैंने अपने सिर का वजन आपके सिर पर रख दिया है।" बस, उसकी यह साहित्यिक भाषाई प्रयोग ही उसके लिए अहितकर सिद्ध हुआ। अगला वास्तव में अपने सिर पर बोझ महसूस करने लगा और बोला, "भई। हमने आपकी जमीन का सौदा तो तय कर लिया हैं, पर पैसे रजिस्ट्री के एक साल बाद ही मिल सकेंगे। इस समय हमारे पास पैसा नहीं है।" यदि आप साहित्यिक या परिनिष्ठित भाषा का प्रयोग किसी अनपढ़ के समक्ष करेंगे, तो अपका यह प्रयोग भैंस के आगे बीन बजाना जैसा सिद्ध होगा। कभी-कभी भाषा का अच्छा-खासा ज्ञान रखने वाले लोग भ्रम वश या लापरवाही वश शब्दों का गलत प्रयोग कर बैठते हैं। एक बार एक इण्टर कालेज का प्रबन्धक, जो इसी कालेज का पूर्व प्रधानाचार्य था, ने अभिभावकों का सम्मेलन संपन्न कराया। उसमें वह प्रबधक जागरूक शब्द के लिए तीन बार 'जागरूप' (शायद जागे हुए रूप से अर्थ में) शब्द बोला। इसी प्रकार इसी कालेज में प्रथम बार जब 'संचयिका' दिवस मनाया गया तब अध्यापकों, प्रधानाचार्य और प्रबंधक सभी ने संचयिका को हास्यास्पद स्तर तक 'संचायिका' ही कहा। मुहावरों एवं कहावतों के बारे में एक बार पुनः बता दें कि इनके प्रयोग में एक मात्रा की घटा-बढ़ी आकाश-पाताल के अन्तर जैसा भावान्तर पैदा कर देती है उदाहरणार्थ 'आँख दिखाना' का अर्थ बरूखी दिखाना है, जबकि 'आँखें दिखाना' का अभिधार्थ डॉक्टर आदि को आँखें दिखाने से है।


मुहावरों और कहावतों का प्रयोग करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए-इस मोबाइली एज में युग और परिवेश बहुत तेजी से बदल रहा हैं। कुछ मुहावरों एवं सूक्तियों का प्रयोग विशेष संदर्भो में ही किया जाता है या किया जाता था, यह ध्यान में रखकर ही भाषाई व्यवहार करना चाहिए। उदाहरण के लिए आज 'आने' बंद हो गये हैं, तो 'सोलहो आने सच' का मुहावरा भी अप्रासंगिक हो गया है। इसी प्रकार मैट्रिक पैमाने और ग्राम के जमाने में नगण्य को 'रती भर' कहना भी सामयिक नहीं लगता। इसी प्रकार अब 'मील का पत्थर' भी खिसक रहा है, क्योंकि मील के स्थान पर अब किमी. चलने लगे है। जनाधिक्य के जमाने में 'दूधों नहाओं पूतों फलों' की कहावत भी अब उतनी सार्थक एवं उपयोगी नहीं रही है। मुहावरे या सुभाषित किसी भी क्षेत्र या देश की संस्कृति से घनिष्ठतः जुड़े हुए होता हैं। यह शायद सब नहीं जानते, इसलिए बहुत से लोग दूसरों का मैला अपने सिर पर ढ़ोते रहते म करने हैं। आसान काम को 'बायें हाथ का खेल' कहा जाता है। पर, यह 'बायें हाथ का खेल होना' मुहावरा हमारा नहीं, मुस्लिम देशों का है, जहाँ के लोग अमूमन बायें हाथ से ही कार्य करते हैं। भारत के नागस्कि अधिकांश दायें हाथ से काम करने वाले होते हैं, इसलिए भारत में सरल कार्य के लिए दायें हाथ का खेल होना कहना ही संगत होगा। देखिए संस्कृति लोक भाषा को कैसे प्रभावित करती है-प्रसंगवश किसी को याद कर रहें हों और तभी वह आ भी जाये, तो अपने भारत में ऐसे अवसरों को शुभ शकुन मान कर आगन्तुक से कहा जाता है कि 'उसकी आयु लम्बी होगी। वह हजारी उम्र होगा।' इसी अवसर के लिए अंग्रेजी किंवा ईसाई संस्कृति में यूँ कहा जाता है कि- 'काल ए डेविल, ऐण्ड ही इज देयर' किसी व्यक्ति को कार्य करने की प्रेरणा देने के लिए पश्चिम की मांसाहारी और शिश्नोदर पर टिकी संस्कृति में 'अपने खाने की मछली को आप पकड़ना पड़ता है' लोकोक्ति पैदा होती है, तो पाप-पुण्य और स्वर्ग-नर्क में विश्वास रखने वाली परमात्मपरावण भारतीय संस्कृति में इसी को इस प्रकार कहा जाता है- 'बिना स्वयं मरे स्वर्ग नहीं मिलता है।' हिंसक संस्कृति वाले जहाँ 'एक तीर से 2 शिकार' मुहावरे के द्वारा अपने भावों का प्रकाशन करते हैं, तो पथ (धर्म-पथ) एवं काज (पुण्य-कर्म) में विश्वास रखने वाले अहिंसावादी भारतीय (विशेषत हिन्दू) इसी तथ्य को 'एक पंथ दो काज' के द्वारा अभिव्यक्ति करते हैं।


भाषा का सर्वाधिक कबाड़ा नवज्ञानाढ्य वर्ग कर रहा है। यह वर्ग या तो नव धनाढ्य वर्ग से बना है या नव राजनीतिबाज वर्ग से। सांस्कृतिक दृष्टि से अति पिछड़ा यह वर्ग भाषा के क्षेत्र में जब सम्य व अभिजात वर्ग के कान काटना चाहता है, तभी भाषा का दुरूपयोग दृष्टिगत होता है। कहा भी गया है कि कौआ जब हंस की चाल चलने में ही प्रयासरत रहता है, तो अपनी चाल भी भूल जाता है। अंग्रेजी शब्दों में हिन्दी की यत्किंचित ध्वन्यात्मकता की अनुभूति होने मात्र से यह वर्ग अंग्रेजी के अनेक शब्दों का धड़ल्ले से दुरूपयोग करता आ रहा है। उदाहरण के लिए क्लैश (clash) के स्थान पर 'कलेश', मोबाइल (Mobile) के स्थान पर 'मुँहबाइल', रिटायर (retire) के स्थान पर 'लिटायर' (जब व्यक्ति बिल्कुल थक जाये और लेटकर आराम करने लायक हो), पैरोल के स्थान पर पैरबल, (जब व्यक्ति अपनी स्थाई जमानत कराने के लिए खुद थोड़े समय के लिए बाहर आकर (पैरोल पर) अपने पैरों के बल पर खड़ा हो सके) तथा सेटेलाइट (Satellite) के स्थान पर 'सिटीलाइट।' सेटेलाइट बस स्टैंड आदि पर चौबीसों घण्टे लाइट की इतनी चकाचौंध होती है, मानों संपूर्ण सिटी की लाइट वहीं आ गयी हो। आदि शब्दों का यह वर्ग आज बेझिझक प्रयोग कर रहा है। पहले के लोग शिक्षा-नौकरी आदि के लिए फॉर्म भरा करते थे। आज के युवा फार्म 'डाला' (फेंका) करते हैं। (शायद इसीलिए उन्हें शिक्षा और नौकरी मिलती भी नहीं हैं।)


सर्वधिक दुख तब होता है जब सरकार की किसी एजेंसी द्वारा व्यापक और आधिकारिक रूप से भाषा की छीछालेदर की जाती हैं। कभी-कभी तो इनके द्वारा संपूर्ण प्रदेश को सुनाये जाने वाले (दिखाये जाने वाले भी) अशुद्ध शब्दों को सुनकर, इनकी बुद्धि पर हँसी भी आया करती है और दया भी। लखनऊ दूरदर्शन पर दीर्घकाल से समाचार वाचते आ रहे एक स्थायी समाचार वाचक (नामोल्लेख नहीं करूँगा अन्यथा उन्हें अनेक प्रकार से क्षति पहुँचेगी) अस्थाई को हमेशा 'आइस्थाई' ही कहते हैं। उन्हें शायद यह भ्रम है कि परमानेंट की हिन्दी का उच्चारण इस्थाई (isthai) तथा ट्रेम्पोरेरी की हिन्दी का उच्चारण अस्थाई- आस्थाई (aasthae) होता है। उर्दू की एक हाउदा खबरों में इसी केन्द्र के वाचक और भी अधिक हास्यस्पद स्थिति पैदा कर देते हैं। हिन्दी का उर्दू में ऐसा अनुवाद करते हैं कि भाषा की आत्मा ही निकाल लेते हैं। एक ही उदाहरण देखें-गतातगत17.5.2007 को वाचिका ने उ.प्र. की 15वीं विधानसभा के अध्यक्ष के चुनाव के प्रसंग में बोलते हुए कहा, "जनाब सुखदेव राजभर यू.पी. की 15वीं असेंबली के स्पीकर के ओहदे के लिए तन्हाँ उम्मीदवार है।" तन्हाँ तो लाचार, बेजार बेसहारा, जिसका दुनियाँ में कोई नहीं होता, उसे कहते हैं। यहाँ तन्हाँ के लिए एक मात्र अकेले या एकाकी शब्द का सशक्त एवं सार्थक प्रयोग किया जा सकता था। ऐसे अनर्गल प्रयोग नित्य ही सामने आते हैं। फोर्स, सीनियर पावर, स्वीकार, असेंबली, काँसिल चैंनल, लीडर, प्रिंसिपल, सेकेटरी, सेक्योरिटी, पार्लियामेंटरी आदि सँकड़ों शब्दों के लिए अच्छे खासे और जाने-पहचाने हिन्दी शब्द है। पर, उर्दू की खबरों में उनसे चिढ़ की हद तक परहेज किया जाता है। इस हिन्दीघृणा की तब तो पराकाष्ठा, ही हो जाती हैं, जब उद्घोषक उ.प्र. नयी दिल्ली और आन्ध्रप्रदेश आदि को उर्दू कृत करके 'यू.पी.' 'न्यूडेल्ही' और 'आन्ध्रा' आदि कहता है। क्या उत्तर प्रदेश का उर्दू अनुवाद 'यू.पी.' है? भाषा किंवा अनुवाद का ऐसा दुर्पयोग तो यह दर्शाता है कि उर्दू वालों की जहनियत में हिन्दी के प्रति अति शत्रुता है। राष्ट्रभाषा और राज भाषा की कीमत पर दास बनाने वाली भाषा का प्रयोग राष्ट्रभक्ति का प्रतीक नहीं है। ऊपर से कोई हिन्दुस्तानी यह बहाना बनाये कि 'मेरी मातृभाषा हिन्दी नहीं यह है,' यह तो और भी खतरनाक व शर्मनाक हैं। विवाहहादि अवसरों पर मुझे मुस्लिम मित्रों से अंग्रेजी में छपे निमंत्रण पत्र तो मिले है, पर हिन्दी में छपा आज तक ऐसा कोई पत्र नहीं मिला। इसे आप क्या कहेंगे?


भविष्य में, 'आशा' नामक युवती ने 'जीवन' नामक युवक से ब्याह किया, को उर्दू-खबरों में कहीं यूँ न कहा जाये-"होप नाम की खातून ने 'लाइफ' नाम के मर्द से शादी की।"