द्रास युद्ध स्मारक: जहाँ भावनाएँ हिलोरें मारती हैं

कारगिल के समीप स्थित 'द्रास युद्ध स्मारक' से हम सब अवगत हैं। हम उस युग से सम्बन्ध रखते हैं जो 1999 में हुए कारगिल-युद्ध का साक्षी है। इस युद्ध में अनेक वीर सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। उन्हीं वीर सैनिकों की स्मृति में निर्मित इस युद्ध स्मारक का निर्माण किया गया है। इस स्मारक पर प्रत्यक्ष उपस्थित होने पर जो भावनाएँ मन में हिलोरें मारती हैं, वह कल्पना से परे है। उसका अनुभव कारगिल पहुँचकर ही प्राप्त होता है।


राष्ट्रीय राजमार्ग 1 द्वारा जम्मू से लेह की यात्रा के समय जैसे ही हमने जोजिला दर्रा पार किया, हमने इस युद्ध स्मारक के दर्शन का निश्चय किया। सैनिक परिवार से सम्बंधित होने के कारण मेरा बाल्यकाल सैनिक छावनियों में बीता है। अतः कोई भी युद्ध स्मारक एवं सम्बंधित संग्रहालय मेरे हेतु नवीन आकर्षण नहीं थे। तथापि उस सांझबेला में द्रास हुतात्मा स्मारक पर बिताए कुछ क्षणों में जो भावुकता की चरम अनुभूति मुझे हुई, मैं उस अनुभूति के लिए तैयार नहीं थी।


गुलाबी दीवारों से घिरे इस स्मारक के प्रवेश-द्वार से हम स्मारक के भीतर पहुँचे। स्मारक के दर्शन हेतु प्रवेश शुल्क नहीं है। स्मारक की एक भित्ति पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- Forever in operation. All save some, some save all, gone but never forgotten.” अर्थात्, सदैव कार्यरत। सब कुछ को बचाते हैं, कुछ सभी को बचाते हैं। विलीन पर अमर हो जाते हैं।


प्रवेश-द्वार पर अपना नाम पंजीकृत करवाकर हम स्मारक-प्रांगण के भीतर पहुँचे। पथ के दोनों ओर भारत के तिरंगे झंडों की पंक्ति लगी हुई थी। इस पगडण्डी के अंत में एक ऊँचे स्तम्भ पर विशाल तिरंगा फहरा रहा था। इसे देख हमारी जात-पात, लिंग, समृद्धि, सफलता इत्यादि मानो कहीं लुप्त हो गए थे। शेष थी तो केवल हमारी भारतीयता। तिरंगे को इस भाँति पवन में फहराते देख अपनी भारतीयता का उत्सव मनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। हुतात्माओं की अमर जीवनी को दर्शाते इस स्मारक का स्पर्श होते ही गर्व का अनुभव होने लगा। हमने उस भव्य तिरंगे के सान्निध्य में कई छायाचित्र खींचे।


इस युद्ध स्मारक को घेरे वे सर्व पर्वत शिखर उपस्थित हैं जिन्हें युद्ध-पूर्व, शत्रुओं ने हथियाने का असफल प्रयास किया था। स्मारक की ओर जाते इस पथ को 'विजयपथ' भी कहा जाता है। विजयपथ के मध्य एक विश्राम लेकर मैंने अपनी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई। अपने चारों ओर गोलियाँ दागते बंदूकों के दृश्य को आँखों के समक्ष सजीव करने का प्रयास करने लगी। उस दृश्य को आँखों के समक्ष सजीव करने में सफल हो भी जाऊँ, परन्तु शत्रुओं पर गोलियाँ बरसाते, स्वयं पर गोलियाँ झेलते वीर सैनिकों की मनःस्थिति मैं चाहकर भी अनुभव नहीं कर सकती थी। कल्पना एवं यथार्थ के बीच का यही अन्तर मुझे सदा स्मरण कराता रहेगा कि हम अपने घरों में सुरक्षित जीवन व्यतीत करते हैं जबकि हमारी सुरक्षा में वीर सैनिक यहाँ निरन्तर शत्रुओं का सामना करते रहते हैं। उन शहीद वीर सैनिकों को शत-शत नमन करने की एवम् उनके अन्तिम क्षणों को इसी स्थल पर सजीव कल्पना करने की इच्छा मुझे इस स्मारक तक खींच लायी थी।


विजय पथ पर चलते हुए हम अमर ज्योति की ओर आगे बढ़े। यह अमर ज्योति उन वीर सैनिकों को समर्पित है जिन्होंने कारगिल युद्ध में देश की रक्षा करते अपने प्राणों की आहुति दे दी। समीप ही एक सैनिक कारगिल युद्ध के परिप्रेक्ष्य की जानकारी प्रदान कर रहा था। अमर वीर सैनिकों की गाथा सुनाते उसके स्वरों से उमड़ता गर्व छुपाए नहीं छुप रहा था। वह यह भली-भाँति जानता था कि अगला शहीद वह स्वयं भी हो सकता है। उसने हमारा ध्यान बायें स्थित वीरभूमि में रखे स्मृति शिलाओं की ओर खींचा, जो अमर वीर सैनिकों को श्रद्धाञ्जलिस्वरूप स्थापित किये गए थे। उसने हमें दायें स्थित मनोज पाण्डे संग्रहालय भी देखने को कहा जहाँ युद्ध के अवशेष संग्रह कर रखे गए हैं।



वीरभूमि स्थित स्मृति शिलाएँ


शौर्यसंगीत की ध्वनि के मध्य हम वीरभूमि को ओर बढ़े। वहाँ प्रत्येक शहीद सैनिक को समर्पित एक शिलाखण्ड स्थापित किया गया था। प्रत्येक शिलाखण्ड पर शहीद का नाम एवं सेना में उसके पद के साथसाथ, संक्षिप्त में उसकी शौर्यगाथा अंकित थी। उन्होंने किस तरह देश की रक्षा में अपने प्राण न्योछावर किये, यह पढ़ते ही गला भर आया। मैंने पूरी श्रद्धा से सर्व शिलाखण्डों पर अंकित नाम पढ़ते हुए, उन्हें नमन कर, मन-ही-मन श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना आरम्भ किया। परन्तु कुछ क्षण उपरांत, अश्रुपूरित चक्षुओं के कारण नामों को पढ़ने में असमर्थ हो गयी और वहाँ से आगे बढ़ गयी।


वहाँ मेरी दृष्टि सुन्दर प्रतिमा पर पड़ी, जहाँ हाथ में तिरंगा लिए, जीत का उत्सव मनाते वीर सैनिकों को प्रदर्शित किया गया था। 


अमर वीर सैनिक ज्योति


भारी हृदय से मैं अमर ज्योति पर वापिस आ गयीइसके आधार पर पं. माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा वीररस में रचित कविता 'पुष्प की अभिलाषा' अंकित थीप्राथमिक शाला में पढ़ी इस कविता का गूढार्थ मैं आज समझ पायी हूँ जब एक पुष्प अपनी अभिलाषा व्यक्त करता है कि वह न तो किसी देवी देवता को अर्पण होना चाहता है, न ही किसी कन्या अथवा प्रेमिका को रिझाना चाहता है। वह केवल देश की रक्षा में प्राणों की आहुति देने को तत्पर वीर सैनिकों के चरणों को स्पर्श करना चाहता है। अतः वह प्रार्थना करता है कि उसे देशभक्त वीर सैनिकों के पथ पर बिखेर दिया जाय । 


अमर ज्योति के पृष्ठभूमि पर एक सुनहरी भित्ति है जिस पर शहीद वीर सैनिकों के नाम अंकित हैं। आत्मविभोर हो हम सब वहाँ चुप्पी साधे खड़े थे। ये वे वीर सैनिक थे जिन्होंने हमारी रक्षा करते अपने प्राण गँवाए थे जबकि हम उस समय शान्तिपूर्वक निद्रा में लीन थे अथवा क्षुद्र समस्याओं में उलझे हुए थे।


मनोज पाण्डे दीर्घा


अमर वीर सैनिक ज्योति पर कुछ और समय बिताकर हम मनोज पाण्डे दीर्घा की ओर बढ़े। इसे 'हट ऑफ रेमेंबरेंस' अर्थात् स्मृतियों की कुटिया भी कहा जाता है।


 प्रवेश-द्वार पर ही एक वीर सैनिक की आवक्ष मूर्ति थी जिसके चारों ओर अस्थिकलश रखे हुए थे। इसे देखते ही मेरे आत्मसंयम का बाँध टूट गया और मैं फूट-फूटकर रो पड़ी। कुछ क्षण पश्चात् अपने आपको संभालकर जब चारों ओर देखा तो पाया कि वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति की आँखें नम थीं। यहाँ आकर आत्मविभोर न होना असम्भव है।


यहाँ एक फलक पर कविवर हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित कविता 'अग्निपथ' अंकित थी। कविता के साथ साथ बच्चन के सुपुत्र अमिताभ बच्चन का प्रेरणादायक सन्देश लिखा था। एक वीर सैनिक द्वारा अपने पुत्र को लिखा एक पत्र भी वहाँ प्रदर्शित था। इसे पढ़कर हृदय में उठती हूक एवं भावनाएँ शब्दों द्वारा व्यक्त करना मेरे लिए सम्भव नहीं है।


महावीर योद्धा


दीर्घा के भीतर युद्ध एवं युद्ध में शहीद सैनिकों के छायाचित्र प्रदर्शित किये गए थे। उनका दर्शन एक भावनात्मक यात्रा के समान था। दीर्घा के अंत में अधिग्रहण किया गया पाकिस्तानी ध्वज का भी छायाचित्र था। उसे देख हृदय में विजयी भावनाएँ उभरीं। प्रतीकात्मक चिह्नों में भी इतनी शक्ति होती है जिसके लिए हम जी या मर सकते हैं।


परिसर के अन्य भागों में युवा सैनिक अपने-अपने कार्यों में व्यस्त थे। कुछ बागवानी कर रहे थे, कुछ घास की सफ़ाई कर रहे थे एवं कुछ पौधों को पानी दे रहे थे। उन युवक सैनिकों को गले लगाकर उन्हें आशीर्वाद देने की इच्छा उत्पन्न हुई। अतः उनके समीप जाकर मैंने कुछ सैनिकों से चर्चा की व उन्हें धन्यवाद दिया। उन्होंने भी सदा की तरह विनम्रता से मेरे धन्यवाद का उत्तर धन्यवाद से ही दिया। आयु में इतने छोटे होने के बाद भी उनमें परिपक्वता कूट-कूटकर भरी हुई थी। उनमें से एक ने मुझे कहा कि जिस तरह हम अपना उत्तरदायित्व निभाते हैं, उसी तरह वे भी उनका उत्तरदायित्व ही पूर्ण करते हैं। काश उनकी इस परिपक्वता का एक अंश भी शहरी युवाओं में होता, जिन्हें केवल अपना अधिकार मांगना आता है। उत्तरदायित्व कई शहरी युवाओं के लिए एक अर्थहीन शब्द है।


स्मारक-परिसर में जलपान-गृह एवं स्मारिका विक्रय केंद्र भी है। स्मारिका-केंद्र से आप कपड़े, चीनी मिट्टी के प्याले एवम् अन्य कई वस्तुएँ ले सकते हैं। सैनिक संस्कृति एवं अनुशासन से परिपूर्ण ये केंद्र पर्यटकों की आवश्यकता पूर्ण करने में सक्षम हैं।


इस परिसर में प्रसिद्ध बोफोर्स-तोपों सहित कई तोपें, बंदूकें एवं हेलीकॉप्टर इत्यादि का भी प्रदर्शन किया गया था। परन्तु मैंने उन्हें देखने में समय नहीं गँवाया। इन वस्तुओं के बिना मानवता अधिक प्रगति कर सकती है।


देशवासियों हेत वीर सैनिकों का संदेश के


द्रास युद्ध स्मारक परिसर से बाहर निकलते समय आपकी दृष्टि इन शब्दों पर पड़ती है जो वीर सैनिकों की ओर से देशवासियों के लिए सन्देश है। यह सन्देश हमसे कहता है कि जब हम वापिस घर लौटें तब अपने परिजनों एवं मित्रों से कहें कि हमारे कल को सुरक्षित बनाने हेतु उन्होंने अपना आज न्योछावर कर दिया है।


मैंने शिंडलर संग्रहालय समेत इस तरह के कई स्मारकों के दर्शन किये हैं। परन्तु ऐसी यात्रा मैंने इससे पहले कभी नहीं की। गर्व, विनम्रता, कृतज्ञता, भावुकता- सभी भावनाओं का मिश्रित-सा अनुभव हो रहा था। कारगिल नगर की ओर जाते मन में बार-बार एक ही विचार उमड़ रहा था। सैन्य सेवा देश के प्रत्येक नागरिक हेतु आवश्यक होनी चाहिए। कदाचित यही हमें सही मायनों में भारतीयता का बोध करा सकती है। तुच्छ अहंकारों से ऊपर उठकर कदाचित यही सही अर्थ में देशप्रेम जगा सकती है। मेरे पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। परन्तु द्रास शहीद स्मारक के दर्शनोपरांत ऐसे विचार आपके मानसपटल पर अवश्य उभरकर आयेंगे।


अनुवाद : मधुमिता ताम्हणे