हिन्दी भारत की आत्मा है

हिन्दी भारत की आत्मा है। हिन्दी भारत की वाणी है। हिन्दी भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँध कर रखने की अपूर्व क्षमता से भरी है। सच्चिदानंद, हीरानंद वात्स्यायन ने ठीक ही कहा है कि-"मैं मानता हूँ कि भारत की आधुनिक भाषाओं में हिन्दी ही सच्चे अर्थ में सदैव भारतीय भाषा रही है, क्योंकि वह निरन्तर भारत की एक समग्र चेतना को वाणी देने का चेतन प्रयास करती रही है और सभी भाषाओं में प्रदेश बोला है, कई बार बड़े प्रभावशाली ढंग से बोला है, हिन्दी में आरम्भ से ही देश बोलता रहा है, भले ही कभी-कभी कमजोर स्वर में भी बोला है।''


भाषा अपनत्व की संवाहिका होती है। अपनी भाषा की बात कुछ और ही होती है। अपनी भाषा के प्रति लगाव होना ही चाहिए। गाँधीजी का कथन है कि-"किसी भाषा के शब्दों को अपना लेने में शर्म की कोई बात नहीं है। शर्म तो तब है, जब हम अपनी भाषा के प्रचलित शब्दों को न जानने के कारण दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग करें। जैसे घर शब्द को भुलाकर 'हाउस' कहें, माता को 'मदर' कहें, पिता को 'फादर' कहें, पति को 'हसबैंड' और पत्नी को 'वाइफ' कहें।" 


अपनी भाषा में जो गौरव-बोध और आत्म विश्वास है वह दूसरी भाषा में नहीं है। अपनी माँ कितनी कुरूप क्यों न हो? वह अपने बच्चे के लिए सुन्दर होती है, क्योंकि वही अपने बच्चे को बोलना सिखलाती है। "जो लोग फारसी के शब्दों को इस्लामी संस्कृति के अभिन्न अंग समझकर अपनी भाषा में सजाते हैं, वे अक्सर अनजान में काफिर शब्दों को ही यह सम्मान देते हैं। जब वे हफ्ते को उच्च शब्द और सप्त या सात को नीच शब्द समझते हैं तब वे यह सिद्ध करते हैं कि वे इस्लाम नहीं, ईरानी संस्कृति के गुलाम हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 का कथन है कि हिन्दी-भाषा की शब्द सम्पदा को समृद्ध करने के लिए प्रमुख रूप से संस्कृत-भाषा का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। संस्कृत भारतीय परिवेश के सर्वथा अनुरूप है। डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है कि-"उर्दू में जो संस्कृत शब्दों से परहेज है, उसे कम होना है। भारत की भाषाओं के लिए अरबी, फारसी का वही महत्व नहीं है जो संस्कृत का है। व्याकरण और मूल शब्द भण्डार की दृष्टि उर्दू से संस्कृत परिवार की भाषा है, न कि अरबी परिवार की। इसलिए अरबी से पारिभाषिक शब्द लेने की नीति गलत है, केवल अरबी से शब्द लेने और संस्कृत शब्दों को मतरूक समझने की नीति और भी गलत है। भारत की सभी भाषाएँ प्रायः संस्कृत के आधार पर पारिभाषिक शब्दावली बनाती है। उर्दू इन सब भाषाओं से न्यारी रह कर अपनी उन्नति नहीं कर सकती।"


अपनी भाषा में जो सहजता, सरलता और तरलता है वह अन्यत्र नहीं। अज्ञेय का कथन है कि-किसी भी समाज को अनिवार्यतः अपनी भाषा में ही जीना होगा, नहीं तो उसकी अस्मिता कुंठित होगी ही होगी और उसमें आत्म-बहिष्कार या अजनबियत के विचार प्रकट होंगे ही। हिन्दी भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालते हुए प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय लिखते हैं कि- दरअसल हिन्दी का इतिहास वैदिक काल से ही प्रारम्भ होता है। वैदिक का साहित्य रूप ऋग्वेद है। इसे लौकिक से भिन्न तथा पूर्ववर्ती शाखा माना जाता है। भारतीय परम्परा के अनुसार वैदिक संहिताएँ अपौरुषेय हैं। ये मूलतः छन्दों में निर्मित हैं। इसलिए इस भाषा को छांदस्य अथवा वैदिक कहते हैं। लौकिक संस्कृत में छन्द का सर्वप्रथम प्रयोग महर्षि वाल्मीकि ने अपने ग्रन्थ 'रामायण' में किया। यही कारण है कि इस ग्रन्थ को आदिकाव्य की संज्ञा दी गयी है। संस्कृत के समानान्तर बोलचाल की लोकभाषा के रूप में प्राकृत का विकास हुआ है। हिन्दी उससे विकसित होने वाली सबसे प्रभावी एवं बड़ी भाषा का नाम है। यह मूलतः फारसी शब्द है। जहाँ तक व्याकरण का सवाल है तो 'हिन्दी' शब्द 'हिन्द' का विशेषण है जिसका आशय है'हिन्द का'।


हिन्दी भाषा की गुणवत्ता और महत्ता पर अनेक मनीषियों ने बहुत लिखा है। सत्य यह है कि हिन्दी हिन्दुस्तान की पहचान है। इसमें रचा साहित्य विलक्षण और कालजयी है। इस भाषा में उत्तम ग्रन्थों के रचने की अद्भुत क्षमता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि-"भारतवर्ष की केन्दीय भाषा हिन्दी है। लगभग आधा भारतवर्ष उसे अपनी साहित्यिक भाषा मानता है, साहित्यिक भाषा अर्थात् उसके हृदय और मस्तिष्क की भूख मिटाने वाली, करोड़ों की आशा-अकांक्षा, अनुराग-विराग, रुदन-हास्य की भाषा। उसमें साहित्य लिखने का अर्थ है करोड़ों के मानसिक स्तर को ऊँचा करना, करोड़ों मनुष्यों को मनुष्य के सुख-दुख के प्रति संवेदनशील बनाना, करोड़ों की अज्ञान, मोह और कुसंस्कार से मुक्त कराना।"


हिन्दी भारत की आत्मा है। हिन्दी भारत की वाणी है। हिन्दी भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँध कर रखने की अपूर्व क्षमता से भरी है। सच्चिदानंद, हीरानंद वात्स्यायन ने ठीक ही कहा है कि-"मैं मानता हूँ कि भारत की आधुनिक भाषाओं में हिन्दी ही सच्चे अर्थ में सदैव भारतीय भाषा रही है, क्योंकि वह निरन्तर भारत की एक समग्र चेतना को वाणी देने का चेतन प्रयास करती रही है और सभी भाषाओं में प्रदेश बोला है, कई बार बड़े प्रभावशाली ढंग से बोला है, हिन्दी में आरम्भ से ही देश बोलता रहा है, भले ही कभी-कभी कमजोर स्वर में भी बोला है।"


भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी के योगदान को विस्मृत नहीं किया सकता है।


प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी "नेताजी" के सम्मान से सम्मानित सुभाषचन्द्र बोस का कहना था कि 'हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।' हिन्दी की शब्द सम्पदा निराली है जिसमें विविध भावों के बोधक शब्दों का अकूत भण्डार है। हिन्दी की भाव-सम्पदा की भव्यता पर रीझकर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है कि-"प्राचीन हिन्दी कवियों के ऐसे-ऐसे गीत मैंने सुने हैं कि सुनते ही मुझे ऐसा लगा है कि वे आधुनिक युग के हैं। इसका कारण यह है कि जो कविता सत्य है, वह चिरकाल ही आधुनिक है। मैं तुरन्त समझ गया कि जिस हिन्दी-भाषा के खेत में भावों की ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आयेंगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।"


हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना प्रत्येक भारतवासी का उत्तरदायित्व है। प्रख्यात लेखक और राजनेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का मत है कि- 'विद्या की कोई भी संस्था वास्तविक अर्थ में भारतीय नहीं कही जा सकती जब तक उसमें हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन का प्रबंध नहीं हो।' हिन्दी भाषा राष्ट्रीय एकीकरण का मूलमंत्र है। उसका क्षेत्र किसी प्रान्त तक सीमित नहीं है, उसे भारती कहा जाता है। वह भारत की गौरव, आन, बान तथा शान है। हिन्दी की श्रीवृद्धि कर हम अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य को पुष्ट करते हैं। हिन्दी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि समस्त भारत की 'भारती' के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।



संविधान के अनुसार हिन्दी भारत की राजभाषा की राजभाषा है पर भारत की संस्कृति के अनुसार वह साझी संस्कृति की वाणी है। अपनी भाषा की उन्नति में देश का उज्जवल भविष्य निहित है। महात्मा गाँधी का कथन है कि-'लोगों को अपनी भाषा की असीम उन्नति करनी चाहिए, क्योंकि सच्चा गौरव उसी भाषा को प्राप्त होगा जिसमें अच्छे-अच्छे विद्वान जन्म लेंगे और उसी का सारे देश में प्रचार भी होगा। हमारी भाषा हमें जीवन-शैली के मूल्यों को समझाती ही नहीं बल्कि उसे प्रायोगिक स्तर पर उतारने की प्रक्रिया को मूर्तरूप देती है। हम अपनी भाषा के माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। गाँधी जी ने ठीक ही कहा है कि-'हमारे समाज का सुधार हमारी अपनी भाषा से ही हो सकता है। हमारे व्यवहार में सफलता और उत्कृष्टता भी हमारी अपनी भाषा से हो जायेगी। कहा जा सकता है कि हिन्दी की प्रगति में राष्ट्र की प्रगति का शुभ सन्देश है। अतः हिन्दी के विकास में आने वाली चुनौतियों से दृढ़तापूर्वक सामना करना हम सभी का पावन कर्त्तव्य है।


भारतीय संविधान में हिन्दी के विषय में दो अनुच्छेद विशेष उल्लेखनीय है। प्रथम 343 तथा द्वितीय 3511


343. संघ की राजभाषा


1. संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ की शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप होगा।


2.खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारम्भ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारम्भ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था। परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी एक लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।


3. इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद उक्त पन्द्रह अवधि के पश्चात् विधि द्वारा-(क) अंग्रेजी भाषा का, या (ख) अंकों के देवनागरी रूप का ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ।


351. हिन्दी भाषा के विकास के लिए निर्देश-संघ का कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करें जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भण्डार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। इससे स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में हिन्दी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।


जनभाषा के रूप में हिन्दी का महत्वपूर्ण सर्वविदित है। एस.डब्ल्यू फैलन ने कहा था कि-"अरबी या फारसी की तुलना में हिन्दी देश की मिट्टी से अधिक जुड़ी हुई है और जनता के दिल के अधिक निकट है, इसलिए हिन्दी के प्रयोग को अरबी-फारसी की तुलना में प्राथमिकता देनी चाहिए।" संविधान मर्मज्ञ आर.बी. धुलेकर ने कहा है कि "कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दी भाषा के साथ रियायत की गई है किन्तु मैं समझता हूँ कि यह बात नहीं है। यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही हुआ है जो कई वर्षों से, वास्तव में कई शताब्दियों से प्रवर्तन में रही है। मैं निवेदन करता हूँ कि स्वामी रामदास ने हिन्दी में लिखा, तुलसीदास ने हिन्दी में लिखा और आधुनिक काल के संत स्वामी दयानंद ने हिन्दी में लिखा। वे गुजराती थे किन्तु लिखते थे हिन्दी में। वे हिन्दी में क्यों लिखते थे? इस कारण कि इस देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी थी। इसके अतिरिक्त मैं निवेदन करता हूँ कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने जब कांग्रेस में प्रवेश किया तो उन्होंने तुरन्त ही अंग्रेजी भाषा छोड़ दी और हिन्दी में बोलने लगे। उन्होंने अंग्रेजी में लिखने का प्रयास नहीं किया।"


अनेक विद्वानों ने हिन्दी प्रचार के उपाय पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार से भारत की पहचान को दृढ़ता मिलेगी। लोकमान्य तिलक का कथन है कि "हिन्दी राष्ट्रभाषा बनने योग्य है, यह बात सत्य है पर जब तक हिन्दी भाषा-भाषी लोगों में देशभक्ति की तीव्र ज्योति प्रज्वलित नहीं होगी, तब तक हिन्दी भाषा में तेज का संचार नहीं होगा। जब हिन्दी प्रेमियों में खुशामद खोरी या चापलूसी की वृत्ति का संचार नहीं होगा। जब हिन्दी प्रेमियों में खुशामद खोरी या चापलूसी की वृत्ति का त्याग कर देश के कोने-कोने में नया संदेश पहुँचाने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न होगी, तभी हिन्दी भाषा समृद्ध होगी।" हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अहिन्दी भाषियों ने भी बहुत श्रम किया था। उसे आज और आगे बढ़ाने की जरूरत है। सुनीत कुमार चटर्जी ने कहा है कि-"यों 1867 में बंगाल में केशवचन्द्र सेन ने अपने समाचारपत्र में हिन्दी ही अखिल भारत की जातीय भाषा या राष्ट्रभाषा बनने के योग्य है", इस विषय पर निबंध लिखा। 1882 में राजनारायण बोस ने और 1886 में भूदेव मुकर्जी ने भी भारत को एक जातीयता के सूत्र में बाँधने के लिए हिन्दी की उपयोगिता के विषय पर विचार-समुज्ज्वल वकालत की। सन् 1905 से जब बंगाल में बंग-भंग के बाद स्वदेशी आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ, जिसके साथ हमारे स्वाधीनता संग्राम की नींव डाली गई, उस समय काली प्रसन्न काव्य विशारद जैसे बंगाली नेताओं ने हिन्दी के पक्ष में प्रयत्न किया, जिससे हिन्दी के सहारे जनता में राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए आकांक्षा फैल जाए।"


हिन्दी जनभाषा कैसे बने? उसका विकास धरातल स्तर पर कैसे हो? यह विचारणीय प्रश्न है। जितेन्द्र निर्मोही लिखते हैं कि-"हिन्दी की प्रगति के लिए 1968 में पुनः राजभाषा संकल्प अन्तर्गत त्रिभाषा फार्मूला बनाया गया, 1. हिन्दी, 2. अंग्रेजी, 3. इसके अतिरिक्त कोई भारतीय भाषा जैसे उत्तरवासी दक्षिण भारत की कोई भाषा पढ़ें तथा दक्षिण भारतीय उत्तर भारत की कोई एक भाषा पढ़ें। इसके लिए दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार समितियाँ भी बनीं, परन्तु तमिलनाडु में हिन्दी विद्वेष की स्थिति बनी रही। सच माना जाए तो सब कुछ प्रयास होने के बावजूद भी हिन्दी जन-जन की भाषा नहीं बन सकी अर्थात् यह राष्ट्रभाषा नहीं हो सकी। यह हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमजोरी या मजबूरी, जो भी कहा जाए, वह थी। संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जो मूलभूत अपेक्षाएँ चाहीं, वे ये थीं-1. हिन्दी को सरल बनाना2. हिन्दी को भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति बनाना। 3. हिन्दी के शब्द भण्डार को अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द भण्डार से शब्द लेकर अधिक विस्तृत करना। 4. हिन्दी का सम्पूर्ण रूप में प्रयोग करना। हिन्दी को सरलीकृत करने के लिए ग्यारह सदस्यीय सलाहकार सम्मिति बनी, जिसमें सेठ गोविन्द दास, मामा वारेरकर, राष्ट्रकवि दिनकर इत्यादि थे। उनकी और से सुझाव आये 1. प्रचलित संस्कृत, फारसी, अरबी या अंग्रेजी भाषा के शब्दों को हिन्दी से बहिष्कृत न किया जाए। 2. तत्सम शब्दों के पर्यायवाची शब्द हिन्दी में नहीं हैं, उनके पर्यायवाची शब्द अन्य भाषाओं या ग्रामीण अंचल से लिए जा सकते हैं।"


जितेन्द्र निर्मोही ने हिन्दी के समक्ष विद्यमान चुनौतियों को दूर करने के लिए आगे जो कहा है वह भी उद्धरणीय है- “हिन्दी को अपना गौरव दिलाने के लिए हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहल कर सकते हैं, जिस तरह उन्होंने 2 अक्टूबर, 2014 को देशभर में स्वच्छता अभियान चलाकर, जोरदार प्रारम्भ किया है। उसी तरह वे 14 सितम्बर, 2015 को हिन्दी के संवद्धन के लिए अपनी कैबिनेट व उत्तर भारत के शासित राज्यों को दक्षिण भारत की कोई एक भाषा सीखने की पहल करें तथा दक्षिण के राजनीतिज्ञों को व कैबिनेट सचिवों को हिन्दी सीखने की पहल करावें। कुछ जरूरी स्लोगन जैसे “सबका साथ, सबका विकास" सारे देश में हिन्दी में प्रचारित करावें। दक्षिण भारतीयों को ऐसा न लगे कि हिन्दी हम पर थोपी जा रही है, इसलिए एक नारा “आओ! हम हिन्दी को लेकर चलें साथ' दिया जा सकता है, जिसे पूर्वांचल भी आसानी से आत्मसात कर लेगा। तमिल ने संस्कृत के पचास प्रतिशत शब्दों को अपनाया है, शेष पचास प्रतिशत शब्दों की सुगमता की ओर हमारा ध्यान जायेगा तो समाधान निकल आयेगा। इस इन्टरनेट युग में हमें विदेशी विद्वानों को भी समझाना होगा। उनके प्रभाव से विश्व सहस्त्रादि के लिए एक नये हिन्दी के साहित्य का द्वार खुलेगा।


नई सहस्त्राब्दि में हिन्दी को उच्च स्तरीय द्विभाषी, त्रिभाषी एवं बहुभाषी कोषों की आवश्यकता है। लोग सीखने को आतुर हैं, आज सुविधाओं का अभाव भी नहीं, इसलिए नई शुरुआत की जाये। माइक्रोसॉफ्ट 2000 अंग्रेजी के साथ हिन्दी में भी तैयार हो, इसे अधिक सहज, सरल और व्यापक बनाने की आवश्यकता है, जिससे दूरगामी परिणाम हमारे सामने आये, इससे हिन्दी विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित होगी।


आज आवश्यकता है हिन्दी को पूर्णतया कम्प्यूटरीकृत करने की, जिससे नई सहस्त्राब्दि में हिन्दी नये रूप में दिखाई दे। इसके लिए वर्तनी और उच्चारण की आवश्यकता है। वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग और दूसरी संस्थाएँ इस और अग्रसर हैं। आई.आई.टी. कानपुर, केन्द्रीय निदेशालय, रिजर्व बैंक आदि भी इस और प्रयासरत हैं। नई शताब्दि को "कम्प्यूटर युग" या "डिजिटल युग" कहा जा रहा है, जिसकी चमत्कारिक शक्ति ने देश को प्रभावित किया है। हमारे साफ्टवेयर इंजीनियर और अन्य वर्ग विकास में लगे हुए हैं। यदि इनका सम्मान भी अपने कार्य के साथ हिन्दी के प्रचार व प्रसार की और हो जाए तो हमें बड़ी शक्ति मिलेगी। अब भाषावाद, प्रान्तवाद भी धीरे-धीरे गौण होते जा रहे हैं। वैश्वीकरण के युग में हम नई हिन्दी की ओर आशान्वित हैं।


विनोबा भावे मात्र एक संन्यासी या प्रबुद्ध दार्शनिक ही नहीं थे वे मराठी भाषी होते हुए भी हिन्दी के गम्भीर समर्थक थे वे लिखते है “जहाँ तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का संबंध है, यह कार्य हिन्दी प्रान्तों में जल्दी से जल्दी होना चाहिए। किन्तु अहिन्दी भाषी प्रान्तों में धीरे-धीरे चलना चाहिए। हिन्दी प्रान्तों के विश्वविद्यालयों, सचिवालयों और न्यायालयों-सभी जगह हिन्दी का तुरन्त प्रयोग आरम्भ होना चाहिए, किन्तु मेरा अनुरोध है कि अहिन्दी प्रान्तों के लिए इस विषय में आग्रह न किया जाए और हिन्दी भाषी सहनशीलता और सब्र से काम लें, तभी इसका प्रचार जल्दी होगा। असहनशीलता और जल्दबाजी से देश का अहित होने की सम्भावना है।" समाजवादी चिन्तक डॉ. राम मनोहर लोहिया का कथन है कि "हिन्दी के शब्दों का प्रयोग न होने के कारण इन पर काई जम गई है जो निरन्तर प्रयोग से ही दूर हो सकती है। भाषा शब्दकोशी तथा सम्मेलनों से शक्तिशाली नहीं बनती, बल्कि प्रयोग से बनती है।" हिन्दी के उत्थान का पथ प्रशस्त हो रहा है। उसके समक्ष खड़ी चुनौतियों का हमें डटकर मुकाबला करना है। डॉ. मिर्जा हसन नासिर का विचार है कि हिन्दी का निरन्तर विकास होता रहा है। आज की हिन्दी पहले जैसी नहीं रही। इसमें अनवरत परिवर्तन रहा है, विशेषकर अंग्रेजी के वर्चस्व के फलस्वरूप अब हिन्दी रोमन लिपि में भी लिखी जाने लगी है। हिन्दी वास्तव में एक प्रकार से अपना मूल स्वरूप खोती तथा इंग्लिश का रूप धारण करती जा रही है। प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसे हवा दे रहा है। सिनेमा एवं टी.वी. धारावाहिक भी प्रायः इसे क्षति पहुँचाने से बाज नहीं आ रहे हैं। उधर अनेक हिन्दी बोलियाँ हिन्दी से किनारा करके पृथक भाषा बनने के निमित्त संघर्षरत हैं। इसमें राजनीति का हस्तक्षेप भी जारी है। यदि मैथिली आदि की भाँति भविष्य में अन्य महत्वपूर्ण हिन्दी बोलियाँ (यथा भोजपुरी, अवधी आदि) भी हिन्दी से विलग हो जाती हैं तो फिर अन्ततः हिन्दी मात्र खड़ी बोली तक ही सीमित होकर ही रह जायेगी और वह खड़ी बोली भी हिन्दी कम, हिंग्लिश अधिक हो जायेगी जिससे हिन्दी के एक विकृत रूप से हमें सामना करना पड़ सकता है। ऐसी विषम परिस्थिति में कदाचित् यह राष्ट्रभाषा तो क्या, राजभाषा कहलाने का दावा करने की स्थिति में भी न रह सके। डॉ. मिर्जा हसन नासिर आगे कहते है कि ऐसा कदापि घटित न होने पाये, इसके निमित्त हमें अविरल चिंतन-मनन, विचार- विमर्श एवं गहन-मंथन करके कोई समुचित मार्ग खोजना होगा तथा तदनुसार कारगर कार्रवाई करनी होगी। हमें देशवासियों को जागरूक करना होगा तथा उनमें हिन्दी के प्रति रूचि, अनुराग एवं निष्ठा उत्पन्न करने हेतु कुछ ठोस कार्य करने होगें। हिन्दी राष्ट्र की एकता, अस्मिता एवं संस्कृति की पहचान है। इसमें विपुल मूल्यवान साहित्य का भण्डार समाहित है। अतएव, इसे राजभाषा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा के रूप में भी प्रतिष्ठापित करने का सुनहरा स्वप्न हमें अन्ततोगत्वा साकार करना ही होगा। उसका भविष्य बहरहाल उज्ज्वल होना ही है। यह आवश्यक भी है, समय की पुकार भी है और हमारे समाज के साथ समग्र देश के हित में भी है। वैसे, हिन्दी बड़ी सख्त भाषा है और स्वयं अपने दम पर भी फूलने-फलने में काफी हद तक सक्षम है। हिन्दी की प्रतिष्ठा विश्वस्तर पर बढ़ रही है। हिन्दी में अनेक ऐसे आयाम है जो विश्वपटल की आवश्यकताओं के अनुरूप है। प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय के शब्दों में “हिन्दी को वैश्विक सन्दर्भ प्रदान करने में विश्व-भर में फैले हुए साढ़े चार करोड़ से ज्यादा प्रवासी भारतीयों का विशेष प्रदेय है। वे हिन्दी के द्वारा अन्य भाषा भाषियों के साथ सांस्कृतिक संवाद कायम करते हैं। अब हिन्दी विश्व के सभी महाद्वीपों तथा राष्ट्रों-जिनकी संख्या एक सौ से भी अधिक है- मैं किसी न किसी रूप में विश्व के विराट फलक पर नवलचित्र के समान प्रकट हो रही है। वह बोलने वालों की संख्या के आधार पर मन्दारिन (चीनी) के भी ऊपर आकर विश्व की पहली सबसे बड़ी भाषा बन गई है। जबकि वह जिन राष्ट्रों में प्रयुक्त हो रही है उनके संख्या बल की दृष्टि से वह अंग्रेजी के बराबर पहले स्थान पर है। अब विश्व स्तर पर उसकी स्वीकार्यता अनुभव की जा सकती है और उसका सर्वतोन्मुखी जागतिक उन्नयन देखा जा सकता है। वह संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा बनने के लिए उसके द्वार पर दस्तक दे रही है और मॉरिशस में बनाए गए विश्व हिन्दी सचिवालय में प्रतिष्ठा सहित आसीन है। वह अपनी विपुल शब्द-सम्पदा तथा प्रयोग वैविध्य के आधार पर अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक सन्दर्भो, सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक चिन्ताओं तथा आर्थिक विनयम की संवाहक बनकर विश्व मन की आकांक्षाओं को प्रतिबंदित करने के क्षेत्र में अपने सामर्थ्य का परिचय दे रही है। हिन्दी को वैश्विक परिदृश्य प्रदान करने में फिल्मों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशन संस्थानों, भारत सरकार के उपाय, उपग्रहचैनलों, विज्ञापन-एजेंसियों, बहुराष्ट्रीयनिगमों, यांत्रिक सुविधाओं तथा साहित्यकारों का आधारभूत प्रदेय तो सर्वविदित है। ऐसी स्थिति में विश्व व्यवस्था को परिचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने तथा अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रयुक्त होने वाली विश्वभाषा के ठोस निकष एवं प्रतिमान पर हिन्दी का गहन परीक्षण सामयिक दौर की अपरिहार्य माँग है।" हिन्दी के समक्ष खड़ी चुनौतियों का डटकर सामना करना और उन्हें दूर करने से ही भारत का भला हो सकता है। यह रास्ता काँटों भरा जरूर हो सकता है पर गुलाब भी तो काँटों में ही खिलता है। हमें हिन्दी रूपी गुलाब की सुगंन्ध विश्वस्तर पर फैलाने के लिए परिश्रम करना ही पड़ेगा। जन-भाषा हिन्दी के समक्ष खड़ी चुनौतियों से टकराकर उन्हें चूर-चूर करना ही पड़ेगा। प्रसाद जी की अग्रलिखित पंक्तियों की लक्ष्य बनाना ही पड़ेगा।


इस पथ का उद्देश्य नहीं है


श्रान्त भवन में टिका रहना।


किन्तु पहुँचना उस सीमा तक


जिसके आगे राह नहीं।