हिन्दी के दमकते भाल पर महिला-लेखन की बिन्दी

आजादी, शिक्षा और संवेदना की त्रिवेणी के प्रवाहण की पृष्ठभूमि में इतिहास के कई पन्ने फड़फड़ाते हुये नजर आते हैं। 'असूर्यपश्या' नारियों ने आजादी की लड़ाई से लेकर रचनात्मक स्वतंत्रता पाने तक भीषण संघर्ष किया है। शैक्षणिक उत्कर्ष एवं वैचारिक क्रान्ति बेशक कछुआ चाल चली पर समय के इस अंतराल में, हिन्दी में भाषायी अवदान को लेकर कई महिला साहित्यकारों ने अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज की। अक्षरधारा युगबोध के साथ संवेदना के उस सिरे से परिचित हुई जो गुलामी में दो गज जमीन के नीचे दफ़्न हो गया था।


आजादी के समय साक्षरता की दर 12% थी। उसमें महिलाओं का स्थान नगण्य था। ऐसे में रूढ़ सामाजिक परिवेश में सृजन की सोच अलभ थी। अकादमिक उपलब्धियों के बगैर उत्कट संवेदना का सौंदर्य प्रथमतः भक्तिमति 'मीरा' में देखने को मिला। जिनकी कृष्ण प्रेम की आर्तपुकारों ने पद रचना में स्थान पाया। हिन्दी 'अलौकिक प्रीत' की ऊँचाइयों से परिचित हुई। 'स्त्री विमर्श' का पहला स्वर हिन्दी में मीरा के माध्यम से उठा।


फिर महीयसी महादेवी वर्मा ने अपने छायावादी रुझानों वाला रहस्यवादी भाव


लोक हिन्दी को सौंप दिया। परिष्कृत संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ने गर्व से सिर ऊँचा किया। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता महादेवी वर्मा ने स्त्री के नैसर्गिक अधिकारों को संयत उतने ही मुखर स्वर में व्यक्त किया। 1907 हिन्दी के शैशवकाल में जन्मी महादेवी 1987 तक सृजनरत रहीं। 'खूब लड़ी मदार्नी वह तो झांसी वाली रानी थी' लिखकर सुभद्राकुमारी चौहान ने राष्ट्रीय चेतना में अलख जगाया। भाषायी गरिमा, शिलालेख हो गई।


भाषा कोई भी हो, उसकी 'साहित्यिक समृद्धि' से आँकी जाती है। युगीन संस्कार जो राजनीति, परंपरा और प्रगति के आलोक में मुखर हो रहे थे, स्त्रियों ने पहचाने। स्वातंत्र्योत्तर काल में सामाजिक परिवर्तनों को गुनती हुई स्त्री ने आत्मसाक्षात्कार किया। हर बदलाव की आहट पहचानी। इस तरह पूर्वाग्रह मुक्त होकर आंचलिक भाषा वैभव से जुड़ती हुई हिन्दी भौगोलिक एवं मनोवैज्ञानिक सन्दर्भो को वहन करती गई। बदलती मान्यताओं ने सापेक्ष स्थिति का सृजन किया।


स्वनामधन्य कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, कृष्णा अग्निहोत्री, ईस्मत चुगताई, प्रभा खेतान, शिवानी, अजीत कौर, कुर्रतुल ऐन हैदर, अमृता प्रीतम ऐसे कितने ही जाज्वल्यमान नक्षत्रों से हिन्दी साहित्याकाश जगमगाने लगा। इन्होंने स्त्री चेतना के बहुआयामी स्वरुप को हिन्दी से जोड़ा। अब हिन्दी 'पुरुषों की इकलौती सोच' से या यूं कहें कि एकांगी सोच से संचालित नहीं रही। उसने अर्द्धसत्य एवं मात्र कल्पना लोक की चितेरी बनने से इंकार कर दिया।


क्रमशः तकनीकी क्रान्ति ने विचारों के विकेन्द्रीकरण में महती भूमिका निभाई। ग्लोबल होने की दिशा में हिन्दी अपनी पदचाप अंकित करती चली गई। अब तो 'आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस' के प्रभाव भी हिन्दी में परिलक्षित होने लगे हैं। अर्थात ऐसे विषय भी सृजन के द्वार पर आ खड़े हैं। महिला रचनाकारों ने यह चुनौती भी स्वीकार की है। 


हिन्दी साहित्य की यात्रा के विगत पड़ावों पर गौर करें तो पता लगता है कि 'महिलाओं ने पुरुष की आँख से' स्त्री को नहीं देखा। एक मानवीय दृष्टिकोण सामने आया। 'स्त्री का स्त्री के प्रति' समभावपूर्ण सदय विवेचन साहित्य में समाता चला गया। स्त्री, क्षमा दया, प्रेम और करुणा की प्रतिमूर्ति है, लिहाजा उसके लेखन से उस क्रान्तिकामी चेतना का उदय हुआ जो स्त्री को 'देवी' नहीं 'मानवी' के रूप में प्रतिष्ठित करने का आग्रही था। सामाजिक संरचना के कई पहलू चौंकाने की हद तक हिन्दी को पुरस्कृत कर गये।


दक्षिण एशियाई फलक पर अमृता प्रीतम, कुर्रतुल ऐन हैदर, इस्मत चुगताई जैसी पूर्ववर्ती लेखिकाओं से अलग 'कृष्णा सोबती' ने अपनी विशिष्ट संवेदना, ताजा मुहावरे और स्थानीय पर्यावरण की खुशबू के साथ उद्वेलित और रोमांचित किया। 1966 में उनकी कृति 'मित्रो मरजानी' पर पाठक दीवाना हो गया। उन्होंने 'साहित्य और देह के वर्जित प्रदेशों की यात्रा की' सामाजिक दृष्टिकोण को स्वस्थ और व्यापक बनाने के लिये एक मानवीय पहल की जरूरत थी। जिसमें साहस की दरकार थी। कृष्णा में यही सब था। साठ के दशक में नयी बहस को जन्म दिया। आड़े हाथों लिया 'धार्मिक कट्टरपंथ' को। बोल्ड महिला किरदारों की उपस्थिति ने समाज में खलबली मचा दी। कृष्णा ने हिन्दी को शाकाहारी से सामिष बनाया। हिन्दी की इस 'फिक्शन लेखिका' को 2017 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।


अवगुण्ठिता हिन्दी को सूरज से आँखें चार करने लायक बनाने वाली लेखिकाओं में एक नाम चित्रा मुद्गल का है। उन्होंने लीक पर चलने से इन्कार कर दिया। 'ट्रेड यूनियनों' का संघर्ष करीब से देखने वाली चित्रा ने जो देखा-सुना-गुना वही रचा। परंपरावादियों की आँखें खुली की खुली रह गई। उनके उपन्यास 'आवां' को खूब सम्मान मिला। पहली कहानी लिखी थी 1955 में। 'पोस्ट बॉक्स नंबर 203 - नालासोपारा' के लिये 2018 का साहित्य अकादमी पुरस्कार पाकर उन्होंने इतिहास रच दिया।


यथार्थ के खुरदुरे धरातल पर चलना सिखाया ममता कालिया ने। उनका विश्वास है कि उनकी पीढ़ी ने 'एंटी रोमैंटिसिज्म' से कहानी को मुक्ति दिलाई। सीधी मगर मार्मिक ध्वनियों से भरपूर लेखन के जरिए सुनीता जैन ने भी हिन्दी में अपने लिए पुख्रा मुकाम हासिल कर लिया। कहते हैं भारत की परिवार प्रणाली विश्व वंद्य है। पारिवारिकता के ताने बाने से कथा सूत्र उठाने वाली मालती जोशी समादृत हुईं “पद्म श्री' से नवाजी गईं। अचला नागर' ने 24 से अधिक फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखे। महाश्वेता देवी के सामाजिक सरोकार बांग्ला में ध्वनित हुये पर अनूदित होकर हिन्दी के इलाके में धूम मचाते रहे।


प्रभा खेतान ने अपनी आत्मकथा 'अन्य से अनन्या तक' में प्रेम प्रणय को लेकर सर्वथा मुक्त चिन्तन पेश किया। अजीत कौर अपने क्रान्तिकामी विचारों से आन्दोलित करती रहीं। उन्होंने कहा - 'मेरी नजर में फेमिनिज्म का मतलब अपने अंदर मजबूती लाना, न कि हर मामले में पुरुषों का विरोध करना।' हिन्दी गर्वोन्नत हुई।


इन लेखिकाओं ने हिन्दी की जनसामान्य तक पहुंच का आदर किया और उसी को अपनाकर स्त्री विमर्श की जमीन को उर्वर बनाया। मृदुला गर्ग का 'चित्तकोबरा' अपनी बोल्ड लेखन शैली के चलते खूब विवादित रहा।


मौजूदा दौर में हिन्दी साहित्य पर्याप्त खुलेपन की ओर बढ़ा है। घोर यथार्थ का पैरोकार लेखन कहीं अभद्रता की सीमा को छूने लगा है।


वर्जित विषय मसलन- 'विवाहेतर संबंध' - 'तलाक', 'सरोगेसी', 'रेप', 'समलैंगिकता' 'लिव इन रिलेशनशिप', 'पॉलीगेमी' आदि पर बिंदास होकर लिखा जा रहा है। तकनीक ने 'ग्लोबल विलेज' की संकल्पना में रंग भरा तो सृजन के आसमान पर वैश्विक प्रभाव दिखाई देना ही था। ऐसे में वैचारिकी के कुछ गढ़ टूटे, कुछ की मरम्मत हुई तो कुछ नये बने। सच की बस्तियां आबाद होने लगीं। समसामयिक चिन्तन को 70% आबादी तक पहुंचाने में महिला रचनाकार अग्रणी हैं। अपनी क्षमता का लोहा मनवा रही हैं। 'सोशल मीडिया' जहां हिन्दी के मानक स्वरुप पर अंशतः आघात कर रहा है वहीं अन्यान्य महिला रचनाधर्मियों को सूजन हेतु शानदार पीठिका भी उपलब्ध करवा रहा है।




कुछ नामों का सादर उल्लेख किये बिना कहना मुश्किल होगा कि हिन्दी का कारवां किस गति से चल रहा है। सम्मान्या सुश्री राजी सेठ, अनामिका, प्रतिभा राय, गगन गिल, कात्यायनी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अलका सरावगी, सुधा अरोड़ा, पूर्णिमा बर्मन, आदि अनेक लेखिका-कवयित्रियां सूजन के प्रतिमान रच रही हैं। नव तकनीक को अपनाते हुए वक्त की नब्ज पर हाथ रखती हुई महिला रचनाकार नितशः हिन्दी का गौरव गान सुना रही हैं। भाषायी ऐश्वर्य के क्षेत्र में उनके प्रदेय के बगैर हिन्दी का इतिहास अपूर्ण रहेगा। प्रतिगामी ताकतों से लड़ते हुये, निडर होकर उन्हें हिन्दी की अस्मिता को अंकित करते जाना है।


'जुगनुओं का साथ लेकर


तुम सफर करते रहो।


रास्ता सूरज का देखा तो


सहर हो जाएगी।