हिन्दी की दुर्दशा

भारत हमारा राष्ट्र है। हमारे देश की धरती हमारी माँ है और हिन्दी हमारी मातृ भाषा है। हिन्दी बोलने वाले लोग सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। यह विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं में चौथे स्थान पर है पहली तीन भाषाएँ हैं- मैंडरिन, स्पैनिश व इंग्लिश। मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, टोबैगो, गोयाना आदि देशों में यह क्षेत्रीय भाषा (रीजनल लैंग्वेज) भी है। एशिया से बाहर फिज़ी में यह सरकारी भाषा है जहाँ इसे हिन्दुस्तानी कहा जाता है। तो हिन्दी अंतर्राष्ट्रीय भाषा भी है। अंग्रेजी के साथ देवनागरी लिपी में हिन्दी भारतसरकार की सरकारी भाषा भी है। हिन्दी की खासियत है कि इसमें भाव व्यक्त करना सरल है व जैसा हम उच्चारण करते हैं वैसा ही लिखते भी हैं अंग्रेजी भाषा की तरह नहीं बोलते नौलेज हैं लिखते कनौलिज ('ल्लङ्ग) है। हिन्दी में अंग्रेजी भाषा की तरह स्पैलिंग नहीं याद करनी पड़ती है परन्तु हिन्दी इतनी सरल व सहज होते हुए भी अपना वह स्थान नहीं बनापाई व राष्ट्रभाषा होने के लिए तरसती रह गई कितने शर्म की बात है कि हमारे राष्ट्र की कोई राष्ट्र भाषा ही नहीं है। यह सोचने का विषय है।


हमारा भारत इतना विस्तृत विशाल एवं विभिन्नताओं से भरा देश है कि यहाँ हर तेरह किलोमीटर पर बोली बदल जाती है व लहजा बदल जाता है। और नतीजा हर प्रदेश की भाषा बदल जाती है। कुछ विभिन्नताओं के साथ उत्तर पश्चिम व मध्य भारत की भाषा तो हिन्दी व हिन्दी से मिलती है। परन्तु दक्षिण भारत में काफी अन्तर है। संस्कृत, उर्दू, नेपाली, बंगाली व गुजराती आदि भाषायें हिन्दी से समानता रखती हैं। यह पड़ोसी देशों से संवाद में सहायता करती है। नेपाली भाषा समझना आसान है क्योंकि इसमें भी देवनागरी लिपी का प्रयोग होता है। परन्तु साउथ इंडियन तमिल, तेलगु, कन्नड़ व मलयालम काफी अलग है साउथ इंडियन में द्रविड़ लिपी का प्रयोग होता है। साउथ में तो हिन्दी एकदम बेचारी बन कर रह गई है। 



मुगल काल में हिन्दी पर उर्दू ने ऐसी छाप छोड़ी कि उर्दू के शब्दों जैसे-नज़ाकत, नफासत, मुबारक, नोशफरमाइये, तश्रीफ रखिये इत्यादि की नज़ाकत भी शामिल हो गई इसमें कही पर ब्रज में ब्रजभाषा, आर्यो की खड़ी बोली व बिहार में.. बोले भोजपुरी यहाँ तक तो "हिन्दी" हिन्दी थी परन्तु असली बर्बादी तो अंग्रेजी ने कही हिन्दी की। अंग्रेज चले गये अंग्रेजी छोड़ गये। जिसकी व्याकरण सरल है। हांलाकि अंग्रेजी में अपने भाव व्यक्त करना सरल नहीं है परन्तु बोलना व लिखना आसान है। हाल ये है कि काम वाली बाई हो या चपरासी बोल चाल में ये लोग अंग्रेजी के शब्दों का बखूबी इस्तेमाल करते हैं जैसे-थै क्यू, गुड मार्निग, गुडनाइट, प्लीज, संडे, मन्डे, ट्यूजडे इत्यादि। आजकल हम बोलचाल में हिन्दी नहीं हिंग्लिश का इस्तेमाल करते हैं।


हमारी महत्वकांक्षाये आकांक्षाये व लालसायें सब ही अंग्रेजी के आधीन हैं। आज हर कोई सफलता का पैमाना धनाढ्य होना ही मानता है हम ऐसे कितने सफल लोगों को जानते हैं जो प्रतिष्ठित तो हैं व इनका यश भी हो मगर धनाढ्य ना हों। इस सबके लिए अंग्रेजी पढ़ना बोलना भी बोलना भी आना चाहिये शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम में जरूरी हैं व उच्च शिक्षा भी आवश्यक है। अच्छी गुणवत्ता की पाठ्य सामग्री अंग्रेजी माध्यम की पुस्तकों में ही हैं, खासकर विज्ञान व उच्च तकनीकी शिक्षा की। कारण सारी खोज विदेशों में ही हुई है। पौराणिक ग्रंथों पुराने वैज्ञानिक व शिक्षाविदों को छोड़ दे तो अब ज्यादारत भारतीय विदेश जाकर ही खोज कार्य में संलग्न हैं वहा उन्हें उच्चश्रेणी की सुविधायें मिल रही है। हिन्दी विदेशी हमारे ग्रंथों का अध्ययन कर उसका फायदा उठा रहे हैं। मगर हमारे हिन्दी के जानकार अच्छी अध्ययन सामग्री का हिन्दी में अनुवाद करने की ओर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। अतः अंग्रेजी पढ़ना सिर्फ फैशन ही नहीं अपितु आवश्यकता भी है हो गई है। अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा बन गई है जो लगभग हर दूसरे देश में बोलचाल के लिए काम आ जाती है। यहाँ तक कि साउथ इंडियन में भी हमे अंग्रेजी से ही काम चलाना पड़ता हैं। विदेशों में या विदेशी कंपनियों में यहाँ तक कि छोटी बड़ी भारतीय कंपनियों में भी नौकरी अंग्रेजी की योग्यता के आधार पर ही मिल जाती है। आज हिन्दी का ज्ञान अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में सिर्फ हिन्दी विषय तक ही सीमित रह गया हैं।


ऐसा नहीं है कि बिना अंग्रेजी भाषा के कोई देश तरक्की नहीं कर सकता। जापान व रूस आदि देश इसके ज्वलंत उदाहरण है जिन्होंने अपनी भाषा को ही प्राथमिकता दी और उसी के सहारे आर्थिक, सामाजिक व तकनीकी क्षेत्र में प्रगति करी। हम हिन्दुस्तानियों को तो अंग्रेजी में पकी पकाई खिचड़ी मिली जिस वजह से हमने अपनी भाषा हिन्दी की आवश्यकता ही महसूस नहीं की। जिस समय देश आजाद हुआ था तत्कालीन प्रधामंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने जापान का दौरा किया था। वहाँ पर उन्होंने देखा कि निम्न व उच्च हर वर्ग के बच्चों को शिक्षा सिर्फ सरकारी स्कूलों के माध्यम से ही दी जा रही थी। जिस कारण वहाँ उच्च व निम्न वर्ग में असमानता नहीं थी व निम्नवर्ग में कोई हीन भावना नहीं थी। वहाँ से लौटकर नेररू जी ने सभी प्रदेशों के मंत्रियों के साथ इस विषय पर मंत्रणा भी की थी। ज्यादातर, प्रदेशों के मंत्रियों ने अपने प्रदेश की भाषा में ही शिक्षा देने पर जोर दिया। और एक समान शिक्षा पर नेहरू जी कोई ठोस कदम नहीं उठा पाये। सरकारी व प्राइवेट अंग्रेजी माध्यमों के स्कूलों के चलते अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ती चली गई। हमारी हिन्दी हमें विकास के मार्ग पर ले जाने में पिछड़ती चली गई। अन्ततः अंग्रेजों ने बाजी मार ली। और अंग्रेजी एक सम्मानित धनाढ्य व सम्भावित समाज की प्रतिष्ठित भाषा बन गई। व बेचारी हिन्दी अपनी माँ के आँचल में छिपकर सुबकने को मजबूर हो गई सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के बच्चे पढ़ने-लिखने कितने भी होशियार हो अंग्रेजी के ज्ञान के अभाव में उच्च प्रतिष्ठानों में दाखिले से वंचित रह जाते हैं। दाखिला मिल भी जाता है तो कोर्स पूरा करने में बहुत कठिनाईयाँ आती हैं व कई बार हीन भावना के चलते, बच्चे मजबूरन आत्महत्या तक कर लेते हैं। धाराप्रवाह अंग्रेजी न बोल पाने की वजह से उनके आत्मविश्वास मे कमी आ जाती है व वह नौकरी क इंटरव्यु कुशलता पूर्वक नहीं दे पाते है। अच्छी नौकरियों से वंचित रह जाते हैं। योग्यता होते हुए भी कम योग्यता वाली छोटी मोटी नौकरी करने को मजबूर होते हैं। दूसरी ओर धनाढ्य की के बच्चों को अंग्रेजी का ज्ञान तो अच्छा होता ही है व वे धारा प्रवाह व अंग्रेजी भी बोलते हैं। जिससे उनका प्रभाव अच्छा पड़ता है नौकरी आसानी से मिल जाती है। परन्तु वे कम कार्य कुशल होते हैं। व मेहनती भी कम होते हैं क्योंकि उन्हें सारी सुख सुविधाएँ प्राप्त होती है बचपन से ही।


हिन्दी सड़क पर आ गई है क्योंकि गरीब से गरीब माता-पिता भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाना चाहता है। स्कूल इंग्लिश के नाम पर लूट मचा रहे हैं। गली मोहल्लों में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गये है। और वे नाम मात्र के अंग्रेजी माध्यम के स्कूल है। ना टीचर्स को खुद सही से अंग्रेजी बोलना आता है। ना ही माता-पिता इतने शिक्षित है कि वो खुद बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा सके। ना हिन्दी रही और ना ही सही से अंग्रेजी आई।


इंटरनेट ने तो और कमाल कर दिया है। एक नई हिन्दी आई है। हिन्दी के वाक्य अंग्रेजी की स्पेलिंग के साथ लिखे जाते हैं। जैसे-"उसने मुझे एक किताब दी' “Usne mujhe ek kitab di” मतलब हिन्दी लिखने की अभ्यास बिल्कुल खत्म। वैसे भी हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद और वापस से इस अनुवादित अंग्रेजी को हिन्दी में पुनः उच्चारण ने शब्दों को ही बदल दिया है जैसे-राम को अंग्रेजी के फेंलिखा फिर बाद में इसे हिन्दी में रामा पढ़ा यगा। ऐसे ही रामायण, रामायणा बन गई। रावण, रावणा बन गया आदि। यह हिन्दी की दुदर्शा नहीं है तो और क्या है? अंग्रेजी माध्यम के बच्चे हिन्दी में ऐसे हो उच्चारण करते है।


आजकल लड़कों व लड़के वालों को अंग्रेजी पढ़ी लिखी बहु ही चाहिए। जिस से समाज में उनका रूतबा बना रहे जो माता- पिता अपनी सारी कमाई बच्चों की पढ़ाई लिखाई व उच्चशिक्षा में खर्च कर देते हैं व अपने लिए भी कुछ नहीं बचाते वही बच्चे उनके साथ घूमने-फिरने, उठने-बैठने में शर्म महसूस करते है। अपने उच्च श्रेणी के संगी साथियों से मिलवाने में शर्म महसूस करते हैं। नतीजा माता-पिता व रिश्तेदारों को अपने हिन्दी भाषी होने पर शर्म महसूस होती है। वो स्वयं बच्चों के साथ ना रह कर गाँव देहात में ही रहना पसंद करते हैं। हिन्दी की ददर्शा अर्थात् समाज की दुर्दशा।


हमारे देश कृषि प्रधान देश है ज्यादातर किसान या तो अनपढ़ हैं या, कम पढ़े लिखे। और अंग्रेजी तो बिल्कुल नहीं जानते हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते है। कई बार वो ऐसे रसायनों का अंधा धुंध प्रयोग करते हैं जो कि स्वास्थ के लिए हानिकारक है। और पुराने तरीके स्वास्थ वर्धक गोबर खाद, बीज आदि छोड़ कर नयी-नयी रसायनिक खादों व हाब्रिड बीजों का प्रयोग करते हैं जो कि पैदावार तो ज्यादा देते हैं परन्तु गुणवत्ता में ना के बराबर हैं अगर किसानों को सारी जानकारी हिन्दी में मिल पाती तो रसायनों के निषेध की वजह से उनके खेत की मिट्टी भी उपजाऊ बनी रहती और फसल भी स्वास्थ्य वर्धक होती।


हिन्दी की तो ऐसी कमर टूटी है कि वस्तुओं के हिन्दी में नाम ही बिगाड़ दिए गये हैं जिन्हें पढ़ें तो हंसी आ जाये जैसे-"ट्रेन" को कहेंगे “लौह पथ गामिनी", "लाइट बल्ब" हिन्दी में कहेंगे “विद्युत प्रकाशित कांच गोलक", "ट्रैफिक सिग्नल' को कहेंगे "आवन जावन सूचक पट्टिका", "लॉनटेनिस' को कहेंगे "हरित घास पर ले तडातड़ दे तडातड़", "रेल सिग्नल' को कहेंगे "लौहे पथ आवत जावत लाल रक्त पट्टिका"। "बटन' को कहेंगे “अस्त व्यस्त वस्त्र नियंत्रक"। "मॉस्क्यूटो" (मच्छर) को कहेंगे "भुजनहारी मानव रक्त पिपासु जीव"। सिगरेट को कहेंगे “धूम शलाका"। जब हम स्वयं अपनी हिन्दी का मजाक बनायेंगे व उसकी कद्र नहीं करेंगे तो दूसरों से कैसे उम्मीद करे। इस तरह हिन्दी की दुर्दशा तो होनी ही है।


जहाँ इतनी विसंगातियाँ है वहीं अपनी विशेषताओं के चलते कुछ उम्मीदें भी है। जिस कारण आज भी हिन्दी अपना एक अलग स्थान रखती है। इसका ज्वलंत उदाहरण है नासा द्वारा अंतरिक्ष में भेजी जाने वाली तरंगों के लिए हमारे गायत्री मंत्र का चयन। अंतरिक्ष से प्राप्त होने वाली तरंगों का "ॐ" के उच्चारण से मिलना। अंतरिक्ष के लिए नासा द्वारा हमारी संस्कृत भाषा को वरीयता देना जिसका कारण है देवनागरी लिपि में जैसा उच्चारण होता है वैसा ही लिखा जाता है। हमारे वेदों और पुराणों, जीवन के रहस्य समाये हुए हैं। जो खोजें आज विदेशों में हो रही हैं वह हमारे ग्रंथों में पहले से ही वर्णित हैं बस विज्ञान की दृष्टि से प्रमाणित नहीं हो पाई हैं। विदेशी हमारे ग्रंथों का अध्ययन नई-नई खोज करने के लिए कर रहे हैं। हमें स्वयं भी इस और ध्यान देना चाहिए। समस्या है तो समाधान भी है।


अतः तरक्की भले ही हम अंग्रेजी से कर लें परन्तु प्रतिष्ठा हमारी हिन्दी से ही है। हम तरक्की पसंद लोग जरूर हैं परन्तु अपनी जड़ों से भी जुड़े हुए हैं तभी तो विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी का चौथा स्थान है। गर्व से बोलो हम हिन्दी भाषी है।


“हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा" जब तक हिन्दोस्तान रहेगा हिन्दी थी, हिन्दी है और हिन्दी रहेगी।