हिन्दीतर प्रांतों एवं विदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार में हिन्दी क्षेत्रों की भूमिका

हिन्दी प्रसार का आशय-भाषा, लिपिव साहित्य का प्रचार-प्रसार है। भाषा में ध्वनियों का होना आवश्यक माना जाता है और जब ध्वनियों को आकार दिया जाता है तब वह 'लिपि' कहलाता है। लिपि में भाव शब्द रूप धारण कर लेते हैं। शब्द और भाव समायोजित होकर 'साहित्य' बन जाता है; जो युगों तक राष्ट्र की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखता है। भाषा के मौखिक या लिखित दो तत्व होते हैं। इसकी शुद्धता के लिए व्याकरण का होना आवश्यक है।


किसी विचार का प्रसार व वस्तु का प्रचार होता है मेरे मत में भाषा न वस्तु है, न विचार है, विचार की अभिव्यक्ति का माध्यम है, हमें अपने माध्यम को सशक्त बनाने के बारे में सोचना चाहिए।


“हिन्दीतर प्रांतों व विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में हिन्दी क्षेत्रों की भूमिका"- यहाँ 'हिन्दी क्षेत्र' व 'हिन्दी' दोनों का आशय भी स्पष्ट करना होगा। मैं समझता हूँ 'हिन्दी क्षेत्र' का तात्पर्य-जहाँ हिन्दी बोलने वाले बहुसंख्या में रहते हैं, भारत में यह क्षेत्र पश्चिम में अम्बाला से बीकानेर-जैसलमेर की मरूभूमि तक, दक्षिण में बालाघाट से दुर्ग तक, पूर्व में रायगढ़ से भागलपुर तथा उत्तर में नेपाल सीमा से उत्तराखण्ड के गंगोत्री आदि धामों तक लगभग ढेड़ हजार मील लम्बा, छ: सौ मील चौड़ा क्षेत्र, यह हिन्दी भाषी क्षेत्र है। इसको अब व्यापक बनाये जाने की आवश्यकता है। विश्व में अनेक देश व स्थान ऐसे हैं जहाँ हिन्दी भाषी बहुसंख्या में हैं। उन्हें भी इस सारस्वत कार्य में बराबर का सहभागी मानकर सम्मानित किया जाये। मारीशस, फिजी, ट्रिनीडाड, टोबैगो हिन्दी भाषियों के देश हैं तथा संयुक्त अरब अमीरात में हिन्दी बोलने, समझने वालों की संख्या साठ प्रतिशत से अधिक है। मैं केवल भारत के सन्दर्भ में चर्चा करूँगा। यह प्रश्न केवल भारतीय हिन्दी भाषियों से ही है?


हिन्दी-कई विभाषाओं, बोलियों, उपबोलियों का मिश्रित रूप है जैसे- खड़ीबोली, ब्रज, कन्नौजी, बुन्देली, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मगही, मैथिली आदि। इसका जन्म शौरसेनी, मागधी व अर्द्ध मागधी अपभ्रंश से हुआ है। इन सभी को संयुक्त रूप से प्रचारित-प्रसारित करना है?



हिन्दी प्रसार का आशय-भाषा, लिपि व साहित्य का प्रचार-प्रसार है। भाषा में ध्वनियों का होना आवश्यक माना जाता है और जब ध्वनियों को आकार दिया जाता है तब वह 'लिपि' कहलाता है। लिपि में भाव शब्द रूप धारण कर लेते हैं। शब्द और भाव समायोजित होकर 'साहित्य' बन जाता है; जो युगों तक राष्ट्र की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखता है। भाषा के मौखिक या लिखित दो तत्व होते हैं। इसकी शुद्धता के लिए व्याकरण का होना आवश्यक है।


भाषा को हम गहरे अर्थ सम्प्रेषण से मुक्त कर रहे हैं, आधुनिक भाषावादियों को यह सोचना चाहिए? भविष्य में भाषा के लिए दो कसोटियाँ होंगी बाजार और कम्प्यूटर, हिन्दी ने दोनों को पकड़ लिया है। देवनागरी जो हिन्दी की लिपि है, यह विश्व की सबसे वैज्ञानिक लिपि है इसे रटना नहीं पड़ता यह ध्वन्यात्मक है जो लिखा जाता है, वह पढ़ा जाता है, जो पढ़ा जाता है वह लिखा जाता है। फिर भी विज्ञान और तकनीक युग की दुहाई देने वाले इसे नहीं अपनाते,112 वर्ष पूर्व बंगला भाषी मनीषी शारदा चरण मित्र ने लिपि विस्तार परिषद की स्थापना की थी। भाषाई प्रतिद्वदिता के काल में हमारी भाषा हिन्दी सर्वग्राही कैसे बने? भाषा जब बाजार (व्यवहार) सापेक्ष होगी तो उसकी ग्राहिता बढ़ जायेगी और जब व्याकरण या संस्कृति सापेक्ष होगी तो उसका प्रसार सिमट जायेगा।


भाषा में वाक्य, रूप, शब्द, ध्वनि अर्थ आदि होते हैं, इसकी कुछ विशेषताएँ होती हैं, यह पैतिक नहीं होती, अर्जित की जाती है, यह सामाजिक होती है, इसका अर्जन अनुकरण से होता है, यह परम्परागत भी होती है, तथा चिर परिर्वतनशील भी है, इसका अन्तिम स्वरूप नहीं है, इसकी भौगोलिक और ऐतिहासिक सीमाएं होती है, यह कठिनता से सरलता की ओर चलती है, इन्हीं बिन्दुओं पर ध्यान आकर्षण की आवश्यकता है।


भारत एक राजनैतिक इकाई है राष्ट्रभाषा हिन्दी है, तो राजभाषा (कामकाज की भाषा) हिन्दी हो, यह सबका उत्तरदयित्व है। इसमें केवल हिन्दी भाषी मुख्य यजमान हो, यह तो ठीक नहीं। हिन्दी प्रचार में हिन्दी क्षेत्र की भूमिका ही क्यों? तब संवैधानिक व्यवस्था व कानून कहाँ छिप जाता है। हिन्दी के लिए, हिन्दी क्षेत्र ही काम करेगें, अन्य क्षेत्र हिन्दी का सहयोग नहीं, विरोध भी करेंगे, चिन्तन का ये दोष अब मिटना चाहिए। यह देखने को मिलता है, हिन्दी में शपथ लेने के कारण विधायक जी पिटवा दिये जाते हैं। भाषाएं कब तक राजनैतिक और आर्थिक उन्नयन का कारण रहेगी? क्षेत्रिय भाषा गत प्रेम प्रावल्य के साथ, भारत कभी राष्ट्रीय और राजभाषा की एकता पर एक मत होगा?


आयरिस कवि टॉमस ने कहा- "...मातृभाषा की रक्षा सीमाओं की रक्षा से भी ज्यादा जरूरी है, क्योंकि वह विदेशी आक्रमण को रोकने के लिए पर्वतों और नदियों से भी ज्यादा जरूरी हैहमारे देश के बुद्धिमान लोग विदेशीयों के कथनों को अति महत्वपूर्ण प्रमाण मानकर सहेज लेते हैं। इसीसे प्रेरणा लेकर सभी अपनी-अपनी मातृभाषाओं की रक्षा के लिए सक्रिय हैं? पर यहाँ किस विदेशी के आक्रमण का भय है? भारतीय संविधान में तो 22 भाषाओं को स्थान मिला हुआ है।


राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति भारतीय भूभाग में जो ईर्ष्या है, वह बाजारू हिन्दी के प्रति नहीं, क्योंकि बाजार (व्यवहार) में बोली जाने वाली हिन्दी से व्यापारियों का लाभ है वे हिन्दी का विरोध नहीं करते, हिन्दी का विरोध तो वह तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग करता है जिसे अपने अनिष्ट की आशंका है, जो पूवार्गृह से ग्रसित हैं। भाषा के क्षेत्र में काम करने वाले शकुनियों ने हिन्दी के हजारों शब्दों को अपने आर्थिक व राजनैतिक लाभ के लिए मुखमण्डल से चिपका लिया है। यही शकुनि चालें ही हिन्दी के लिए ढ़ाल का काम करेंगी क्योंकि 'तू खोदि गढ़ा मोकों में गाड़िआओं तोको' जिन लोगों की मानसिकता कलुषित है, वे स्वयं उलझेंगे, हिन्दी प्रचार के लिए अंग्रेजी आदि को स्वयं सहयोगी बनना पड़ेगा।


आज के समय में सबकुछ तोलमोल के हो रहा है, 'हिन्दी' यदि 'हिंगलिश' या और कुछ हो रही तो यह भी है। कि आज की नई पीढ़ी उसे स्वीकार कर रही है, उन्हें अपने अतीत को सहेजने के भाव का गौरव नहीं है, ठीक है हर काल में भाषा परिवर्तित होती है। 'संस्कृत', 'ग्रीक', 'रोमन' आदि की दशा सब जानते हैं। स्वच्छन्दता के इस काल में परिमार्जित व शुद्ध सौ टंच हिन्दी के प्रति व्यामोह और मानसिक कसरत कितनी सफल होगी? क्योंकि अभिव्यक्तियों को स्वतन्त्रता है और सत, कालजयी सृजन का संकल्पित मनोभाव आभावित है।


हिन्दी फल फूल रही है सैकड़ों वि.वि. में पढ़ाई जा रही है, शोधकार्य हो रहे हैं, तो हिन्दी का 'सत साहित्य' निष्प्रभावी कैसे हो रहा है? साहित्य मानवीय मूल्यों का संरक्षक होता है। विश्वभर से मानवीय संवेदना क्यों मिट रही हैं? सही मायनों में बाजारों से धन कमाने के लिए या विश्व विद्यालयों में पद पाने के लिए हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो रहा है। यह बाह्य दृष्टि से तो ठीक दिखता है पर दीर्घकालिक सुपरिणाम की आशा नहीं है, प्रमाण पत्र धारकों की संख्या तो बढ़ रही है पर पुण्य भावी, रसात्मक, धर्म चेतना युक्त वैचारिकी से परिपूर्ण, ज्ञान प्रदाता कितना साहित्य सृजा जा रहा है? इसके विपरीत विविध वैमष्यतावादी वादों से भरपूर, अधर्म प्रेरक, उन्मादी, उथला, लेखन साहित्य की संज्ञा से विभूषित हो रहा है। 'ओल्ड इज गोल्ड' नहीं 'ओल्ड इज टाइम वार्ड' कहा जाता है। ट्वीटर, फेसबुक, वाट्सऐप, के युग में कलम और बुक के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगने लगा है, इकोफ्रेन्ड होने की सनक में पुस्तकें वृद्ध हो रही है, उन्हें घरों में स्थान नहीं, पुस्तकाश्रमों की आवश्यकता अनुभव हो रही है। भाषा के नाम पर श्लैग और चित्रलिपि शिशु क्रीडा की भाँति मनमोह रही है। ऐसे में हिन्दी भाषा साहित्य के प्रचार-प्रसार में हिन्दी क्षेत्रों की भूमिका के लिए चिन्तन विस्मय! हिन्दी के वैश्विक विद्वान महानगरों में एकत्रित होकर अतिबौद्धिक विचार-विमर्श कर लें उससे हिन्दी का कितना भला हो रहा है? हिन्दी लोक जहाँ हिन्दी की जड़ें हैं वहाँ बजाय जल-सिंचन के मट्ठा दिया जा रहा है, हिन्दी बोलियाँ पढ़ापशुओं के द्वारा सभ्य भाषा के नाम पर चर ली गयी, अनगिनत शब्द, उक्तियाँ मुहावरे मर गये हैं, लेकिन हम तो डॉक्ट्रेट कर गये। हिन्दी का हिरण्य और कंचन साहित्य चलन से बाहर और कृत्रिम अति चमकीला एक दो बार धारण करने जैसा उपयोग और फेंकने वाला स्वीकार? साहित्य पढ़ने का समय अब कहाँ? काव्य हाइकू-फाइकू में सिकुड़ गया और गद्य लघु होता जा रहा है।


क्या लगता है 'भारतीय विद्या मन्दिर' व 'भारतीय संस्कृति संसद' द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम हिन्दी के लिए महामृत्युन्जय अनुष्ठान है? इसमें हिन्दी विद्वान, सम्पादक, पत्रकार, नेता, प्रशासन, व्यापारी आदि 'ब्रह्मा', 'अध्वर्यु', 'होता', की भूमिका में हैं और मेरे जैसी भीड़ अनुष्ठान के उपरान्त धर्म की जय हो के नारे लगाने के लिए खड़ी है। क्या इससे हिन्दी क्षेत्रों को स्मृति प्राप्त हो जायेगी? अरे! हिन्दी के साथ तो हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी भाषी ही धीमा जहर देने का काम कर रहे हैं, उनमें कुछ तीमारदार भी हैं, तो उनसे प्रश्न यह कि क्या-क्या औषधियाँ दोगे, यह सहानभूति है या शोकपत्र की भूमिका की तैयारी? सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर सम्पादकीय लेखों में अतीत पर पादुका प्रतिष्ठित, फिर दशा और दिशा की चिन्ता? तो यह मैं उन लोगों को अवश्य बताऊँगा-जिन लोगों को हिन्दी रूपी सुन्दरी की अप्राप्यता का अनुभव हुआ तो उन्होंने भारत रूपी प्रासाद में राज्य रूपी कोप भवन बना लिए, दुःखी होकर आत्महत्या भी कर ली, इस आशा में कि अगले जन्म में हिन्दी माँ (हिन्दी भाषी) होने का गौरव मिल जाय।


हिन्दी हमारी संस्कृति की संवाहिका है, इसलिए हिन्दी का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। क्योंकि हमें हिन्दी की साहित्यिक- निधि को सुरक्षित रख आगामी पीढ़ियों को हस्तान्तरित करना है। भाषा के स्तर पर हिन्दी को सुरक्षित और संवर्द्धित रखकर ही साहित्य को सुरक्षित रखा जा सकता है। विश्व परिवार की देखरेख के लिए जननी को अनदेखा नहीं किया जा सकता। हिन्दी का भी लगभग एक अरब लोगों से सम्बन्ध है। हिन्दी का मध्यकालीन साहित्य जनमन में रचा बसा है। हिन्दी वस्तु विक्रेताओं, फेरूआओं के लुभावने ध्वनि संवादों आदि के रूप में नहीं फैली, यहाँ भाव-स्पर्श की सुखद अनुभूति है यह बाजार और व्यापार में भी विनियम प्रधान है। यह अन्तःकरण के मंगल भवन में विराजती है।


हिन्दी प्रसार और विकास के सन्दर्भ में मैं यह कहना चाहता हूँ कि बाजार में सुन्दरता और गुणवत्ता का मूल्य होता है हिन्दीयों को हिन्दी के इस पक्ष ध्यान देने की आवश्यकता है। पूरब से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण जो हिन्दी के प्रज्वलित भास्कर या टिमटिमाते सितारे हैं, सब तिमिर को विछिन्न कर रहे हैं, ज्योति का क्षणिक प्रस्फुटन भी प्रकाशीय प्रभाव छोड़ता है। इसलिए जो जहाँ है संलग्न रहें अपने कार्य में। यह अत्यन्त आवश्यक है कि वट वृक्षों को अपनी छाया में नवांकरण होने देना होगा। जो मठ और पदधारी हैं वे सामान्य हिन्दी सेवकों को भी अपना अनुज समझें। मैं बलपूर्वक कहना चाहता हूँ देश में स्वच्छ भारत मिशन चल रहा है, स्वच्छता के इन मनोभावों में हिन्दी के प्रति विद्वेष के राजनैतिक प्रदूषण और कूड़े करकट को भी स्वच्छ किया जाना आवश्यक है। हिन्दी को अपनाना है या हिन्दी का विरोध करें यह कर्तव्य अब तय हो जाये। विचार करें कर्तव्य निष्ठा से विमुखता के इस काल में तुलसीदास, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर आदि हमें जीवन के उदात्त मूल्यों तथा हमारी सृजनधर्मिता की रक्षा तथा उर्जित मानवता की स्थापना में हमारे साथ अभ्युथानाय धर्मस्य के लिए उत्तरदायी हैं और हम गुटबाजी के भाषा साहित्य अरण्य में गीदड़ी हूक से 'हमऊ राजा हते' गुंजायमान करते रहेंगे?


चमकदार स्कूलों की चकाचैंध कब तक? हिन्दी भाषियों को यह समझना पड़ेगा कि सभी के नौनिहाल आई.ए.एस. नहीं हो जायेंगे या सभी महावीर प्रसाद द्विवेदी या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी नहीं हो जायेंगे।


'सभी होय नहि नील नल, नहीं बात के पूत। समय परे की बात थी, करण भये थे भूत।।'


अकारण अंग्रेजी की चमक में चैधियाकर ठगाई करना -


दीपकों में फूंक देने को जो बढ़ रहे हैं,


पहचानकर उन्हें धकियाया नहीं,


फिर कहो कि अंधेरा हो गया है,


उन खड़ी क्रीज वस्त्र धारक सर सयैद अहमद खाँओं की संख्या बड़ रही है जो हिन्दी को अभी भी गँवारों की भाषा मानते हैं। तुलसीदास जी की 'गिरा ग्राम्य' महामहोपाध्यायों के लिए क्या है सभी जानते हैं। जिन्हें हिन्दी गँवारों की भाषा है तो उन लोगों का रोजगार गँवारों के कारण ही है।


कुंभनदास जी ने कहा था कि- 'सन्तन कहा सीकरी सो काम'-अब भाषाई सन्तों को सीकरी (केन्द्र) सीकरियों (राज्यों) को ही दृष्टिगत रखना है, कि अनुच्छेद 351 को केन्द्रीय सरकार कब अपना दायित्व मानेगी। अनुच्छेद 343 (1) स्वीकृत ही रहेगा या प्रभाव में भी आयेगाविदेशों से तकनीकि का ही आयात होता रहेगा या कभी इजरायल से हिब्रू गौरव, टर्की से टर्किश, चीन से चाइनीज आदि भाषा गौरव भी आयात होगा। अनुच्छेद 348 में संशोधन क्यों नहीं होता, उच्चतम न्यायालय में हिन्दी रूपी माँ या बहू कभी प्रवेश कर सकेंगी। ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा, कम्प्यूटर, इन्टरनेट, बैंक, व्यापार के आँगन में हिन्दी को क्या कभी स्थान दिलवाया जायेगा या 28 अप्रैल 1960 ई. जैसे वैज्ञानिक तथा तकनीक आयोग से आयोग ही गठित होते रहेंगे? हिन्दी के सन्दर्भ में केन्द्रीय और राजकीय भेद को समझने की आवश्यकता है। भाषा के परिपेक्ष्य में केन्द्र के आज्ञा पत्रों को मानने या न मानने की राज्यों को छूट पर जी.एस.टी. पर सहमति या समर्पण यह विचार किया जाना चाहिए, हिन्दी राष्ट्रीय अस्मिता है या जी.एस.टी.? केन्द्र सरकार के अनुवादित शब्द एक रूप में पूरे देश में मान्य क्यों नहीं होते? पारिभाषिक शब्द- समितियों के कार्यकाल कभी पूरे होगें? विदेश मंत्रालय में नीतिगत रूप से हिन्दी मान्य की जायेगी? संघ लोक सेवा आयोग कौन से लोक का आयोग है? भारत का लोक कितने प्रतिशत विदेशी भाषी यह विचार नहीं किया जाता, उल्टें भारतीय को अनुवादों के मकड़जाल में फंसाकर उच्चपदों पर जाने से अब भी रोकने की साजिश हो रही है। साजिशों का मकड़जाल अन्तरजाल तक है खोजें (सर्च) गूगल से हो रही हैं। हिन्दी के राजभाषा स्वरूप के विषय में कहा गया कि यह वर्षों तक संस्कृतनिष्ठ तैयार की गई उर्दू-फारसी के शब्दों के प्रयोग से बचा गया। तो उन लोगों को पहले क्यों नहीं रोका गया जो हिन्दी को गँवारी बोली बताकर अंग्रेजों को उर्दू की ओर झुकाने का प्रयास करते रहे।


प्रसन्नता हिन्दी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर फैल गई, देखो! 'डोकलाम में चीनी सैनिक हिन्दी में गाली देते हैं यह अकेले हिन्दी भाषियों को ही गर्व की बात नहीं सभी भारतीयों को...। हिन्दी प्रचार-प्रसार के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, प्रचार सभा, प्रचार समिति, परिषद, शिक्षा पीठ, विद्यापीठ, सम्मेलन कार्य कर रहे हैं, हिन्दी सभी की कृतज्ञ है पर भाषाओं के प्रचार- प्रसार के बारे में एक अध्ययन यह भी होना चाहिए कितने प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हैं जो दूसरी भाषा ज्ञान के लिए सीखते हैं तथा कितने प्रतिशत ऐसे है जो आर्थिक, राजनैतिक लाभ के लिए दूसरी भाषायें सीखते तथा कितनों की विवशता हो जाती है दुसरी भाषा सीखना।


केन्द्र व राज्य सरकारें अपने कर्मचारियों को आर्थिक लाभ का प्रोत्साहन देकर हिन्दी प्रसार को तीव्र बना सकती हैं तथा हिन्दी राज्यों के शिक्षा बोर्ड भी आपस में समन्वय के माध्यम से अहिन्दी क्षेत्रों के लोगों को हिन्दीतर भाषा में परीक्षा आयोजित कर, हिन्दी प्रसार में सहभागी बन सकते हैं।


भाषाई बाजार (प्रसार) के जिस क्षेत्र में हिन्दी जायेगी चाहे वह स्वदेशी हो या विदेशी की ग्राह्यता के अनुकूल हिन्दी और हिन्दियों को बनना पड़ेगा। जापान में 'साई ओनारा', गुजरात में 'कैम बापा हारो छे', मणिपुर में 'खुरमजोरे मसिलाई कोनी', कहकर अभिवादन करना होगा। हिन्दी क्षेत्रों को हिन्दीतर क्षेत्रों के भौगोलिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक और सामाजिक परिवेश से जुड़ना होगा। यह जुड़ाव पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता रहे, वे अपने आपको हिन्दी भाषा के जानकार होने का गर्व अनुभव करें।


घोर आश्चर्य है कि हिन्दी प्रेमी, अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के राजनेताओं और विद्वानों के विनम्र निवेदन के उपरान्त भी मात्र 3-4 प्रतिशत व्यक्ति जो अपने आपको बुद्धिजीवी या अभिजात होने के अहंकार से भरे हैं और 96 प्रतिशत भारतीयों को धकिया रहे हैं। राष्ट्रपिता के सभी कथन सिरोधार्य हुए तो हिन्दी को राजभाषा का स्थान देने की अवज्ञा क्यों हुई?


सच है कोई भाषा दसरे क्षेत्र में तभी विकसित होती है जब वह राजनीति, संस्कृति या अर्थ से जुड़ी हुई हो। प्राचीन काल में ब्रजभाषा का विकास पूर्वोत्तर प्रान्तों, या गुजरात, महाराष्ट्र आदि में हुआ तो वह वहाँ के जनमानस की ग्राह्य मनोदशा के कारण हुआ वैष्णव भक्ति और संकीर्तन, पद गायन आदि से ब्रजभाषा उन लोगों ने सीखी या बोली, आज खड़ी बोली के पास ऐसा क्या है? काव्य भी गद्य होता जा रहा है।


दुबई आदि विदेशों में रहने वाले भारतीय, भारत के सभी भाषाई क्षेत्रों के हैं। वहाँ वे अपना सम्पर्क हिन्दी या अंग्रेजी से करते हैं, जबकि उनकी शासकीय भाषा स्थानीय है। वहाँ कोई अपनी भाषाओं का राग नहीं अलापते, क्या वहाँ भी सभी छोटी-छोटी भाषाओं के विद्यालय स्थापित हो रहे हैं? अब जो लोग विदेशों में जा रहे है वे गिरगिटिया मजदूर तो नहीं। अब तो बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण सुख सुविधाओं के लालायित प्रवासी हैं या धर्मप्रचारक। वहाँ पर किसी भाषा का इस्लाम खतरे में नहीं है। भारत में हिन्दी के कारण राज्य बन जाते हैं।


हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी की सरलता की बात कर के भाषा को कमजोर करने का षड़यन्त्र तो होता है पर अंग्रेजी वर्तनी रटने में गर्व का अनुभव होता है। 'ईमिली अंग्रेजी गुरू' का विज्ञापन प्रसारित होता विदेशों में जा रहे हो तो बोलचाल की अंग्रेजी तो सीखनी पड़ेगी पर यह भाव कब जगेगा, विदेश में जा रहा हूँ हिन्दी सिखा के आऊँगा? भाषा के विषय में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है जो पढ़े लिखें है उनकी भाषा पहले बदलती है। आज गुणवान, बुद्धिमान एक राष्ट्रभाषा भाव समर्पित नहीं चतुर तार्किक साक्षर तो पैदा हो रहे हैं। युवाओं में यह भाव तीव्रता से पैदा किया जा रहा है कि उन्हें भौतिक सुख-सुविधाएं रोजगार नहीं मिला तो वह राष्ट्र के सांस्कृतिक हित चिन्तकों को विकास के नाम पर धक्का देते रहेंगे जनेऊ धारियों का यह उद्घोष 'ईशावास्य इदम्...कस्विद् धनम्' अब प्रचारित नहीं होता इसे छद्म जनेऊधारी ही प्रचारित करें!


हिन्दी क्षेत्रों के कवि, लेखक, मनीषी विद्वान, शिक्षाविद्, न्यायविद, वैज्ञानिक, शिल्पी, व्यापारी, अर्थशास्त्री, कलाविद्, समाजशास्त्री, पत्रकार, सम्पादक आदि सभी को हिन्दी के लिए पुरूषार्थ करना हैसेवा मुक्त हिन्दी सेवी इन्टरनेट पर दुभाषिये लाइव रह कर हिन्दी प्रसार कर सकते हैं।


पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय सहयोग कर सकता है। हिन्दी में मौलिक चिन्तन लेखन और प्रकाशन से हिन्दी का प्रसार होगा। विविध क्षेत्रों में स्थापित हिन्दी संस्थानों, समिति, शिक्षा व विद्यापीठों को तीव्रगति से उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य करने को उत्साहित रहना चाहिए। समयबद्ध लक्ष्य पूरा करें। वैश्विक संस्कारों व कालजयी साहित्य का सृजन करने वाले व्यावसायिक लेखकों की नहीं, संस्कारित समर्पित हिन्दी वरों की पौध तैयार कर हिन्दीतर क्षेत्रों में भेजा जाय।


हिन्दी भाषियों को अन्य लोगों के साथ सम्पर्क के लिए मानक भाषा के प्रयोग का ध्यान रखना चाहिए। संवाद या लेखन में सरलता के नाम पर साहित्यिक शब्दों को बोलचाल के शब्दों के लिए बलिदान भी न किया जाय आज अगर किसी ने नमस्ते सीखा है, तो कल नमस्कार प्रणाम भी सीखेगा।


अनुवाद कला को विकसित किया जाय। हिन्दी शब्दों में किये गये अनुवाद या हिन्दी शब्दों के अनुवाद ऐसे हों जो भ्रामक न हों बात कहीं "मणिशंकरी' न हो जाये। जैसे हिन्दी का "भजन' बंगला का "भोजन"।


बहुराष्ट्रीय व्यापार कम्पनियाँ बाजार सापेक्ष हिन्दी अपना रही हैं, तो हिन्दी भाषी भी अपने भाषा विकास दायित्व बोध से अपरिचित नहीं, वे हिन्दीतर क्षेत्रों में गीत- संगीत सोशल मीडिया के माध्यम से पहुँच रहे हैं। हिन्दी क्षेत्रों के व्यापारी अपने उत्पादों के विज्ञापन हिन्दी भाषा में करावाएँ।


हिन्दी क्षेत्र हिन्दी को बासन्ती बनकर रस आनन्द से पाठक या श्रोता को हिन्दी के प्रति आकर्षित कर सकते हैं जिन लोगों ने कलम पकड़ना सीख लिया है तो उन्हें 'चील बिलउआ' नहीं 'लिखना धरना' भी सीखना होगा। लेखनी लीपापोती के लिए नहीं सजने-सजाने के लिए है। हिन्दी क्षेत्रों के कलम पकडू गुट बंद तथाकथित साहित्यकारों को अपनी कुण्ठाओं की निवृत्ति आखरों में करनी है तो दुर्गन्ध को साहित्य का नाम न दें, हिन्दी के अतिरिक्त कहीं और सृजनधर्मी होने का नाम और मान पायें।


फिल्म जो उद्योग माना जाता है, हिन्दी प्रसार में अग्रणी है पर यह भारत के हिन्दी क्षेत्र में स्थापित नहीं है, मैं इसकी चर्चा नहीं करूँगा।


हिन्दी प्रसार के लिए हिन्दी क्षेत्रों के महाविद्यालयीय स्तर पर विमर्श के सत्र आयोजित हों, महानगरीय विराट सम्मेलनों है। की भूमिका अलग प्रकार की रहती है महाविद्यालय से नवांकुरों का जन्म होता है।


___कुछ अन्य बिन्दु भी ध्यान रखने चाहिए, तत्सम व देशज शब्दों के प्रयोग में सावधानी रखी जाये। वर्ग के अन्तिम व्यंजनों की ध्वनियाँ स्पष्ट हों। हिन्दीतर क्षेत्रों में अनुनासिक और अनुस्वार प्रयोग क्षम्य हों, पर मूल में जीवित रखा जाए तथा यही प्रयोग और प्रचलन में लाया जाए। वर्तनी का मानकीकरण कर वही अन्य स्थानों पर प्रसारित हो। द्वित्तवर्ण और संयुक्ताक्षरों के प्रयोग में सावधानी रखी जाये। स्थानीय लोकोक्ति और मुहावरे भाषा को कठिन बनाते हैं, इन्हें कम प्रयोग किया जाये। मिश्रित वाक्यों के प्रयोग से बचा जाये। हिन्दीतर जनों के उच्चारण और लेखन को अनुकरण से सीखने के द्वारा सुधारने को प्रेरित किया जाये। उनके लिए हिन्दी भाषण व लेखन की प्रतियोगिताएं आयोजित की जायें, मनोरंजक कहानियों या लघु नाटिका के माध्यम से क्रमिक पाठ्यक्रम की कड़िया बनाकर उनका प्रसारण हिन्दीतर क्षेत्रों में किया जाये। यदि हिन्दीक्षेत्र हिन्दी प्रसार को तीव्र बनाते हैं, तो इससे उन्हें आर्थिक लाभ होगा। रोजगार के नये अवसर सृजित होगे। हिन्दी भाषी क्षेत्रों के हिन्दी विद्वान जब अन्य क्षेत्रों के हिन्दी प्रसार के उद्देश्य से काम कर रहे हैं तो उनकी भाषा में जैसे दाल में हींग जीरे का छौंक ठीक रहता है, प्याज लहसुन से ऊपरी स्वाद तो बढ़ जाता पर मुख शुद्धि के लिए जैसे सौंफ का प्रयोग करना पड़ता है। हिन्दी में छौंक विचार पूर्वक हो।


आज हस्तलेख और सुलेख का तेजी से लोप हो रहा है यह उन क्षेत्रों में अधिक है जहाँ मोबाइल और कम्प्यूटर का प्रचलन अधिक है। हिन्दी में सुलेख प्रतियोगिता को जीवित रखा जाए तथा प्राचीन पाण्डुलिपि प्रदर्शनी लगाई जाएं जो अच्छे सुलेखों की हों। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, हिन्दी संग्रहालय बना रहा है जिसमें हिन्दी विद्वानों की पाण्डुलिपियाँ, पत्र तथा उनसे जुड़ी सामग्री रख रहा है।


हिन्दीक्षेत्रों के साफ्टवेयर इन्जीनियर हिन्दी फॉन्ट्स की कठिनाई को दूर करें, उन्हें भाषाविदों के साथ तथा भाषाविदों को इन्जीनियरों के साथ सहयोग करना आवश्यक है। अन्यथा हमारी भाषा लिपि, संस्कृति निरापद रूप से तकनीकि की भेंट चढ़ जायेगी।


भाषा के प्रसार के लिए पाँच तत्व हैं- वाक्य, रूप, शब्द, ध्वनि तथा अर्थ इन सभी को ग्रहणकर्ता के मानसिक स्तर के आधार पर प्रयोग किया जाय। भाषा लोक व्यवहार के सहज प्रवाह के वशीभूत होती है, पर साथ ही भाषा में हो रहे व किए जा रहे परिवर्तनों को उच्छृखल भी नहीं छोड़ा जा सकता। हिन्दी क्षेत्र हिन्दी को 'बोली' और 'भाषा' दोनों रूपों में स्थापित करेंगे, जिन्हें यह असम्भव दिखता है वे अपनी आँखे खोल लें, क्योंकि प्रत्येक भारतीय की सांस्कृतिक निष्ठा नहीं बदलेगी हम बाह्य भोग और आन्तरिक योग के पक्षधर हैं, हिन्दी की बोलियाँ और विभाषाएं इस रूप में जीवित रहेंगी। मैं समझता हूँ हिन्दी क्षेत्रों में इतनी समझ और स्वाभिमान है कि वह अपनी हिन्दी को विश्व बाजार में बिकने वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत नहीं करेगा, बल्कि सम्मान, श्रद्धा और समर्पण के लिए औरों को आकर्षित करेगा। हिन्दी जन भाषा के अवमूल्यन के प्रति सतर्क है। हिन्दी क्षेत्रों का सम्बन्ध मूल हिन्दी से है न कि फेशनेबल हिन्दी से, जो एस.एम.एस. या चुटकले व ठहाके के लिए है। अतः भारतीय हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी का सम्बन्ध मानवीय सरोकारों से है न कि बाजारू भाषा के लाभ कमाने से। यहाँ भाषा का सम्प्रेषण और अर्थवत्ता सुरक्षित है, कोरी शब्दों की ध्वनियाँ ही नहीं है। भाषा तो वही जीवित रहती है और अच्छी होती है, जो कल भी समझी बोली और लिखी जाए। हिन्दी में यह तीनों गुण हैं उसे उसकी जड़ों से नहीं काटा जा सकता। वह अपनी सांस्कृतिक-बौद्धिक सृजनात्मकता का संरक्षण करती हुई प्रवाहमान है।


बेशक पुस्तकें नेट पर या अमेजन डॉट कॉम पर उपलब्ध हो जाती हैं फिर भी हिन्दीतर क्षेत्रों में हिन्दी पुस्तकालय संग्रहायल तथा हिन्दी पुस्तक मेले आयोजित किए जायें तथा साहित्य वितरण हो एवं कवि सम्मेलन आयोजित किये जाएं।


कुछ सीमा तक भाषा के परिवर्तित स्वरूप को स्वीकार किया जाना चाहिए अभिव्यक्ति की स्वच्छन्दता के इस काल में हिन्दी भाषी सौ टंच शुद्ध व्याकरण सम्मत हिन्दी के पक्षधर होने के कट्टर न रहे तथा अहिन्दी भाषी हड़बड़ाकर अपना छद्म हिन्दी जनेऊ न दिखाने लग जायें यह भी ध्यान रखना चाहिए। तथा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के हिन्दी सेवकों को अधिक संख्या में सम्मानित किया जाना चाहिए, किसी एक व्यक्ति को बढ़ी धनराशि से उसका लाभ तो होता है पर अधिक लोगों को सम्मानित करके हिन्दी प्रसार में तीव्रता आयेगी। सम्मानों का व्यापार न हो यह भी ध्यान रखा जाना है। हिन्दी प्रसार के लिए हिन्दी क्षेत्र के सहाराओं (धनकुबेरों) को सहारा बनना चाहिए इस क्षेत्र में भी निवेश की आवश्यकता है।


भारतीय भाषाई संस्कृति के क्षेत्र में तीर्थ पुरोहितों व ब्राह्मणों को समन्वय और संगम के लिए जाना जाता हैं, वे भारत की अनेक भाषाओं और बोलियों को सहज ही सीख जाते हैं क्योंकि भारत में तीर्थ और सांस्कृतिक यात्राएँ आदिकाल से हो रही हैं इन लोगों से भारतीय भाषाओं को सीखा जा सकता है। हिन्दी भाषी तीर्थ पुरोहित हिन्दी का प्रसार करते हैं।


___टी.वी. चैनलों के उद्घोषक व नाटकों के लेखक एवं विज्ञापन कम्पनियाँ और कुछ पत्र-पत्रिकाएं आधुनिक भाषा के नाम पर भाषा का ऐसा स्वरूप बना रहे हैं जो हिन्दी भाषी समाज में कहीं नहीं हैं। सड़क छाप और शिष्ट पारिवारिक का अन्तर समझना पड़ेगा, चैनलों का माइक या पत्र पत्रिकाओं की कलम हाथ में आते ही हिन्दी का ऐसा विच्छेदन होता है कि सुनते ही रह जाओ सखियाँ यार हो जाती हैं आर्यवर्त भारत से पहले हिन्दुस्तान और इण्डिया हो जाता है, ये भाषा का चीर हरण और अंग (लिंग) परिवर्तन नहीं? कन्नड बंगला में नहीं मिलती, गुजराती में असमिया नहीं मिलती, मलयालम में पंजाबी नहीं मिलती और आक्रमणकारियों तथा व्यापारियों की भाषाएं कब तक सम्मानित होगी? हिन्दी को वर्ण शंकर बनाया जाए और हिन्दी विद्वान उसे स्वीकार करें 'जानामि मम् धर्मम्'। भाषा का आभूषण व्याकरण है, लिपि का आभूषण सुलेख है, और साहित्य का आभूषण सद् और मानवीय मूल्यों का स्थापन है।


भाषा के राष्ट्रीय गौरव का संवैधानिक कर्तव्य कब पूरा होगा यदि नहीं होगा तो इसका संवैधानिक क्रिया कर्म ही हो जाना चाहिए अनुच्छेद 343-351 तक के विषय में सरकार अपना पक्ष स्पष्ट करे, हिन्दी भी विकलांग से दिव्यांग होकर ही रहेगी या फिर कभी पुष्टांग भी होगी? तीन तलाक या रामसेतु पर सरकारें और विपक्ष अपना मत स्पष्ट करते हैं या उच्चतम न्यायालय में शपथ पत्र देते हैं, इस पर भी उच्चतम न्यायालय को, सरकार से उसका पक्ष पूछना चाहिए तथा स्वयं के बारे में भी बताना चाहिए कि वे कब हिन्दी को अपनायेगें, पर समस्या तो यह है किउनकी नाक के नीचे खड़े हैं हम अहंकार की वक्रतुण्ड से दृष्टि जायेगी कैसे