जम्मू-काश्मीर की चित्रकला-शैलियाँ

जम्मू-काश्मीर राज्य न केवल भौगोलिक दृष्टि से, अपितु चिन्तन, दर्शन, साहित्य, कला एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी भारतवर्ष के मस्तिष्क के रूप में सुशोभित होता है। प्राकृतिक सुषमा से भरपूर यह प्रदेश प्राचीन काल में शारदा-देश के नाम से भी प्रसिद्ध था।



आदिकाव्य वाल्मीकि कृत रामायण में भी सीता के अन्वेषण के प्रसंग में काश्मीर का उल्लेख प्राप्त होता है


काश्मीरमण्डलं सर्वं शमीपीतुबनानि च।


पुराणानि च सशैलानि विचिन्वन्तु वनौकसः॥


-बाल्मीकीय रामायण, 4.43.221


महाभारत के वनपर्व में जम्मू-काश्मीर का उल्लेख द्रष्टव्य है


जम्बूमार्ग समाविष्य देवर्षिपितृसेवितम्।


अश्वमेधमवाप्रोति सर्वकामसमन्वितः।।


-महाभारत, वनपर्व, 40.82


काश्मीरेएवेव नागस्य भवनं तक्षकस्य च।


वितस्ताख्यमिति गच्देच्च सर्वपापप्रमोचनम्।। 


-वही, वनपर्व, 82.90


महाकवि श्रीहर्ष ने तो नैषधीयचरितम् में काश्मीर को चतुर्दश विद्याओं का पीठ कहा है।


काश्मीरैर्महिते चतुर्दशतयीं विद्यां विदरिमहा


-नैषधीयचरितम्, 16.131


इसी प्रकार हरिवंशपुराण, नीलमतपुराण, राजतरंगिणी आदि ग्रन्थों से जम्मू-काश्मीर राज्य की प्राचीनता एवं वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर होते हैं।


कला और सौन्दर्य का नित्यसहचर संबन्ध रहा है और यह राज्य तो सौन्दर्य की पर्यायभूमि होने के कारण ललितकलाओं के लिए प्राङ्गणस्वरूप रहा है।


अन्य कलाओं की ही भाँति चित्रकला के क्षेत्र में भी जम्मू-काश्मीर का अपना एक स्वतन्त्र वैशिष्ट्य रहा है जोकि द्रष्टव्य है


काश्मीर-शैली


पन्द्रहवीं से अठाहरवीं शताब्दी तक मध्ययुगीन चित्रशैलियों में काश्मीरी शैली का गण्यमान्य स्थान रहा है। राय कृष्णदास का कथन है कि काश्मीरी शैली ने राजस्थानी, मुगल और पहाड़ी-शैलियों के निर्माण में तो अपना योग दिया ही, वरन् अकबरकालीन मुगल-शैली अनेक अंशों में काश्मीरी शैली का ही रूपान्तर है; और इसी प्रकार पहाड़ीशैली भी उसी का नवीनीकरण बताया जाता है।


यदि हम मुगल-शैली की समीक्षा करते हैं, तो हमें ज्ञात होता है कि अकबर द्वारा राजपूत और मुगल-शैलियों के अतिरिक्त काश्मीर-शैली के चित्र भी हैं।


हम्जा-चित्रावली में कुछ बातें ऐसी देखने को मिलती हैं, जिनका सामञ्जस्य केवल काश्मीर से ही बैठता है। उदाहरण के लिए उनमें जो वन्य वातावरण चित्रित है, वह केवल काश्मीर में ही देखने को मिलता है। हम्जा-चित्रावली के ऐसे चित्रों के वस्तुविन्यास एवं पृष्ठभूमि पर काश्मीर-शैली का स्पष्ट प्रभाव है। इसके अतिरिक्त सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के बने अनेक चित्र मिलते हैं, जोकि 'रामायण', 'दशावतार' तथा 'कृष्णलीलाओ' से सम्बद्ध हैं। इन चित्रों के पृष्ठभाग या शीर्षांक में प्रायः संस्कृत के श्लोक लिखे हुए मिलते हैं। सोलहवीं शताब्दी में केशवदास द्वारा निर्मित रसिकप्रिया के 44 चित्र भी काश्मीर-शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।


काश्मीर-शैली का इस दृष्टि से भी महत्त्व है कि उसने अपनी समन्वयात्मक आदर्शवादिता के कारण दूसरी शैलियों के साथ सम्बन्ध बनाए रखने के लिए सदा ही उदारता का पक्ष लिया।


जम्मू-शैली


जम्मू नगर तवी नदी के किनारे एक पहाड़ी पर अवस्थित है। जंगली झरबेरियों, कीकर, बबूल, शीशम, शहतूत, बरैकड़, सैन्धा, भांग, धतूरा आदि वनस्पतियों के लिए प्रसिद्ध जम्मू अठारहवीं शताब्दी में शक्तिशाली पहाड़ी रियासत के रूप में उभरा। आसपास के इलाकों से अनेक कलाकार, परिवारों के साथ, नादिरशाह के हमले के बाद पहाड़ों की ओर उन्मुख हुए तो जम्मू का राज्य उन्हें बहुत सुरक्षित लगा। महाराज रणजीत देव (1725-1782), जो उस समय का शक्तिशाली शासक थे, इन विस्थापित कलाकारों के लिए संरक्षक सिद्ध हुए। पंजाब व दिल्ली से आनेवाले राजपरिवारों के साथ चित्रकारों का दल जम्मू पहुँचा। इन चित्रकारों में पण्डित सियु तथा नैनसुख और मानूक भी थे, जो मुगल दरबार और बाद में लाहौर में चित्रकारिता में दक्षता हासिल कर चुके थे। जम्मू-शैली की नींव इसी परिवार ने डाली।


जनश्रुति के अनुसार जम्मू नगर में समाधियाँ नामक स्थान पर तवी नदी के किनारे एक चित्रशाला स्थापित की गई थी, जिसमें स्थानीय चित्रकारों के अलावा अन्य राज्यों के चित्रकार भी अध्ययन एवम् अनुभव पाने आते थे। इस चित्रकला में रणजीत देव का छोटा भाई बलवन्त सिंह, जो बाद में जसरोटा रियासत का राजा बना, अत्यन्त दिलचस्पी लेता था।


अत्यन्त दिलचस्पी लेता था। जम्मू शैली में अधिकांश राजा बलवन्त सिंह के एकल चित्र हैं। वस्तुतः ये चित्र व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित थे, कहीं भी परिवेश को व्यक्ति पर हावी नहीं होने दिया गया। राजा की मृत्यु के बाद नये संरक्षक की तलाश में चित्रकार पलायन कर गए। बाद में यह शैली डोगरा-राजाओं के काल तक समान्तर धारा की तरह बहती रही।


बसोहली-शैली


बसोहली, जम्मू-काश्मीर के कठुआ नामक जिले के अन्तर्गत एक पहाड़ी प्रदेश है। किसी समय यह एक स्वतंत्र रियासत थी, अब उसका पहले जैसा गौरव नहीं रहा; परन्तु आज भी उसके भग्न खण्डहरों में उसके उज्ज्वल अतीत का गौरव बोल रहा प्रतीत होता है।


हिंदू-चित्रकला की सभी प्रधान प्रवृत्तियाँ बसोहली के चित्रों में मिलती हैं। बसोहली के चित्रकारों ने रागमाला के ढेरों चित्र निर्मित किये। उन्होंने दृष्टान्त चित्रों के लिए रामायण, महाभारत, देवीमाहात्म्य, रसिकप्रिया और गीतगोविन्द आदि ग्रन्थों का आश्रय लिया।


बसोहली-शैली की विशेषता उसके चक्षु-चित्रण में है। इस शैली में सम्पूर्ण चित्र का केन्द्रबिन्दु उसके पद्माकार, कर्णस्पर्शी और रसभावपूरित नयनों की बनावट में है। झीने वस्त्रों की ओट में पारदर्शक अंगों को दिखाने का भी विशेष रूझान मिलता है। हस्तमुद्राओं द्वारा उपयुक्त भाव-प्रदर्शन, चन्द्रसहित आकाश, स्त्रियों के कपोलों पर लटके हुए बाल इत्यादि इस शैली की मुख्य विशेषताएँ हैं। इस शैली के चित्रों का निर्माण उन्नीसवीं शताब्दी तक होता रहा।


जम्मू के राजा गुलाब सिंह (1822- 1856) द्वारा 1849 ई. में बसोहली के अन्तिम राजा कल्याणपाल को विजित करने और बसोहली राज्य को जम्मू रियासत में विलयित करने के साथ ही बसोहली-शैली का भी अन्त हो गया।


लद्दाख में थंका-चित्रकला


थंका-चित्रकला एक तिब्बती कलाकृति का नाम है। लद्दाख में थंका-चित्रकला का आरम्भ कब और कैसे हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है। इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि सातवीं शताब्दी में जब तिब्बत में काश्मीरी, नेपाली एवं मगध चित्रकला से अछूता नहीं था


लद्दाख में थंकाओं का निर्माण रेशम के कपड़े, टाट एवं साधारण कपड़े में किया जाता रहा है। लद्दाख में पाई जानेवाली थंकाओं को उन पर बने चित्रों के आधार पर पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है:


1. आर्य एवं अर्हतों के चित्रों का चित्रण।


2. साधना के समय जिन आत्माओं का सहारा लिया जाता है, उनका चित्रण।


3. धर्मपालों का चित्रण।


4. मण्डलों का चित्रण।


5. धर्म के आचरण से सम्बन्धित चित्रों का चित्रण।