महाकवि कल्हण और राजतरंगिणी

जाजतरंगिणी के प्रणेता महाकवि कल्हण (1150 ई.) काश्मीर के महाराज हर्षदेव (1068-1101 ई.) के महामात्य चम्पक के पुत्र और संगीतमर्मज्ञ कनक के अग्रज थे। काश्मीर के कमनीय कवि मंखक ने 'श्रीकण्ठचरितम्' (25/78-80) में महाकवि कल्हण की प्रगल्भता की सराहना करते हुए उन्हें महामन्त्री अलकदत्त के प्रश्रय में 'बहुकथाकेलिपरिश्रमनिरंकुश' घोषित किया है। वस्तुतः एवं तत्त्वतः कल्हण विलक्षण महाकवि थे। उसकी 'सरस्वती' रागद्वेष से अलेप रहकर 'भूतार्थचित्रण' के साथ ही साथ 'रम्यनिर्माण' में भी निपुण थीं। तभी तो बीते हुए काल को 'प्रत्यक्ष' बनाने में उन्हें सरस सफलता मिली है। 'दुष्ट वैदुष्य' से बचने का उन्होंने सुरुचिपूर्ण प्रयत्न किया है और 'कविकर्म' के सहज गौरव को प्रणाम करते हुए उन्होंने अपनी प्रतिभा का सचेत होकर उपयोग किया है। इतिहास और काव्य के संगम पर उन्होंने अपने प्रबन्ध' को शान्त रस का 'मूर्धाभिषेक' किया है और अपने पाठकों को 'राजतरंगिणी' की अमन्द रसधारा का आस्वादन करने के लिए आमन्त्रित किया उठकर है।



महाकवि कल्हण ने 'इतिहास' को काव्य की विषयवस्तु बनाकर भारतीय वाङ्मय को एक नयी विधा प्रदान की है और राष्ट्रजीवन के व्यापक विस्तार के साथ साथ मानव प्रकृति की गहराइयों को भी छू लिया है। इतिहासकार के नाते निःसन्देह महाकवि कल्हण की अपनी सीमाएँ हैं, विशेषकर प्रारम्भिक वंशावलियों और कालगणना के सन्दर्भ में। उनके साधन भी सीमित थे, परन्तु उनकी कालगणना और इतिहास-सामग्री विस्तृत और विश्वसनीय है। अपने पूर्ववर्ती 'सूरियों' के 11 ग्रन्थों और 'नीलमतपुराण' के अतिरिक्त उन्होंने प्राचीन राजाओं के प्रतिष्ठाशासन', 'वास्तुशासन', 'प्रशस्तिपट्ट', 'शास्त्र' (लेख आदि), भग्नावशेष, सिक्के और लोकश्रुति आदि पुरातात्त्विक साधनों से यथेष्ट लाभ उठाने का गवेषणात्मक प्रयास किया है। सबसे बड़ी बात यह कि अपने युग की अवस्थाओं और व्यवस्थाओं का निकट से अध्ययन करते हुए भी उन्होंने बिना लाग-लपेट के अपनी टीका-टिप्पणी की है। और तो और, अपने आश्रयदाता महाराज जय सिंह के गुण-दोष-चित्रण (अष्टम तरंग) में भी उन्होंने अनुपम तटस्थता का परिचय दिया है। महाकवि कल्हण की मान्यता है कि 'पूर्वापरानुसन्धान' और 'अनीय विवेक' के बिना गुणदोष का निर्णय समीचीन नहीं हो सकता। सम्भवतः इसलिए महाकवि कल्हण ने केवल राजनीतिक रूपरेखा न खींचकर सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की झलकियाँ भी प्रस्तुत की हैं। चरित्र-चित्रण में भी सरस विवेक से काम लिया है। मातृगुप्त और प्रवरसेन, नरेन्द्रप्रभा और प्रतापादित्य तथा अनंगलेखा, खंख और दुर्लभवर्धन (तरंग 3) अथवा चन्द्रापीड और चमार (तरंग 4) के प्रसंगों में मानव मनोविज्ञान के मनोरम चित्र दृग्गत होते हैं। इसके अतिरिक्त बाढ़, आग, अकाल और महामारी आदि विभीषिकाओं तथा धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उपद्रवों में मानव स्वभाव की उज्ज्वल प्रगतियों और कुत्सित प्रवृत्तियों के साभिप्राय संकेत भी मिलते हैं। 


महाकवि कल्हण का दृष्टिकोण अत्यन्त उदार था। माहेश्वर (ब्राह्मण) होते हुए भी उन्होंने बौद्ध दर्शन की उदात्त परम्पराओं को सराहा है और पाखण्डी (शैव) तान्त्रिकों को आड़े हाथों लिया है। सच्चे देशभक्त की तरह उन्होंने अपने देशवासियों की बुराइयों पर से पर्दा सरका दिया है और एक सच्चे सहृदय की तरह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठकर, सत्य, शिव और सुन्दर का अभिनन्दन तथा प्रतिपादन किया है।


सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महाकवि कल्हण कृत 'राजतरंगिणी' ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें वैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयत्न हुआ है। अपनी कतिपय कमजोरियों के बावजूद महाकवि कल्हण का दृष्टिकोण प्रायः अकादमिक इतिहासकार जैसा ही है। स्वयं तो वे समसामयिक स्थानीय पूर्वाग्रहों के ऊपर उठ ही गए हैं, साथ ही घटनाओं के वर्णन में अत्यन्त समीचीन अनुपात रखा है। विवरण की संक्षिप्तता सराहनीय है।