में हिन्दी हूँ

मैं हिन्दी हूँ। मेरी व्युत्पत्ति के संदर्भ में कुछ कहते हैं कि मैं हिन्द में फारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगाने से बनी हूँ। कुछ मेरे विकास का क्रम 'हिन्दु', 'हिन्द' में 'ई' प्रत्यय जोड़कर बताते हैं। कुछ कहते हैं कि मेरी व्युत्पत्ति 'हिन' में 'दु' संश्लिष्ट कर हुई है, जिसका अर्थ दुष्टों का हनन करने वाला है और मैं अर्थात् हिन्दी उसी की भाषा हूँ। विद्वतजन मेरे विभिन्न नाम व रूप बताते हैं, जिनमें 'हिन्दवी', 'हिन्दुई' 'जबान-ए-हिन्दी' 'देहलवी' आदि मुख्य हैं। एक बात और मैं गौरवान्वित हूँ, यह कहकर कि मुझे उस राष्ट, की भाषा होने का गौरव प्राप्त है, जहाँ अनेक धर्म एवं विविध जाति के लोग निवास करते हैं और जिसकी एकता एवं अखण्डता के समक्ष अखिल विश्व नतमस्तक है। इसी भावभूमि में मेरे विषय में एक संदर्भ अमीर खुसरो (1253-1325) का भी आता है कि सर्वप्रथम उन्होंने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए फारसी-हिन्दी कोश 'खालिक बारी' की रचना की, जिसमें हिन्दीव शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है। मेरे बच्चो। मैं अधिक गहराई में न जाकर सिर्फ इतना ही कहना चाहती हूँ कि भारत जिसे आर्यावर्त, हिन्दुस्तान और इण्डिया भी कहते हैं, में मैं पैदा हुई, पली और बड़ी हुई हूँ। मुझे संस्कृत की बेटी भी कहा जाता है। आशुलिपि के जन्मदाता पिटमैन, नासा के वैज्ञानिक एवं विद्वान बिलगेट्स आदि भी मेरी जननी संस्कृत को ही स्वीकारते हैं। इस प्रकार मेरे विकास का क्रम क्रमशः संस्कृत, पालि, प्राकृत अपभ्रंश, अवहट्ट, प्राचीन हिन्दी, प्रारम्भिक हिन्दी के रूप में माना जाता है। अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई. से लेकर 1100 ई. के मध्य हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा। अवहट्ट अपभ्रंश का अपभ्रंश है। इसका कालखण्ड 900 ई. से 1100 ई. तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं शताब्दी तक होता रहा। प्राचीन या पुरानी हिन्दी, आरम्भिक हिन्दी, आदि कालीन हिन्दी मेरे ही प्रारम्भिक नाम व रूप हैं। मध्यकाल में मेरा स्वरूप स्पष्ट हो गया। मेरी प्रमुख बोलियाँ भी विकसित हो गई। सन् 1600 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। ब्रिटिश शासन देश पर हावी होते गए। तुम्हें तो पता ही होगा कि ब्रिटिश शासनकाल में जनता और सरकार के बीच होने वाली बातचीत में फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से कठिनाइयाँ आने लगी थी तो कम्पनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग की स्थापना कर समस्त अधिकारियों को हिन्दी सिखाने का व्यापक प्रबन्ध किया था। यहाँ से मेरे जानकर अर्थात् हिन्दी पढ़े अधिकारियों ने विभिन्न क्षेत्रों में लाभ देखकर मेरी यानी हिन्दी की खूब सराहना की। विद्वान अंग्रेज सी.टी. मेटकाफ, टीमस रोबक, विलियम कैरी आदि ने मेरे विषय में कहा भी है कि हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं, बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है। एच.बी.कोल बुक ने लिखा है कि जिस _भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी का वास्तविक नाम 'हिन्दी' है। कोलबुक का यह कथन सत्य है, क्योंकि किसी भी भाषा के रचनातत्व ध्वनि, शब्द, पद, वाक्य और अर्थ होते हैं। इस दृष्टि से मैं विश्व की हर भाषा से अधिक शक्तिशाली हूँ। एक बात और मेरे भीतर विभिन्न भाषाओं से आगत एवं समाहित बहुद्देशीय और बहुक्षेत्रीय शब्दावली ने मुझे सर्वसन्दर्भी, सर्वस्पर्शी एवं सम्बोध्य भाषा बना दिया है।



मेरे बच्चों कोई माने या न माने, मैं देश की माँ हूँ। राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की सुदृढ़ता में मेरी महत्त्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता भारतीय स्वतन्त्रता के कर्णधार महात्मा गाँधी मेरे प्रबल समर्थक थे। मेरी महत्ता को दृष्टिगत कर 5 फरवरी, 1916 को महात्मा गाँधी ने अपने 36 समर्थकों सहित नागरी प्रचारिणी सभा में भाषण देते हुए आजीवन हिन्दी के व्यवहार की शपथ ली।


उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन और मेरे प्रचार-प्रसार को एक दूसरे का पूरक बना दिया था। 26 दिसम्बर से 30 दिसम्बर, 1916 तक लखनऊ में एक अधिवेशन के दौरान 'भारतीय एक-भाषा और एक लिपि सम्मेलन' में अध्यक्ष पद से बोलते हुए महात्मा गाँधी ने कहा, "यदि राष्ट्रभाषा का प्रचार करना है तो उसके लिए भागीरथ प्रयत्न करना होगा। आप लोग लाट साब को या सरकार के दरबार में जो प्रार्थना पत्र भेजते हैं वह किस भाषा में भेजते हैं? यदि हिन्दी भाषा में नहीं भेजते तो हिन्दी में लिखकर भेजिए। आप लोग कहेंगे कि हिन्दी में लिखकर भेजने से वे हमारी बात नहीं सुनेंगे। मैं कहता हूँ कि आप आपनी भाषा में बोलें, अपनी भाषा में लिखें। उनकी मरजी होगी तो वे हमारी बात सुनेंगे मैं अपनी बात अपनी भाषा में कहूँगा। जिसको गरज होगी, वह सुनेगा। आप इस प्रतिज्ञा के साथ काम करेंगे तो हिन्दी का दर्जा बढ़ेगा।" सन् 1917 में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा योजना शीर्षक से लेख लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा, "मेरा दृढ़ विचार है कि केवल हिन्दी ही राष्ट्रीय भाषा का स्थान ले सकती है। हिन्दी में बहुत अच्छा साहित्य है। यह हमारी भाषाओं को समृद्ध बनाती है।" सन् 1918 में इंदौर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गाँधी जी अध्यक्ष बने। उनका अध्यक्षीय भाषण पूर्णतः मुझ पर केन्द्रित था। 1920 के असहयोग आन्दोलन का मेरे प्रचार-प्रसार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस आन्दोलन ने मुझे राष्ट्रव्यापी बना दिया। भारतीय विद्वान रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा कि यदि हम प्रत्येक भारतीय के नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं तो हमें राष्ट्रभाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने की सिफारिश महात्मा गाँधी ने हम लोगों से की है। इसी विचार से हमें भाषा की आवश्यकता है और वह हिन्दी है। "सन् 1922 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, कानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। उसके सभापति पुरुषोत्तम दास टण्डन राजर्षि हुए। उन्होंने मुझे संवैधानिकतः राष्ट्रभाषा की संज्ञा से विभूषित करने के लिए विविध क्षेत्रों में अथक प्रयास किए। मेरे पास विद्वानों की लम्बी श्रृंखला है, जिन्होंने मुझे राष्ट्रभाषा का मुकुट पहनाना चाहा, किन्तु मेरे इस छोटे-से कथन में सभी के नाम का उल्लेख कर पाना सम्भव नहीं है। ये विद्वान अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में भी मुझे माँ कहने से हिचके नहीं, बल्कि मुझे राष्ट्रभाषा बनाने में तन-मन-धन से समर्पित रहे। इन्हें इनके सद्कर्मों से अमरता तो प्राप्त हो गई, किन्तु मैं भी इन्हें 'यशस्वी भव' कहे बिना नहीं रह सकती। मैं एक बार पुनः रचनात्मक क्रान्ति की दिशा में वर्ष 1925 में महात्मा गाँधी के देश व्यापी दौरे की बात करना चाहती हूँ। 18 अक्टूबर, 1925 को सीतापुर में सम्पन्न संयुक्त प्रान्तीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन में महात्मा गाँधी ने पुनः कहा, “हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। मुझे इस बात से बड़ी खुशी है कि मद्रास में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का कार्य किया जा रहा है।" दिसम्बर, 1928 में बंगाल में भी मेरे प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से 'राष्ट्रभाषा सम्मेलन' का आयोजन किया गया था। इस संगठन में स्वागताध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस थे। महात्मा गाँधी इस सभा के सभापित मनोनीत हुए थे। यहाँ यह कहना अप्रसंगिक न होगा कि जैसे-जैसे स्वतन्त्रता संग्राम तीव्रतर होता गया, वैसे-वैसे मुझको राष्ट्रभाषा बनाने का आन्दोलन जोर पकड़ता गया। वर्ष 1942 से 1945 तक का समय ऐसा था जब देश में स्वतन्त्रता की लहर सबसे तेज थी। तब राष्ट्र से ओत-प्रोत जितनी रचनाएँ मेरे शब्दों में कही गई, उतनी शायद किसी और भाषा में नहीं कही गई। सत्य तो यह है कि मेरे शब्दों में कहीं गई राष्ट्रीय-भाव से ओतप्रोत रचनाएँ ही भारतवासियों के भीतर स्वतन्त्रता-संग्राम का रक्त-संचरण कर रहीं थी। कवि श्री श्यामलाल पार्षद का झण्डागीत 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा' मेरे ही शब्दों में है, जो सृजन-पल से लेकर आज तक देश का प्रेरणा स्रोत बना हुआ है। ऐसे शंखनाद यानी नारों और गीतों ने ही स्वतन्त्रता संग्राम में देश को विजय दिलायी। इसी कारण अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। लेकिन मेरी दुर्दशा होती गई। अंग्रेज चले गए, किन्तु अंग्रेजी और हावी होती गई। शायद इसीलिए जनमानस की थोथी एवं पंगु मानसिकता पर मेरे शब्द-सारथी कवि अज्ञेय ने टिप्पणी की है, "जब हम राजनीतिक-दृष्टि से पराधीन थे, तब तो हमारे पास स्वाधीन भाषा थी, अब जब हम स्वाधीन हो गए तो हमारी भाषा पराधीन हो गई।' सच है, अंग्रेजी मानसिकता के धनी मस्तिष्कों ने मुझे ईमानदारी से कभी स्वीकारा ही नहीं।


देश के स्वतन्त्र होने के बाद 14 सितम्बर, 1949 की संविधान सभा ने सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया था कि स्वतन्त्र भारत की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी होगी। इसी को तुम ऐतिहासिक निर्णय समझकर प्रतिवर्ष 14 सितम्बर को मेरी वर्षगाँठ यानी 'हिन्दी दिवस' मनाते हो। मेरे बच्चो! यह कहते हुए मेरी आँखें भर आई हैं कि माँ होते हुए भी मैं अभी तक माँ का दर्जा नहीं प्राप्त कर सकी। मातृभाषा जानते-मानते हुए भी तुम मुझे माँ कहने में संकोच करते हो। संवैधानिक रूप से मुझे राष्ट्रभाषा स्वीकारने में भी घबराते हो। मेरे बच्चो! राष्ट्रभाषा देश का गौरव होती है। हर देश की अपनी एक राष्ट्रभाषा है। जर्मनी की जर्मनी, बांग्लादेश की बांग्ला, चीन की चीनी या मंदारिन, पाकिस्तान की उर्दू, इंग्लैण्ड की अंग्रेजी एवं फ्रांस की फ्रेंच है। कोई पूछेगा, तुम्हारी राष्ट्रभाषा क्या है तब क्या कहोगे? क्या मेरा नाम भी नहीं ले सकते? क्या मुझे माँ भी नहीं कह सकते? क्या राष्ट्रभाषा हिन्दी कहने में तुम्हारा सिर झुक जाएगा? हँसी आती है उन अभिनेत्रियों एवं अभिनेताओं पर जो पर्दे पर रोजी-रोटी के नाम पर मुझे जिह्वा पर रखकर बोलते हैं, अभिनय करते हैं, मीठे-मीठे गीत गाते हैं, किन्तु जब दूरदर्शन या कहीं साक्षात्कार देते हैं, तो सीधे अंग्रेजी में उत्तर आते हैं। राष्ट्र के जनप्रतिनिधि कहे जाने वाले नेता भी मुझे आधार बनाकार शिक्षितों-अशिक्षितों समेत प्राप्त समर्थन करते हैं, किन्तु गन्तव्य तक जाते-जाते मुझे तिरस्कृत कर सारा कार्य अंग्रेजी में ही करने लगते हैं। मेरे बच्चों! मुझे किसी भाषा से कोई ईर्ष्या नहीं है। मेरे हृदय में झाँककर देखो मैं हमेशा वसुधैव कुटुम्बकम की समर्थक रही हूँ। प्रगति के लिए ज्ञान बढ़ाओं, सम्बन्ध जोड़ो, अपना आर्थिक एवं वैज्ञानिक धरातल मजबूत करो। मैं भी तो यही चाहती हूँ कि इस देश का विकास हो। क्या मैं विकास के क्षेत्र का रोड़ा हूँ? क्या मैं अंग्रेजी की तरह अन्तरर्राष्ट्रीय सूझ-बूझ नहीं रखती? यह तुम्हारा भ्रम है। तुमने मुझे ठीक से जाना- समझा ही नहीं। क्या तुम भूल गए? जार्ज गियर्शन ने मुझे बोलचाल की महाभाषा तक कह दिया है। यहीं नहीं, 'जार्ज हैडले नामक अंग्रेज ने सन् 1771 में ही मुझसे सम्बन्धित सम्यक् जानकारी के लिए मूल व्याकरण नामक ग्रन्थ भी निकाला। फ्रांस निवासी गारसाँ-द-तासी ने मुझे हिन्दुस्तानी हिन्दी सम्बोधित करते हुए लिखा है कि अन्य भाषाओं की तुलना में मुझमें सबसे अधिक अभिव्यंजना-शक्ति है और मैं सबसे अधिक शिष्ट प्रचलित भाषा हूँ। समस्त एशिया में कोमलता और विशुद्धता के लिए जो ख्याति मुझे प्राप्त है वह किसी अन्य भाषा को नहीं है। इसी देश में सन् 1862 के आसपास आए सिविलियन अफसर एफ. एस. ग्राउस ने अपनी पुस्तक 'ए डिस्ट्रिक मैमायर्स मथुरा' में मेरे विषय के रेवरेण्ड फादर डाक्टर कामिल बुल्के मुझसे ऐसे प्रभावित हुए कि भारत के नागरिक बनकर जीवन पर्यन्त अपना देश छोड़कर भारत में ही रहने लगे। मैं यहाँ किंचित भावुक हो गयी हूँ, यह कहते कि मेरे लिए डॉ. बुल्के ने जो काम किया, वह शायद ही कोई अपने ने किया हो। मेरे विषय में समग्र जानकारी के लिए 'अंग्रेजी- हिन्दी कोश' दिया। इस कोश में उन्होंने चालीस हजार शब्द जोड़े। उन्होंने बाइबल का मेरे शब्दों अर्थात् हिन्दी में अनुवाद भी किया। मेरा शब्द-भण्डार अक्षुण्ण है। तुम मुझे तन-मन से अपनाओं तो सही। मेरे बच्चो! मैं तुम्हारी माँ हूँ। मैं चाहती हूँ, तुम मुझे मन से माँ कहो, मुझे माँ का दर्जा दो, मुझे राष्ट्रभाषा के रूप में विधानतः स्वीकार करो, क्योंकि तुम्हारा अस्तित्व मुझसे है और मेरा अस्तित्व तुमसे।


आओ! कुछ देर देश की भाषा सम्बन्धी संवैधानिकता पर बातें करें। उसने मुझे क्या दिया? संविधान निर्माताओं के समक्ष स्वतन्त्रता से पूर्व ही यह प्रश्न था कि भारत के स्वतन्त्र होने के पश्चात् किस भाषा में प्रशासकीय एवं विधिक-कार्य सम्पादित किए जाएँगे? यहाँ मैं एक बार पुनः संकेत करना चाहती हूँ कि स्वतन्त्रता-संग्राम में मैं भारतवासियों के साथ पूर्णरूपेण राष्ट्रभाषा बनकर ही उनका साथ देती रही, लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय पारित किया कि मैं हिन्दी भारत संघ की राजभाषा होऊँगी। संविधान में राजभाषा सम्बन्धी अनुच्छेद भाग-17 के अध्याय-1 धारा 343 से 351 तक है जिसमें संक्षिप्ततः संविधान भाग-5 (120) में उल्लेख है कि राज्य के विधानमण्डल के कार्य राज्य की राजभाषा, राजभाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा। संविधान भाग-17 अनुच्छेद 343 में लिखा है कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। अनुच्छेद 344 में वर्णित है कि राष्ट्रपति द्वारा संविधान के प्रारम्भ में 5 वर्ष की समाप्ति पर और 10 वर्ष की समाप्ति पर आयोग द्वारा एक आयोग गठित किया जाएगा, जो आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारतीय भाषाओं के प्रयोग एवं विकास के विषय में अनुशंसा करेगा। अनुच्छेद 345 में दिया गया है कि राज्य विधान मण्डल उस राज्य में प्रयोग में आने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक को या हिन्दी को शासकीय प्रयोग के लिए स्वीकार कर सकेगा। अनुच्छेद 346 में दिया गया है कि राज्य और संघ के बीच पत्रादि की भाषा वहाँ की राजभाषा या हिन्दी होगी। अनुच्छेद-347 में प्राविधानित है कि यदि किसी राज्य की संख्या का पर्याप्त भाग यह चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता दी जाए तो राष्ट्रपति निर्देश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उनके किसी भाग में विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए मान्यता दी जाएअनुच्छेद-348 में कहा गया है कि राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उच्चतम न्यायालयों में तथा अधिनियमों एवं विधेयकों में प्रयोग की जाने भाषा हिन्दी या उस राज्य की राजभाषा प्रयोग की जा सकेगी। अनुच्छेद349 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा भाषा सम्बन्धी कुछ विधेयको को अधिनियमित करने के लिए गठित राजभाषा आयोग और समिति की सिफारिशों और उनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों पर विचार करने के पश्चात् ही मंजूरी दी जाएगी। अनुच्छेद-350 प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाओं तथा भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष अधिकार से सम्बन्धित हैअनुच्छेद-351 में मेरे विकास के लिए आवश्यक निर्देश दिए गए हैं। इसमें स्पष्ट वर्णित है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे, जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में निर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो, वहाँ शब्द भण्डार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द- ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। प्रतीत्य है कि संविधान निर्माताओं के हृदय में एक ऐसी सावंदेशिक हिन्दी के विकास की संकल्पना थी, जो राष्ट्र के बहुधा समुदाय के पारम्परिक सम्पर्क- संचार और शैक्षणिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक प्रयोजनों के अतिरिक्त अन्य प्रशासनिक और वैधानिक, प्रयोजनों की भी सिक्त करने में सक्षम हो। अनुच्छेद 351 में प्रयुक्त शब्द 'हिन्दी' भाषा का अभिप्राय राजभाषा हिन्दी तक न सीमित होकर 'राष्ट्रभाषा' और सार्वदेशिक सम्पर्क भाषा तक व्याप्त है। फिर भी एक बार पुनः अनुच्छेद-120 एवं 210 को दुहराना चाहती हूँ, जिनमें स्पष्ट कहा गया है कि संसद विधि द्वारा अन्यथा न उपबन्ध करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् या अंग्रेजी में शब्दों का लोप किया जा सकेगा। संविधान के अनुच्छेद-343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रख सकती हैं। रही-सही कसर बाद में राजभाषा अधिनियम-1963 ने पूरी कर दी गई, क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य की साफ कर दिया कि अंग्रेजी की हुकूमत अनंतकाल तक बनी रहेगी। राजभाषा नियम-1976 से मेरे प्रगामी प्रयोग के क्रियान्वयन पर प्रभाव तो पड़ा, लेकिन मैं यह कैसे भूल सकती हूँ कि सर्वत्रतः मुझ असीम को राजभाषा कहकर और अंग्रेजी के प्रयोग की अवधि असीमित समय तक के लिए विस्तारित कर मुझे सीमित कर दिया गया। राजभाषा के रूप में मेरी पहुँच विधान मण्डल, संघ, विधि निर्माण एवं न्यायालयों तक ही है, जबकि राष्ट्रभाषा के रूप में मेरी पहुँच गाँव गली-फुटपाथों से लेकर संसद से अखिल विश्व तक है। मैं एक बात गर्व से कहना चाहती हूँ कि मेरी शब्द संरचना तथा मेरी सार्वभौमिकता मेरे भीतर विश्वभाषा तक हो जाने की विशिष्टता रखती है। मेरे बच्चों! बीच में ही मैं विश्व हिन्दी सम्मेलन की भूमिका की चर्चा करना चाहती हूँ, क्योंकि इन सम्मेलनों ने मेरे प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाई है। स्मरण तो होगा ही कि 10 जनवरी, 1975 को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन, नागपुर में अयोजित किया गया था। इस सम्मेलन का आरम्भ 10 जनवरी को हुआ था। तुम सबने 10 जनवरी को अन्तरर्राष्ट्रीय हिन्दी दिवस के रूप में मनाने का संकल्प लिया था। अब तक अनेक विश्व हिन्दी सम्मेलन हो चुके हैं। 13 जुलाई 2007 को राष्ट्रसंघ के मुख्यालय न्यूयार्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन समारोह पर राष्ट्रसंघ के महासचिव श्री वानकीमून ने मेरे विषय में कहा था, "हिन्दी एक मीठी भाषा है, जो दुनियाँ भर के लोगों को पास लाने का काम कर रही है। यह एक ऐसी भाषा है जो दुनियाँभर की संस्कृतियों के बीच एक सेतु का काम करती है। कितनी सच्चाई है, उनके कथन में। आज मुझको पढ़ने और समझने वाले देशों में रूस, फ्रांस, अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड, रूमानिया, चीन, जापान, आस्ट्यिा , डेनमार्क, नार्वे, इण्डोनेशिया, स्वीडन, हँगरी, बुल्गारिया, पोलैण्ड, आस्ट्रेलिया, डेनमार्क, मालदीव, नीदरलैण्ड एवं मैक्सिको आदि हैं। हालैण्ड के लाईडेन विश्वविद्यालय में मेरा पूर्ण अस्तित्व है। यहाँ मुझ पर पी.एच.डी. करने के लिए विशेष सुविधा है। अमेरिका के 68 विश्वविद्यालय में, रूस के 10 विश्वविद्यालयों में, जापान के क्योटी और ओसाका विश्वविद्यालय में चीन के पेइचिंग विश्वविद्यालय में और पाकिस्तान के करांची विश्वविद्यालय में मेरे अर्थात् हिन्दी पठन-पाठन की पूर्ण व्यवस्था है। बी.बी.सी. लंदन और चीन के आकाशवाणी में मेरा बोलबाला है। सूरीनाम में मैं देवनागरी, रोमन और सरनामी हिन्दी के रूप में विख्यात हैं। इण्डोनेशिया में 18 प्रतिशत शब्द संस्कृत और मेरे हैं। इस्लामी राष्ट्र तुर्की, इराक, मिश्र, लिबिया, अरब, अमीरात, दुबई, अफगानिस्तान, उजबेकिस्तान और मध्य एशिया के देशों में मेरा व्यापक प्रचार-प्रसार है। इन दृष्टान्तों से मैं अपनी लोकप्रियता दिखाना चाहती हूँ कि विश्व के शीर्षस्थ देशों में मेरी कितनी प्रतिष्ठा है लेकिन अपने देश में? मैं आज तक विधानतः पूर्ण रूप से राष्ट्रभाषा भी नहीं बन पाई हूँ। मैं किसको दोष हूँ? मेरे बच्चों! मेरी संवैधानिक-स्थिति देखो। संविधान निर्माण के समय संविधान-सभा के भीतर और बाहर मेरे पक्ष में विपुल समर्थन को देखकर संविधान-सभा ने मेरे पक्ष में अपना निर्णय तो दिया लेकिन यह निर्णय मुंशी आयंगकर फार्मूले के अनुसार मुझे राजभाषा बनाने तक ही सीमित रह गया, जबकि मुझे उसी समय राष्ट्रभाषा बना दिया जाना चाहिए था। मुझे यह कहने में किंचित भी संकोच नहीं है कि यदि संवैधानिकतः मैं इस समय राष्ट्र भाषा बन गई होती तो अब तक मैं विश्व भाषा के शिखर पर पहुँच गई होती। बच्चों! मेरा एक हजार वर्ष का इतिहास साक्षी है कि मैं ग्यारहवीं शताब्दी से राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही हूँ। भले ही संस्कृत, फारसी या बाद में अंग्रेजी मान्य रही हो। मेरा अस्तित्व इस देश के कण-कण व्याप्त रहा है। समूचे राष्ट्र में आपसी सम्पर्क और सांस्कृतिक एकता का माध्यम मैं ही रही हूँ। बच्चों! हँसी आती है, देश के कतिपय विद्वानों पर जो अज्ञानता या अनुभवहीनता के कारण राजभाषा और राष्ट्रभाषा में अन्तर ही नहीं कर पाते।


मैं बताती हूँ, दोनों में क्या अन्तर है? राष्ट्रभाषा समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आम जन या जनता की भाषा होती है, जो समस्त राष्ट्र में जन-जन के विचार विनियम का माध्यम बनकर लोक व्यवहार में मुखरित व व्यवहृत होती है। इसी में देश की सोच, अस्मिता, संस्कृति, विश्वास, धर्म, चाल-चलन, आचार-विचार, लौकिक-अलौकिक अन्तः प्रेरणाएँ, लोकनीति, सर्वजनरूप, सुख-दुख आदि का सर्वमान्य रूप में राष्ट्रभाषा प्रयुक्त होती है। इसका प्रयोग अनौपचारिक रूप से उन्मुक्त व स्वच्छन्द शैली में होता है। इसका शब्द-भण्डारण भी देश की विविध बोलियों से एवं उपभाषाओं आदि से समृद्ध होता है। इसमें लोक-प्रयोग के अनुसार नई शब्दावली स्वगत ही जुड़ती चली जाती है। जबकि, राजभाषा प्रशासक वर्ग की भाषा है, जो प्रायः राजकीय, सरकारी, अर्धसरकारी कार्यों एवं कर्मचारियोंअधिकारियों द्वारा व्यवहृत की जाती है। इसका भण्डारण संकुचित एवं सुलभता, सहजता, स्वच्छन्दता या कल्पनात्मक नहीं होती क्योंकि हर ओर से प्रशासनिक एवं वैधानिक दबाव रहता है।


मेरे बच्चो। वैश्वीकरण के इस युग में मेरी अपरिहार्यता भी बढ़ गई है। इस देश से विदेशों में जाने वाली प्रतिभाएँ सिद्ध करने लगी हैं कि मेरे यानी हिन्दी के बिना आर्थिक-प्रगति सम्भव नहीं है। मैं भी आज कम्प्यूटर की सबल व सशक्त भाषा बन गई हूँ। विश्व के कोने-कोने में मेरी लिपि में कम्प्यूटर उपलब्ध हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भी अपने यहाँ मेरे प्रचार-प्रसार के लिए प्रशासन पर दबाव डालना शुरू कर दिया है। हिन्दी बहुल एशियाई देशों में वे अपना व्यापारिक हित साधना चाहते हैं। आज विश्व में तीन हजार भाषाएँ हैं, जिनमें मैं भी सम्मिलित हैं, फिर भी अपनी जीवन्तता और गतिशीलता से मैं अभौगोलिक, सार्वभौमिक, सर्वाधिक प्रगतिशील एवं पूर्ण विकसित भाषा बन गई हूँ। एक आँकलन के अनुसार सन् 1952 में मैं विश्व में पाँचवें स्थान पर थीअस्सी के दशक में चीनी और अंग्रेजी के बाद तीसरे स्थान पर आ गई। इधर 1991 की जनगणना में मुझे मातृभाषा घोषित करने वालों की संख्या के आधार पर पूरे विश्व में अंग्रेजी भाषियों से अधिक मुझे अपनाने वालों यानी हिन्दी भाषियों की संख्या हो गई। भारतीय विद्वान डॉ. जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने अपनी वर्ष 2012 की अन्तरर्राष्ट्रीय आख्या में मुझे विश्व में तृतीय स्थान पर बताया था, लेकिन वर्ष 2015 के अनुमानित आँकडो के अनुसार मुझे प्रथम स्थान पर माना है। मेरी लोक प्रियता देखकर तमिल भाषी विज्ञानवेत्ता पूर्व राष्ट्रपति डाक्टर अब्दुल कलाम ने भी स्पष्ट कहा था, "मेरी राय है कि सभी राज्यों में 12 वीं कक्षा तक हिन्दी बोलना अनिवार्य कर दिया जाय, ताकि सारे लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख सकें। अतिश्योक्ति नहीं है कि भारत में अब लगभग सभी विषयों एवं विधाओं में प्रचुर मात्रा में प्रकाशन-कार्य भी हो चुका है, विज्ञान, न्यायपालिका, औषधि, भूगोल, अर्थशास्त्र, बैंकिंग, वनस्पति विज्ञान एतदर्थ हर विषय की पुस्तकें मेरी लिपि में उपलब्ध हैं। आज का युग भी संचार-क्रांन्ति का है। आज विश्व एक ग्राम हो गया है। संचार माध्यमों ने मुझे पूरी तरह इस ग्राम में पहुँचा दिया है। व्यापार, वाणिज्य और ज्योतिष जैसे क्षेत्रों की प्रचलित भाषा तो मैं सन् 1992 में शुरू हुई वैश्वीकरण और संचार माध्यमों की प्रक्रिया ने तकनीक माध्यमों और उनको संचालित करने वाले मस्तिष्कों की प्रतिस्पर्धी सोच ने सेटेलाइट के बहुसंख्यक प्रक्षेपणों से संचार माध्यम को सहस्त्रमुखी बना दिया है। आज इन्टरनेट के माध्यम से मेरे अक्षरों में सूचनाएँ लेने-देने की प्रक्रिया अत्यन्त सरल हैं। मंगल जैसे यूनिकोडीकृत फोंट के कारण मेरा अस्तित्व विश्व के कोने-कोने में व्याप्त है। अकेले कम्प्यूटर और मोबाईल में संचार के इतने रूप आ गए हैं कि वर्तमान स्वयं आश्चर्यचकित है। इन समस्त क्रियाओं-प्रक्रियाओं में मैं पूर्णतः विद्यमान हूँ और साहित्य की ही तरह इलेक्ट्रोनिक माध्यमों ने भी अखिल विश्व में मेरी विजय पताका फहरा दी है।"


मेरे बच्चो। मैं इस देश का वह अमृत-घट हूँ, जिसमें विश्व के न जाने कितने महासागर समाए हुए हैं। तुम्हें गर्व होना चाहिए कि मैं तुम्हारे लिए कितनी सहज, सरल, सुबोध व सुगम हूँ। मैं इस राष्ट्र की अस्मिता और गौरव का प्रतीक हूँ। बच्चों याद रखो, मैं हिन्दी हूँ। हिन्दी ही हिन्दी है। हिन्दी ही राष्ट्रभाषा है। यदि कहीं भी तुम्हारे भीतर पाश्चात्य सभ्यता की हीन मानसिक दासता से प्रसित कोई भी अवरोधक हो तो उसे समतल कर डालो और गर्व से कहो, “हिन्दी मेरी माँ है। हिन्दी मेरी राष्ट्रभाषा है।'' मैं वचन देती हूँ कि अपनी शब्द-शक्ति से इस देश को बौद्धिक, वैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एतदर्थ प्रत्येक क्षेत्र में विश्व के शीर्षस्थ देशों में सर्वोपरि कर दूंगी।