राजभाषा हिन्दी का कार्यान्वयन और मानसिकता

भारत में अनेक जाति, धर्म, पंथ तथा भाषा के लोग रहते हैं। इन सबके लिए एक ही संविधान अपनाया गया है। 14 अगस्त 1947 से पूर्व हिन्दी में 'राजभाषा' शब्द का प्रयोग प्रायः नहीं मिलता। सबसे पहले सन् 1949 ई. में भारत के महान् नेता श्री राजगोपालचारी ने भारतीय संविधान सभा में नेशनल लैंग्वेज के समानान्तर स्टेट लैंग्वेज शब्द का प्रयोग इस उद्देश्य से किया कि राष्ट्रभाषा और राजभाषा में अंतर रहे और दोनों के स्वरूप की अलगाने वाली विभेदक रेखा को समझा जा सके। संविधान सभा की कार्रवाई के हिन्दी प्रारूप में स्टेट लैंग्वेज का हिन्दी अनुवाद राजभाषा किया गया और इस प्रकार पहली बार यह शब्द प्रयोग में आया। बाद में संविधान का प्रारूप तैयार करते समय, स्टेट लैंग्वेज के स्थान पर ऑफिशियल लैंग्वेज शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझा गया और ऑफिशियल लैंग्वेज का हिन्दी अनुवाद राजभाषा लैंग्वेज शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझा गया और ऑफिशियल लैंग्वेज का हिन्दी अनुवाद 'राजभाषा' ही किया गया। सरकारी या कार्यालयी भाषा नहीं, इसी परिप्रेक्ष्य में राजभाषा शब्द का तात्पर्य है-केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत भाषा।



14 सितम्बर 1949 को भारत के राजभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार किए जाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया। भारतीय लोकतंत्र में शासक या सरकार का गठन संविधान की प्रक्रिया के अंतर्गत होता है, अतः दूसरे शब्दों में राजभाषा का तात्पर्य है- “संविधान द्वारा सरकारी कामकाज, प्रशासन संसद और विधान-मंडलों तथा न्यायिक कार्यकलाप के लिए स्वीकृत भाषा।"


___'राजभाषा' के स्वरूप को भली-भाँति समझने के लिए 'राजभाषा' शब्द के व्यापक अर्थ पर ध्यान देना आवश्यक है। 'राष्ट्रभाषा' का अभिप्राय है-(क) राष्ट्र की भाषा अथवा (ख) समूचे राष्ट्र में प्रयुक्त होने वाली भाषा। इस दृष्टि से भारत में प्रमुख रूप से प्रयुक्त होने वाली सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा कहलाने की अधिकारिणी हैं। इन प्रमुख भारतीय भाषाओं का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के संदर्भ में, आठवीं अनुसूची के अंतर्गत किया गया है। मूल संविधान में इस अनुसूची में चौदह भाषाएँ दर्ज थीं। बाद में हुए संशोधनों के आधार पर अब इस अनुसूची में अठारह भाषाएँ शामिल हैं। इसका पूरा विवरण आगे, उचित स्थान पर दिया गया है। यदि किसी एक भाषा उदाहरणतया हिन्दी को संविधान में राष्ट्रभाषा नेशनल लैंग्वेज के रूप में मान्यता दी जाती तो भारत की अन्य समृद्ध भाषाएँ उपेक्षित रह जातीं। सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं का अपना गौरवपूर्ण इतिहास और समृद्ध साहित्य भंडार है। इसलिए अपने-अपने प्रदेश और क्षेत्र में ये सभी क्षेत्रों या प्रदेशों (राज्यों) की अपनी भाषाओं का अस्तित्व और महत्व स्वीकार करते हुए भी समूचे राष्ट्र में पारस्परिक संपर्क, आदान-प्रदान, विचार-विमर्श, संचार-संवाद, और राष्ट्रीय (अखिल भारतीय) स्तर पर पत्राचार आदि के लिए किसी एक संपर्क भाषा का होना आवश्यक है। इसके लिए भारत के सभी अग्रणी विचारक, शिक्षाविद् और राजनीतिज्ञ हिन्दी को ही भारत की एकमात्र सर्वसक्षम भाषा मानते रहे हैं। सन् 1937 ई. में जब भारत में पहली बार आम चुनावों के आधार पर सरकारें गठित हुई, तब 'एक अखिल भारतीय भाषा की आवश्यकता पर बल देते हुए, भारत के अग्रणी नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था,-'


"हर प्रांत की सरकारी भाषा राज्य में कामकाज के लिए उस प्रांत की भाषा होनी चाहिए। परन्तु हर जगह, अखिल भारतीय भाषा होने के नाते हिन्दुस्तानी को सरकारी तौर पर माना जाना चाहिए। अखिल भारतीय भाषा कोई हो सकती हैं तो वह सिर्फ हिन्दी या हिन्दुस्तानी। कुछ भी कह लीजिए यही हो सकती हैं।"


इस प्रकार राजभाषा का अभिप्राय है"अखिल भारतीय स्तर पर राजकीय कामकाज के लिए माध्यम के रूप में प्रयुक्त होने वाली भाषा।"


राजभाषा की उपर्युक्त अवधारणा के आधार पर उसे राष्ट्रभाषा से अलग मानकर उसके स्वरूप पर विचार करना उपर्युक्त है।


राजभाषा और गाभासा में अंतर


हिन्दी का लगभग एक हजार वर्ष का इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह हिंदी ग्यारहवीं शताब्दी से ही प्रायः अक्षुण्ण रूप से राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही है। चाहे राजकीय प्रशासन के स्तर पर कभी संस्कृत, कभी फारसी और बाद में अंग्रेजी को मान्यता प्राप्त रही, किन्तु समूचे राष्ट्र के जन-समुदाय के आपसी संपर्क, संवाद-संचार, विचार-विमर्श, सांस्कृतिक ऐक्य और जीवन व्यवहार का माध्यम हिन्दी ही रही। 15 अगस्त 1947 में जब भारत विदेशी साम्राज्य से मुक्त होकर स्वायत लोकतंत्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ, तब संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रभाषा और राजभाषा को पृथक रूप से परिभाषित किया जाना आवश्यक था। यद्यपि, व्यावहारिक स्तर पर इन दोनों की अवधारणा अलग-अलग है। संक्षेप में, दोनों के स्वरूप को अलगाने वाली प्रमुख विभाजक बिन्दु-रेखाएँ निम्नलिखित रूप से समझी जा सकती हैं


• राष्ट्रभाषा समूचे राष्ट्र के अधिकांश जनसामान्य द्वारा प्रयुक्त होती है। देश के अधिकतर भागों में आम लोग जिस भाषा में आपसी बातचीत, विचार-विमर्श और लोक-व्यवहार करते हैं, वही राष्ट्रभाषा है। .


• दूसरी ओर, राजभाषा का प्रयोग प्रायः राजकीय प्रशासनिक तथा सरकारी अर्द्धसरकारी कर्मचारियों अधिकारियों द्वारा होता है। विविध प्रकार के राजकीय कार्यकलाप की माध्यम भाषा राजभाषा कहलाती है


• राष्ट्रभाषा का शब्द-भंडार देश की विविध बोलियों, उपभाषाओं आदि में समृद्ध होता है। उसमें लोक प्रयोग के अनुसार नयी शब्दावली जुड़ती चली जाती हैं। जबकि, राजभाषा का शब्द-भंडार एक सुनिश्चित साँचे में ढ़ला और प्रयोजन विशेष के लिए निर्धारित प्रयुक्तियों तक ही सीमित होता है।


• राष्ट्रभाषा जनता की भाषा है। राजभाषा प्रशासक वर्ग की भाषा है।


• राष्ट्रभाषा का प्रयोग अनौपचारिक रूप से, उन्मुक्त और स्वच्छंद शैली में होता है। राजभाषा औपचारिकता की मर्यादा- सीमाओं में बँधी रहती हैं। उसमें मानव सुलभ, सहजता, उन्मुक्त या स्वच्छंद कल्पना के लिए विशेष स्थान नहीं। निर्धारित और मानव रूप से मान्य भाषा प्रयोग की नियमावली का अनुसरण राजभाषा में आवश्यक है।


• राष्ट्रभाषा में राष्ट्र की आत्मा बोलती हैं। समूचे देश की जनता की सोच, संस्कृति, विश्वास, धर्म और समाज संबंधी धारणाएँ जीवन के विविधतापूर्ण व्यावहारिक पहलू, लौकिक-आध्यात्मिक प्रवृतियाँ। निजी और सामूहिक सुख-दुख के भाव, लोक-नीति संबंधी विविध विचार और दृष्टिकोण राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही साकार होते हैं।


• राजभाषा की प्रकृति इससे कुछ भिन्न है। वह वैधानिक आवरण धारण किए रहती हैं। उसमें अधिकतर प्रशासकीय कानूनी और संवैधानिक नियम-विधान, विधि- निषेध एवं उनसे संबंधित विवेचन- विश्लेषण किया जाता है


• राष्ट्रभाषा राष्ट्र के समस्त सार्वजनिक स्थानों, तीर्थो, सांस्कृतिक केंद्रों, सभास्थलों, गली-मुहल्लों, हाट-बाजारों, मेलों-उत्सवों में प्रयुक्त होती हैं, जबकि राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र कार्यालयों की चारदीवारी तक सीमित है।


• संक्षेप में, कहा जा सकता है कि राष्ट्रभाषा तो एक विशाल उद्यान है, जबकि राजभाषा उसी विशाल उद्यान से चुने हुए कुछ विशेष प्रकार के फूलों का गुलदस्ता है। दोनों का अपना-अपना महत्व और वैशिष्ट्य असंदिग्ध है


राजभाषा के रूप में हिन्दी : संवैधानिक स्थिति


भारतीय संविधान के भाग 5, 6 और 17 में राजभाषा संबंधी उपबंध है। भाग 17 का शीर्षक राजभाषा है। इस भाग में चार अध्याय हैं, जो क्रमशः संघ की भाषा, प्रादेशिक भाषाएँ, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों आदि की भाषा तथा विशेष निर्देश से संबंधित हैं। ये चारों अध्याय अनुच्छेद 343 से 351 के अंतर्गत 9 अनुच्छेदों में समाहित हैं। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 120 में संसद एवं विधानमडंलों की भाषा के संबंध में विवरण दिया गया है।


संविधान में राजभाषा का अभिप्राय : अनुच्छेद 343 में उल्लिखित हुआ है- "संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। हिन्दी अंकों का अन्तरराष्ट्रीय रूप मान्य होगा।"


इसके उपरांत संविधान में जहाँ-जहाँ भी राजभाषा शब्द का उल्लेख संघ की राजभाषा या राज्यों की राजभाषाओं के संदर्भ में हुआ है, वहाँ उसके अनेक प्रयोजनों में एक प्रयोजन प्रशासकीय प्रयोजन बताया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि संविधान में राजभाषा शब्द का प्रयोग एक सीमित अर्थ में प्रशासकीय प्रयोजन के लिए हुआ है। किन्तु, अनुच्छेद 351 में हिन्दी के प्रसार और विकास संबंध में अनेक निर्देश समाविष्ट हैं। उन निर्देशों से यह बात स्पष्ट झलकती है कि संविधान निर्माताओं के मन में एक ऐसी सार्वदेशिक (राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय) हिन्दी के विकास की संकल्पना निहित थी, जो राष्ट्र के अधिसंख्यक समुदाय के पारस्परिक संषर्क संचार और शैक्षणिक साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रयोजनों के अतिरिक्त अन्य (प्रशासकीय एवं वैधानिक) प्रयोजनों को भी सिद्ध करने में सक्षम हो। इससे स्पष्ट है कि अनुच्छेद 351 में प्रयुक्त शब्द 'हिन्दी भाषा' का अभिप्राय केवल राजभाषा हिन्दी भाषा के विकास का लक्ष्य भारत की संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकने वाली भाषा जैसी क्षमता प्राप्त कर लेना बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि संविधान में राजभाषा शब्द के प्रयोग के अंतर्गत राष्ट्रभाषा हिन्दी, संपर्क भाषा हिन्दी और भारत की सामसिक संस्कृति की अभिव्यंजना कर सकने वाली भाषा हिन्दी का अभिप्राय विद्यमान है।


यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि संविधान सभा में भारतीय संविधान के अंतर्गत हिन्दी को राजभाषा घोषित करने वाला प्रस्ताव पेश करने वाले दक्षिण भारतीय नेता और विद्वान श्री गोपालस्वामी आयंगर थे। संविधान सभा में हिन्दी, हिन्दुस्तानी और देवनागरी तथा अंतरराष्ट्रीय अंकों को लेकर कई दिन तक जो लम्बी बहस चली, उसका समापन श्री गोपालस्वामी आयंगर तथा गुजरात के श्री माणिकलाल मुंशी द्वारा प्रस्तुत किए गए फार्मूले के रूप में हुआ।


'मुंशी-आयंगर फार्मूला' के नाम से प्रसिद्ध इस प्रस्ताव के मसौदे में कहा गया,-"हमारी मूल नीति यह होनी चाहिए कि संघ के कामकाज के लिए हिन्दी देश की सामान्य भाषा हो और देवनागरी सामान्य लिपि हो। मूल नीति का यह भी मुद्दा है कि सभी संघीय प्रयोजनों के लिए वे अंक काम में लाए जाए। जिन्हें भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप कहा गया है।"


26 जनवरी 1950 ई. को स्वतंत्र भारत का नया संविधान लागू होने पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, “आज पहली बार हम अपने संविधान में एक भाषा स्वीकार रहे हैं जो भारत के संघ के प्रशासन की भाषा होगी और जिसे समय के अनुसार अपने-आपको ढालना और विकसित करना होगा। हमने अपने देश का राजनीतिक एकीकरण सम्पन्न किया है। राजभाषा हिन्दी देश की एकता को कश्मीर से कन्याकुमारी तक अधिक सुदृढ़ बना सकेगी। अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषा को स्थापित करने से हम निश्चय ही और भी एक-दूसरे के निकट आएँगे।"


राजभाषा संबंधी अनुच्छेद नियम, अधिनियम आदि : भारतीय संविधान में राजभाषा संबंधी प्रमुख प्रावधानों एवं उपबंधों को चार वर्गों में बाँटकर समझा जा सकता है


1. संसद में प्रयुक्त होने वाली भाषा।


2. विधान-मंडलों में प्रयुक्त होने वाली भाषा।


3. संघ की राजभाषा।


4. विधि-निर्माण और न्यायालयों में प्रयुक्त होने वाली भाषा।


(1) संसद में प्रयुक्त होने वाली भाषा : भाग5 अनुच्छेद-120 में (1) कहा गया है-भाग17 में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु अनुच्छेद-348 के अधीन संसद में कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा। आगे कहा गया है- “यदि कोई व्यक्ति हिन्दी में या अंग्रेजी में विचार प्रकट करने में असमर्थ है, तो लोकसभा का अध्यक्ष या राज्यसभा का सभापति उसे अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति दे सकता है।"


अनुच्छेद-120 (2) में यह उपबंध है,- "जब तक संसद विधि द्वारा कोई और उपबंध न करे, तब तक संविधान के आरंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि समाप्त होने के पश्चात् या अंग्रेजी वाला अंश नहीं रहेगा।" (अर्थात् 16 जनवरी 1965 ई. से संसद का कार्य केवल हिन्दी में होगा।)


(2) विधान-मंडल में प्रयुक्त होने वाली भाषा : भाग-6, अनुच्छेद-120 (1) में कहा गया है-"भाग-17 में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु अनुच्छेद-348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए राज्य के विधान मंडल में कार्य राज्य को राजभाषा या भाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा।"


आगे कहा गया है कि विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद् का सभापति, ऐसे किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति दे सकता है जो उपयुक्त भाषाओं में से किसी में भी विचार प्रकट नहीं कर सकता। ___ अनुच्छेद-120 (2) में कहा गया है,- "जब तक विधान-मंडल विधि द्वारा कोई और उपबंध न करे, तक तक इस संविधान के आरंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने के बाद या अंग्रेजी में वह वाला अंश नहीं रहेगा। (अर्थात् 26 जनवरी 1965 ई. से विधान-मंडल का कार्य राज्य की राजभाषा, भाषाओं या हिन्दी में ही होगा।)"


इसी अनुच्छेद में आगे हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा में पन्द्रह वर्ष के स्थान पर पच्चीस वर्ष की छूट अंग्रेजी-प्रयोग के लिए दी गई है।


(3) संघ की राजभाषा : भाग 17, अनुच्छेद-343 (1) में कहा गया है-"संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी लिपि।"


अनुच्छेद-343 (2)-खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के आरंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका प्रयोग किया जा रहा था।


- इस संबंध में आगे कहा गया है कि राष्ट्रपति उक्त उवधि (26 जनवरी, 1950 से 25 जनवरी 1965 तक) के दौरान अपने आदेश से संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए किसी के लिए, अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेंगे।


अनुच्छेद-343 (3) में कहा गया है,- "इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी संसद उक्त पंद्रह वर्ष की अवधि के पश्चात् विधि द्वारा (क) अंग्रेजी भाषा का या (ख) अंकों के देवनागरी रूप का ऐसा प्रयोजनों के लिए प्रयोग का उपबंध कर सकेगी, जो ऐसी विधि में बताए जाएँ।'


राजभाषा के लिए आयोग और संसद की समिति : अनुच्छेद-344 (1) में कहा गया है- “राष्ट्रपति इस संविधान के प्रारम्भ से पाँच वर्ष की समाप्ति पर (अर्थात् 26 जनवरी 1955 ई. का) और तत्पश्चात् प्रारम्भ से दस वर्ष की समाप्ति पर आदेश द्वारा, एक आयोग का गठन करेंगे। इस आयोग में एक अध्यक्ष तथा आठवीं अनुसूची में बतायी गई विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य प्रतिनिधि होंगे, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा। राष्ट्रपति के इस आदेश में आयोग द्वारा अपनायी जाने वाली प्रक्रिया भी निर्दिष्ट की जाएगी।"


राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ : संविधान के अनुच्छेद-345 में कहा गया है- "किसी राज्य का विधान मंडल अनुच्छेद- 346 और अनुच्छेद-347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, विधि द्वारा उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिन्दी को, उस राज्य के सभी या किन्हीं प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा।"


इसी अनुच्छेद-345 में यह भी कहा गया है- “परन्तु जब तक राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा कोई अन्य उपबंध न करे, तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए वह इस संविधान से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।" _


एक राज्य और दूसरे के बीच अथवा राज्य और संघ के बीच संसार के लिए राजभाषा : संविधान के अनुच्छेद-346 में कहा गया है- “संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने हेतु जो भाषा उस समय प्राधिकृत होगी, वही एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच और किसी राज्य तथा संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा होगी।"


आगे कहा गया है- “परन्तु, दो या अधिक राज्य यह करार करते हैं, कि उन राज्यों के बीच पत्रादि की राजभाषा हिन्दी भाषा होगी, तो ऐसे पत्रादि के लिए उस भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा।"


किसी राज्य के जनसमुदाय के किसी भाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध : संविधान के अनुच्छेद347 में कहा गया है, "यदि किसी राज्य के जनसमुदाय का कोई भाग अपने द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध की माँग करता है और राष्ट्रपति को तसल्ली हो जाती है कि वह माँग संगत है तो राष्ट्रपति यह निर्देश कर सकते हैं कि ऐसी भाषा को भी राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में एक आयोजन के लिए जिसे वे विनिर्दिष्ट करें, शासकीय मान्यता दी जाए।"


(4) उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों आदि की भाषा : उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों तथा अधिनियमों विधेयकों आदि में प्रयोग की जाने वाली भाषा के संबंध में अनुच्छेद-348 उल्लेखनीय है।


हिन्दी भाषा के विकास के लिए विशेष निर्देश : संविधान के अनुच्छेद-351 में कहा गया है- "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे, ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में बताई गई भारत की अन्य भाषाओं का प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात् करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।"


महत्वपूर्ण संशोधन


राजभाषा संबंधी उपयुक्त अनुच्छेदों में दो महत्त्वपूर्ण संशोधन हुए सन् 1956 में एक तो अनुच्छेद-350 में 350 (क) जोड़ा गया, जिसके द्वारा प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध कराने का उपबंध है। दूसरे 350 (ख) जोड़कर अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रपति द्वारा विशेष अधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान किया गया। इस विशेष अधिकारी के कर्तव्य का निर्देश करते हुए अनुच्छेद-350 (ख) 2 में कहा गया है- "यह अधिकारी संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों की छानबीन करके, राष्ट्रपति को रिपोर्ट करेगा। राष्ट्रपति ऐसी सभी रिपोर्टों को संसद के प्रत्येक सदन के सामने रखवाएँगे तथा संबधित राज्यों की सरकारों को भिजवाएंगे।"


राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा संबंधी जारी प्रमुख आदेश


27 मई, 1952 ई. को राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद-343 (2) के अंतर्गत दी गई शक्तियों का उपयोग करते हुए पहला आदेश जारी किया गया, जिसमें राज्यपालों, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तथा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के नियुक्ति पत्रों में अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी के तथा अंतरराष्ट्रीय अंकों के अतिरिक्त देवनागरी के अंकों के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया।


सन् 1955 ई. में राष्ट्रपति द्वारा एक अन्य आदेश जारी किया गया, जिसमें संघ के निम्नलिखित सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया


'जनता के साथ पत्र-व्यवहार, प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी पत्रिकाएँ एवं संसद में पेश की जाने वाली रिपोर्ट, सरकारी संकल्प और विधायी अधिनियम, हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता देने वाली राज्य सरकारों से पत्र-व्यवहार, संधियाँ और उनके करार, अन्य देशों की सरकारों, उनके दूतों तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ पत्र-व्यवहार, राजनयिक एवं कौंसलीय पदाधिकारियों एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारतीय प्रतिनिधियों के नाम जारी किए जाने वाले औपचारिक दस्तावेज।' 


राजभाषा अधिनियम 1963 (यथासंशोधित 1967)


सन् राजभाषा अधिनियम 1963 को संसद द्वारा राजभाषा अधिनियम पारित किया गया। इसमें कुल नौ धाराएँ हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है


धारा-1 के पहले खंड में अधिनियम के नाम और आरंभ का निर्देश है। इसके दूसरे खंड में, इसके लागू होने की तिथि 26 जनवरी 1965 निर्दिष्ट की गई है


धारा-2 में स्पष्ट किया गया है कि आगामी धाराओं में नियम दिन का अधिप्राय 26 जनवरी, 1965 है तथा हिन्दी का अभिप्राय वह हिन्दी है, जिसकी लिपि देवनागरी है।


धारा-3 की उपधारा (1) में कहा गया है - संविधान के आरंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर भी अंग्रेजी भाषा नियत दिन (26-01-1965) से ही (क) संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग में लाई जाती रहेगी, जिनके लिए यह उस दिन से ठीक पहले प्रयोग में लाई जाती थी। (ख) संसदीय कार्य-व्यवहार में भी (अंग्रेजी भाषा) प्रयोग में लाई जाती रहेगी।


साथ ही जिन राज्यों ने हिन्दी को अपनी राजभाषा घोषित नहीं किया, उन्हें पत्रादि में अंग्रेजी के प्रयोग का अधिकार होगा। इस प्रकार हिन्दी भाषा को राजभाषा मानने वाले राज्यों और हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषा को राजभाषा मानने वाले राज्यों के बीच पत्रादि में हिन्दी के साथ अंग्रेजी अनुवाद होना अनिवार्य होगा। किन्तु, जिन राज्यों ने हिन्दी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया, वे केवल अंग्रेजी भाषा का प्रयोग पत्रादि में कर सकेंगे। उनके लिए हिन्दी के प्रयोग की वाध्यता नहीं होगी


धारा-3 की उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि (क) केन्द्रीय सरकार के विभिन्न मंत्रालयों, कार्यालयों, विभागों, कम्पनी- कार्यालयों, निगमों, संस्थानों आदि के बीच तब तक हिन्दी या अंग्रेजी प्रयोग में लाई जाती रहेगी, जब तक संबद्ध मंत्रालय, कार्यालय विभाग आदि में संबद्ध कर्मचारी हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते। स्थिति के अनुसार, अंग्रेजी के साथ, हिन्दी के साथ अंग्रेजी का अनुवाद आवश्यक होगा।


धारा-3 की उपधारा (3) के अंतर्गत यह प्रावधान है कि केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों, कार्यालयों, विभागों, संबद्ध संस्थानों, नियमों आदि से संबद्ध सभी संकल्पों आदेशों, नियमों अधिसूचनाओं, प्रशासनिक या अन्य प्रतिवेदनों तथा प्रेस-विज्ञप्तियों, संविदाओं, करारों, अनुज्ञप्तियों आदि के लिए हिन्दी और अंग्रेजी प्रयोग में लाई जाएगी। 


उपधारा-4 में कहा गया है कि अंग्रेजी या हिन्दी दोनों में प्रवीण न हो पाने वाले कर्मचारियों के हितों पर आँच लाने वाले नियम सरकार नहीं बना सकेगी। अर्थात्, केवल हिन्दी या केवल अंग्रेजी के दक्ष कर्मचारियों को इच्छानुसार सुविधानुसार भाषा में कामकाज करने की छूट होगी।


उपधारा-5 में कहा गया है कि जब तक कोई राज्य अंग्रेजी में प्रयोग समाप्त कर देने का संकल्प पारित नहीं कर लेते तब तक उन्हें अंग्रेजी भाषा के प्रयोग की छूट रहेगी।


धारा-4 में एक ऐसी राजभाषा समिति बनने का प्रावधान है, जो धारा-3 के लागू होने की तिथि (26-1-1965) के दस वर्ष पश्चात्, राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से गठित की जाएगी। इसका गठन संसद के दोनों सदनों द्वारा किया जाएगा। इसमें तीन सदस्य होंगे। बीस लोकसभा के और दस राज्यसभा के। इन सदस्यों का चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एक संक्रमणीय मत द्वारा होगा।


समिति का कर्तव्य यह होगा कि वह संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रयोग की प्रगति की समीक्षा करके, अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करेगी। राष्ट्रपति उस रिपोर्ट को सदन के दोनों सदनों के सामने रखवाएँगे और सभी राज्य सरकारों को भिजवाएगे।


ऐसी रिपोर्ट पर राज्य सरकारों से कोई अभिमत प्राप्त न होने पर, राष्ट्रपति उस रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार आदेश जारी कर सकेंगे, परन्तु वे आदेश धारा-3 के उपबंधो से असंगत नहीं होंगे।


धारा-5 में केन्द्रीय अधिनियम आदि के प्राधिकृत हिंदी अनुवाद के संबंध में बताया गया है कि राष्ट्रपति द्वारा प्राधिकृत हिन्दी अनुवाद मान्य होगा।


धारा-6 में राज्य के विधान-मंडलों के नियमों, अधिनियमों आदि के हिन्दी अनुवाद का वही व प्राधिकृत मानने की बात कही गई है, जिसे राज्यपाल द्वारा प्राधिकृत किया जाएगा।


धारा-8 में केंद्रीय सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि इस (राजभाषा) अधिनियम (1963) के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम बना सकेगी, जिन्हें शासकीय राजपत्र (गजट) में अनुसूचित किया जाएगा। ऐसे नियम संसद के प्रत्येक सदन के सत्र के सम यथाशीघ्र कुल मिलाकर तीन दिन के लिए उसके सामने रखे जाएंगे। सदन द्वारा सम्बद्ध नियम में कोई उपाँतरण किए जाने पर, वह उसी रूप में लागू होगा। परन्तु ऐसा उपाँतरण उस नियम के अधीन पहले की गई किसी बात की वैधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला नहीं होगा।


राजभाषा नियम 1976 (यथासंशोधित 1987)


सन् 1963 ई. राजभाषा अधिनियम की धारा-3 की उपधारा (4) तथा धारा-8 के अधीन प्राप्त शक्तियों का उपयोग करते हुए, भारत सरकार ने सन् 1976 ई. में राजभाषा नियम लागू किया। फिर 9 अक्टूबर1987 को सन् 1976 ई.राजभाषा नियम में कुछ संशोधन किए गए इस राजभाषा नियम की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं


1. यह नियम संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग से संबंधित है


2. यह तमिलनाडु को छोड़कर संपूर्ण भारत में लागू होता है।


3. इसके अनुसार, 


'क' क्षेत्र के राज्यों द्वारा आपसी या संघ (केन्द्र) के साथ पत्र-व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग होगा।


'ख' क्षेत्र के राज्यों के आपसी या संघ से पत्र- व्यवहार में सामान्यतः हिन्दी का प्रयोग होगा। यदि किसी को अंग्रेजी में पत्रादि भेजे जाएँ। तो उसके साथ हिन्दी अनुवाद भी भेजा जाएगा।


इसके साथ यह भी प्रावधान है कि 'ख' क्षेत्र के किसी राज्य का संघ राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को पत्रादि हिन्दी या अंग्रेजी में भेजे जा सकते हैं।


'ग' क्षेत्र के राज्यों के आपसी अथवा संघ क्षेत्र या अन्य राज्यों के साथ पत्र-व्यवहार में अंग्रेजी का प्रयोग होगा। यह प्रावधान भी किया गया कि यह पत्र-व्यवहार अंग्रेजी या हिन्दी में हो सकता है। लेकिन, हिन्दी में पत्र-व्यवहार उसी अनुपात में होगा, जिसे केंद्रीय सरकार सम्बद्ध कार्यालयों में हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले कर्मचारियों की संख्या तथा हिन्दी में पत्रादि भेजने की सुविधाओं के आधार पर तय करेगी।


4. केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों, विभागों आदि का कार्यालयों का आपसी पत्र-व्यवहार हिन्दी या अंग्रेजी में हो सकता है। क्षेत्र 'क' में स्थित केन्द्रीय कार्यालयों का आपसी पत्र व्यवहार हिन्दी में हो सकेगा। परन्तु उसका अनुपात केन्द्र सरकार, संबद्ध कार्यालय में हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले कर्मचारियों की संख्या तथा हिन्दी में पत्र व्यवहार की सुविधा आदि का ध्यान रखकर तय करेगी।


क्षेत्र 'क' में स्थित केंद्रीय कार्यालयों का क्षेत्र 'ख' या क्षेत्र 'ग' में स्थित केंद्रीय कार्यालयों से पत्र व्यवहार हिन्दी या अंग्रेजी में हो सकता है। लेकिन, हिन्दी में पत्र-व्यवहार का अनुपात केन्द्र सरकार हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले कर्मचारियों की संख्या और हिन्दी में पत्रादि भेजने की सुविधा के आधार पर तय करेगी। यही (उपयुक्त) प्रावधान क्षेत्र 'ख' और 'ग' में स्थित केन्द्रीय कार्यालयों के आपसी पत्र-व्यवहार के संबंध में भी है।


परन्तु, यदि आवश्यक हो तो, किसी एक भाषा (हिन्दी या अंग्रेजी) में भेजे जाने वाले पत्रों का दूसरी भाषा (अंग्रेजी या हिन्दी) में अनुवाद साथ भेजा जाएगा।


5. हिन्दी में प्राप्त पत्रों के उत्तर, केंद्रीय कार्यालयों से हिन्दी में ही भेजे जाएंगे।


 6. राजभाषा अधिनियम 1963 (यथा संशोधित 1967) की धारा-3 की उपधारा (3) बताए गए सभी दस्तावेजों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का प्रयोग किया जाएगा। दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों की यह जिम्मेदारी होगी कि वे यह सुनिश्चित कर लें कि दस्तावेज हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में है।


7. केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी आवेदन, अपील या अभ्यावेदन आदि में हिन्दी या अंग्रेजी का प्रयोग कर सकते हैं। हिन्दी में प्रस्तुत या हस्ताक्षरित आवेदन आदि का उत्तर हिन्दी में दिया जाएगा। कोई कर्मचारी सेवा-संबंधी विषयों की जानकारी अपनी इच्छानुसार हिन्दी या अंग्रेजी में पाने का अधिकारी होगा।


8. केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में टिप्पणी लेखन हिन्दी या अंग्रेजी में किया जाएगा। उसका अनुवाद देना आवश्यक नहीं होगा। हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाला कोई कर्मचारी किसी हिन्दी दस्तावेज का अंग्रेजी अनुवाद तभी माँग सकता है, जब वह दस्तावेज विधि-संबंधी या तकनीकी प्रकृति का हो। इस बात का निर्णय संबद्ध विभाग या कार्यालय का अध्यक्ष करेगा कि प्रकृति माँगा गया दस्तावेज विधिक या तकनीकी प्रकृति का है या नहीं।


 9. उनके कर्मचारियों को हिन्दी में प्रवीण माना जाएगा, जिन्होंने (क) मैट्रिक या उसके समकक्ष या उससे उच्चतर कोई परीक्षा हिन्दी के माध्यम से उत्तीर्ण कर ली हो, (ख) स्रातक या उसके समकक्ष या उससे उच्चतर परीक्षा में हिन्दी को एक वैकल्पिक विषय के रूप में लिया हो, (ग) जो यह घोषणा करे कि उन्होंने हिन्दी में प्रवीणता (कार्यसाधक ज्ञान या योग्यता) प्राप्त कर ली है।


10.हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान (क) मैट्रिक या उसके समकक्ष या उससे उच्चतर परीक्षा हिन्दी विषय के साथ उत्तीर्ण करना।


योजना के अंतर्गत प्राज्ञ परीक्षा या सरकार द्वारा किसी विशेष प्रवर्ग के लिए निर्दिष्ट परीक्षा पास कर लेना।


(ग) केन्दीय सरकार द्वारा इस संबंध में निर्दिष्ट कोई अन्य परीक्षा पास कर लेना।


(ख) कर्मचारी द्वारा यह घोषणा करना कि उसने हिन्दी में कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लिया है, इसकी पुष्टि केंद्रीय सरकार द्वारा विनिर्दिष्ट अधिकारी करेगा।


11.केंद्र सरकार के सभी मैन्युअल, संहिताएँ, प्रक्रिया संबंधी अन्य साहित्य हिन्दी और अंग्रेजी द्विभाषिक रूप में होगा। रजिस्टरों के प्रारूप व शीर्षक आदि भी हिन्दी और अंग्रेजी में होंगे। केंद्रीय सरकार के कार्यालयों के सभी नामपट्ट, पत्रशीर्ष, लिफाफों आदि पर दी जाने वाली सामग्री भी द्विभाषिक होगी। किन्तु केंद्रीय सरकार, आवश्यक समझने पर, उपर्युक्त उपबंधी में छूट दे सकती है।


12. केन्द्रीय कार्यालय के प्रशासनिक प्रमुख की यह जिम्मेदारी होगी कि वह उपर्युक्त उपबंधो का नियमानुसार पालन सुनश्चित करे।


राजभाषा संकल्प 1968


संसद के दोनों सदनों ने दिसम्बर 1967 ई. में राजभाषा संकल्प पारित किया। यह संकल्प 18 जनवरी 1968 ई. के राजपत्र (गजट) में राजपत्रित (अधिसूचित) किया गया, इसीलिए इसे राजभाषा संकल्प 1968 कहा जाता है। इसमें संविधान के अनुच्छेद343 के अनुसार हिन्दी के राजभाषा होने तथा अनुच्छेद 351 के अनुसार हिन्दी भाषा के विकास और प्रसार का हवाला देते हुए यह संकल्प किया गया कि


1. हिन्दी के प्रचार एवं विकास की गति बढ़ाने के लिए और संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनों के लिए उत्तरोत्तर प्रयोग हेतु भारत सरकार द्वारा एक अधिक गहन और व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा। उसके कार्यान्वयन की विस्तृत समीक्षा रिपोर्ट हर वर्ष संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखी जाएगी और राज्य सरकारों को भेजी जाएगी।


 2. हिन्दी के साथ-साथ संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भारत की अन्य सभी भाषाओं के समन्वित विकास के लिए भारत सरकार, राज्य सरकारों के सहयोग से एक कार्यक्रम तैयार करेगी और उसे शीघ्र कार्यान्वित किया जाएगा।


3. राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रोत्साहन देने के लिए भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से तैयार किए गए 'त्रिभाषा-सूत्र' (फार्मूला) सभी राज्यों में प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। इस त्रिभाषा सूत्र के अनुसार हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी और अंग्रेजी के अतिरिक्त भारतीय भाषा पढ़ाई जाए, जिसमें दक्षिण भारतीय भाषाओं को तरजीह दी जाए। इसी प्रकार अहिन्दी-भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं और अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी के अध्ययन की व्यवस्था की जाए।


4. संघ की लोक-सेवाओं अथवा पदों की भर्ती करने के लिए उम्मीदवारों के चयन के समय हिन्दी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक का ज्ञान अनिवार्यतः अपेक्षित होगा। किन्तु, यह बात उन विशेष सेवाओं या पदों पर लागू नहीं होगी, जिससे संबंधित कर्तव्यों के निष्पादन हेतु केवल हिन्दी का, केवल अंग्रेजी अथवा दोनों (जैसी स्थिति होगी) का ज्ञान आवश्यक समझा जाए। इन (लोक सेवा संबंधी) परीक्षाओं की भावी योजना व प्रक्रिया संबंधी पहलुओं एवं समय के विषय में संघ लोक सेवा आयोग के विचार जानने के बाद अखिल भारतीय एवं उच्चतर केन्द्रीय सेवाओं से संबंधित परीक्षाओं के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित सभी भाषाओं तथा अंग्रेजी को वैकल्पिक रूप से रखने की अनुमति होगी।


राजभाषा सकल्प 1991


11 जनवरी 1991 को संसद द्वारा उपयुक्त राजभाषा संकल्प 1968 को पुनः पारितर किया गया


(उल्लेखनीय है कि संकल्प नियम अथिनियम या कानूनी आदेश नहीं। यह एक प्रकार की सिफारिश है अथवा अनुरोध व आग्रह है कि ऐसा किया जाना चाहिए। इसकी कानूनी (वैधानिक) अनिवार्यता या बाध्यता नहीं है। इसीलिए 1968 के संकल्प के ठीक इक्कीस वर्ष बाद तक भी संघ लोक-सेवा आयोग की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को वैकल्पिक सुविधा न मिल पाने के कारण सन् 1991 ई. में संसद ने वही संकल्प पुनः दोहराया)


राजभाषा : क्रियान्वयन का दायित्व और मानसिकता


राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में हिन्दी के विकास इतिहास का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि सदियों से भारतीय जनता ने और पिछले छह दशकों से देश की लोकतंत्रीय सरकारों ने हिन्दी को सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए हर संभव प्रयास किया। इस संबंध में समय- समय पर जारी किए गए नियमों, अधिनियमों, संकल्पों, आदेशों आदि से यह भी स्पष्ट है कि राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में हिन्दी के प्रयोग-प्रसार और विकास में सदा लोकतंत्रीय उदार और सहयोग समन्वय का दृष्टिकोण अपनाया जाता रहा है। फिर भी वर्तमान स्थिति को पूर्णतया संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। ऊपरी साँचा और ढांचा भले ही यह प्रदर्शित करता है कि भारत की राजभाषा हिन्दी है, किन्तु उस साँचे के भीतर की आत्मा हिन्दी की न होकर अंग्रेजी की ही प्रतीत होती हैं। कवि अज्ञेय ने ठीक ही कहा था- "जब हम राजनीतिक दृष्टि से पराधीन थे, तब तो हमारे पास स्वाधीन भाषा थी। अब हम स्वाधीन हो गए, हमारी भाषाएँ पराधीन हो गई।"


भाषा का विकास-प्रसार और पोषण प्रयोग ही उर्वर भूमि पर और व्यवहार के सिंचन से होता है। आज सबसे बड़ी समस्या प्रयोग और व्यवहार के स्तर पर उपेक्षा और उदासीनता की है। त्रिभाषा फार्मूला कागजों में तो है, व्यवहार में नहीं। द्विभाषिक (हिन्दी और अंग्रेजी दोनों के प्रयोग की) स्थिति औपचारिक रूप से तो है, अर्थात् अधिकांश सरकारी दस्तावेज, फार्म, पत्र-प्रपत्र आदि दोनों भाषाओं में हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप से उनमें कर्मचारी एवं संभ्रात नागरिक अंग्रेजी ही लिखते और प्रयोग में लाते हैं। प्रतिवर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस धूमधाम से सभी कार्यालयों में मनाया तो जाता है, उसमें संकल्प भी हिन्दी में लिये जाते हैं। किन्तु, तत्संबंधी सारी परियोजना, कार्यवाही, लिखी-पढ़ी प्रायः अंग्रेजी में ही होती हैं। अधिकांश सरकारी पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में चल रहा है, क्योंकि हिन्दी या अंग्रेजी के प्रयोग को छूट है। फिर दोनों स्थितियों में या तो मूल पत्र हिन्दी में होना चाहिए या मूल अंग्रेजी पत्र के साथ हिन्दी में अनुवाद होना चाहिए। किन्तु प्रायः होता यह है कि हिन्दी ट्रांसलेशन फैलों हिन्दी अनुवाद संलग्न है, लिखा होने पर भी हिन्दी अनुवाद दिया नहीं जाता, क्योंकि यह सोच लिया जाता है कि काम तो अंग्रेजी से चल ही जाएगा। इस प्रवृत्ति से कर्मचारियों में हिन्दी प्रयोग की इच्छा या आवश्यकता की अनुभूति उभरने ही नहीं पाती।


पहले यह समस्या बताई जाती थी कि हिन्दी में सभी राजकीय कार्य-कलाप संपन्न करने के लिए उपयुक्त और पर्याप्त पारिभाषिक शब्दावली नहीं है। विधिक और तकनीकी मामलों में हिन्दी प्रयोग में कठिनाई होती है इत्यादि। किन्तु, अब विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों द्वारा अनेक ऐसे शब्दकोश, पर्यायवाची कोश तथा अन्य मानक साहित्य प्रकाशित हो चुका है, कि किसी भी स्तर पर किसी भी क्षेत्र में हिन्दी भाषा में सुगमतापूर्वक काम-काज हो सकता है। किन्तु कमी है इन सुविधाओं को उपयोग में लाने की इच्छाशक्ति की। आज जब टंकण, मुद्रण और कंप्यूटर तक के क्षेत्र में हिन्दी और देवनागरी में हर प्रकार का कार्य संभव हो गया है तो प्रशासकीय प्रयोजनों और कार्यालयों में हिन्दी प्रयोग संभव क्यों नहीं हो सकता?


इनमें सबसे बड़ी समस्या संघ लोक सेवा आयोग द्वारा विभिन्न प्रशासनिक परीक्षाओं में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उपयुक्त माध्यम न बनाने की है। सन् 1968 और 1991 के संसदीय राजभाषा संकल्पों के बावजूद, इस और से संबद्ध अधिकारीगण उदासीन हैं। दिसम्बर 1968 में संसदीय राजभाषा समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था- "जहाँ अंग्रेजी का एक पृथक प्रश्नपत्र अनिवार्य है वहाँ उनके विकल्प में हिन्दी भाषा का प्रश्नपत्र भी रखा जाए। फिर भी अनेक प्रशासनिक परीक्षाओं में हिन्दी का विकल्प नहीं दिया जा रहा। सिद्धांत को व्यवहार में कार्यान्वित न करने की यह प्रवृत्ति सबसे प्रमुख समस्या है।"  


इसी का यह परिणाम है कि सरकारी नौकरी पाने, जीवन स्तर तथाकथित रूप से ऊँचा बनाने तथा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में टिक पाने के विचार से देश की युवा पीढ़ी का मोह अंग्रेजी के प्रति बढ़ता जा रहा है। केंद्रीय सेवाओं के संदर्भ में तो यह हो ही रहा है, प्रादेशिक स्तर पर भी प्रांतीय सरकारों और लोक सेवा आयोग जैसे संस्थानों द्वारा प्रांतीय भाषाओं की अपेक्षा अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है।


इस प्रकार राजभाषा के रूप में हिन्दी की प्रतिष्ठा मात्र रस्मी खानापूर्ती बनकर रह गई प्रतीत होती है। यद्यपि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक विश्व हिन्दी सम्मेलन हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ मे भारत के दो विदेशमंत्री (अटलबिहारी वाजपेयी और पी.वी नरसिंह राव) क्रमशः 1978 और 1984 में हिन्दी में भारत की आवाज बुलंद कर चुके हैं और भारत के प्रथम अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा आकाश से धरती पर भारतीय प्रधानमंत्री से हिन्दी में संवाद कर चुके हैं। अंग्रेजी के अनेक पत्र हिन्दी में भी अपने संस्करण निकाल रहे हैं। मॉरिशस, नेपाल, रूस, अमरीका, चीन, जापान, जर्मन और इंडोनेशिया, वर्मा, मलेशिया आदि में उच्च स्तर पर हिन्दी में शिक्षण शोध आदि हो रहा है। यह सभी स्थितियाँ पर्याप्त आशाजनक हैं, यथापि अपने देश के प्रशासकीय तंत्र में राजभाषा संबंधी विभिन्न प्रावधानों को व्यवहार में लाने के लिए प्रमुख रूप से निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं-


1. 'क' एवं 'ख' क्षेत्र के राज्यों के संदर्भ में द्विभाषिक (हिन्दी और अंग्रेजी दोनों के प्रयोग की छूट की) स्थिति समाप्त कर दी जाए। (अब इस छूट की आड़ में कर्मचारी/अधिकारीगण अंग्रेजी प्रयोग को ही वरीयता देते हैं।)


2. कई जगह असाधारण स्थिति में हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के प्रयोग की छूट है। उसे भी तुरंत हटा दिया जाना चाहिए। (कोई भी व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी स्थिति को असाधारण सिद्ध कर सकता है।)


3. भाषा की शुद्धि का विशेष आग्रह न करते हुए हिन्दी भाषा के प्रयोग का आग्रह किया जाए। हिन्दी को जटिल, अस्वाभाविक, अव्यावहारिक बनाए जाने के दोष से बचकर उसके सहज सुगम स्वरूप को व्यवहार में लाया जाए। लिपि देवनागरी होने से किसी भी प्रकार के काम चलाऊँ शब्दों का प्रयोग उपयुक्त होगा। संप्रेषण संचार की सरलता मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।


चाहिए। (इस संबंध में भारत सरकार के पूर्व सलाहकार और तत्कालीन राजभाषा सचिव श्री रामप्रसन्न नायक का 17 मार्च 1976 ई. को जारी किया गया परिपत्र विशेष ध्यान देने योग्य है, जिसका शीर्षक है- 'सरकारी काम-काज में सरल हिन्दी का प्रयोग')


4. ऊपरी औपचारिकता, जैसे- पत्रशीर्ष, लिफाफे, नामपट्ट आदि पर हिन्दी अंकित होने की अधिक परवाह न करके, उसके भीतर की वास्तविक सामग्री को (वर्तनी या व्याकरण की सामान्य भूलों की परवाह किए बिना) देवनागरी हिन्दी में देने पर विशेष ध्यान दिया जाए।


5. हिन्दी-दिवस, हिन्दी समिति, कार्यान्वयन समिति आदि की रिर्पोटों की रस्म अदायगी छोड़कर कर्मचारी/अधिकारी वर्ग में देवनागरी हिन्दी के प्रयोग की मानसिकता बनाने का विशेष प्रयास किया जाए। उन्हें प्रेरित किया जाए कि वे


(क) अधिक से अधिक डाक हिन्दी में निकालें। (ख) कार्यालय का सभी कार्य हिन्दी में करें। (ग) पत्रों के पते हिन्दी (देवनागरी) में लिखें। (घ) सर्वत्र हिन्दी (देवनागरी) में हस्ताक्षर करें। (ड) आपसी बातचीत और जन संपर्क में हिन्दी बोलें। (च) मूल पत्रों के अतिरिक्त टिप्पणियाँ आदि भी हिन्दी (देवनागरी) में लिखें। (छ) सभी भारतीय भाषाओं का आदर करते हुए उनके साथ हिन्दी प्रयोग को राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक मानें।


6. हिन्दी भाषी क्षेत्रों से हिन्दी क्षेत्रों को भेजे जाने वाले हिन्दी-पत्रादि के साथ यदि संबद्ध (अहिन्दी) क्षेत्र की प्रादेशिक भाषा में अनुवाद भेजने की प्रवृत्ति अपनाई जाए तो इससे 'हिन्दी थोपे जाने' की भ्रांति दूर होगी और आपसी समन्वय बढ़ेगा।


7. विशेष रूप से संबद्ध कार्यालय, विभाग, मंत्रालय, प्रतिष्ठान का अधिकारी वर्ग नौकरशाही परंपरा त्यागकर लोकतंत्रीय परंपरा के अनुसरण की मानसिकता बनाए।


8. अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी (देवनागरी) और प्रांतीय भाषाओं में अधिकाधिक प्रशासकीय काम-काज करने और तदनुकूल वातावरण बनाने वालों का सार्वजनिक अभिनन्दन किया जाए।


सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से अंग्रेज डर गये और उन्होंने भारत के जन मानस के मस्तिष्कों को दास बनाने के लिए मैकाले योजना के अनुसार काले अंग्रेज बनाने वाली शिक्षा पद्धति चलाई। इसका लक्ष्य अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाकर भारतीय युवकों को अंग्रेजों की सभ्यता-संस्कृति को स्थापित करना था। सन् 1857 से 1947 तक के नब्बे वर्षों के समय में चार पीढ़ियों के अनेक युवक ऐसे तत्पर हो गये जो आकृति से भारतीय थे, किन्तु उनके मानस में अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति थी। वे अपने देश की भाषा, सभ्यता, आचार-विचार, संस्कृति से अनभिज्ञ ही नहीं थे, वरन् महत्वपूर्ण विचारों के विरोधी भी थे। परिणामतः देश की भाषाओं को लड़ाकर उन्होंने देश को अंग्रेजी भाषा का दास बनाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी। अब तो वह अग्नि ऐसी बढ़ चली है कि दानावान की भांति जैसे भारत को जला देगी। सोने का देश देखते-देखते यों धूंधूं करने लगा है कि भविष्य की कल्पना से भी दिल दहलता है।


राष्ट्रभाषा हिन्दी का अर्थ है 'संस्कृत निष्ठ प्रांजल हिंदी'। विदेशी शब्दों की अनावश्यक ललक देश, भाषा, सभ्यता, संस्कृति एवं देशवासियों के लिए दूरगामी दुष्परिणाम छोड़ती है। मैकाले का कथन भूलना नहीं चाहिए कि अंग्रेजी पढ़ाकर हम ऐसे व्यक्ति बनाएँगे जो रूप-रंग से भारतीय दिखेंगे, किन्तु मन से अंग्रेजों के दास होंगे। यहीं बात फारसी और अरबी पढ़ा कर भी उत्पन्न की जा सकती हैं। जिस शब्द की जन्म-कुण्डली विदेश में हो, वह अपना सगा नहीं हो सकता।


राजनेता प्रदेश की भाषा के नाम पर जनता के मत प्राप्त कर कुर्सी हथिया लेंगे तथा लेखक पत्रकार इत्यादि बुद्धिजीवी लोग अधकचरी भाषा में कुछ भी टूटा-फूटा लिखकर सरकार से पुरस्कार, पद, सम्मान आदि पाने में सफल हो जाएंगे। कोई सामने खड़ा नहीं होगा, अंधों में काना भी सरदार होगा। तो हिन्दी वालों को इन षडयंत्रकारियों से सावधान रहने की इस समय विशेष आवश्यकता है!