तपःपूत साधना के धनी

हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के सम्मानित अध्यक्ष, साहित्य-सेवा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अभिलिखित हिन्दी साहित्य सेवी संस्था साहित्य-मंडल के प्रधान मंत्री, हिन्दी के वरिष्ठ एवं समर्पित जीवन-यात्रा ध्येय के प्रति एकनिष्ठ समर्पण, निःस्वार्थ और निष्प्रपंच सारस्वत साधना तथा खरी एवं साफ सुधरी सत्यनिष्ठता की सुदीर्घ गाथा है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के, जो अभियान स्वतंत्रता से पूर्व चलने लगे थे और जो राष्ट्रीय आंदोलन के अंग थे, उनमें श्री देवपुरा युवावस्था से ही सक्रिय रहे थे। उस समय इन्होंने न तो अपने योगक्षेम की चिंता की न अपने परिवार की। केवल ध्येय के प्रति एकनिष्ठ इनकी वृत्ति बन गई।



श्रीनाथ द्वारा जैसे पुष्टिमार्ग के तीर्थस्थल में साहित्य-मंडल की स्थापना भी 1937 ई. में इसी प्रकार के पावन उद्देश्यों हेतु की गई थी, जिन्होंने महामना मदन मोहन मालवीय जी की भांति शिक्षा के उन्नयन और हिन्दी को शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थापित करने की प्रेरणा की थी। पुष्टिमार्ग की प्रेरणा हिन्दी के भक्ति साहित्य के शिखर स्तरीय उत्कर्ष की वाहक रही थी, यह सुविदित है। श्री नाथ द्वारा पुष्टिमार्ग का प्रधान पीठ तो रहा ही, हिन्दी-सेवा का केन्द्र भी रहा, अतः मेवाड़ अंचल भी हिन्दी साहित्य के अनेक अभियानों के लिए इतिहास में ग्राथित रहेगा। भारतेन्दु हरिशचन्द्र की प्रेरणा से उनके अनुयायी पं. मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या ने “विद्यार्थी' पत्रिका के सहकार में हरिश्चन्द्र चन्द्रिका 1770 के बाद श्री नाथद्वारा (मेवाड़) से ही निकाली थी, जो हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर मानी जाती है। मालवीय जी स्वयं श्री नाथद्वारा के साहित्य मंडल की स्थापना के प्रेरणा-पुरुष रहे थे। मेरे ताऊजी (मेरे पिता संस्कृत के युगपुरुष भट्ट श्री मथुरानाथ शास्त्री के अग्रज) देवर्षि रमानाथ शास्त्री, जो श्री नाथद्वारा के विद्या विभाग के अध्यक्ष रहे, साहित्य मंडल के संस्थापकों में से थे।


बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में कांकरोली का विद्या विभाग एवं श्री नाथद्वारा का विद्या विभाग तथा साहित्य-मंडल हिन्दी आंदोलन के भी प्रेरणा-स्रोत रहे, साहित्य-सेवा और संपादक-प्रकाशन आदि के केन्द्र तो रहे ही, समूचे उत्तर भारत में हिन्दी राष्ट्रभाषा की सेवा और साहित्य के उत्थान की जो वेगवती सरिता बही, उसमें मेवाड़ अंचल का प्रभूत योगदान रहा। उसी हिन्दी साहित्य साधना के वातावरण में महेश्वरी समाज के प्रबुद्ध परिवार के युवा सदस्य श्री भगवती प्रसाद देवपुरा हिन्दी-सेवा के यज्ञ के होता बने। साहित्य- मंडल के प्रधान मंत्री के रूप में इन्होंने जिन गतिविधियों को सक्रियता प्रदान की, उन्होंने एक प्रकार से इस संस्था का कायाकल्प कर डाला।


साहित्य-मंडल में समृद्ध पुस्तकालय तो प्रारंभ किया ही गया था, उसमें पत्र पत्रिकाओं का सुव्यवस्थित संवारण किया गया। 'हर सिंगार' नामक पत्रिका को सुव्यवस्थित एवं स्तरीय शोध-पत्रिका के रूप में जमाया गया, निखारा गया, जिसके अनेक विशेषांक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने, अंग्रेजी को हटाने, आदि की सुविचारित विषय वस्तुओं को सुगठित रूप में समाहित करते हैं। पुष्टिमार्ग के विशेषकर अष्टछाप के साहित्य को तो यह पत्रिका समर्पित है ही।


श्री देवपुरा जी ने अष्टछाप के समूचे साहित्य के संकलन, संपादन और प्रकाशन की, जो अलख जगाई, उसके फलस्वरूप इस साहित्य की, जो ऐतिहासिक श्रीवृद्धि हुई, वह समय की शिला पर अमिट अभिलेख के रूप में इनके कीर्तिमान छोड़ रही है। सूरदास के कृतित्व पर विशाल ग्रंथ 'पुष्टिमार्ग के जहाज महाकवि सूरदास' और समूचे सूरदास के दो विशाल खंड तो हिन्दी जगत में सुपरिज्ञान हो ही गए हैं, अष्टछाप के अन्य कवियों पर भी ग्रंथमाल का प्रकाशन इनकी साधना की सफल परिणति के रूप में सर्वत्र सविदित हो गये हैं।


इससे भी अधिक सुप्रथित हो गये हैं साहित्य-मंडल के वे आयोजन जो पाटोत्सव के अवसर पर तथा हिन्दी के अवसर पर समूचे देश के परिनिष्ठित साहित्य-सेवियों को बुलाकर उन्हें सम्मानित करने, हिन्दी के सेनानियों को बुलाकर उन्हें अभिनन्दित करने के विशाल महोत्सवों के रूप में प्रति वर्ष पिद्वजगत में प्रतिष्ठित रहते हैं। इनमें कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं होता, केवल गुणागुण पर चयन होता है, यह बात भी सुविदित है तथा इन समारोहों के संचालन में जो अनुशासन, समयपालन की प्रतिबद्धता एवं सब के लिए एक सी व्यवस्था इन समारोहों की पहचान बन गई हैं, वह भी सुविदित हैं। यह सब देवपुरा जी के व्यक्तित्व की खरी सत्यनिष्ठता के कारण है।