अंधेरा, माटी के दीये और उम्मीद का उजियारा...

समय के साथ हम सब अब माटी से, अपनी स्वाभाविकता से दूर होते जा रहे हैं और दिन-प्रतिदिन मशीन व तकनीक के जाल में उलझते जा रहे हैं। ऐसे में किसी भी बहाने से जीवन के करीब घर... संसार में आने का मौका मिले तो छोड़ना नहीं चाहिए। अपनी दुनिया में.. घर संसार में जाने का अवसर एक तरह से पर्व/त्यौहार लाते हैं। पर्व/त्यौहार जीवन की यथास्थिति में एक ताजगी का झोंका लेकर आते हैं, हम सब नये हो जातेफिर से अपने आपकों रचने के लिए, बनाये रखने के लिए गढ़ने लग जाते हैं। पर्व खुलकर जीवन को जीने का संदेश देते हैं। अपनी खुशियों के साथ जीवन को जीयें।



कुम्भकार यों कहें कि प्रजापति मिट्टी से संसार बना रहे हैं, जीवन को ७ रच रहे हैं, मिट्टी कमा रहे हैं... गढ़ रहे हैं मिट्टी से आदम के सांचे, जीवन व्यवहार में उपयोग में आने वाले बरतन का निर्माण ही सही मायने में जीवन है। जीवन का रंग और जीवन का अनुभव सब यहीं रच जाता... गिली मिट्टी से मनचाहा आकार हम देते रहे हैं।... जीवन के रंग के लिए माटी के साथ होना, माटी के करीब जाना सही मायने में जीवन को जीना हैइस बहाने से हम सब अपने पूर्वजों के संसार व संस्कार में चले जाते हैं। हमारे पूर्वज जीवन के प्रत्येक चरण में प्राकृतिक उपादानों को साथ लेकर चलते थे, प्रकृति के ये उपादान सीधे तौर पर हमें न केवल जीवन से जोड़ते बल्कि जीवन को समझते हुए प्रकृति के प्रति एक राग का भाव पैदा करते हैं। हर पदार्थ के प्रति एक संरक्षण का भाव स्वतः जन्म ले लेता है। दीपावली पर मिट्टी के दीये, घड़े और कसोरे उपयोग में लाये जाते हैं... मिट्टी के दीये, घड़े, कसोरे न केवल शुद्ध होते हैं अपितु पवित्रता की दृष्टि से भी मूल्यवान होते हैं, इन्हें बनाने में बहुत श्रम करना पड़ता, एक तरह से कमाना पड़ता है... बहुत बारीक कुटाई मिट्टी की हो रही है... मिट्टी, पानी और श्रम की बूंदे मिलकर माटी के बड़ेबड़े लोंदे रचती हैं, इन्हें रचने में महीनों की मेहनत होती है। बार-बार मिट्टी को गुंथा जाता उसमें लोच पैदा हो इसके लिए बार- बार लोदें के आकार में इन्हें जतन किया जाता। हथेलियों की थाप से इन माटी के लोदों में जीवन का संसार भरा जाता... कहें कि मनचाहा आकार प्रदान किया जाता है। मिट्टी के यही बरतन इनके जीवन में उजियारा भी लाते। समय के साथ हम सब अब माटी से, अपनी स्वाभाविकता से दूर होते जा रहे हैं और दिन-प्रतिदिन मशीन व तकनीक के जाल में उलझते जा रहे हैं। ऐसे में किसी भी बहाने से जीवन के करीब घर... संसार में आने का मौका मिले तो छोड़ना नहीं चाहिए। अपनी दुनियाँ में.. घर संसार में जाने का अवसर एक तरह से पर्व/त्यौहार लाते हैं। पर्व/त्यौहार जीवन की यथास्थिति में एक ताजगी का झोंका लेकर आते हैं, हम सब नये हो जाते-फिर से अपने आपकों रचने के लिए, बनाये रखने के लिए गढ़ने लग जाते हैं। पर्व खुलकर जीवन को जीने का संदेश देते हैं। अपनी खुशियों के साथ जीवन को जीयें। कुछ नया करें- प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें। इस दृष्टि से दीपावली हमें अपने घर-माटी व जीवंतता से जोड़ते हुए सीधे तौर पर हमारे लोक से, संस्कृति से जोड़ता है... हम क्या कुछ पाना चाहते हैं और इस क्रम में हमारे भीतर अंधियारे से लड़ने की कितनी ताकत है... इसका भी खुलासा दीपपर्व कर जाता है। यह अपने साथ ताजगी और संघर्ष को लेकर आता है। दीपपर्व पर हम सब प्रकाश से जगमग हो जाते हैं- एक बारगी यह त्यौहार अंधेरे के छट ने का है। जो भी अंधेरा है वह चाहे प्रकृति का हो या कृत्रिम उसे छटना ही चाहिए... अंधियारे के खिलाफ दीपक का उत्सव एक तरह से मानवीय श्रम व मानवीय कौशल का पर्याय है- जब वह अंधेरे से संघर्ष करते हुए उजियारे की बात करता है तो केवल बाहरी उजियारा भर नहीं... यहां तो आंतरिक उजियारा की बात है। जब अंतर में उजास होगा तो बाहर आप से आप उजास फैल जायेगा। दीपपर्व पर अपने घर से होते-होते पीछे छूट गये घर संसार में पहुंच जाते हैंजहां महीनों से त्यौहार के स्वागत में लोगलगे रहते... दीपपर्व पर पूरे घर की साफ- सफाई शुरू हो जाती... जिस कोने-अंतरे में अंधेरा होता वहां भी उजास/उजियारा पहुंच जाता। घर में जो भी पुराना टूटा-फूटा या फालतू की चीजें होती वह सब घर से बाहर हो जाती.. कुछ भी अवांछनीय अंदर न रह जाये... इसलिए सारे कोने अंतरे कीसफाई होती... एक-एक पदार्थ को धो कर साफ कर पुनः उन्हें करीने से जमाया जाता। इस क्रम में जो वस्तु काम लायक नहीं होती उसे घर से बाहर कर दिया जाता.. इसके बाद एक-एक कमरे की लिपाई होती... मिट्टी से पूरे घर की लिपाई होती, फिर उस पर गेरू से अल्पना/ स्वास्तिक व लोकजीवन के चित्र उकेर दिये जाते... पूरा घर एक तरह से सोंधी मिट्टी से महक जाता... एक सौंदर्य दृष्टि से घर-संसार चमक जाता... एक स्वतः उजियारा आ जाता। दीपपर्व से एक दिन पूर्व छोटी दीपावली को जो कछ भीअवांछित है, जो टूटा-फूटा है उसे पूरे गांव-घर की माताएं इकट्ठा होकर घर से बाहर निकालती... यह गाते हुए कि 'ईश्वर पइठे दरिद्दर निकले' इस गान के साथ टूटे- फूटे सामान को गांव की सीमा पर ले जाकर जला देते... फिर पूरे उत्साह से मां लक्ष्मी का पर्व दीपपर्व सब मिलकर मनाते। एक उत्साह व उल्लास का भाव बना रहता। आंगन में मिट्टी के दीये तुलसी के चौरा के सामने धो कर रख दिया जाता फिर उन सब दीयों में तिल्ली और सरसों का तेल भरा जाता। रुई या सूती कपड़े की बाती को लगा कर जमा दिया जाता.. साथ में पूजा की थाली में प्रसाद... खील, बताशे, चीनी के गट्टे, सजे होते हैं। घर के सारे बड़े पूजा-पाठ करते आंगन में एकएक देवी देवता के नाम पर दीये जलते, फिर पूरे घर व घर के बाहर दीये रखने की बारी आती.. कोई भी जगह उजियारे से छुट न जाये इसका ध्यान बड़े-बुजुर्ग रखते और सब जगहों पर दीपक/प्रकाश को रखने का काम बच्चे करते। इस दिन घुरे पर भी दीपक जलता कहते हैं कि साल में एक बार घुरे के भी दिन फिरते हैं... इसका सीधा मतलब तो यहीं हुआ कि घोर विपन्नता में रहते भी एक उम्मीद का दीया हम सबके मन में जलता है कि एक न एक दिन हम सबका दिन बदलेगा... यह अंधेरा छटेंगा। इस अंधेरे को खत्म करने के लिए पूरा समाज ही अपनी दुनिया में उजियारा का दीपक जलाता है। गांव के सार्वभौमिक देवी-देवता के स्थान पर एक साथ सब दीपक जलाते... प्रकाश चारों तरफ फैल जाता। इस तरह जीवन में घर में पीढ़ियों से उजियारे का प्रकाश आता है। अपने घर की देहरी पर एक दीप रख देते हैं और इसी तरह एक दीप पड़ोस के घर पर, यह क्रम पूरे पड़ोस के क्रम में चलता रहता है... अपने साथ दूसरे की खुशी का दिया ही संसार को संस्कृति के उपादानों से जोड़ता है। दीपावली इसी तरह सीधे हमें हमारे संसार, जीवन व संस्कृति से जोड़ने का पर्व है.. यहां पर आप अकेले नहीं होते.. पूरा समाज... कहे कि संसार ही आपके साथ होता... सब खिल जाते... रंग जाते उत्सव के रंग में... सबके बीच में दीपमाला की जगमग रोशनी होती... चारों तरफ प्रकाश का रंग पसर रहा है, सब ज्योति के पर्व में नहा रहे हैं। यह ज्योति जीवन संसार में बाहर-भीतर दोनों ही स्तर पर होती... प्रकाश भीतर से होते हुए बाहर के संसार में आता है... जिसका मन प्रकाशित है उसे किसी बाहरी संसार की जरूरत नहीं पड़ती। वह तो अपने से आप प्रकाश में नहा लेता। जीवन दीपमालाओं से जगमग होते हुए प्रकाशित हो उठता है।