दीप और अर्ध्य

आज हम दीपोत्सव को जिस रूप में मना रहे हैं वह केवल बाहरी है अन्तर मन से नहीं। दीप का उत्सव उल्लास का उत्सव है। हम उल्लास को पाना चाहते हैं परन्तु उसे पाने के लक्ष्य का हमें पता नहीं है। यह पर्व तो राम के नाम पर है जो मयार्दो के महिमा पुरूष हैं और इसकी महादेवी लक्ष्मी है जो इस पर्व की समृद्धि है। दीपोत्सव के इन कर्म व शक्तिमय चरित्रों की हम पूजा तो कर रहे हैं परन्तु इनके कर्म पक्ष का और हमारा ध्यान नहीं जा पाया और हमने उसे आडंबरो से ढक दिया। दीप पर्व  की देवी लक्ष्मी शक्ति है तो दीप पर्व के देवता राम कर्म हैं। परन्तु हमारे ही आडंबरो ने इन्हे अभिजात्य वर्ग की देवी बना दिया।



दीपोत्सव का पर्व सैकड़ों साल से । मनता चला आ रहा है। इस दीर्घ अन्तराल में ना जाने कितनी पीढ़ियां अतीत के अंधेरे में समा गई। इस दीप पर्व के प्रकाश को अपने जीवन में उतारने की आस लिये, परन्तु आज तक यह दीप पर्व बस प्रतीक पर्व ही बना रहा। यह सच है प्रतीक तो प्रतीक होते हैं वे कभी यर्थात् नहीं होते।


आज हम दीपोत्सव को जिस रूप में मना रहे हैं वह केवल बाहरी है अन्तर मन से नहीं। दीप का उत्सव उल्लास का उत्सव है। हम उल्लास को पाना चाहते हैं परन्तु उसे पाने के लक्ष्य का हमें पता नहीं है। यह पर्व तो राम के नाम पर है जो मर्यादा के महिमा पुरूष हैं और इस की महादेवी लक्ष्मी है जो इस पर्व की समृद्धि है। दीपोत्सव के इन कर्म व शक्तिमय चरित्रों की हम पूजा तो कर रहे हैं परन्तु इनके कर्म पक्ष की ओर हमारा ध्यान नहीं जा पाया और हमने उसे आडम्बरों से ढ़क दिया। दीप पर्व की देवी लक्ष्मी शक्ति है तो दीप पर्व के देवता राम कर्म है। परन्तु हमारे ही आडम्बरों ने इन्हें अभिजात्य वर्ग की देवी बना दिया।


इनकी ज्योति का दीप मात्र मिट्टी का दीपक है जो हड़प्पा-मोहनजोदड़ो सभ्यता से अपनी उत्पत्ति बताता है। हम दीपोत्सव में उसका उपयोग केवल प्रकाश की बाहरी किरण पाने को करते हैं जब कि उसका मूल अर्थ जीवन को अन्दर से दमकाना है। परन्तु क्या कभी हमने यह भी मन में विचार किया है कि मिट्टी को दीप को रूप देने तथा उसे देव पूजा के योग्य बनाने का प्रयास किसने किया है। इस बारे में हमारी सोच नगण्य रही। हम कंगूरों को देख आकर्षित होते रहे परन्तु नींव की ईट के निर्माता और दीप के स्वरूपकता कुम्भकार की उस कला साधना के मर्म को भूल गये जिसने मैली मिट्टी को स्वपरिश्रम से संवारकर दीप का सुन्दर रूप दिया। कुम्भकार और राम तथा लक्ष्मी ये तीनों दीपोत्सव के महत्व स्वरूप हैं। हमने इनमें छिपे हुए कर्म, साधना और शक्ति को भुला दिया।


हम सब बाह्य रूप में प्रवाहित होकर शब्दों को भूल बैठे। इस भूलने के भाव का फिर यह परिणाम हुआ कि हम इस दीपोत्सव को मात्र प्रतीक के रूप में मनाते हैं जबकि यह प्रतीति (प्रेम) का पर्व होना चाहिये। मेरे अग्रज प्रख्यात ललित निबन्धकार श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के अनुसार प्रतीति पर्व का आशय है ऐसा पर्व जिस के मानने की, जिसके दीप व उसके निर्माता के प्रति सच्चे अर्ध्य की हमें अन्तर से अनुभूति हो सके और यह अनुभूति तो तभी हो सकती है जब कर्म के फल सामने आए और शक्ति के पैदा होने के अहसास हमारे अन्दर जगें।


यह अहसास हमारे अन्दर भी जग सकता है जब हम इस पर्व पर यह संकल्पित भाव अंगीकार कर लें कि अन्धकार में बैठे दीन हीन के गरीब जीवन को हम हर संभव सेवा से प्रसन्न कर सकें। दीप के निर्माता का हृदय से आभार मान सकें। निराश्रित जीवन में भटकते प्राणी को सुख दे सकें तब लक्ष्मी और राम अर्थात् कर्म और समृद्धि दोनों हम पर सदय होंगी और हमारा दीपोत्सव, दीप का प्रकाश अन्तर मन में प्रकाशित हो उठेगा।