दीपावली के समुच्चय देव लक्ष्मी-गणेश

भारतीय धर्म की शिक्षा पद्धति प्रतिमा प्रतीक पूजन के रूप में - प्रचलित है। धर्म और आध्यात्म के रहस्यों को भारतीय संस्कृति में प्रतीक-प्रतिमाओं के माध्यम से समझाया गया है। देवताओं की विचित्र कल्पनाएं की गयी हैं। उनकी मुखाकृति रहन-सहन, वाहन, विन्यासादि के ऐसे विचित्र कथानक तैयार किये गये हैं कि उन्हें पढ़कर यह अनुमान करना भी कठिन जान पड़ता है कि ऐसे भी कोई देवी-देवता है भी अथवा नहीं।



गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह पता चलता है कि पौराणिक देवी-देवताओं के जो वर्णन मिलते हैं, उन विचित्रताओं के पृष्ठ में बड़ा आध्यात्मिक रहस्य निहित है। ऋषियों ने समष्टिगत चेतना और उसके अनुशासनों का बोध प्रतीक-पूजा के माध्यम से करवाया है। भगवान की अनेकानेक विशेषताओं को ध्यान में रखकर आदर्शों के प्रतीक देवी-देवताओं को चित्रित किया गया है। सभी देवप्रतिमाओं के पीछे भावपूर्ण संकेत सन्निहित हैं। इस संकेत के माध्यम से जीवन-दर्शन के गूढ़ रहस्यों को समझा और समझाया जा सकता है।


प्रतिमा-प्रतीकों के दृश्य-स्वरूप के सहारे सामान्यजन भी काफी कुछ जान और सीख सकते हैं। उनकी आकृतियां, मुद्रायें आदि निर्धारित करने के पीछे यह उद्देश्य रहा है कि देव परम्पराओं के साथ आबद्ध नियमों, तथ्यों व रहस्यों को सर्वसाधारण में समझाने का उत्साह व आकर्षण बना रहे। अनेकता में एकता के मध्य यह दर्शन ज्ञानवर्द्धक और मनोरंजक भी है। इस आशय में मानवी मनोविज्ञान का समुचित समावेश निहित किया गया है, जिसका अवगाहन करके मनुष्य बहुत थोड़े में सत्य और जीवन लक्ष्य की उन्मुक्त अवस्थाओं का ज्ञान उपलब्ध कर सकता है।


भगवान की विभिन्न विभूतियों के समुच्चयदेव स्वरूपों में से एक प्रख्यात है लक्ष्मी देवी। उनके स्वरूप में अनेक गुणों का आभास होता है। वे मूलतः धन औरऐश्वर्य की देवी हैं। मानव स्वर्ण, हीरे- मोती, महल आदि को धन मानता है। यही उसका ऐश्वर्य-वैभव है। लक्ष्मी का स्वरूप इसी समृद्धि का रहस्य है। यह वैभव कभी स्थाई नहीं रहता, बनता-बिगड़ता रहता है। वस्तुतः यही इसका स्वभाव भी है। मूलतः इस चंचल स्वभाव के कारण ही लक्ष्मी को 'चंचला' कहते हैं। कमल-पुष्प पर विराजने के कारण उनका एक मान 'कमला' है। कमलासन की एक कमलनाल भूमि की ओर जा रही है, जिसका अर्थ यह है कि संसार का समूचा धनवैभव भूमि के अन्तरगर्भ में छिपा है। भूमि में अनेक प्रकार के मणि-माणिक्य, खनिज रत्न आदि छिपे दबे हैं, जिन्हें कमलनाल की भांति भूमि से चूसकर (बाहर निकालकर) कमल पल्लिवित होता है और अपनी आभा, सुगंध चहुंओर बिखेरता है। वह अपने लाल रंग की सुन्दरता से हर किसी को आकर्षित करता है। यह वैभव 'कमलासन' का प्रतीक है। लक्ष्मी का एक प्रतीकात्मक विन्यास उनका वाहन उलूक (उल्लू) है। वह अमंलकारी माना जाता है। लक्ष्मीपति विष्णु का वाहन गरूड़ है, जो मंगलकारी माना जाता है। इस आशय का अर्थ यह है कि जो लोग केवल लक्ष्मी के उपासक होकर लक्ष्मी की भक्ति करते हैं, तब लक्ष्मी उल्लू पर सवार होकर आती है। इस मुद्रा में वे धन के साथ कुप्रवृत्तियां भी साथ लाती हैं, जिससे मानव की बुद्धि धन के लालच में अहंकारी तथा लोभी हो जाती है। जब लक्ष्मी के साथ विष्णु की भी आराधना की जाती है और उनका भी आव्हान किया जाता है, तब वे विष्णु के साथ गरूड़ पर सवार होकर सम्पत्ति और सद्प्रवृत्तियां अपने साथ लाती हैं। अतः लक्ष्मी की विष्णु देव के साथ आराधना करनी चाहिए। 


लक्ष्मी के दोनों ओर सेवा मुद्रा में खड़े दो गजों का अर्थ यह है कि वैभव समृद्धि होने से व्यापार-व्यवसाय में वृद्धि होती है। इसके संचालन हेतु योग्य और कार्यकुशल व्यक्तियों को नौकरी पर रखा जाता है तथा अधिक वेतन दिया जाता है। ऐसी नियुक्तियाँ अपने घर के दरवाजे पर हाथी बांधने वाली उक्ति को चरितार्थ करती है। इन हाथियों की सूंड में जल उड़लते पात्र होते है, जिनका अर्थ है कि जो व्यक्ति समृद्धि चाहते है, उन्हें अपने अधिकारी, मालिक का विश्वास पात्र होना चाहिए, जिससे ये पात्र अपने सेवा रूपी जल से मालिक का हमेशा अभिषेक करते रहें।


लक्ष्मी की अभय हस्त मुद्रा का अर्थ यह है कि जो अति सम्पन्न व्यापारी, सेठ- साहुकार हैं और अपना व्यापार समृद्धि बढ़ाना चाहते हैं, वे अपने सेवकों, कर्मचारियों को सुरक्षा का अभयदान दें। इन्हीं कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक परिश्रम से समृद्धि बढ़ती है। जड़-परिश्रम की ऐसी स्थिति में इन्हें व इन पर आश्रितों के पोषण हेतु सुरक्षा व विविध सुविधा जुटा कर उन्हें अभावों, कष्टों से मुक्त रखने का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए, जिससे उनके मन में सेवा कार्य के समय तनाव, असंतोष, प्रतिशोध, विरोध आदि की भावना न रहे तथा उन्हें अभयदान सतत मिलता रहे।


लक्ष्मी के धन लुटाते मुक्त हस्त का अर्थ है कि जो व्यक्ति समृद्धि चाहता है, उसे अपना पैसा परोपकार के लिये खुले हाथों देना चाहिए। उसमें सदैव दान-दया का भाव जागृत रहना चाहिए। इस भाव से लक्ष्मी सदैव उससे प्रसन्न रहती है और दानवीर पर कृपा करती रहती है। ऐसा करने से दाता को सम्मान प्राप्त होता है। अर्थात् दानवीर के पास जब भी याचक आये, उसे दोनों हाथों से सेवाभावी कार्यों के लिए समर्पित कर देना चाहिए।


लक्ष्मी का विष्णु की चरणदासी बन उसके पैर दबाने का अर्थ पति-सेवा, भक्ति तथा पतिव्रता होता है, अर्थात् लक्ष्मी विष्णु के चरणों में रमती हैं, इसी से उन्हें 'रमा' कहा गया है। जिसे लक्ष्मी चाहिए, उसे विष्णु की उपासना करनी चाहिए। लक्ष्मी की कृपा उसी पर होती है, जो विष्णु भक्त वैष्णव होते है और जब लक्ष्मी के साथ विष्णु आते है, तब भक्त के लिये 'सोने पे सुहागा' वाली उक्ति चरितार्थ हो जाती है।


'ग' से ज्ञान और 'ण' से निर्वाण। अर्थात् ज्ञान और निर्वाण के ईश गणेश सदैव मंगलकारी हैं। वे अग्रणीय होकर भी शांत सौम्य तथा आशीषमयी है। विघ्नविनाशक हैं। गणेश मातृशक्ति की रचना है। माँ पार्वती माया है, जो शिव से निजत्व पाकर ब्रह्म हो जाती हैं। गणेश रिद्धि-सिद्धि के स्वामी तथा लक्ष्य और लाभ के पिता हैं। गणेश का राजमस्तक दृढ़ संकल्प तथा मजबूती का प्रतीक है। गज अपनी छोटी आंखों से सब कुछ देखता है। उसकी आंखों में छोटी से छोटी वस्तु को भी बड़े आकार में देखने की शक्ति प्राप्त होती है। यही कारण है कि गज को अपने विशाल शरीर का घमण्ड नहीं होता। वह छोटी-सी चींटी को भी बचाकर चलता है। अर्थात् जो व्यक्ति अपने कार्य में सफलता प्राप्त करना चाहता है, वह अपने सहयोगी को कभी छोटा नहीं देखता है। प्रत्येक बात में तीक्ष्ण नजर से परखना हाथी की छोटी आंखों की विशेषता है। गणेश की लम्बी नासिका (सुंड) बलिष्ठ होने के साथ-साथ अनेक बातों को सार्थक करती है। वह सबसे ऊंची नाक वाले माने जाते हैं। यह विशेषता है कि वे नाक कटने देते हैं और अपनी नाक को सदैव ऊपर उठाये रखते है। इस प्रकार गणेश की नाक प्रतिष्ठा का प्रतीक है।


गणेश के कान विशाल हैं। विशाल कानों वाला कान का कच्चा नहीं होता। वह हमेशा दोनों कानों का उपयोग करता है। अच्छी बातों पर ही वह ध्यान देता है और बेकार की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल बाहर कर देता है। वे एक दंती भी है। एक दंत का होना द्वंद व द्वेष से मुक्त होना है। यह दांत निर्विघ्न कार्य सिद्धि का कारक है, बाहर की ओर नहीं। उनकी जिव्हा इस तथ्य की परिचायक है कि जीभ हमेशा अन्दर रखो और दूसरों की नहीं स्वयं की आलोचना करना व स्वयं के गुण दोष देखना सीखोऐसा करने वाला मनुष्य अनाचार से सदैव दूर रहता है। गणेश लम्बोदर हैं तथा वे उदर पाचन शक्ति और विशालता के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, बुध, शुक्र, मंगल आदि सभी तारागण परिक्रमामय हैं। लम्बोदर का अर्थ यह भी है कि अन्य बातें पेट में रखकर उन्हें पचाने की क्षमता स्वयं में पैदा करनी चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के झंझटों से मुक्त रहता है।


गणेश का शरीर पौरुष का प्रतीक है अर्थात् सद्पुरुष सदैव मानवोचित सदाचार में संलग्न रहता है। हमें ऐसे सद्पुरुष के गुण ग्रहण कर स्वयं को सच्चा पुरुष बनाना चाहिए। उनकी चारों भुजाएं चारों दिशाओं में कार्यशील रहने के साथ-साथ धर्म, , अर्थ, काम, मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थो की प्राप्ति के लिए कार्यशील रहने की सूचक हैं। उनके एक हाथ में माला एकता और साधना की तथा दूसरे हाथ में कमल धन- समृद्धि का प्रतीक है, जो यह संदेश देता है कि धन के प्रति लोभ नहीं होना चाहिए। उनके तीसरे हाथ में परशु है, जो जीवन में आने वाले विघ्नों के काटने का संदेश देता है। उनके चौथे हाथ की मुठ्ठी बन्द है। बन्द मुठ्ठी यह दशार्ती है कि हमें अपने रहस्य गुप्त रखने चाहिए। बन्द मुठ्ठी जीवन रहस्य की सफलता का प्रतीक है।


गणेश को मोदक प्रिय है। ब्रह्मानन्द, ज्ञान, निर्वाण में लीन गणेश जैसे देव को मोदक इसलिए प्रिय होता है कि अनन्त ब्रह्माण्ड का रूप ही मोदक समान हैउनका वाहन मूषक ऐसा जीव है जो अत्यन्त निरीह, शुद्र और सामान्य होकर भी बुद्धि, ज्ञान और कर्म में असाधारण है। वह अपने गुणों में विवेचक, विशेषक और विस्तारक है, जिसका ज्ञान निश्चयात्तमक होता है। विशाल पर्वतों की जड़ों में अपने लिए मार्ग और स्थान बना लेने की क्षमता मूषक में होती है। विरोधियों के क्षेत्र को खोखला कर देना और उनके अभेद्य दुर्ग में बिल बनाकर तथा प्रवेश के सारे रहस्य ले आना एक साधारण बात है। इस प्रकार भारी भरकम गणेश का वाहन मूषक का अर्थ है कि छोटे व्यक्तियों के सहयोग को भी आवश्यक मानना चाहिए। इनके अभाव में कोई कार्य सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं होता।


गणेश द्वारा अपना मस्तक कटा देने का अर्थ स्वयं को आहूत कर देना है। सिर कटना अहंकार का नाश है। गणेश अहम् से परे होकर मंगलमय हो जाते हैं। वे से परे होकर मंगलमय हो जाते हैं। वे अहम् का शमन व दमन इस सीमा तक कर देते हैं कि नर शरीर पर अन्य सिर धारण कर लेते हैं और उसका भार लेकर कृतार्थ हो जाते हैं। 'ब्रह्मवैवर्तपुराण' के 'गणेश खण्ड' में इस स्वरूप को वन्दनीय माना गया है। हाथी के सिर, कान देह से जुड़ना संयोजक, समाहाकारक, समन्वयक और संश्लेषक बृद्धि का प्रतीक है। गणेश का कद बौना है। इससे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि समाज सेवी पुरुष सरलता, नम्रता आदि सद्गुणों के साथ अपने आपको छोटा मानता हुआ चले, जिससे अन्दर अभिमान के अंकुर उत्पन्न न हों। गणेश को सिन्दूर लगाने का अभिप्राय यह है कि वह सौभाग्य सूचक और मंगल द्रव्य है। उन्हें दुर्वा चढ़ाने का तात्पर्य यह है कि गज को दुर्वा प्रिय हैं दुर्वा में नम्रता और सरलता है। इस प्रकार गणेश की आराधना करने वाले व्यक्ति का वंश दुर्वा की भांति अभिवृद्धि को प्राप्त होकर स्थायी सौभाग्य व मंगल को प्राप्त होता है।


लक्ष्मी-गणेश मानवीय जीवन की उन सभी आध्यात्मिक विशेषताओं के प्रतीक हैं, जिनके बिना मनुष्य जीवन पाने का अर्थ हल ही नहीं होता। मानव का धर्म उसकी बुद्धि पर आधारित है, जिसके सहारे वह ज्ञान की ओर अग्रसर होता है तथा मनुष्य नर से नारायण स्वरूप बनने में समर्थ होता है। यही संदेश हमें प्राचीन काल से लक्ष्मी-गणेश देते चले आ रहे हैं। इन आध्यात्मिक रहस्यों को हृदयंगम करना, तदनुरूप जीवन की रीति-नीति बनाना सच्चे लक्ष्मी-गणेश के भक्तों का परम लक्ष्य है। अच्छा हो कि दीपावली के पावन पर्व पर हम सब लक्ष्मी-गणेश जैसी दिव्य विभूतियों का तथा उनके गुणों को स्वयं के जीवन में उतारने का प्रयास करें, तभी श्री, समृद्धि और मंगलमय शांति हमें प्राप्त हो पायेगी।