दीपावली के संदर्भ और जीवन मूल्य

महान गौतम बुद्ध ने कहा था 'खुद के दीपक, खुद ही बनो' अर्थात् अप्पः दीपोभवः'



दीपावली का महापर्व स्नेह, समानता, उत्साह और स्वच्छता से भरा है। भूतकाल में इसका स्वरूप उल्लास एवं मौज मस्ती और स्नेह का था। भूतकाल में ग्रामीण जन-जीवन में लिपे-पुते घर, माण्डने और सजी संवरी चौपालें थी। वर्षा के पश्चात् हरी भरी प्रकृति का सुन्दर उपहार सब कुछ सच्चा जीवन था। दीपावली का चरण स्पर्श और अमोघ आशीर्वाद, हाथ की बनी मिठाईयों की मिठास और घर-घर दीपों को रखने का क्रम, मिलन तथा शोक, अवसाद व अन्धकार में डूबे जनों के घर-जीवन में दीपक रखने के भाव सब कुछ 'वसुधैवकुटुम्बकम' का जीवन था। तमसो माँ ज्योतिर्गमय के मंत्र का सच्चा स्वरूप आत्मीयता के साथ प्रसारित करना यही इस महापर्व का औचित्य था।


 परन्तु अब देखती हूं कि इस पर्व का औचित्य बदल गया है। सन्दर्भो में वे परम्पराऐं, उद्देश्य विलुप्त होते जा रहे हैं। जीवन में माटी के दीप और उसकी लौका प्रकाश तथा रंगोली भौतिकता की चकाचौंध ने सब कुछ परिवर्तित कर दिया। हम कहते हैं जमाना बदला परन्तु ऐसा वास्तव में नहीं है बदली हमारी सोच और हमारे जीवन जीने के मूल्य हैं और इसी ने हमारे दीप त्यौहार को हम से अलग कर दिया है। दीप पर्व की सच्ची भावना को हमारी पीढ़ी अपने जीवन में किसी प्रकार से उतारेगी और जी पायेगी यह सन्दर्भ बहुत कुछ हमें सोचने और संभलने को विवश करता है।


दीपावली के संदर्भ और जीवन मूल्यों को यदि जीवन्त रखना हो तो हमें सोचने के साथ करना भी होगा। चिन्तन की परिणिति ही कर्म करना है। हमारे जीवन में भौतिकता और स्वार्थ के जो स्थिर भाव हैं उन्हें हमें भंग करना होगा और यह भंग होगें तभी हमारे जीवन की दीपावली के दीप पथ खुलेगें। हमें हमारी दीपावली आज उस लोकमानस में खोजनी होगी जिनमें हमने लक्ष्मी के आराधना भाव को छीनने की कोशिश की है। लक्ष्मी का पर्व दीपावली वास्तव में भूदेवी की आराधना का पर्व है। हड़प्पा से लेकर अभी तक के पुरा इतिहास में हमारे ग्रामीण कुम्भकार ने मिट्टी की देवी बनाई और अपने जीवन मूल्यों की साधना के चिन्तन कर्म से उसके दोनों ओर दीपों की श्रृंखला खड़ी कर दी। आज भी दीपपर्व पर गांवगांव में ग्वालन के रूप में इसी आकार की मिट्टी की लक्ष्मी मूर्तियां कुम्भकारों द्वारा बेची जाती है जिसकी पूजा अर्चना हमारा जीवन मूल्य करता हैं और यही सच्ची लक्ष्मी है।


आज के बदलते दीपावली के संदर्भ और इसके जीवन मूल्य में न तो कहीं लक्ष्मी है और न ही उनके प्रति अर्ध्य के भाव। लेकिन यदि आज भी हम आत्मविश्लेषण कर लें तो हमें यह समझना होगा कि दीपावली की महादेवी हमारे अन्दर ही है। उसके प्रकाश से अपने आपको जगमगाना है। आज की दीपावली कृत्रिम उजास में डूबने की नहीं अपितु वास्तविक उजास को खोजने की है। बस हमें हमारी सोच की दिशा परिवर्तित करना है और यदि ऐसा हो सकता है तो चिन्तन के सांचे अपने आप टूट जायेंगे और हमारे दीप पर्व का कर्म स्वतः ही गतिमान हो उठेगा। तभी हमारे जीवन में आलोक का यह महापर्व सदैव के लिए जगमगा उठेगापरन्तु इसे हृदयागम भी हमें स्वयं को ही करना होगा क्योंकि हजारों साल पहले महान गौतम बुद्ध ने कहा था 'खुद के दीपक खुद ही बनो" अर्थात् 'अप्पः दीपोभवः।