धरा पर अंधेरा रह न पाए

दीपावली दीयों का प्रतीक पर्व है, प्रकाश रूपी पुण्य परम्पराओं को प्रवाहित करते रहने का जीवन्त पर्याय है। दीया एक ऐसा जीवन्त प्रतीक है, जिसमें एक अनोखा संगम दृष्टि गोचर होता है। दीया-जड़ और चेतन का मिलन है। यह जड़ भी है और चेतना का अद्भुत प्रकाश भी धारण करता है। यह पहेली नहीं एक यथार्थ है। दीये की देह मिट्टी की है, यह मरण धर्मा है, नष्ट होने वाली है, परन्तु इस मरण धर्मा मिट्टी की देह से जिस शाश्वत एवं चिरंतन सौन्दर्य की अभिव्यक्ति होती है उसकी ज्योति में चैतन्यता का दिव्य प्रकाश है। टीये की मिटी धरती की ठहरी अत: वह धरती में समाती है. परन्त ज्योति ता सदा ऊपर उठता रहताह, निरतर आकाश की आर अग्रसर रहती ही।



दीपावली ज्योति पर्व है। ऐतिहासिक तौर पर यह वह दिन है, जिस दिन भगवान श्रीराम असुर सम्राट रावण का वध कर अयाध्या लाट आर उनक स्वागत में जले दीपों ने एक उत्सव का रूप धारण कर लिया. जो बाद में दीपावली के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वर्तमान समय में दीपावली के चाहे जो भी ऐतिहासिक, पौराणिक, आध्यात्मिक कारण हों, सामान्य जन तो यही जानते हैं कि दीपावली दीपोत्सव है। दीप ज्योति बिखेरता है, प्रकाश बांटता है, स्वयं को जला कर सभी को आलोकित करता है। स्वयं जले परन्तु दीपक अपना प्रकाश नहीं बांट सकता है। जो स्वयं तिल- तिलकर जलने की क्षमता रखता हो और उस जलन की पीड़ा को पीकर भी औरों को प्रसन्नता, हर्ष एवं आनन्द का प्रकाश बांटने का जज्बा रखता हो, वहीं दीपक हो सकता है। दीपक ही सघन तमस के सीने को चीर कर प्रकाश एवं आलोक बांट सकता है। इसलिए ही तो दीये को सांस्कृतिक प्रतीक एवं पर्याय के रूप में अलंकृत किया जाता है।


दीपावली दीयों का प्रतीक पर्व है, प्रकाश रूपी पुण्य परम्पराओं को प्रवाहित करते रहने का जीवन्त पर्याय है। दीया एक ऐसा जीवन्त प्रतीक है, जिसमें एक अनोखा संगम दृष्टि गोचर होता है। दीया-जड़ और चेतन का मिलन है। यह जड़ भी है और चेतना का अद्भुत प्रकाश भी धारण करता है। यह पहेली नहीं एक यथार्थ है। दीये की देह मिट्टी की है, यह मरण धर्मा है, नष्ट होने वाली है, परन्तु इस मरण धर्मा मिट्टी की देह से जिस शाश्वत एवं चिरंतन सौन्दर्य की अभिव्यक्ति होती है उसकी ज्योति में चैतन्यता का दिव्य प्रकाश है। दीये की मिट्टी धरती की ठहरी, अतः वह धरती में समाती है, परन्तु ज्योति तो सदा ऊपर उठती रहती है, निरंतर आकाश की ओर अग्रसर रहती है।


ठीक दीप ही की भांति मनुष्य की देह भी मिट्टी की है। यह देह इस धरती के पंचतत्त्व से विनिर्मित है यह देह यहीं की है और यहीं की बनी रह जाएगी। इस देह से मोहही हमें मरण धर्मा बनाता है। यदि हम इस देह में ही ठहर जाएं, जैसा कि आज का संसार इसी सीमित एवं नश्वर दैहिक सुख को ही सर्वस्व एवं सर्वोपरि सच मानकर भटक रहा है, तो हम भी ठीक ऐसे ही भटक जाएंगे और अन्त में हमारे पास भी केवल बुझे हुए मिट्टी के दीये ही हाथ में रह जाएंगे, जिनका कोई मूल्य नहीं होता है।


दीये चाहे मिट्टी का हो या फिर अन्य धातुओं का, इसका मूल्य तो तभी है, जब इसमें ज्योति जगमगाये और उस ज्योति से प्रकाश रूपी अमृत की धारा प्रवाहित होने लगे। जब तक दीये में ज्योति जीवंत न हो जाए, अंधेरा सधन होकर सभी ओर से हमें घेर लेगा। जिन्दगी की घुटन और छटपटाहट फिर से तीव्र और घनी होकर हमें डराएगी और हम इससे सदा डरते रहेंगे। हालांकि यह डर क्षणिक एवं तात्कालिक होता है, फिर भी हम इसे शाश्वत मान बैठते है।


मिट्टी के दीये की भांति मनुष्य की देह भी मिट्टी की है, देह इसी मिट्टी में समा जाती है। परन्तु इस मिट्टी की देह की धरोहर एवं आधार उसकी आत्मा है, जो मिट्टी से विनिर्मित नहीं है। इसका आधार वह आकाशीय ज्योति है।


अर्थात् वह आत्म तत्त्व अपने स्वरूप से कभी भी विचलित नहीं होने वाला है। यह मन से भी तीव्र गति वाला है। यह इन्द्रियों में समा नहीं सकता है, क्योंकि यह इन सब से परे एवं पार है। यह स्थिर होने पर भी अन्य सभी गतिशीलों से सर्वदा अग्रगामी है। उसकी सत्ता में ही यह देह अपने कर्मों को कर पाने की क्षमता रखती है।


उपनिषद् के ऋषि कहते है- यह देह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें जलने एवं बहने वाली आत्मा अमृत ज्योति के समान इसके सौन्दर्य को अभिव्यक्ति करती है। यह अहंकार ही है, जो हमें मिट्टी की देह से ऊपर उठने नहीं देता है और इस देह के इर्द-गिर्द सीमित एवं सिमटे रह जाते हैं।


दीये का यह रहस्य एवं प्रतीक ऋग्वेद पाए की ऋचा (7/32/26) तथा सामवेद (259) के गायन में भी अनावृत्त होता है, जिसमें कहा गया है कि "हम शरीर धारी प्राणी प्रभु की कल्याणमयी ज्योति को प्रतिक्षण प्रतिपल प्राप्त करें।" यहां भी स्पष्ट है कि देह की गौरव गरिमा एवं प्रतिष्ठा उसमें उपस्थित आत्म तत्त्व के कारण है। देह तो आत्मा की अभिव्यक्ति है। यह मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम है। सर्वस्व नहीं। सर्वस्व तो वह आत्म ज्योति है, जो देह के माध्यम से ज्योतित होती है। यही आत्मा हमारे जीवन में दीये की ज्योति के रूप में सतत् एवं निरन्तर प्रवाहित हो रही है।


हमारी देह में आत्मा निर्विकार रूप से प्रकाश मान है। सम्पूर्ण रूप से पवित्र, परिमार्जित एवं परिष्कृत है यह ज्योति प्रवाह, परन्तु हमारी अपनी आसक्ति ने इससे उपजे संस्कारों एवं कर्मो की जटिलताओं एवं तमस ने इसे दूषित, धूमिल एवं जटिल बना दिया है। यह प्रकाश अवरूद्ध हो गया है और जीवन में अंधकार सघन हो गया है। 'अप्पदीपोभव' कहकर तथा गतबुद्ध ने इस अंधकार को तिरोहित करने का उपदेश दिया। वह कहते है कि दीये की माटी अस्तित्व का प्रतीक है तो ज्योति चेतना की। परम चेतना परमात्मा की करूणा ही स्नेह बनकर वाणी की बातों को सिक्त किए रहती है। चैतन्य ही प्रकाश है, जो समूचे अस्तित्व के प्रभु को करूणा के सहारे सार्थक करता है।


दीये का सच दीये के अस्तित्व से ऊपर उसकी चेतना में सन्निहित एवं समाहित है। इस चेतना का अभाव एवं अनभिज्ञता अंधकार के अस्तित्व के द्योतक हैं। अर्थात् अंधकार का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है। यह तो मात्र प्रकाश का अभाव एवं अनुपस्थिति है। प्रकाश का आगमन होते ही वह अपने ही आप मिट जाता है ऐसी ही बात अशुभ, अनीति एवं अधर्म को मिटाने के लिए चिंता करने की जरूरत नहीं है, इसके लिए तो बस आत्म ज्योति को उभार देना ही पर्याप्त है। यही "तमसोमांज्योतिर्गमय' है।


दीपावली पर दीये तो हजारो-लाखों जलाए जाते हैं, पर एक अकेले दीये से अंधेरा हटता तो है, मिटता नहीं। अच्छा हो कि हम सभी इस ओर संवेदित हों, ताकि समवेत दीये के प्रकाश से अंधेरे को मिटने के लिए विवश होना पड़े अनगिनत एवं असंख्य दीयों का समवेत प्रकाश पुंज ही तो दीपोत्सव एवं दीपावाली है। यदि हर व्यक्ति के अन्दर छाया अंधेरा प्रकाश में परिवर्तित हो जाए तो इस धरा पर अंधेरा रह न पाएगा। दीपावली में दीये के सच की इस अनुभूति के साथ यह एक दीया और जलाएं, ताकि उस मिट्टी की देह में दीप की आत्म ज्योति मुस्करा सके।