दुर्गाजी के दिव्य रूप

संपूर्ण वर्ष में नवरात्रों का समय सर्वाधिक पवित्र और शुभ माना गया है। जैसे दिन रात के चौबीस घण्टों में प्रातःकालीन ब्रह्म बेला सर्वप्रकारेण सर्वोत्तम होती है, उसी प्रकार साल के 365 दिनों में नव दुर्गाजी की समयावधि सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि इन दिनों में माँ भगवती अपने विविधि रूपों में अपनी शक्ति को पृथ्वी पर अवतरित करती है। सामान्यतः आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रथमा से नवमी तक और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रथमा से नवमी तक के दिनों को ही 'नवरात्र' के रूप माना-मनाया जाता है पर युग-निर्माण योजना के सूत्रधार, पू. श्रीराम शर्मा आचार्य ने ज्येष्ठ मास के शुल्क पक्ष की प्रथमा से नवमी तक के समय तक को भी दो ऋतुओं का संधिकाल मानकर 'गायत्री महा विज्ञान' में इसे 'तीसरी नव' दुर्गा कहा है, जिसे उनके कुछ अनुयायी आज भी सम्पन्न करते आ रहे है।



नवरात्र भक्तों का अध्यात्मिक पर्व है। इसका प्रभाव इतना व्यापक है कि इस अवधि में अवनि से अम्बर तक संपूर्ण वातावरण शाक्तमय हो उठता है। वैष्णव और शैव एवं भक्त और संत सभी शक्ति की पूजा-अर्चना में लीन हो जाते हैं। महायोगी लाहिड़ी महाशय इसे 'मातृ शक्ति की साधना का पर्व' मानते थे। उनका कहना था कि नवरात्र में पुन, नव ऊर्जा से परिपूरित होकर मंगल के लिए कुछ कर सकने के लिए संकल्पित हो जाना चाहिए। यह दुर्गा शक्ति की उपासना, साधना एवं आराधना के दिन होते हैं। सामान्यतः इन दिनों भक्त गण विधि-विधान के साथ दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं तथा व्रत धारण करते हैं। अमूमन उपवास काल में दूध तथा फलों का सेवन किया जाता हैं। कुछ लोग संपूर्ण काल मात्र लौंग को ढूँगकर व्रत रखते हैं। दुर्गा नवमी को व्रत का समापन माँ दुर्गा के हवन के साथ किया जाता है। तथा हवन के बाद व्रत तोड़ने पूर्व 2 से 9 वर्ष तक की कन्याओं को भोज कराया जाता है और दक्षिणा एवं सत्साहित्य दिया जाता है। भोज में कोई मिष्ठान होना आवश्यक है। युग निर्माण योजना के सूत्रधार ने इन दिनों 24 हजार गायत्री महामंत्र के पुरश्चरण को विशेष लाभदायी बताया है। उन ने अशवत साधकों के लिए व्रत के पालनार्थ एक वक्त अस्वाद भोजन की व्यवस्था भी दी है। आज 'कुंवारी' खिलाने के लिए भी कन्याएँ मिलना इतना दुर्लभ है, जैसे साक्षात दुर्गा के दर्शन होना। 


यूँ, रात्रि में पूजा नहीं की जाती, पर माँ भगवती का जागरण काल विशेषतः रात्रि बेला ही है, जिसका संकेत-संदेश सोते हुए को जगाना है। इसीलिए इस अध्यात्मिक उत्सव को 'नवरात्र' (नवरात्रि) कहा जाता है। मातृशक्ति की बीजस्वरूपा कन्याएँ नौ प्रकार की मानी गई हैं-2 वर्ष की कौमारी, 3 वर्ष की त्रिमूर्ति, 4 वर्ष की 'कल्याणी' 5 वर्ष की 'रोहिणी' 6 वर्ष की 'कालिका' (काली), 7 वर्ष की 'चण्डिका' (चण्डी) (भगवान राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए भवानी माँ के इसी रूप की पूजा की थी), 8 वर्ष की 'शाम्मवी,' 9 वर्ष की 'दुर्गा' तथा 10 वर्ष की 'सुभद्रा', शास्त्रों में 2 से 9 वर्ष की कन्या को माँ की आदि शक्ति का स्वरूप माना गया है। यह अहर्निश चौबीस घण्टों तक चलने वाला अनुष्ठान है, केवल रात्रि कालीन ही नहीं। कुण्डलिनी जागरण के लिए यह सबसे अनुकूल समय होता है, क्योंकि इस काल में कोशों का जागरण एवं दोषों का शोधन व चक्रों का वेधन सुगमतापूर्वक होता है। नौ दुर्गा काल में एक कन्या प्रतीक स्वरूपा देवी की नौ दिनों तक निम्न प्रकार की पूजा की जाती है 


प्रथम-शैलपुत्री : माँ शैलपुत्री 'पार्वती' 'सती,' 'उमा', 'अयषी', 'गौरी', 'शिवांगी' 'शुभंगी' 'महेश्वरी' आदि नामों से प्रसिद्ध है। पूर्व जन्म में इनके पिता राजा दक्ष थे और इनका नाम सती था। राजादक्ष के यज्ञ में इनके सती हो जाने की कथा प्रसिद्ध है। शैल पुत्री ने ही दूसरा जन्म पार्वती (यानि पर्वतवासिनी) के रूप में हिमाचल के यहाँ लिया था। धर्म और धैर्य का प्रतीक वृष इनका वाहन है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें में कमल सुशोभित है। यह अपने भक्त के दैहिक, वैदिक और भौतिक तीनों शूलों को सभूत नष्ट करके उसके व्यक्तित्व को निर्मल और उज्ज्वल बनाती है।


द्वितीय-ब्रह्मचारिणी : द्वितीया को देवी भगवती के द्वितीय स्वरूप, 'ब्रह्मचारिणी' की आराधना होती है। इसका उद्भव ब्रह्मा जी के कमण्डल से हुआ था। ब्रह्मा का अर्थ तप होता है। तप के ही बल पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और समापन करते हैं। अस्तु, तप की बड़ी महिमा है। इनके दायें हाथ में माला और बायें में कमण्डल सुशोभित है। ये भक्त को सदाचार, संयम, वैराग्य एवं तपोव्रत प्रदान करती है।


तृतीय-चंद्रघण्टा : आदि शक्ति का तीसरा स्वरूप 'चन्द्रघण्टा' के नाम से विहित है। शक्ति का प्रतीक सिंह इनका वाहन है। इनके आठ हाथ हैं, जिनमें त्रिशुल, बाण, खड्ग, कमण्डल, आदि सुशोभित हैं। इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्थ चंद्र है। देवासुर संग्राम में माता ने घंटे के नाद से असुरों का दमन किया था। (घंटा ध्वनि को इसलिए शुभ माना जाता है।) यह अपने आराधक की दुष्टों, दुश्मनों, दुष्चक्रों एवं दुरस्थितियों से रक्षा करती है।


चतुर्थ-कूष्मांडा : 'कूष्मांडा' के नाम से माँ का स्वरूप 'शांकुरी' भी कहलाता है। इस रूप से संसार को भूख से बचाने के लिए पृथ्वी पर शाक-सब्जी को उत्पन्न किया। इनका वाहन शेर है तथा इनके आठों हाथों में कमल, कमण्डल, अमृतकलश, जयमाला तथा गदा आदि धारित हैं। इनका निवास सूर्य मण्डल के अन्दर है। यह अपने भक्त के रोग-शोक दूर कर उसे आरोग्य, बल और यश प्रदान करती है।


पंचम-स्कंदमाता : स्कन्द आदि शक्ति के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, जिन्होंने कार्तिकेय के नाम से तारकासुर का वध किया था। माँ का पांचवां स्वरूप इसीलिए 'स्कन्दमाता' के नाम से अभिहित है। इनका वाहन शक्ति और साहस का प्रतीक सिंह है। श्वेतवर्णा माँ की चार भुजाएँ है। माँ ऊपर वाली भुजा में बाल स्कन्द को तथा शेष भुजाओं में कमलादि लिये हुए हैं। यह भक्त को अभय एवं योगी बनाती है।


षष्ठ-कात्यायनी : ऋषि कात्यायन की भक्ति से प्रसन्न होकर उनके द्वारा माँगे गये वरदानस्वरूप माँ ने ऋषि कत्यायन के यहाँ बेटी के रूप में जन्म लिया था, इसलिए इसके छते स्वरूप को 'कात्यायनी' कहा गया है। इन्होंने ही महिसासुर का वध किया। शेर पर सवार माँ के दो हाथों में खड़ग, कमल हैं तथा दो हाथ अजय और वरदायी मुद्रा में हैं। यह अपने भक्तों को अभय एवं सुखी बनाती है।


सप्तम्-कालरात्रि : काल पर विजय प्राप्त कर लेने के कारण आदि शक्ति का सातवाँ स्वरूप 'काल रात्रि' कहा जाता है। भगवान भोले ने एक बार भोलेपन से इन्हें 'काली' कह दिया था। इस कारण इनका वर्ण काला पड़ गया। धैर्य और गतिशीलता का बोधक, गदर्भ इनका वाहन है। इनके गले में बिजली की माला है और नथनों से आग की लपटें निकलती हैं। इनके एक हाथ में खड़ग एवं एक में लोहे का कांटा है तथा दो हाथ अभव एवं वरदायी मुद्रा में हैं। इनका 'शुभंकरी' नाम भी है। यह अपने भक्त के सभी पापों का नाश करके उसको कल्याण प्रदान करती है।


अष्टम-महागौरी : पार्वती के रूप में शिव को पाने के लिए कठोर तप करने के कारण इनका शरीर काला एवं मिट्टी से सना-पुता हो गया था। शिव के द्वारा इन पर गंगा जल छिड़कने से इनकी काया एक दम गौरी हो गई, इसलिए इन्हें 'महागौरी' कहा जाता है। इनका वाहन धर्म का प्रतीक, वृष है। माँ के एक हाथ में त्रिशूल और एक में डमरू है तथा दो हाथ वरदायी एवं अभयकारी मुद्रा मे हैं। माता का यह आठवां रूप अठारह गुणों का प्रतीक है। माँ धन-सम्पदा, सौंदर्य और सुहागिनों को विशेषतः सौभाग्य प्रदान करती है।


नवम्-सिद्धियात्री- माता का यह नवम् स्वरूप अणिमा, गरिमा आदि आठों सिद्धियाँ प्रदान करने वाला है। इनका आसन कमल है। एक हाथ में चक्र, एक में गदा, एक में शंख तथा एक में कमल हैइनकी आराधना के बाद, कन्या भोज कराकर ही नवरात्र के अनुष्ठान और व्रत का पारण होता है।