गांधी जी की 150वीं जयन्ती के अवसर पर सादर-सच्चा-संस्मरण बापू का दांत!

कार चली और साहित्यकार बंधु गांधीजी के दांत के बारे में सोचने लगे। उन्होंने सोचा कि यह आश्रमवासी दूरदर्शी है जब गांधीजी नहीं रहेंगे उस समय यह कितना मूल्यवान होगा। संभव है उस समय इसकी विश्व की अमूल्य निधि में गणना हो। कार रूक गई। डॉक्टर के घर के सामने कार के रूकते ही साहित्यकार के विचारों की गतिभी रूक गई। गांधीजी कार से उतरकर साहित्यकार बंधु के साथ दवाखाने में चले गए।



हात्मा गांधी अंधश्रद्धा के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि - सिद्धांत की पूजा सर्वत्र की जानी चाहिए मगर सिद्धांतवादी की पूजा सुखदायी नहीं है। ऐसे में जब एक आश्रमवासी द्धारा उनके टूटे हुए दांत की पूजा-प्रतिष्ठा का पता उन्हें चला तो उन्होंने इसका विरोध किया और आश्रम वासियों को कड़ा पत्र लिखा। इस प्रबोधक घटना को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं प्रख्यात चतिक राजशेखर व्यास!


गांधीजी के जीवन की यह सत्य घटना है। गांधीजी उन दिनों दिल्ली में थे। राजनीतिक कार्यों के भारी बोझ से दबे हुए थे। तभी उन्हें सहसा ऐसा मालूम हुआ कि उनका एक दांत हिल गया है और वह गिरना चाहता है।


गांधीजी ने डाक्टर के यहां जाने का निश्चय किया। एक आश्रमवासी गांधीजी के साथ जाने के लिए तैयार हो गये।


ज्यों ही गांधीजी ने इस आश्रमवासी से साथ चलने के लिए कहा उसे विचार आया कि डॉक्टर बापू का यह दांत निकालकर फेक देगा। यदि यह दांत मेरे हाथ आए


दूरदर्शी आश्रमवासी


परंतु डाक्टर के यहां जाते समय गड़बड़ी हो गई। ज्यों ही गांधीजी कार में बैठे उनसे मिलने आए एक प्रसिद्ध साहित्यकार भी साथ बैठ गए। कार में अब कोई जगह नहीं थी, बेचारे आश्रमवासी बंधु ठगे-से रह गए। वह कुछ न कर सके। उन्होंने साहित्यकार बंधु से कहा, “एक प्रार्थना है गांधीजी के साथ आप जा ही रहे है। तो मेरा इतना-सा काम कर दें कि बापू को जो दांत डॉक्टर निकाले, वह लाकर मुझे दे दीजिए। उसके लिए इसका कोई मूल्य नहीं है पर मेरे लिए तो वह अधिक मूल्यवान है।" साहित्यकार ने सोचा कि यह आश्रमवासी इस बेकाम दांत का क्या करेगा? फिर उन्होंने दांत लाकर देने का वचन दिया।


कार चली और साहित्यकार बंधु गांधीजी के दांत के बारे में सोचने लगे। उन्होंने सोचा कि यह आश्रमवासी दूरदर्शी है जब गांधीजी नहीं रहेंगे उस समय यह कितना मूल्यवान होगा। संभव है उस समय इसकी विश्व की अमूल्य निधि में गणना हो। कितना


कार रूक गई। डॉक्टर के घर के सामने कार के रूकते ही साहित्यकार के विचारों की गति भी रूक गई। गांधीजी कार से उतरकर साहित्यकार बंधु के साथ दवाखाने में चले गए


टांत निकल गया


डॉक्टर ने बापू का दांत निकाल दिया। दियागांधीजी डॉक्टर की पीछे मोटर की ओर धीरे-धीरे चलने लगे। इधर साहित्यकार बंधु बड़े असमंजस में थे कि क्या करू फिर वह कंपाउंडर के पास पहुंचे और उनसे दांत मांगने लगे परंतु कंपाउंडर भी कोई कच्चा खिलाड़ी नहीं था। वह स्वयं उस दांत को सुरक्षित रखने का विचार रखता था, इसलिए उसने कहा कि बापू का दांत डाक्टर साहब से ही मांग लेना, मैं उनकी आज्ञा के बिना किसी को नहीं दे सकता।


साहित्यकार बंधु को लगा कि बाजी हाथ से जा रही है इसलिए उन्होंने अंतिम पासा फेका। बोले, "भाई इसमें डाक्टर से पूछने की क्या आवष्यकता है जबकि बापू ने स्वयं इसे लाने के लिए कहा है। बापू कार में बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। "इस तरह गांधीजी के नाम की दुहाई देकर वह चुप हो गये।" बापू स्वयं मांग रहे हैं फिर भी डाक्टर साहब को तो आने दीजिए।" कंपाउडर ने कहा।


इतने में गांधीजी को कार में बिठाकर डाक्टर साहब इधर आने लगे। कई प्रसिद्ध महापुरुषों के दांत इन्होंने ही निकाले थे परंतु इतना आनंद और प्रसन्नता इन्होंने इससे पूर्व कभी महसूस नहीं की थी। इन्होंने विचार किया कि इस महापुरुष के दांत को गंगाजल से धोकर रजत पात्र में रखंगा पर ज्योंही लौटे कि पता चलाकि बापू अपना दांत मंगवा रहे हैं।


तूचोर है, मेरे दांत का


एक प्रतिष्ठित साहित्यकार डाक्टर साहब के सामने खड़े थे। उनके कथन पर शंका करने को कोई कारण नहीं था। डाक्टर ने निःश्वास लिया और लीजिए कहकर दांत दे दिया और आरामकुर्सी पर सुस्त पड़ गये, जैसे कि उनका घनिष्ठ संबंधी आज उनसे खो गया हो।


साहित्यकार बंधु ने बापू के दांत को बहुत गंभीरतापूर्वक रूमाल में लपेटकर कार की ओर अपने पैर बढ़ाए। कार में गांधीजी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वह बोले, "इतना समय कैसे हो गया, क्या तुम्हें भी अपना दांत निकलवाना था?" गांधीजी ने उपहास किया।


"नहीं बापू, मेरे दांत इतने निर्बल नहीं हुए है।" कहते हुए साहित्यकार बंधु कार में जो बैठे।


बुद्धि की हृदय पर विजय


कार रवाना हुई। साहित्यकार बंधु का हृदय प्रसन्नता के मारे फूला न समा रहा था। उन्हें लगा कि आज मेरे पास जो वस्तु है उसे अपने पास रखने के लिए कई व्यक्ति मर मिट सकते हैं। क्यों कंपाउंडर और डाक्टर की लोभमयी दृष्टि का अनुभव उन्हें हो गया था, परंतु यदि वह सीधा-साधा सरल आश्रमवासी इन्हें दांत लाकर देने की याद न दिलाता तो..तो ये इस बेकाम दांत का कुछ मूल्य नही समझते और यह डाक्टर के यहां पड़ा रहता।


इतने परिश्रम एवं चालाकी से लिया गया यह दांत क्या आश्रमवासी को दे दिया जाए? उसे देने का वचन जो दिया है न, ऐसा सोचते हुए भी साहित्यकार बंधु ने निष्चय किया कि क्या मैं सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र हूं जो अपने वचन का पालन करूं ही? मैं कह दूंगा, भूल गया। आश्रमवासी को दांत लाने का परिश्रम तो मैंने किया। इस समय बापू की बिना दांत की हंसी मानो साहित्यकार का उपवास करती हुई लगी हो कि तू चोर है, मेरे दांत का चोर है।


साहित्यकार ने फिर भी अपने मन को समझाया। मैं चोर कहां हूं? बापू के दांत का चोर? काहे का चोर? डाक्टर की अनुमति से मांगकर तो इसे लाया हूं फिर किस बात का चोर? नहीं मैं चोर नहीं हूं, पर हां, बापू से तो मैने इसे छिपाकर रखाहै। क्या यह चोरी नहीं है? यह विचार आते ही साहित्यकार बंधु कांप उठे परंतु उनकी बुद्धि ने हृदय पर विजय प्राप्त की फिर उन्होंने साहसपूर्ण निष्चय किया कि मै बापू का कैसा चोर? क्या बापू ने इस दांत को बेकाम समझकर डाक्टर के यहां नहीं छोड़ दिया था? वह तो मैं इसका उद्धार कर दिया। नहीं तो कौन जाने यह कौन-सी गटर में लुढ़कताऔर अब तक काल के प्रवाह में विलीन हो गया होता। इसलिए बापू की चोरी का प्रश्न ही नहीं।


निराशा के क्षण


कार रूक गई। बापू की कुटिया आ चुकी थी। थोड़ी दूर पर वह आश्रमवासी भी मिल गया। “अरे, तू कहां छिप गया था?" इस प्रकार उसे टपका देकर प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना बापू आगे चल दिए। आश्रमवासी को गांधीजी के साथ नहीं जाने का दुःख तो था ही, फिर भी कुछ नहीं तो स्मृति-स्वरूप उनका दांत मिलेगा, यह सोचकर उसने अपने मन को सांत्वना दी।


साहित्यकार को देखते ही आश्रमवासी बंधु खुश होकर बोला, "लाए हो न मेरा दांत? भूल तो नहीं गए?"


मुखाकृति को शोकमय बनाते हुए साहित्यकार ने कहा, "क्या करूं भाई, दांत मांगने का अवकाश तक न मिला। बापू ने वापस आने के लिए इतनी शीघ्रता की कि वह वहीं रह गया।"


आश्रमवासी निराश हो गया और कुछ क्षण के बाद साहस बटोरते हुए पूछने लगा, “आप सत्य कह रहे हैं न!'


"मै सत्य ही कह रहा हूं। नहीं तो क्या मैं तुम्हारे साथ हंसी कर रहा हूं!'' साहित्यकार ने गंभीरता से कहा।


मुट्ठी में क्या है!


आश्रमवासी सोच में पड़ गया। मन में विचार आया कि एक बार डाक्टर से पूछ लूं कि सोचा-ऐसा करना अनुचित होगा। साहित्यकार बंधु क्यों असत्य बोलने लगे फिर यदि दांत मांगना ही था तो डाक्टर से उसी समय मांग लिया होता! अब डाक्टर क्यों देगा! हो सकता है डाक्टर भी उसे अमूल्य समझकर देने में आना-कानी करे।


साहित्यकार बंधु ने घर जाकर जेब से धीरे-धीरे रूमाल निकाला और उसमें से दांत बाहर निकाला। अब उन्हें विश्वास हुआ कि सचमुच गांधीजी का दांत उन्हीं के पास है। इसके बाद उन्होंने इस दांत को खादी के रूमाल में बंद कर गांधीजी के चित्र के सामने रख दिया। इसके बाद भोजन किया पर बीच में जाकर कई बार उस रूमाल को देखा। इतनी मूल्यवान वस्तु आज आने पास है जिसके आनंद का वर्णन करना असंभव है। किसे कहकर आनंद का भागीदार बनाएं क्योंकि बिना किसी को बताए वास्तविक आनंद नहीं उठाया जा सकता। यह सोचकर निश्चय किया कि मैं सार्वजनिक स्थान पर सबके सामने कहूंगा कि देखों, मेरी बंधी मुट्ठी में क्या है!


पर इन साहित्यकार बंधु को भय लगा कि बापू को यह बात मालूम हो गई तो.. बापू बड़े विचित्र पुरुष हैं। वीर-पूजा और मूर्तिपूजा के विरोधी हैं। वह अपने दांत की इस प्रकार रक्षा और संचयन को कदाचित वीरपूजा मानकर या तो फेंक देने की आज्ञा प्रदान करेंगे या पुनः डाक्टर को सौंपने को कहेंगे ईश्वर के अवतार और यदि उस सीधेसादे भोले-भाले आश्रमवासी को यह बात पता चली तो मैं झूठा कहलाउंगा, उसकी एवं गांधीजी की दृष्टि में हेय माना जाउंगा और गांधीजी के समीप खड़ा रहने को नैतिक बल खो दूंगा।


इतना होते हुए भी साहित्यकार का मन स्थिर नहीं हो सका और वह अपने एक-दो लखपति मित्रों के पास गए जो गांधीजी के भी मित्र थे।


पहले मित्र के साथ इधर-उधर की बातें करने के पश्चात गांधीजी पर बात चलीलखपति मित्र ने कहा कि गांधीजी को तो साक्षात ईश्वर का अवतार ही मानना चाहिए।


भीतर का द्वंद्व


- साहित्यकार ने देखा कि अब अच्छा अवसर है, मुझे अपने भीतर का द्वंद्व बताने का। वह बोले, “इसमें क्या संदेह है। बापू के जीवित रहते जब उनकी इतनी पूजा होती है जितनी कदाचित किसी अन्य व्यक्ति की कभी नहीं हुई। दूर-दूर से मनुश्य अभी जब इनकी चरण-रज लेने आते हैं। तो मृत्यु के बाद तो ये अवष्य भगवान के समान पूजे जाएंगे। पर हां सेठजी आप गांधीजी के ऐसे परमभक्त हैं तो क्या उनकी स्मृति में कोई वस्तु आपने संग्रहीत कर रखी है या केवल आप बातों से ही संतश्ट होते हैं? आज वह महापुरूश अपने बीच है। संभव है कालचक्र के प्रभाव से नहीं रहेंगे तो फिर आप क्या करोगे?"


सेठजी ने कहा, "बापू की स्मृति पर, अभी-अभी अंतिम बार गांधीजी गांव के आश्रम में थे तो मेरे यहां भोजन करने आए थे।" उन्होंने जिन पात्रों में भोजन किया उनको मैंने और मेरी पत्नी ने मांजकर बापू की स्मृति में सुरक्षित रखा है। उसके बाद कभी किसी ने उप पात्रों को काम में नहीं लिया।


"साहित्यकार बंधु हंस पड़े और बोले, "यह कोई स्मृति है? ये तो आपके बर्तन हैं इनमें गांधीजी का क्या है? स्मृति-स्वरूप तो ऐसी वस्तु रखनी चाहिए जो स्वयं गांधीजी की हो और जिसे वर्शों तक देखने के लिए आपके घर में आएं।"


दांत का सौदा


सेठजी चुप हो गए और आश्चर्य से साहित्यकार की ओर देखने लगे। साहित्यकार ने कहा, "मैं आपको एक ऐसी वस्तु दिखाता हूं जो आज प्रातःकाल तक गांधीजी का एक अंग थी और बाद में स्वयं उपनी इच्छा से जिसका उन्होंने त्याग किया।"


"कौन-सी वस्तु है वह?" सेठजी ने कौतूहल के साथ पूछा, “यह दांत," साहित्यकार ने कहा, "आज ही सवेरे बापू ने डाक्टर से निकलवाया है।"


"सेठजी गद्गद् हो गए और दांत देने के लिए उनसे विनती करने लगे," आप जितनी रकम मांगें, मैं देता हूं, हजार, दो हजार, दस हजार।


"साहित्यकार को यह सुनना बहुत मीठा लगा मगर वह गांधीजी के दांत का सौदा करने थोड़े ही आए थे। वह तो सेठजी के पास केवल अपना गर्व-प्रदर्शन करने आए थे कि गांधीजी की जो वस्तु किसी पास नहीं है और न हो सकती है, वही अमूल्य, वस्तु अनके पास है। सेठजी पर असर डालने का साहित्यकार का उद्देश्य यह भी था कि जो वस्तु धन से भी नहीं खरीदी जा सकती, वह अगाध सुख देती है। अपने इसी सुख का प्रदर्शन करने वह आए थे।"


साहित्यकार इसके बाद अपने दूसरे मित्र के पास गए। परंतु मार्ग में ही उनके हृदय मे पाप उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगे कि यदि मै इस दांत को बेच दूं तो क्या बुरा है? कई पुस्तकें मैंने लिखीं पर मेरी आर्थिक स्थिति जैसी-की-तैसी है। स्त्री-बच्चों को धन तो क्या लेशमात्र आनंद अभी तक नहीं मिला। प्रतिष्ठा बहुत मिली पर इससे थोड़े ही कुछ खरीदा जा सकता है। समय आने पर नरसिंह मेहता को तो गिरवी रखने वाला मिल गया था, पर मेरी पुस्तकों और कलम को तो क्या, मेरी देह तक को कोई गलाम या गिरवी रखने के लिए नहीं मिलेगा। मंहगाई बढ़ती जा रही है। भोजन बड़ा मंहगा पड़ता है। घर में प्रवेश करते ही घी लाओं, दाल लाओं, आटा नहीं है, बेटी की इस महीने की फीस बाकी है, पत्नी के उन षब्दों को सुनते-सुनते घबरा गया हूं। अब तो जाने को भी मन नहीं करता


कोरे चेक पर हस्ताक्षर


साहित्यकार बंधु जब इस विचार लहरी में गोते लगा रहे थे तभी उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि मानो बापू का दांत उनके विचारों को सुनकर उन पर हंस रहा हो। वह कांप उठे। अवश्य ही काला-बाजार करने वाले उन श्रीमंत मित्र की संगति का मुझ पर बुरा असर पड़ा है। बापू के दांत का मैं सौदा करूं.. इतना नीच, अधम बनूं, नहीं.. भी नहीं कभी नहीं।


फिर भी वह अपने श्रीमंत मित्रों से मिलते और बापू के दांत की जिक्र छेड़ते तो इस दांत का मूल्य बढ़ जाता जैसे किसी नीलामी में कोई वस्तु रखी हो। साहित्यकार महाशय की गांधीजी के प्रति श्रद्धा डगमगाने लगी। देख स्वर्ण को डिगत मुनिवर-जैसी स्थिति इनकी होने लगी। एक मित्र ने तो कोरे चेक पर हस्ताक्षर कर उनके हाथ में देते हुए कहा, "लो, जितनी तुम्हारी इच्छा हो इस पर रकम चढा लो।"


माया और सत्य के बीच


साहित्यकार बंधु उस कोरे चेक पर रकम चढाने ही लगे थे कि मानो वह दांत खिल-खिलाकर हंस पड़ा! बापू का यह अमर-हास उनका इस तरह पीछा कर रहा था जैसे र्दुवासा ऋषि का पीछा सुदर्शन चक्र ने किया था।


उनके हाथ में से कलम गिर पड़ी और वह उन श्रीमंत मित्र का घर छोड़कर ऐसे भागे कि लोग पीछा कर कहीं उन्हें छू न लेंइस समय त्रिशंकु के समान वह माया और सत्य के बीच लटक रहे थे। सीधे घर पहुंचे और खाट पर गिरकर लंबायमान हो गए।


इधर आश्रमवासी को साहित्यकार का कोई मित्र अकस्मात मिल गया। मालूम हुआ कि साहित्यकार तो बापू के दांत का सौदा कर रहें हैं। तब तो उनके सात्विक एवं सरल हृदय में पुण्य-प्रकोप जागृत हो गया। क्या प्रेम और श्रद्धा की वस्तु को इस प्रकार संसार के चैराहे पर नीलाम किया जाता है? एक तो मेरे सामने वह असत्य बोले, उस अपराध को क्षमा कर दिया पर दूसरा भंयकर अपराध यह कि बापू के दांत की नीलामी, हद हो गई। आश्रमवासी तो क्रोध से लाल होगए और उसी समय साहित्यकार के यहां पहुंचे।


पुण्य कार्य करने का आनंद


साहित्यकार ने आश्रमवासी को देखते ही आदर किया, “आइए, आइए-मैं तो आप ही की प्रतीक्षा में था कि बापू के दांत के विशय में तो कपट किया जा सकता है पर बापू के विशय में कपट नहीं किया जा सकता। इस दांत के वास्तविक अधिकारी आप ही हैं। मैं तो इसको अमुल्य मानकर इसका सौदा करने तक उतारू हो गया था परंतु बापू के पुण्य से मैं बच गया। लोभ पाप का मूल है, यह मैं बहुत देर से समझा मुझे क्षमा करना।"


आश्रमवासी ने कांपते हुए हाथों से बापू का दांत लेकर चूमा, नमन किया। उसका भक्ति-भाव नयनों के हर्षाश्रुओं के माध्यम से प्रवाहित होने लगा। साहित्यकार बंधु इस समय आनंद का अनुभव कर रहे थे। एक पुण्य कार्य करने का यह आनंद था। भूल का प्रायश्चित था। सत्य वस्तु की स्वीकृति के साहस का आनंद था।


मन में शंका


आश्रमवासी को यह आशा नहीं थी कि साहित्यकार बंधु इतने आदर के साथ यह दांत उन्हें दे देंगे। एक बार तो उनके मन में शंका हुई कि कहीं इन्होंने मुझे बनाया तो नहीं है? किसी दूसरे का दांत तो नहीं दे दिया है, क्योंकि जो अनर्थ की ओर प्रवृत्त हो सकता है वह क्या-क्या नहीं कर सकता? मगर उसी समय उन्हें याद आया कि जब मैंने साहित्यकार के घर के दालान में पैर रखा था तब यह दांत स्वच्छ उवं उज्वल खादी के रूमाल में बापू के चित्र के पास अगरबत्ती की सुगंध के बीच रखा हुआ था और मैं आने वाला हूं, यह सूचना भी साहित्यकार को कहां से होती? जिससे ऐसा नाटक कर सकता।


आनंद और निःशक मन से आश्रमवासी बापू के दांत को लेकर आश्रम की ओर चल दिया।


बापू के दांत को आश्रमवासी ने गंगाजल से पवित्र किया उन आराध्य देवों के बीच उसे भी स्थापित कर दिया। इस दांत के लिए उसने एक चांदी की छोटी सी कटोरी बनवाई और बापू की हंसती हुई मूर्ति अपने इस इष्टदेव के साथ विराजित कर दी। समीप ही धूप, दीप और फल भी रखे। उसने इस दांत के विषय में किसी से कुछ कहा नहीं, परंतु उसका मन अशांत था। ऐसा लगता था मानो कभी-कभी उससे यह दांत बातें करता हुआ यों कह रहा हो कि यह तुमने ठीक नहीं किया बंधु। रात्रि में उसे स्वप्न आते। बापू कहते, “भला तुमने यह क्या किया? मेरे जीवित रहने पर ही मेरे आदर्शों का पतन और वह भी मेरे ही आश्रमवासियों द्वारा? मेरे मरने पर भी क्या इसी प्रकार मेरी मूर्ति पूजा करोगे? संसार के इन समस्त अंधश्रद्धालुओं के पथ का अनुसरण क्या तुम भी करोगे? क्राईस्ट के समान सूली पर चढ़ाने के लिए भी क्या नहीं निकलोगे?" यों कह बापू अट्टाहास करते और आश्रमवासी भी नींद में चौंककर बिस्तर पर बैठ जाते।


बाबू को पत्र 


इस प्रकार कुछ दिन बीत गए पर उनके मन को शांति नहीं मिली। बेचैनी में उसने एक बापू को पत्र लिखा और उसमें दांत का सही वर्णन करते हुए बताया कि कैसे यह दांत उन्हें मिला और और किस प्रकार उन्होंने उसकी पूजा-प्रतिष्ठा की। साथ ही आश्रमवासी ने बापू के दांत को अपने पास रखने की अनुमति भी मांगी थी।


प्रत्युत्तर की अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी परंतु जो जबाब आया, वह आश्रमवासी की आशाओं पर पानी फेरता हुआ-सा था। बापू ने इतना उपालंभ दिया कि किसी भी तरह की अंधश्रद्धा, मूर्ति पूजा का सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप है।


संसार के सभी महापुरुषों के आदर्शों का एवं उनके अनुयायियों का पतन इसी प्रकार हुआ है। सिद्धांत की पूजा सर्वत्र की जानी चाहिए मगर सिद्धांतवासी की पूजा किसी भी प्रकार सुखदायी नहीं है


अंधश्रद्धा का विसर्जन


आश्रमवासी को इससे एक ओर निराशा हुई तो दूसरी ओर ज्ञान का हृदय में उदय भी हुआ। वह गंभीर विचार में मग्न हो गए। उन्हें विश्वास हो गया कि केवल बापू की मूर्ति पूजा में अभी प्रवृत्त हुए हैं। बापू के विचारों, आदर्शो और सिद्धांत से वह योजन दूर हैं।


आश्रमवासी नदी की ओर चल दिए। हाथ में वही स्वच्छ-खादी का उज्ज्वल रूमाल था और उसके अंदर बापू का वह हंसता हुआ दांत था मगर आज वह आश्रमवासी साहित्यकार पर नहीं हंस रहा था पर अपने स्वाभाविक स्थान पर आज वह जा रहा है, इसलिए पूर्ण प्रसन्न था। नदी के किनारे पहुंचने पर आश्रमवासी ने रूमाल मे से दांत को बाहर निकाला। घड़ीभर अपनी अंतिम दृष्टि उस पर डाली, मस्तक पर लगाकर उसका सम्मान किया और धीरे से नदी मे छोड़ दिया। तत्क्षण नदी के अगाधजल में दांत डूब गया और आश्रमवासी की अंधश्रद्धा भी। नदी के उस पार क्षितिज की कोर पर सूर्योदय हो रहा था मानो आज वह अपने साथ नवीन आशा का उदय कर रहा हो। इधर आश्रमवासी के हृदय क्षितिज की कोर पर भी आज ज्ञान का सच्चा सूर्योदय हो चुका था।