कैसे रोकें पर्यावरण का असंतुलन?

वैज्ञानिक उपलब्धियों ने मनुष्य को जितना आगे बढ़ाया है, उससे कहीं अधिक पीछेभी ढ़केला है। विभिन्न जलाशयों में करीब ढाई हजार प्रकार के रासायनिक पदार्थों का पाया जाना वैज्ञानिक उपलब्धियों का ही परिणाम है। इनमें से एक हजार रासायनिक पदार्थ पीने के पानी के स्रोतों में भी पाये गये हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में ही हम कम आगे नहीं बढ़े हैं।



पर्यावरण की सुरक्षा के लिये लोग जितना चिंतित हैं, आज उतना ही धरती का पर्यावरण तहस-नहस हो गया है। पर्यावरण की असुरक्षा और उस पर आये खतरे को अस्वीकारा नहीं जा सकता। पर्यावरण की सुरक्षा मनुष्य के लिये है। लेकिन अब इसकी सुरक्षा मनुष्य के लिये ही, किंतु मनुष्य से भी जरूरी हो गयी


स्वयं मनुष्य पर्यावरण पर आयी असुरक्षा या इसके असंतुलन का मुख्य कारक है। पर्यावरण के असंतुलन के भले अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर बढ़ती हुई जनसंख्या से उत्पन्न स्थिति के परिणाम हैं। जनसंख्या विस्फोट भी पर्यावरणीय विस्फोट है। सन् 1500 ई. की विश्व-जनसंख्या को दुगुनी होने में 400 वर्ष लगे थे। लेकिन उसके बाद विश्व-जनसंख्या को दुगुनी होने में 65 वर्ष ही लगे। 1965 के बाद इसे दूनी होने में मात्र 40 साल लगे। सोचने की बात है कि इससे धरती का भविष्य क्या होगा। __ जलावन, इमारती लकड़ियां आदि वनोपज हों या वाहनों की संख्या, जनसंख्या से सभी प्रभावित हैं। उपजाऊ धरती का गैर-कृषि कार्य हेतु उपयोग होने ही लगा है, हजारों एकड़ वन भूमि का भी गैर-वानिकी कार्य हेतु प्रयोग किया जा रहा है. बड़े-बड़े कृत्रिम बांधों द्वारा सिंचाई की तूफानी व्यवस्था से धरती अंदर से बाहर तक प्रभावित हो गयी है।


विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोगों से भी हमारी धरती भीतर-बाहर से प्रभावित हुई है। दूर का रेगिस्तान हो या गहरा समुद्र, आणविक विस्फोटों से उत्पन्न खतरे से पर्यावरण का संतुलन अछूता नहीं रह पाता। 23 दिसंबर, 1984 को हुई भोपाल गैस दुर्घटना मे हजारों लोग मारे ही गये, बचे हुए लाखों लोग भी त्रासदीपूर्ण जिंदगी जी रहे हैं। सावधानियों के बावजूद ऐसी छोटी-बड़ी घटनाएं होती रहती हैं और पर्यावरण पर अपना सम्यक प्रभाव छोड़ जाती हैं।


वैज्ञानिक उपलबियों ने मनुष्य को जितना आगे बढ़ाया है, उससे कहीं अधिक पीछे भी ढ़केला है। विभिन्न जलाशयों में करीब ढाई हजार प्रकार के रासायनिक पदार्थों का पाया जाना वैज्ञानिक उपलब्धियों का ही परिणाम है। इनमें से एक हजार रासायनिक पदार्थ पीने के पानी के स्रोतों में भी पाये गये हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में ही हम कम आगे नहीं बढ़े हैं। अनेक रोगों के इलाज की दिशा में एक ओर हमारा विज्ञान बहुत आगे बढ़ा है तो दूसरी ओर बिगड़े पर्यावरण के चलते आज बीमारियां भी अधिक बढ़ गयी हैं। प्रदूषित वातावरण के चलते हम भोजन, पानी, हवा और यहां तक कि दवा भी प्रदूषित रूप में उपयोग करने के लिये मजबूर हो गये हैं। सारे क्षेत्रों की तरह नैतिकता भी प्रदूषित हो चुकी है और लोगों में आर्थिक होड़ लगी हुआ है। यह हमारे पर्यावरण की सुरक्षा की दिशा में सबसे बड़ा खतरा है।


ईरान-इराक जैसे युद्धों में हमारी धरती पर फैले प्रदूषण की क्षतिपूर्ति आसान नहीं है। दो देशों की लड़ाई में विज्ञान का भरपूर उपयोग किया जा सकता है। तेलकूपों में लगी आग पर भी महीनों बाद काबू पाया जा सकता है। लेकिन युद्ध के दौरान मरे लोगों को कोई विज्ञान जिला सकता है क्या? तेलकूपों में जला तेल हो या उस आग से जले जलीय जीव अथवा वातावरण में उसके कारण उत्पन्न गैसीय दुष्प्रभाव-उसकी क्षतिपूर्ति हम किसी वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा नहीं कर सकते। यह तो विज्ञान के दुरुपयोग से उत्पन्न पर्यावरणीय असंतुलन के छोटे उदाहरण हैं।


वातावरण में कार्बन डायआक्साइड की निरंतर वृद्धि से पृथ्वी का जो तापमान बढ़ रहा है, उसे 'ग्रीन हाउस प्रभाव' कहते हैं। यह एक गंभीर समस्या है। यदि 4 से 5 डिग्री सेंटीग्रेड तक, विशेष कर तटवर्ती क्षेत्रों में तापमान बढ़ गया तो समुद्र की सतह 15 से 140 सेंटी मीटर तक ऊपर उठ सकती है।


क्लोरोफलुओरो कार्बन का उपयोग एयरोसोल, प्रशीतन रसायन और प्लास्टीक के निर्माण में किया जाता है। इस क्लोरोफ्लुओरो कार्बन से पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है और यह वातावरण में उपस्थित ओजोन परत को कमजोर बनाती है। ओजोन परत से सूर्य की पाराबैंगनी किरणे छन कर बाहर आती हैं, जिससे धरती के जीवों को नुकसान नहीं होने पाता।


प्रति वर्ष 60 लाख हेक्टेयर उपेक्षित किंतु उपजाऊ जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है और करीब 10 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रों का विनाश हो जाता है।


'बिना विनाश के विकास' पद्धति अपना कर ही भविष्य के संभावित खतरों और वर्तमान पर्यावरण की बिगड़ी स्थिति से निपटा जा सकता है। इसके लिये विकास के क्रम में निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है:


1. पर्यावरण के छोटे-बड़े प्रत्येक घटक का निश्चित संतुलन बनाये रखना।


2. वनस्पतियों एवं प्राणियों को सुरक्षित रखना।


3. विलोपन के कगार पर पहुंचे हुए जीवों की रक्षा करना एवं उनकी सुरक्षा के लिये विशेष रूप से जागरूक रहना।


4. पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली प्रत्येक स्थितियों को खत्म या कम से कम करना।


5. स्थानीय जनों को रोजगार मुहैया कराना एवं उनकी आवश्यकता को ध्यान में रख कर विकास कार्यक्रमों को उसी के अनुरूप ढालना।


6. समस्याओं का स्थानीय निराकरण ढूंढना।


7. विज्ञान के विध्वंसात्मक उपयोग एवं अनावश्यक प्रयोग से बचना।


8. कुटिर एवं लघु उद्योगों को प्रोत्साहित करना।


9. वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण भूली हुई प्राकृतिक विशेषताओं को फिर से याद करना।


10. कोयले पर आधारित नये उद्योगों पर रोक लगाना।


11. उद्योगों का निर्माण आबादी से दूर और बंजर धरती पर करना और वहां आबादी नहीं बसने देना।


12. धुंआ छोड़ने वाले वाहनों को सड़क पर नहीं चलने देना और प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को प्रदूषण जांच का प्रमाण देख कर नहीं छोड़ना।13. परमाणविक परीक्षण पर रोक लगाना।


14. नदियों, तालाबों एवं भू-तलीय जलस्रोतों को बिना प्रदूषित किये उपयोग में लाना।


15. आवंटित राशि के खर्च को विकास का मापदण्ड नहीं मान कर उपलब्धियों को विकास का मापदण्ड मानना।


विकास के नाम पर पर्यावरण का जो विनाश हो रहा है, उसे रोकने में यदि अब और विलंब किया गया तो स्थिति नियंत्रण से बाहर चली जायेगी। वन-विनाश और भू-क्षरण पर्यावरण के असंतुलन का शायद सबसे बड़ा कारण है। लेकिन इसे रोकना भी शायद सबसे अधिक आसान है। हमारे देश में 304 मिलियन हेक्टर धरती है, जिसके करीब 60 प्रतिशत (करीब 182 मिलियन हेक्टर) के प्रति शीघ्र आवश्यक सावधानी बरतने की आवश्यकता है। इस 182 मिलियन हेक्टर में जल क्षरण ग्रस्त क्षेत्र 90 मिलियन हेक्टर, वायु क्षरण ग्रस्त क्षेत्र 50 मिलियन हेक्टर, बाढ़ प्रकोपित क्षेत्र 20 मिलियन हेक्टर और जल जमाव आदि से प्रभावित क्षेत्र 22 मिलियन हेक्टर है। इस 182 मिलियन हेक्टर धरती को बचा कर भी हम पर्यावरण के संतुलन की दिशा में कारगर कार्रवाई कर सकते हैं।


पर्यावरण सिर्फ बड़े घटकों से ही नहीं, छोटे-छोटे कारकों से भी प्रभावित होता है। व्यक्तिगत दिनचर्या हो या पारिवारिक गतिविधियां, सामाजिक उत्सव हो या राष्ट्रीय महोत्सव-पर्यावरण को प्रभावित करने वाली गतिविधियों से परहेज अत्यावश्यक है।