महानशूर साधक - संत माखूजन जी

राजस्थान प्रदेश का हाड़ौती संभाग अपने पराक्रमों, दान तथा स्थलों के वैशिष्ठ्य के लिये अतीत से ही विख्यात रहा है, परन्तु इससे भी अधिक यदि वह समृद्ध रहा है तो इसका मुख्य कारण है कि इस भूभाग में महान और तपोनिष्ठ सन्तों की साधना सुगन्ध का सत्त प्रवाहित होना_इस प्रदेश में अनेक पन्थों के ऐसे महान संत हुए जिन्होने अपनी भक्ति से जन-जन का उद्धार कर सामाजिक समरसता को स्थापित करने में महत्ती भूमिका निभायी। इनमें गागरोन के रामानन्दी भक्ति सम्प्रदाय के राजर्षि संत पीपाजी, यहीं के सूफी चिश्ती सम्प्रदाय के दरवेश ख्वाजा हमीदुद्दीन और बांरा के गूदडपंथी संत प्यारेरामजी का नाम प्रसिद्ध है। संतो की ऐसी ही यशस्वी परम्परा में इस भू-भाग के कोटा क्षेत्र में एक ऐसे ही संत हुए जिन्होने अपनी भक्ति से जन-जन में साधनागत भूमिका का निर्वाह किया, परन्तु केवल उन्हे उनके पंथानुयायी ही जानते हैं तथा हाड़ौती में अभी तक के लिखे साहित्य, भक्ति ग्रन्थ, इतिहास व शोध जगत में वे पूर्णतया अज्ञात व अचर्चित रहे हैं। हाड़ौती के संत साहित्य में रूची रखने वालो ने भी इन पर किसी प्रकार का कार्य नहीं किया। इस भू-भाग के मठो, मंदिरों, देवस्थानों को देखने तथा अनगिनत विद्वानों से सम्पर्क करने के दौरान कोई भी व्यक्ति इन संत व इनकी शिष्य परम्परा की अधिकृत रूप से जानकारी नहीं दे पाया है। फिर भी इन पर व्यक्तिगत रूप से जितनी भी जानकारी प्रामाणिक रूप में एकत्रित की गई वह इस प्रकार प्रस्तुत है।


चम्बल नदी के किनारे कोटा मुख्यालय के उत्तर में स्थित रंगपुर से 7 किमी दूर प्राचीन ग्राम गंगायचा है। इस ग्राम में महान तपोनिष्ठ सन्त माखूजनजी दादूपंथी का आश्रम व उनके ब्रह्मलीन होने के चरण चिह्न है। संत माखूजनजी प्रसिद्ध दादूपंथी प्रर्वतक संत दादूदयालजी के प्रमुख 52 शिष्यों में से एक थे और वे श्रेष्ठ वाणीकार, उपदेशक, मनस्वी व लोक कल्याणकारी व्यक्तिव थे। दादू परम्परा में उन्हें 'शूर साधक संत' के रूप में प्रतिष्ठा दी गयी है। दादूपंथी साहित्यमें संत दादूदयाल जी के 52 प्रमुख शिष्यों की नामावली को "बावन थांभायती" कहा गया है जिनमें उनके शिष्य सन्तों के नामोल्लेखों के साथ-साथ उनके तप व ब्रह्मलीन स्थलों का वर्णन भी मनोहारी छन्दों में हुआ है। गंगायचा ग्राम को दादू साहित्य में 'माखूजन थांबा' कहा गया है।



'हाड़ोती गंगायचा में, माखुजी मगन भये। तथा


माखूजन शिष बावनी, चम्बल धुनि तटवास।


गंगायचा जनपद भज्यों, हाड़ोती हरिवास।।'


संत माखूजनजी के जन्म व मूल स्थान की ऐतिहासिक जानकारी अभी अज्ञात है, परन्तु उनके भक्तिमय व्यक्तिव का प्रमाण यह है कि गंगायचा ग्रामान्तर्गत स्थित उनके आश्रम में स्थापित उनकी प्राचीन हस्त निर्मित छवि तथा उनके चरण चिह्न पर उनके ब्रह्मलीन होने का वर्ष विक्रम संवत् 1675 (सन् 1618 ई.) अंकित है। इस संवत् से यह ऐतिहासिक आधार बन सकता है कि संत माखूजनजी, संत दादू दयालजी के शिष्यों में रहे हैं। दादू इतिहास व दादू पंथ परम्परा तथा दादू साहित्य के विद्वान बृजेन्द्र कुमार सिंघल के अनुसार दादूजी का समय विक्रम संवत् 1601-1660 (सन् 1544-1603 ई.) निश्चित है। संत माखूजनजी उनके गुरू दादूजी के ब्रह्मलीन होने के 15 वर्षों बाद ब्रह्मलीन हुए। संभावना है दोनों गुरू शिष्य का सम्बन्ध विक्रम संवत् 1645 से 1650 के मध्य रहा होगा।


दादूपंथी भक्तमालनुसार, संत दादूदयाल के आम्बेर वास एवं वहां उनके सत्संग की अवधि में एक बार माखूलाल नामक ब्राह्मण उनके सानिध्य में आये और दोनों में भक्ति के विविध आयामों, भावों पर गम्भीर चर्चा हुयी। संत दादूजी के अमूल्य उपदेशों से फिर प्रभावित होकर माखूलाल उनके शिष्य बने। दादूजी ने तब उन्हें गुरू दीक्षा प्रदान कर 'माखूजन' नाम दिया तथा उन्हें हाड़ौती प्रदेश के सुरम्य वन में चम्बल नदी के तट पर बसे 'गंगायचा' ग्राम के एकान्त वातावरण में 'एकात्म स्वरूप ब्रह्मत्तव' की साधना करने एवं जनजन को इससे लाभान्वित करने का आदेश दिया। इस प्रकार माखूजन "शूर ब्रह्म साधक' के रूप में गंगायचा आये तथा जीवन मुक्त हो हाड़ौती की चम्बल धरा को उन्होनें अपनी भक्ति से पुष्पित, पल्लवित किया। कालान्तर में फिर यहीं उनके शिष्यों की माला बनी। संत माखूजन अपने गुरू दादूदयालजी के ब्रह्म उपदेशों से स्वयं पारसरूप हो गये और आजीवन फिर उन्होने जीवन मुक्त गति से गंगायचा में रामरस का पानकर जन-जन को धन्य किया।


गुरू दादू आम्बेर अभेवा, विप्र एक माखू पद सेवा।


ब्रह्म मंत्र गुरू दादू पाया, जीवन मुक्त रामरस गाया।।


गुरू दादू माखूजन चेला, साधक शूर ब्रह्म में खेला।


जीवन मुक्त गंगायच ग्रामा, हाड़ौती चम्बल तट धामा।।


चम्बल नदी के तट पर बसे ग्राम गंगायचा के आश्रम में उन्होंने एकात्म ब्रह्म की उपासना की। उनके जीवन के कुछ रूचिकर प्रसंग भी यहां उल्लेखनीय होगें जो उनकी अद्भुत तप साधना के शीर्ष मूर्तिन है। एक समय संत माखूजनजी के आश्रम के पास बहती चम्बल नदी में उफान आ गया। उस तीव्र उफान ने उनके आश्रम में कई वृक्ष धाराशायी हो गये जो उन्होनें बड़े श्रद्धा भाव से लगाये थे। उदंड चम्बल के उफान ने संत आश्रम की मिट्टी को भी धाराशायी कर दिया। ब्रह्म साधक माखूजनजी को यह देखकर बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने तत्काल गुरू दादूजी का स्मरणकर इस निवारण की प्रार्थना की और फिर देखते-देखते उद्दण्ड चम्बल का जल प्रवाह आश्चर्यजनक रूप से उल्टे भंवर में परिवर्तित हो गया तथा उसी प्रवाह ने आश्रम के धाराशाही वृक्षों को पुनः खड़ा कर उनकी सुरक्षार्थ दूर तक अभेद्य मिट्टी की दीवार बनाकर अपना सामान्य रूप ले लिया। संत माखूजनजी की साधना के समक्ष नतमस्तक हो फिर चम्बल के पैर वहीं मन्थर गति से प्रवाहित होने लगे। इसी क्रम में एक बार एक संत सेवी भक्त का युवा पुत्र अकस्मात् मृत्यु का ग्रास बन बैठा। यह घटना जब उन्हें ज्ञात हुयी तब तत्काल उन्होंने अपनी भक्ति साधना से उस मृत पुत्र को जीवित कर उसकी पुत्रवधू के सुहाग की रक्षा की थी। इस प्रकार की अनेक विश्रुत लीलाओं द्वारा उन्होंने जन-जन के कष्टों को हरा।


संत माखूजनजी विक्रम संवत् 1675 में गंगायचा स्थित आश्रम में ही ब्रह्मलीन हुए। उनकी मूलवाणी आज भी 'अनुभव वाणी श्री' नाम से भक्ति साहित्य के संसार में प्रसिद्ध है। यह वाणी दादूधाम नारायणा में है जो महाग्रन्थ के रूप में है। इसमें पृष्ठ 719-730 में 15 राग पद व 154 साखी सवैय्या, 14 चन्द्रायण जोड व बावनी एक में अंकित है। संत माखूजनजी की परम्परा में उनके प्रमुख शिष्य वेणीदासजी का नाम दादूपंथी परम्परा में विशिष्ठता लिए हुए है। उनके चरण चिह्न भी गंगायचा में संत माखूजनजी के चरणों के निकट ही स्थापित हैं। इन्हें उनके (वेणीदास जी) शिष्य स्वामी गंगादास ने स्थापित किये थे। इस प्रकार संत माखूजन जी के शिष्य-दर-शिष्यों की परम्परा के थांभायती महन्त निम्न प्रकार रहे-माखूजनजी- वेणीदास जी-गंगादास जी-भक्ताराम जी-नारायणदास जी। इनके दो शिष्य दौलतराम जी तथा वैद्य आत्माराम जी थे। आत्माराम जी विक्रम संवत् 1906 में (सन् 1849 ई.) ब्रह्मलीन हुए। उनके शिष्य स्वामी रामप्रसाद दास-राजमहन्त स्वामी किशनदास-राजमहन्त स्वामी राधेश्याम-राजमहन्त स्वामी शांति स्वरूप। ये संत उच्च कोटि के भजनानन्दी व चिकित्सक थे। ये सब गंगायचा में संत माखूजनजी की परम्परा के थांबा महन्त रहे। वर्तमान में इस थांब की परम्परा के राजमहन्त युवा स्वामी रामनिवासजी है। संत माखूजन जी के गंगायचा थांब के अन्तर्गत दादूद्वारों, आश्रमों को सुव्यवस्थित व संचालित करने का श्रेय दादू सम्प्रदायाचार्य के पूर्व पीठाधीश्वर आचार्य हरिरामजी को जाता है। वर्तमान में कोटा में दाद्वारे पाटनपोल व जूनियां में है। संत माखूजनजी की इस यशस्वी शिष्य परम्परा को स्वामी आत्माराम ने अपने 'आत्मप्रकाश' आयुर्वेद ग्रंथ में प्रणालीबद्ध रूप में इस प्रकार लिखा है -


श्री दादू शिष्य, नाम माखू परकासू।


तिनकें परमपुनीत, भये सो वेणीदासू।।


वेणीदास के गंगाराम, भये अनुरागी।


भये गंग के भक्तराम, परिचय बड़भागी।।


भक्तराम के शिष्य, नारायणदास सुजाण।


ताके दौलतराम, संत सो भये प्रमाण।।


तिनके खाना जाद, शिष्य सो आतमरामा।


नागर जूनियां मध्य, बनायो उत्तम ठामा।।


माखूजी की परम्परा के शिष्य स्वामी आत्माराम एक प्रसिद्ध वैद्यराज भी थे अतः बूंदी और कोटा के नरेशों की उनमें अत्यन्त श्रद्धा थी। उन्हेंजो धन मिलता था उसी से वे जन-जन की चिकित्सा भी करते थे। कोटा नरेश ने उनके उत्तराधिकारियों को कोटा के पाटनपोल में एक महल भेंट किया था जो आज 'दादू पंथी आश्रम'(माखूजन थांबा) के नाम से प्रसिद्ध है। संत माखूजन की अनुपम वाणी के कुछेक अंश इस प्रकार है


माखू पारिष गुरू मिल्या, परखरू दीया नांव।


निराकार तन निर्मला, ताकि मैं बलि जांव।।


अनुभवी वाणी, नेह को अंग, 12/14)


सुमिर सनेही आपणां, हरि सौं हेत लगाय।


माखू जब घट विनशि है, तब राम कह्यो नहिं जाय।।


(नेह को अंग, 2)


यह घट काया कुंभ ज्यों, फूटत नाही बार।


माखू विलम्ब न कीजिये, सुमिरो सिरजन हार।।


सुमिरण को अंग)


संत माखूजनजी की प्रशस्ति अनेक अनुवर्ती संतो ने इस प्रकार की है। इनमें भक्तमालकार राघवदास के अनुसार -


दादूजी दीनदयाल के पंथ में, माखूजी मगन्न गगन्न में गाजै।


एकदशा दश दोष मिटावत, और की और मिथ्या गुरू लाजै।।


बोध भये तैं भली बुधि उपजी, यों डर नाम नगारा ज्यों बाजै।


'राधो' रजा भइरामजी की इमि, जाय मर्यो म्रद-ब्रह्मके छाजै।।


सवैया -


एकनि को मन भेषहि रीझत, एकनि को मन गाइबो आयो।


एकनि को मन नारिहु त्यागत, एकनि तो गृह से मन लायो।।


एकनि को मन तीरथ रत्तजु, एकनि के मन में तप भायों।


'माखू' कहै शषि दादुदयाल को, होय दयाल अलेख बतायो।।


पद


हरिगुन गाय मन हरि गुनगाई, अबके यह तन लेखे लाई।


सुमिर सुमिर जनम कर पूरा, आन दिशा छाड़ो सब दूरा।।(1)


जीवित गहिये हरिशरनाई, पीछे जरा पहुंचे आई।।(2)


जन बूझ अबके जनि हारे, यह अवसर नहिं दूजी बारे।।(3)


गुरू प्रसाद मोज भल पाई, 'माखू' हरि गुन रसियो भाई।।(4)


इस प्रकार संत माखूजनजी की वाणी ज्ञान, वैराग्य और शांत रस से पूर्ण तथा सरस है। जो सर्व साधारण मानवों का हित करने वाली है। यद्यपि प्रस्तुत आलेख संत माखूजनजी का परिचय मात्र ही माना जाना चाहिये क्योंकि अभी उनकी सम्पूर्ण रचनाओं में उनकी भक्ति साधना के विविध पक्षों तथा उनके जन्म, स्थान व पारिवारिक परम्परा को जानना शेष है। उनकी, मूल वाणी का संग्रह दादूधाम नारायणा में है। यदि दादूपंथी विद्वान संत माखूजन के साहित्य पर रूचीले तो उन पर वृह्द शोध कार्य सम्भव हो सकता है। प्रस्तुत आलेख दादूपंथी संत नारायणा के कन्हीरामजी दादू के सहयोग से तथा लेखक के स्वयं गंगायचा ग्राम से प्राप्त सामग्री के आधार पर लिखा गया है।