महिला सशक्तिकरण बुलंद हौसलों का सफर

भारतीय संस्कृति में नारी के प्रति यही दृष्टिकोण प्रधान रहा है। जीवन की प्रथम धड़कन नारी कोख से ही जन्मती है। फिर चाहे वह स्त्री की धड़कन हो या पुरुष की। जब नारी अपने कोख में पलने वाले भ्रूण (स्त्री अथवा पुरुष) में कोई पक्षपात नहीं करती तो फिर क्यों आज भी पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को जन्म लेने का अधिकार नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि स्वयं पुरुषों को भी इस दुनियाँ में आने के लिये नारी की कोख ही चाहिये, ऐसे में यदि इसी तरह नारीभ्रूण हत्या होती रही तो पुरुष भी इस संसार में नहीं आ सकता



समाज निर्माण के लिये एक दूसरे के पूरक दो रूप हैं- पुरुष और स्त्री। अलग गुण और अलग स्वभाव वाले दोनों रूपों का मिलन ही मानव सृष्टि का मूलाधार है। जहाँ पुरुष पक्ष कर्मण्यता, कठोरता एवं शौर्य का प्रतीक है वहीं स्त्री पक्ष भाव मृदुलता, सौंदर्य और ममत्व का प्रतीक है। प्रसाद कृत कामायनी में श्रद्धा स्वयं मनु के सामने नारी गुणों का परिचय देती हुई कहती है


दया, माया, ममता लो आज मधुरिमा


लो अगाध विश्वास,


हमारा हृदय रत्ननिधि स्वच्छ, खुला है


आज तुम्हारे पास।


भारतीय संस्कृति में नारी के प्रति यही दृष्टिकोण प्रधान रहा है। जीवन की प्रथम धड़कन नारी कोख से ही जन्मती है। फिर चाहे वह स्त्री की धड़कन हो या पुरुष की। जब नारी अपने कोख में पलने वाले भ्रूण (स्त्री अथवा पुरुष) में कोई पक्षपात नहीं करती तो फिर क्यों आज भी पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को जन्म लेने का अधिकार नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि स्वयं पुरुषों को भी इस दुनियाँ में आने के लिये नारी की कोख ही चाहिये, ऐसे में यदि इसी तरह नारी भ्रूण हत्या होती रही तो पुरुष भी इस संसार में नहीं आ सकता।


आदिकाल में प्रचलित यह धारण आज भी चली आ रही है कि पुत्र से ही वंश आगे बढ़ता है। पुत्र चाहे कुपुत्र की क्यों न हो ऐसा माना जाता है कि मरने के बाद माता-पिता को स्वर्ग वही पहुँचाता है। शायद इसीलिए आज भी अधिकांश परिवारों में पुत्र और कन्या के पालन-पोषण में दोहरा व्यवहार होता है। मध्यकाल की बात छोड़ दें तो हमारे देश में नारी शक्ति लक्ष्मी का रूप मानी गई है। कहा गया है कि “यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमन्ते तत्र देवताः" और "बिन घरनी घर-भूत का डेरा।' अर्थात जिस घर में गृहिणी निवास नहीं करती उस घर में भूतों का डेरा होता है। मध्यकाल में नारी पर बंधन लगाने और उन्हें पर्दे में रखने का मूल कारण तत्कालीन ताबद्वारों की स्त्रियों के प्रति गलत मानसिकता थी। जिसके चलते (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र) भारतीय नारी की अस्मिता को खतरा बना रहता था। हमारे बुजुर्गों के अनुभव और साहित्य में लिखी बातें इस बात का गवाह थी, कि बेटी का डोला जब बाप के घर से उठता था तो सीधा ससुराल न जाकर बीच में ही रूकवा लिया जाता था। उस समय नारी अस्मिता खतरे में थी अतः रात में शादियां होने लगी, इस भय से त्रस्त होकर कई घरों में कन्या के जन्म लेते ही उसे मार दिया जाता था।


यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज जब हम विज्ञान के युग में जी रहे हैं। स्वतंत्र भारत में जी रहे हैं फिर भी नारियों के प्रति घृणित मानसिकता से नहीं उबर सके हैं। स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर विज्ञान की टक्नोलॉजी का गलत फायदा उठाकर बालिका भ्रूण हत्या करवाने से नहीं चूकते। चिकित्सा जगत में भी ऐसे चिकित्सकों की कमी नहीं है जो चंद पैसों के मोह में आकर लिंग परीक्षण को उजागर कर देते हैं। अतः इस घृणित एवं कुत्सित मानसिकता से उबरने के लिये छ: बातें होनी चाहिए


1. संविधान में प्रदत्त समानाधिकार का आदर करना चाहिये


2. हमें खुली मानसिकता का आचरण करना चाहिए।


3. स्वयं स्त्री को ही स्त्री-जनित अधिकारों के लिये सामने आना चाहिये।


4. हर स्त्री को अपने गर्भ में पल रहे बालिका भ्रूण की हत्या करने के लिये कतई तैयार नहीं होना चाहिए।


5. यदि उसके साथ जबदस्ती की जाती है तो इसके लिये वह न्यायालय में जा सकती है।


6. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि चिकित्सा संस्था का ध्येय समाज सेवा होता है। अतः उन्हें हर संभव यह कोशिश करनी चाहिये कि भ्रूण का लिंग क्या है? इसे उजागर न होने दें।


हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिये कि जिस जीव को संसार में आना है उसे कोई नहीं रोक सकता। आखिर भ्रूण हत्या कितनी बार एक बार या दो बार? यदि आप बार-बार भ्रूण हत्या करेगें तो यह ब्रह्म हत्या होगी। विज्ञान के आधार पर कोई भी स्त्री कभी भी कन्या को जन्म देने में जिम्मेदार नहीं होती। इसीलिये जानबूझकर यह पाप क्यों किया जाये। आज की नारी किसी पुरुष से पीछे नहीं है। हमारे प्राचीनत ग्रंथ ऋग्वेद में तीस से भी अधिक महिला मंत्रों का उल्लेख मिलता है। फिर भी हम इस जघन्य पाप से मुक्त नहीं होते हैं। यह भारतीय पुरुष प्रधान समाज की हीन भावना का द्योतक है। एक दोहे में एक सन्त ने नारियों के प्रति अपना सम्मान जताते हुए लिखा है कि


जननी जने तो भक्तजन, के दाता के सूर,


नहीं तो जननी बांझ रहे, व्यर्थ गवावहिं नूर।


ऐसी जननी जिससे हम भगत और शूरवीर जनने की इच्छा रखते हैं यदि उसकी भ्रूण हत्या कर दी जाये तो भारत का भविष्य उज्जवल करने के लिये शूरवीर पैदा कौन करेगा? नारी समाज की आधारशीला थी, है और रहेगी। उन्नति अवनति का इतिहास, समाज की उन्नति अवनित का इतिहास बनता है। नारी के सामाजिक मूल्य से सम्पूर्ण समाज का मूल्यांकन किया जाता है। यह बात सही भी है क्योंकि आज के युग में कोई भी ऐसा सामाजिक पारिवारिक या आर्थिक दायित्व नहीं है जिसे बेटियाँ न निभा रही हों। यहाँ तक कि धार्मिक क्रिया और माँ-बाप के अंतिम संस्कार तक का दायित्व बेटियाँ अपने कंधों पर लेने लगी हैं। इतना ही कुछ समय पहले तक प्रयाग के रसूल घाट पर महाराजिन बुआ नामक महिला श्मशान घाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार संपन्न करवाती थी। राजस्थान के भीलवाड़ा में 72 वर्षीय वृद्धा का संस्कार उसकी बेटियों ने किया। छत्तीसगढ़ में अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि यहाँ की बेटियाँ भी अपने माँ-बाप को कंधा देने में पीछे नहीं रहती। आंध्रप्रदेश में स्थापित बालाजी मंदिर विश्व में विख्यात है। यहाँ पर आने वाले बेशुमार भक्त जुड़ी हुई आस्था के साथ भगवान को अपने बाल अर्पित करते हैं। लंबे समय से महिला नाइयों (मुंडनकर्मी) को बिठाने की बात उठ रही थी। तब कहीं जाकर 31 मार्च 2005 को यह माँग पूरी हुई। उनका बहुत विरोध भी किया गया पर महिला नाइयों ने हार नहीं मानी। राजस्थान जो सदैव से सामंतवादी समाज माना जाता रहा है। जहाँ सती होने वाली महिला-चबूतरे पर सुहाग का सामान चढ़ाकर अपने आपको धन्य मानती थी। वहीं अब 'एकल नारी संगठन' के नेतृत्व में विधवा विवाह को मान्यता देते हुए उन्हें सुहागन का जीवन जीने का अधिकार मिलने लगा है।


मुसलमानों में भी बुरके में दबी नारी ने खुली हवा में सांस लेना शुरू कर दिया है और वे सब काम करने लगी हैं जो जमाने से केवल पुरूष ही किया करते थे। पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के गाँव नंदीग्राम की काजी शबनम आरा ने ऐसा ही करके दिखाया है। तात्पर्य यह है कि नारी दुनिया की आधी नहीं पूरी सच्चाई है।


जब भी महिला सशक्तिकरण की बात चलती है हमें हमारा अतीत याद आ जाता है। क्योंकि अतीत हमारा बुनियादी आधार है। अतीत हमारी सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं का दर्पण है। अतीत में प्रतिबिम्बित होता है कि हम क्या थे? क्या हैं? और क्या होंगे अभी। अतीत महिलाओं की तब की स्थिति का भी गवाह है। भले ही आज हम यह दावा करें कि आज महिलाओं के लिये हर क्षेत्र के दरवाजे खोल दिये गये हैं। इसी के तहत 8 मार्च 2001 को महिला सशक्तिकण वर्ष घोषित कर दिया गया। उसके पहले 1975-85 तक दस वर्षों तक के लिये महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया था। ये तो देर आये दुरुस्त आये की बात हो गई।


इससे यह नहीं मानना चाहिए कि आधुनिक काल प्रथम ऐसा काल है जिसमें महिलाओं की पहली बार प्रगति हुई है। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि अतीत में भी महिलायें पुरूषों की समान धर्मा थी। वैदिक काल में नारी शक्ति को दैवी का प्रतीक मानकर उसमें देवत्व की प्रतिष्ठा की। अदिति को मातृत्व शक्ति का प्रतीक माना। निशा, उषा, इला सरस्वती आदि इन्हें वैदिक देवियों का स्वरूप मिला। मैत्रेयी और गार्गी उस काल की प्रतिष्ठा पूर्ण नारी थीं। यह नारी का स्वर्ण काल था। यह युग भारत के वर्तमान नारी युग की प्रेरणा का अखंड स्त्रोत है।


 हम मध्यकाल की बात करें तो वह काल महिलाओं के लिये अंधकारमय था। जैसे राख में यदि चिंगारी दबी हो तो वह भी राख की गर्माहट के रूप में अपना अस्त्वि जताने में नहीं चूकती। उसी प्रकार मध्यकाल में भी रजिया बेगम, पन्नाधाय, जीजाबाई, सहजोबाई, मीराबाई आदि प्रबुद्ध महिलाओं ने भी प्रतिबंधो के बावजूद अपनी शक्ति का परिचय दियायही कारण है कि आजादी के पहले और आजादी के दौरान जैसे-जैसे उन्हें अवसर मिला, बराबरी से चलते हुए अपना सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक आदि क्षेत्रों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती रहीं। उन्हीं संघर्षों और हौसलों का परिणाम आज की स्थिति का बीजारोपण है।


वर्तमान में इन्हीं हौंसलों का पौधा फल-फूलकर सशक्त पेड़ बन गया हैइसका एक सशक्त कारण हैं कि स्त्रियों को मिलने वाली उच्च शिक्षा/उच्च शिक्षा ने नारी के आँख, कान और सोच समझ के सारे बंद दरवाजे खोल दिये हैं। उन्होनें शिक्षित होकर अपने आपको तराशा है। हर क्षेत्र में अपने आप को सक्षम बनकर दिखा दिया है। फिर भी चुपचाप नहीं बैठी हैं


ऐ हवा हमें भी देना पंख,


कि उड़ान अभी बाकी है,


गर्दन अभी और ऊंची करनी है,


अभी आसमान बाकी हैं। (अज्ञात)


जहाँ-जहाँ उसने पूरे हौंसले से उड़ान भरी, वहाँ-वहाँ मील के पत्थर खड़े किये। फिर चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या सामाजिक विज्ञान का क्षेत्र हो या अध्यात्म का। घर परिवार हो या शिक्षा का। हमारे देश का नवनिर्माण आजादी के साथ हुआ। राष्ट्र निर्माण के विभिन्न स्तरों पर भारतीय नारी का असीम योगदान है। भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने संयुक्तराष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। महाराष्ट्र की राज्पाल और लोकसभा सदस्य रहीं। श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। दुर्गा बाई देशमुख ने महिलाओं के लिए समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना की। पदम्जा नायडू कलकत्ता की राज्यपाल बनीं। मुतुलक्ष्मी रेड्डी ने मद्रास में कैंसर अस्पताल खुलवाया। रूस्तमजी फरीदोण ने भी हर क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया। सौंदर्य प्रसाधन के क्षेत्र में शहनाज हुसैन, साहित्य के क्षेत्र में सुभद्रा कुमारी चैहान, महादेवी वर्मा, मेहरूनिसा परवेज, अमृताप्रीतम, आशापूर्ण देवी, महाश्वेता देवी आदि अनेक प्रबुद्ध महिलाओं ने मील के पत्थर खड़े किये हैं।


कला के क्षेत्र में शबाना आजमी, हेमामालिनी, मीना कुमारी, वहीदा रहमान आदि पुलिस प्रशासन में किरण बेदी, वृक्ष समस्या एवं जल समस्या से जुड़ी मेघा पाटकर, अंतरिक्ष में सुनीता विलियम्स, खेल में पी.टी. उषा, सान्या मिर्जा, प्रशासन में इंदिरा नुई, केरल की फातिमा बीबी दुनिया की दूसरी महिला जज बनी। पद्मा बंदोपाध्याय सेवा के उच्च पद पर आसीन होने वाली पहली महिला, नारी सौंदर्य प्रतियोगिता में सुष्मिता सेन, ऐश्वर्या राय ने अपना परचम लहराया। कान समारोह में भारतीय महिला ऐश्वर्या जज बनी। ऐसी अनेक महिलायें हैं जिन पर ग्रंथ रचे जा सकते हैं।


"फारच्यून आफ फोर्ब्स' नामक अमरीकी पत्रिका में विश्व की दस ताकतवर महिलाओं का सर्वेक्षण किया गया उनमें चार भारतीय महिलाओं के नाम भी हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में मेनका गांधी, आई.सी.आई.सी.आई. की वंदना कोचर, पेप्सी कंपनी की मालकिन किरण शा मजूमदार, जंबो ग्रुप की चेयर पर्सन छाबरिया। शिक्षा का क्षेत्र तो मानो महिलाओं के हाथ में ही आ गया हैं। भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने महिला प्रगति की सर्वोत्तम ऊंचाई को छू लिया है। पंडवानी गायिका तीजनबाई ने अपनी कला से विश्व में अपना स्थान बनाया है। सब्जी बेचने वाली छत्तीसगढ़ की बिन्नीबाई की उदात्त सोच और दान प्रियता ने करोड़पतियों को पीछे छोड़ दिया।


नारी अध्यात्म के क्षेत्र में भी पीछे नहीं है। जिसमें सशक्त उदाहरण हैं। प्रजापिता ब्रम्हकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय का। जिसकी स्थापना से लेकर सम्पूर्ण प्रशासन का कार्यभार महिलाओं के हाथ में हैं। यहाँ की सभी बहने उच्च शिक्षित हैं। जितनी कुशलता, कुशाग्रता से, बुद्धिमत्ता से, शांति से, सदाचरण से, संयत होकर चारों दिशाओं में अपनी आँखे खोलकर आत्मबल से संस्था चला रही हैं। वह काबिले तारीफ है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अपने अध्यात्म को सामयिक परिवेश के साथ जोड़कर चल रही हैं। ईश्वरीय आराधना का परिचय भी इस प्रकार देती हैं जो आज के संदर्भ में सटीक लगे। कहा जाता है कि अध्यात्म और धर्म वहीं है जो समाज को धारण करें। “धारयते इति धर्मा" अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संस्थाओं के माध्यम से ईश्वरीय आराधना से समाज को जोड़ने का काम न केवल सराहनीय हैं बल्कि वंदनीय भी है।


उच्च शिक्षा नारी जगत में शुक्र ग्रह सा प्रकाश लेकर आई। इससे महिलाओं की चेतना विकसित हुई। वे अपने कर्तव्य और अधिकारों से परिचित हुई हैं। उनका आत्म बोध जागा है। आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनी हैं। फिर भी कहीं कुछ खटकता सा है कि आज की आत्मनिर्भर नारी कहीं लक्ष्य से भटक न जाये। नारियों के प्रगति के बढ़ते चरण के साथ-साथ दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। टेलीविजन, पत्र- पत्रिकायें, समाचार पत्रों के माध्यम से पता चलता है कि आज की स्थिति में आधुनिकता, पूंजीवादी व्यवस्था, साईबर कैफे, भूमण्डलीकरण, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आकर्षण, टी.वी. एवं सिनेजगत का बम्बइया ग्लेमर से पैसे कमाने की होड़ ने नारी को प्रतिस्पर्धा के बाजार में बिकने वाली वस्तु के स्तर पर खड़ा कर दिया है। आर्थिक स्वायत्तता को पाने के लिये वह ममता, वात्सल्य और सृष्टि की अधिष्ठात्री शक्ति की छवि को धूमिल कर रही है। मेरा मानना है कि हर नारी में कुछ कर दिखाने की इच्छा शक्ति होना बहुत जरूरी हैं। परंतु जब यही इच्छा शक्ति अति महत्वाकांक्षी बन जाती है तो वह रेत की दीवार का रूप ले लेती है जिसके ढहने में देर नहीं लगती। नारी के जीवन में मान, आत्मसम्मान, मान मयार्दा, लज्जा शील संकोच आभूषण का काम करते हैं। जब नारी इनसे अनावृत्त हो जाती हैं तो नारीत्व को कलंकित होने में देर नहीं लगती। अतः हमें चाहिये कि हम अपनी नारी महिमा को सुरक्षित रखते हुये आगे बढ़ते। आगे बढ़ना हमारा अधिकार है। हममें अपार शक्ति है। इस शक्ति को पाने के लिये हमें घर से बाहर निकलना होगा। डर कर, घर में दुबकने से नारी को कभी कुछ हासिल नहीं हुआ हैं।


देहरी लांघे बिना,


आँगन मिला है किसको?


आँगन लाँधे बिना,


मंजिल मिली है किसको।


(अज्ञात) )


"श्वान निद्रा, वको ध्यानम्' इस स्वभाव के साथ बाहर निकलना होगा। अन्यथा बाहरी तत्व और मीडिया ग्लैमर आपको गुमराह कर सकता है। इसमें दो मत नहीं हैं कि आज की युवा नारी शक्ति इस ग्लैमर के वशीभूत होकर अपना सब कुछ गंवा कर ही समझ पाती है। मगर तब तक बहुत देर हो जाती है। खुलापन, बेबाकीपन, एंडवांस होना, आधुनिक कहलाना, लिंग भेद को दर किनार करना आदि ये सीमित दायरे तक ही उचित होते हैं। इनका सीमालाधन सीता जी को भी माफ नहीं करता। द्रौपदी द्वारा कौरवों पर किया गया व्यंग्य बाण नारी अस्मिता की धज्जियाँ उड़ाने वाली शर्मनाक घटना का जनक बन जाता है। अंत में मेरा यही कहना कि आज की अधिकांश नारियाँ, युवतियाँ, पढ़ी लिखी एवं उच्च शिक्षित हैं। उन्हें किसी सलाहकार की या रहम करने वाले की जरूरत नहीं है। वे इस दिशा में घटने वाली दुर्घटनाओं को स्वयं देख सुन रही हैं। अतः उन्हें स्वयं अपने मनोबल को मजबूत करके इस दिशा में सोचना होगा।


आरजू है जिस मुकम्मल राह की,


उसे तो एक दिन पा ही लेंगे हम।


रिश्तों को रेत की दीवारों की तरह,


बिखरा कर जो पाया तो क्या पाया।


(अज्ञात)