नव सृजन और आत्मबोध का महापर्व दीपावली

हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार दीपावली अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष के 13वें चन्द्र (जो अंधेरे पखवाड़े के रूप में जाना जाता है) पर मनाया जाता है। धनवन्तरी त्रयोदशी दीपावली पूजन के दो दिन पूर्व कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। यह दिन भगवान धनवन्तरी (आयुर्वेद के पिता व गुरु) के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। धनवन्तरी देवताओं के चिकित्सक हैं और विष्णु के अवतारों में से एक माने जाते हैं।



ऐतिहासिक रूप से दीपावली का पर्व भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है, जब लोग इसे मुख्य फसल के त्यौहार के रूप में मनाते थे। यद्यपि कुछ लोग इस त्यौहार को इसलिए मनाते हैं कि इस दिन देवी लक्ष्मी का विवाह भगवान विष्णु के साथ हुआ था। बंगाली इस त्यौहार को माता काली की पूजा करके मनाते हैं। हिन्दू इस शुभ त्यौहार को बुद्धिमता के देवता गणेश और महादेवी लक्ष्मी की पूजा करके मनाते है।


हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन देवी लक्ष्मी देवताओं और दानवों द्वारा लम्बे समय तक सागर मंथन के बाद दुग्ध के महासागर से बाहर आयी थीं और फिर ब्रह्माण्ड में मानवता के उद्धार के लिए धन और समृद्धि प्रदान करने हेतु लोगों ने देवी लक्ष्मी की पूजा की।


दीपावली दीपों के द्वारा आत्मबोध व नव सृजन का त्यौहार है, जो शरद ऋतु में हर वर्ष मनाया जाता है। दीपावली भारत के सबसे विराट और समृद्धिशाली त्यौहारों में से एक है। यह त्यौहार आध्यात्मिक रूप से अंधकार पर प्रकाश की विजय को दर्शाता है। भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्व है, इसलिए इसे 'दीपोत्सव' कहते हैं। यह महापर्व एक ऐसी ज्योति की ओर जाने का बोध कराता है, जहां सत्य का आत्म बोध होता है। 'तमसोमांज्योतिर्गमय'। अर्थात् अंधेरे से ज्योति अर्थात् प्रकाश की ओर आइए। यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध, जैन धर्म के अनुयायी भी मानते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मानते हैं तथा सिख समुदाय इसे 'बंदीछोड़ दिवस' के रूप में मान लेता है।


दीपावली का त्यौहार हर वर्ष नव उल्लास के साथ आता है। यह एक मात्र ऐसा त्यौहार है, जिसमें एक साथ पांच पर्व जुड़े हुए हैं। हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार दीपावली अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष के 13वें चन्द्र (जो अंधेरे पखवाड़े के रूप में जाना जाता है) पर मनाया जाता है। धनवन्तरी त्रयोदशी दीपावली पूजन के दो दिन पूर्व कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। यह दिन भगवान धनवन्तरी (आयुर्वेद के पिता व गुरु) के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। धनवन्तरी देवताओं के चिकित्सक है और विष्णु के अवतारों में से एक माने जाते हैं।


पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के समय धनवन्तरी इसी दिन अमृत-पात्र लेकर प्रकट हुए थे। इसलिए जो लोग आयुर्वेद और देवाओं का अभ्यास करते हैं, उनके लिए धनवन्तरी त्रयोदशी का दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इस दिन भगवान धनवन्तरी के साथ राजस्थान में आयुर्वेद डिग्री की पूजा गुड़ तथा मीठे चावल के साथ की जाती है एवं उनसे अच्छे स्वास्थ्य तथा समृद्धि की प्रार्थना की जाती है।


राजस्थान में इस दिन का आरम्भ प्रातः जल्दी ही पीली मिट्टी को घर में लाकर किया जाता है। जहां से इस मिट्टी को लाते है, वहां की पूजा की जाती है। फिर इसे धन का स्वरूप मानकर घर में रखा जाता है। मान्यता है कि इस मिट्टी से दीपक भी बनाये जाते थे। यह दिन धन और समृद्धि का महत्वपूर्ण दिन मानते हैं। देवकुबेर जिन्हें धन सम्पत्ति का कोषाध्यक्ष माना जाता है एवं लक्ष्मी, जिन्हें धनसम्पत्ति की देवी माना जाता है, की पूजा एक साथ की जाती है। लक्ष्मी को इसलिए 'कुबेरप्रिया' भी कहा जाता है।


धनतेरस से ही दीपावली के दीप प्रज्जवलित किए जाते हैं। दीपक दीपावली के दूसरे दिन तक प्रज्जवलित किये जाते है। रूप चतुर्दशी 14वें दिन होती है, जब भगवान कृष्ण ने नरकासुरका वध किया था। यह बुराई की सत्ता या अंधकार पर अच्छाई या प्रकाश की विजय के संकेत के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लोग प्रातः जल्दी उठते हैं और उबटन द्वारा तथा खुशबूदार सुगन्ध व गहनों द्वारा शृंगार पूर्वक नवीन वस्त्र धारण कर तैयार होते हैं। यह दैहिक रूप सौंदर्य को उभारने का भी दिवस है, अतः स्त्रियां परम्परागत शृंगार करती हैं और अपने घरों के आसपास दीपक प्रज्जवलित करती हैं तथा देहरी के बाहर रंगोली बनाती हैं।


यह उत्तर भारत में गोवर्धन पूजा (अन्नकूट) के रूप में मनाया जाता है। भगवान कृष्ण द्वारा इन्द्र के गर्व को पराजित करके लगातार वर्षा और बाढ़ से लोगों और पशुधन के जीवन की रक्षा करके महत्व के रूप में लोग बड़ी मात्रा में भोजन की सजावट तथा पूजा करते हैं। यह दिवस कुछ स्थानों पर बलिदान वेन्द्र पर भगवान विष्णु (वामन) की विजय मनाने के लिए भी बली प्रतिपदा के रूप में मनाया जाता है। कुछ स्थानों जैसे महाराष्ट्र में यह दिन 'पड़वा' या 'नवधानदिवस' के रूप में भी मनाया जाता है। राजस्थान में महिलाएं सुबह गोबर से गोवर्धन जी को घर के बाहर बनाकर उसका पूजन करती हैं। उसके बाद गीत गाते हुए अपने-अपने घरों में जाकर सभी को प्रणाम करती हैं।


भाईदूज भाईयों और बहनों का त्यौहार है, जो एक-दूसरे के लिए अपने अमिट स्नेह का प्रतीक है। इसे प्रसन्नतापूर्वक मनाने के महत्व के पीछे यम और अपनी बहन यमी की कहानी है। इसदिन यम अपनी बहन यमी से मिलने आये थे और उनकी बहन द्वारा उनकी आरती के साथ स्वागत हुआ तथा उन्होंने साथ में भोजन भी किया और अपनी बहन को उपहार भी दिया।


दीपावली के दिन लक्ष्मी और गणेश की पूजा एक साथ होती है। पूजा के बाद सब अपने घर की समृद्धि और उत्कर्ष का स्वागत करने के लिए पथों और आवासों पर मिट्टी के दीये जलाते हैं। दीपावली के दूसरे दिन दरिद्रता को घर से निकालने के लिए घर की महिलाएं प्रातः जल्दी उठकर घर के मुख्य द्वार के पास तथा पूरे घर में कचरा निकालकर एवं सूप में उलालकर बाहर करती हैं और सूप पीछते हुए यह लोक गीत गाती हैं।


काने मे डेदरिद्रतू, घर सेजा अबमाण।


तेरो यहां कुछ काम नहीं, वास लक्ष्मी आन।।


नहीं आगे डण्डा पड़े, और पड़ेगी मार।


लक्ष्मीजी बसती जहां, गले न तेरीदार।।


फिरतू आवेजो यहां, होवे तेरीहार।


इज्जत तेरी नहीं करें, झाडू से देंमार।।


इस प्रकार दीपावली एक महोत्सव की भांति है, जिसमें जीवन के कई आयाम पिरोएं हुए है। दीपावली के पूर्व भी कई उत्सव आते हैं और दीपावली के बाद भी आते हैं, परन्तु यह महापर्व समृद्धि, सम्पन्नता तथा नवउल्लास के साथ स्वास्थ्य व विवेक को विकसित करने का महापर्व है। इसदिन शुभ-लाभ की कामना की जाती है। यह पर्व सामूहिकता का संदेश देता है। दीपों की कतारें घर के चहुं और सजायी जाती हैं। विशेषतः द्वारों पर आंगन में लक्ष्मी का स्वागत रंगोली बनाकर, घर-दरवाजों को सजाकर, दीपों को प्रज्ज्वलित किया जाता है। यह पर्व मानव में नवसृजन और आत्म सेतु तथा समर सता का ऐसा संदेश देता है, जिसकी आज पगपग पर सम्पूर्ण विश्व तथा मानव जाति को आवश्यकता है